Friday, December 30, 2011

छोटी-छोटी रेखाओं ने बदल दी परंपरा!

♦ अनुपमा

झारखंड की राजधानी रांची से निकलकर पुरुलिया जाने के रास्ते में झालदा ब्लॉक पड़ता है। झारखंड से बिलकुल सटा हुआ। जिला है पुरुलिया। इसी ब्लॉक में एक सुदूरवर्ती गांव है बोड़ारोला। पुरुलिया जिले के अन्य गांवों की तरह ही यह गांव भी है। घोर गरीबी, अशिक्षा की जकड़नवाला गांव। बीड़ी मजदूरों का गांव।

इसी गांव में मुलाकात हुई थी रेखा कालिंदी से। 14 साल की रेखा कालिंदी समुदाय से आती है। दो साल पहले रेखा ने उस गांव में क्रांति का जो बीज बोया, आज उसकी फसल उस पूरे निर्जन इलाके में काटी जा रही है। हुआ यह था कि रेखा की शादी उसके निर्धन पिता ने 12 साल की उम्र में ही तय करने को सोची। इसकी भनक रेखा को भी लगी। 12 साल की रेखा सामने आ गयी और बोली ऐसा नहीं हो सकता। अभी वह शादी नहीं करेगी। कालिंदी समुदाय की परंपरा के खिलाफ उठाया गया यह कदम था। रेखा को डांट फटकार मिली लेकिन वह नहीं मानी। उसने न कह दिया, तो उसका मतलब न ही हुआ। रेखा की घरवाले तो फिर भी जबरिया उसकी शादी करने पर तुले ही हुए थे लेकिन उसने मोबाइल फोन से पुरुलिया के लेबर कमिश्नर तक यह बात पहुंचा दी और फिर उसकी शादी रुक गयी।

रेखा को देखते ही यह सवाल जेहन में उठा कि क्या होता यदि रेखा की शादी हो ही गयी होती! आखिर उस समुदाय मे और इलाके में पीढ़ियों से ऐसा ही होता रहा है। रेखा की बड़ी बहन की शादी भी तो उसी उम्र में हो गयी थी। तीन साल में उसने चार बच्चों को भी जन्म दे दिया था लेकिन एक भी बच्चे को बचा नहीं सकी थी। रेखा कहती हैं, अपनी दीदी को देखकर ही तो मैं सिहर गयी थी और तय भी कर चुकी थी कि मेरी बारी आएगी तो ऐसा नहीं होने दूंगी। सबसे गौर करनेवाली बात यह है कि ऐसा रेखा ने सिर्फ अपने साथ नहीं किया। अपने साथ हमेशा परछाईं की तरह रहनेवाली चचेरी बहन बुधुमनी की शादी भी रेखा ने रुकवायी और फिर उसके बाद एक-एक कर अपने ही घर-परिवार की 21 लड़कियों की शादी 18 की उम्र के बाद ही करवाने के लिए रेखा ने सबको मानसिक तौर पर तैयार किया। साथ ही यह शादी रोको अभियान को पढ़ाई से भी जोड़ा। रेखा के घर की सभी लड़कियां, जो दिन भर घर में बीड़ी बनाने के कारोबार में लगी रहती थीं या वही करना उनकी नियति थी, वे स्कूल जाने लगीं और रेखा के यहां के लड़कियों की नियति यह नहीं रही कि जो जितनी तेजी से बीड़ी बनाएगा, उसकी शादी उतनी ही अच्छी होगी और उतनी ही जल्दी भी।

रेखा के इस अभियान की धमक घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर गांव के पुष्पा, सोना जैसी कई लड़कियों को प्रभाव में ले चुकी तो फिर बीड़ी छोड़ो, शादी तोड़ो अभियान का असर आसपास के गांवों में भी तेजी से होने लगा। बोड़ारोला के पास ही कुम्हारपाड़ा, कर्मकार पाड़ा के बाद झालदा, कोटशिला से पुरुलिया तक इस अभियान का क्रमशः असर हुआ। बहुत बड़े स्तर पर न सही तो बहुत छोटा दायरा भी नहीं रहा। दायरा इस मायने में भी बड़ा रहा कि इससे बीड़ी को ही जिंदगी की कसौटी मान लेने का मिथ टूटा, लड़कियों का पढ़ाई से वास्ता जुड़ा और अब कई घर में कई ऐसी लड़कियां मिलती हैं, जो स्कूल के वक्त स्कूल जरूर जाती हैं। अच्छी शादी के लिए बीड़ी पर दिन-रात हाथ नहीं फेरतीं। असर का एक नमूना तो रेखा कालिंदी के घर काफी देर बैठने के बाद विदा लेते हुए साफ दिखा।

विदा होते समय रेखा कहती है, दीदी, मैं टीचर बनना चाहती हूं। फिर धीरे से शरमाती हुई बुधनी भी दोहराती है, दीदी मैं भी टीचर ही बनना चाहती हूं। फिर एक के बाद एक पुष्पा, सोना आदि की तेज आवाज आती है, मैं भी, मैं भी…

बीड़ी के साथ जिंदगी गुजारने की नियति के साथ पैदा हुई बोड़ारोला की कई लड़कियां टीचर बनना चाहती हैं। रेखा कालिंदी के पिता कहते हैं, हम भी कोई शौक से थोड़े ही बचपन में ब्याहते थे इन्‍हें या बीड़ी में लगा देते थे, हमारी भी मजबूरी समझिए … लेकिन अब रेखा ने जो रेखा खींची है, वही हमारे परिवार की नयी परंपरा होगी।

साल भर का इंतजार, महीने भर का काम, कौड़ियों के भाव

♦ अनुपमा

नया साल जश्‍न का माहौल लेकर आता है। नये सिरे से अपनी प्राथमिकताओं को तय करने का अवसर भी होता है यह। बीड़ी पत्ता मजदूरों के लिए भी यह अवसर एक खास किस्म की खुशी का भाव लेकर आता है। उम्मीदों की लहर पर सवार होकर आता है। यह खुशी किसी जश्‍न के माहौल से नहीं उपजता बल्कि हर साल नये वर्ष के आगमन पर हजारों बीड़ी मजदूरों के मन में कुछ दिनों के काम की आस जगती है। उसी कुछ दिन पर उनके परिवार का पूरा साल गुजर-बसर करता है।

यह वह समय होता है, जब सरकार की ओर से केंदु पत्ता के जंगलों की नीलामी होती है। वन विभाग की ओर से नीलामी की प्रक्रिया शुरू होते ही आस-पास की महिलाएं अपने काम के लिए नाम लिखवाने पहुंचने लगती हैं। नीलामी होने के बाद ठेकेदार 25 फीसदी रकम वन विभाग को दे देते हैं और जंगलों की साफ-तराशी करवाते हैं। ऐसा पेड़ों में ज्यादा नयी पत्तियां निकलवाने के लिए किया जाता है। साफ तराशी के लगभग चार महीने बाद महिला मजदूरों का काम शुरू होता है। केंदू पत्ता को तोड़ना शुरू किया जाता है। नये साल की सौगात पर उम्मीद व टकटकी लगाये बैठी हजारों महिलाओं को एक महीने का रोजगार मिल जाता है।

महिलाएं सबसे ज्यादा खपती हैं, वैसे सहभागिता पूरे परिवार की होती है। यह संख्या कोई मामूली नहीं। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो राज्य में लगभग 70,000 लोग केंदू पत्ता तोड़ने का काम करते हैं। यह सरकारी आंकड़ा है, अगर सही मायने में देखें तो यह संख्या लाख को भी पार कर जाता है।

यह तो मोटे तौर पर काम मिलने और उसकी प्रारंभिक प्रक्रिया की बात हुई लेकिन इतना हो जाने के बाद ही बीड़ी मजदूरों की दशा-दुर्दशा की कहानी शुरू होती है। बानगी के तौर पर देखें, तो वन विभाग मजदूरों के कल्याण के नाम पर हर परिवार को एक जोड़ी चप्पल और स्वास्थ्य बीमा कराये जाने की बात कहता है लेकिन कुछ लोगों को छोड़ दें तो शायद ही यह सुविधा किसी परिवार को मयस्सर हुई हो। यूं भी परिवार पर एक जोड़ी चप्पल का गणित समझ से परे की बात है।

अब मेहनताना में शोषण कथा की बानगी पर गौर करें। प्रति 50, 000 पत्तियों को तोड़ने, सुखाने और फिर उसे फांड़ी में पहुंचाने की कीमत मात्र 90 रुपये है। दिनभर कड़ी धूप में मेहनत करके पत्तियों को तोड़ने के बाद महिलाएं उसे अपने 50-50 पत्तियों का एक पोला बनाती हैं और उसे या तो जंगल की पहाड़ियों पर या फिर घर के पास के मैदान में सुखाने के लिए छोड़ देती हैं। सुखाने के बाद वे सरकार की ओर से बने संग्रह केंद्र यानि फांड़ी तक सर पर ढोकर लाती हैं। सरकार इस घोषणा और योजना को उपलब्धियों के तौर पर बताती हैं लेकिन इस प्रक्रिया में महिला मजदूरों की दुर्दशा देखकर रोना आएगा। ये महिलाएं सुदूर जंगलों में 10-15 किलोमीटर की यात्रा कर पत्तियां तोड़ने का काम करती हैं। जाहिर सी बात है, यह काम शौकिया तौर पर नहीं होता बल्कि कर्ज में डूबे हुए परिवार मजबूरी में इस कदर कमरतोड़ मेहनत करते हैं। ऐसा करने के क्रम में अधिकतर महिलाओं का शरीर बीमारियों का घर हो जाता है। कई बार तो गर्भपात तक हो जाने की शिकायत मिलती है। कभी पत्तियों के रसायन की वजह से तो कभी जंगलों के खतरनाक व दुर्गम रास्तों की वजह से। पत्तियों का काम खत्म होने के बाद महिलाएं बैग या बोरी में पत्तियों को बांधने का काम करती हैं। एक मानक बोरे में लगभग 50 हजार पत्तियां होती हैं। पोला के हिसाब से देखें तो यह संख्या एक हजार की होती है। फिर इन बैगों का गट्ठा बनाया जाता है।

ऐसी ही दुरूह प्रक्रिया के बाद बीड़ी बनाने का कच्चा माल तैयार हो पाता है। इसके बारे में जब वन विभाग के प्रबंध निदेशक बी आर रल्लन से बात होती है, तो वे कहते हैं कि हमारा विभाग ही राज्य में ऐसा है, जो खनन के बाद सबसे ज्यादा राजस्व लाभ पहुंचाता है। हम अगले वर्ष से मजदूरों के लिए तीन तरह की सुविधाएं देने जा रहे हैं। वे कहते हैं इन लोगों के स्वास्थ्य का ख्याल रखते हुए ही हम लोग स्वास्थ्य कैंप भी लगाते हैं लेकिन कैंप तक महिलाएं कम ही पहुंचती हैं, इसलिए इस काम में लगी महिलाओं को लाभ नहीं मिल पाता।

स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ रिचा बताती हैं कि इस काम में जुड़ी महिलाओं का स्वास्थ्य खराब होना और उससे गर्भपात होना सामान्य-सी बात है। वन विभाग के अधिकारी राजस्व में नंबर दो होने को उपलब्धि के तौर पर बताते हैं लेकिन जिनके दम पर यह राजस्व का खेल होता है, वह आहिस्ते-आहिस्ते अपनी मौत मर रहे हैं। ठेका लेनेवालों की स्थिति भी कम भयावह नहीं है। वे लोग अपना ही दुखड़ा रोते नजर आये। चाईबासा और गो़ड्डा समेत कई जिलों में बीड़ी पत्ते का ठेका लेनेवाले ज्ञानेश्वर पांडे बताते हैं कि सरकार और माओवादियों के कारण सिर्फ पुराने खिलाड़ी ही इस व्यवसाय में टिक पाते हैं। सरकार ने इस वर्ष प्रति मानक बोरा 650 रुपये तय किया है। इसमें से 90 रुपये बीड़ी पत्ता तोड़ने वालों को फिर लोडिंग करनेवालों को और उसके बाद माओवादियों को। हर बोरे के हिसाब से माओवादियों को कम से कम 70 रुपये तो देने ही पड़ते हैं। इसके अलावा दूसरी तरह की वसूली भी वे करते हैं। लेवी का एक बड़ा हिस्सा माओवादियों का इसी से जाता है। कई बार तो माओवादी कारोबार का एक बड़ा हिस्सा लेवी के नाम पर वसूल लेते हैं। इस बात की पुष्टि बीबीसी के डेनियल लेक भी करते हैं।

एक शोध के अनुसार वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों को लगभग 40 फीसदी लेवी इसी से आता है। सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार गोकुल बसंत कहते हैं कि झारखंड में 40 फीसदी तो नहीं लेकिन कुल कारोबार का 15 से 20 फीसदी माओवादियों की ही जेब में जाता है। चूंकि केंदू पत्ता का व्यवसाय जंगलों से जुड़ा हुआ है और बिना उनकी अनुमति के वहां से एक पत्ता भी नहीं टूट सकता है, इसलिए माओवादी अपनी मनमर्जी करते हैं। यदि सरकारी आंकड़ों को ही सच मान लें तो इस वर्ष 56 करोड़ से ज्यादा का व्यवसाय हुआ है। यदि इसका बीस फीसदी भी माओवादियों की जेब में गया है तो यह आंकड़ा 11 करोड़ को पार कर जाता है। ज्ञानेश्वर बताते हैं कि माओवादियों की सहमति के बिना एक पत्ता भी नहीं टूट सकता। यदि कोई नया व्यवसायी इस क्षेत्र में आता है तो उसे सिर्फ घाटा ही मिलेगा क्योंकि उनसे कई संगठन पैसे की वसूली करने लगते हैं।

वे बताते हैं कि कि 1988-89 में जिन लोगों ने इसका व्यवसाय किया, वे फायदे में रहे। उस समय इसे आप हरा सोना कह सकते थे। लेकिन धीरे-धीरे पत्तियां और जंगल कम होने लगे और पत्तियों का दाम बढ़ने लगा। वसूली के लिए ही माओवादियों के नाम पर कई संगठन खड़े हो गये हैं। स्थानीय निवासी महेंद्र और उप प्रबंधक मनीष भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि माओवादियों के खौफ से यह सब कम हो रहा है। दबी जुबान से वे बताते हैं कि हम तो नीलामी करके निश्चिंत हो जाते हैं पर ठेकेदारों को झेलना पड़ता है। वे खुल कर तो बहुत नहीं बोलते लेकिन इशारों में ही इस बात को बताते हैं कि जंगल, ठेकेदार माओवादी, केंदू पत्ता और लेवी सबकी परस्पर निर्भरता है।

बेटी- रोटी- जीवन की गाड़ी, सब चलती बीड़ी से…

♦ अनुपमा
बीड़ी का सामूहिक निर्माण होते हुए तो कई जगहों पर दिखा लेकिन यह एक नये किस्म का अनुभव था। पाकुड़ से राजमहल जाने के क्रम में बीच में मिले एक मंदिर में बहुत सारे लोग एक साथ बैठे हुए हैं। सूप में तंबाकू और बगल में तेंदू पत्ता। दनादन हाथ चल रहे हैं, बीड़ी बनती जा रही है और इस समूह के बीच में बैठा एक आदमी बांग्ला में कुछ संगीतमय पाठ कर रहा है। पूछने पर पता चलता है कि समूह के बीच में बैठा हुआ आदमी परवचनिया है, जो बांग्ला रामायण का पाठ कर रहा है। यहां ऐसा हर रोज होता है। जिनकी गप्पें लड़ाने की उम्र ढल गयी है, उनकी ढलती उम्र के साथ जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश ज्यादा हो गया है, वे रोज सबेरे नहा धोकर मंदिर में अपने-अपने तेंदू पत्ता और तंबाकू लिये पहुंचते हैं। साथ ही कुछ कम उम्र लड़कियां भी पहुंचती हैं। परवचनिया बाबा भी आते हैं। फिर दिन भर प्रवचन चलता रहता है और उसी रफ्तार से बीड़ी का निर्माण भी होता रहता है। शाम को प्रवचन के एवज में बाबा को थोड़ी-बहुत दान-दक्षिणा मिल जाती है।
बेटी-रोटी के साथ जीवन के आध्यात्मिक पक्ष से भी बीड़ी का यह जुड़ाव झारखंड़ से सटे पुरुलिया जिले के कई इलाके में देखा जा सकता है। घर में महिलाएं दिन भर अकेले या अपनी हम उम्र महिलाओं के साथ बीड़ी बनाती हैं। बेटियां अपनी सहेलियों के साथ झुंड में बैठकर बीड़ी बनाने का काम करती हैं और लड़के केंदू पत्ता और तंबाकू का जुगाड़ करने में लगे रहते हैं। लड़कियों के बीच तो बीड़ी बनाओ प्रतियोगिता भी होती है, कि कौन कितनी तेजी में कितनी बीड़ी बना पाता है। जो जितनी तेजी से बीड़ी बना सकेगी, उसे जिंदगी में उतनी ही कम कठिनाई होगी। तेज हाथ चलने से अच्छे घर में शादी होगी। ससुराल में मान-सम्मान मिलेगा।
झारखंड और बंगाल के सीमावर्ती इलाके के अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र को इसी बीड़ी के जरिये समझा जा सकता है। बंगाल से ही सटे दूसरे जिले पाकुड़ में जाने पर आध्यात्मिकता की जगह यहां बीड़ी के कारोबार से अपराधशास्त्र का रिश्ता भी जुड़ जाता है। पाकुड़ को झारखंड में बीड़ी उद्योग का गढ़ माना जाता है। इस जिले में छह लाइसेंसी फैक्ट्रियां हैं लेकिन इन छह लाइसेंसी फैक्ट्रियों की आड़ में उससे करीब दो गुना फैक्ट्रियां बगैर किसी लाइसेंस के ही चलायी जाती है। एक अनुमान के मुताबिक करीबन 30 करोड़ रुपये का कारोबार प्रतिमाह इन फैक्ट्रियों से होता है। पाकुड़ के एक उद्योगपति बताते हैं कि लाइसेंसी उद्योग से कम से कम दो लाख बीडियां सिर्फ पाकुड़ से ही प्रतिदिन वैध रूप में कम से कम 2 लाख बीड़ियां सप्लाई की जाती हैं जबकि गैर लाउसेंसी फैक्ट्रियों से भी टीपी-3 फार्म भरकर वैध रूप से ही एक से डेढ़ लाख बीड़ियां रोज ही बाहर भेजी जाती हैं। इसके अलावा अवैध रूप से भी बीड़ियां बाहर जाती हैं। बगल में बंगाल है, तो वहां तो माल आसानी से जाता ही है लेकिन सबसे ज्यादा खपत आगरा, दिल्ली और आंध्रप्रदेश में है। लेकिन यह सब कंपनियों के कारोबार का हिसाब-किताब है। जो बीड़ी के साथ ही सोते-जागते हैं, उन्हें इस अर्थशास्त्र से ज्यादा मतलब नहीं। उन्हें तो सिर्फ जिलालत का जीवन ही नसीब ही होता है।
पाकुड़ में लगभग 60 प्रतिशत महिलाएं बीड़ी निर्माण में लगी हुई हैं। पिछड़े और अल्पसंख्यक बहुल इलाके में तो करीबन शत-प्रतिशत घर का चूल्हा ही बीड़ी की कमाई से जलता है। कंपनियों के लिए यह इलाका क्यों इस कदर पसंद का है, इसे समझने के लिए बीड़ी की मजदूरी को समझना होगा। कंपनियों द्वारा मजदूरों के घर खास कर महिला़ओं के पास कच्ची सामग्री पहुंचा दी जाती है और फिर प्रति हजार बीड़ी निर्माण पर 55 रुपये की मजदूरी दी जाती है। सरकार के श्रम विभाग ने प्रति हजार बीड़ी लगभग 89.50 रुपये तय की है लेकिन श्रम विभाग का आदेश कागज में अपनी जगह रहता है। पाकुड़ में बीड़ी मजदूरों पर काम करनेवाले पत्रकार कृपा सिंधु बच्चन की मानें, तो बाकी राशि मजदूर यूनियनों के सौजन्य से कुछ लोगों की जेब में जाती है। सबका हिस्सा यहां तय कर दिया गया है। अब यदि बीड़ी बनाने की रफ्तार को देखें तो लगातार आठ घंटे तक हाथ फेरते रहने पर एक हजार बीड़ी का निर्माण हो पाता है। यदि कोई दिन-रात बीड़ी-बीड़ी करता रहता है तो बमुश्किल 110 रुपये कमाई हो पाती है। बीड़ी बीमारियों को भी जन्म देता है, मजदूरों की जिंदगी को अकाल निगलता रहता है, फिर भी बीड़ी से ही जुड़े रहना यहां के मजदूरों की मजबूरी भी है। सबसे बड़ा कारण है रोजगार के लिए विकल्पों का अभाव। सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन यहां जमीन की बजाय कागज पर ही ज्यादा होता है। यही वजह है कि मनरेगा जैसी योजनाएं भी यहां लोगों में काम के प्रति ललक नहीं पैदा कर पाती हैं। इसकी बानगी आप मनरेगा में कार्यरत लोगों की संख्या से भी लगा सकते हैं। अगस्त माह का आकलन करें तो 16 तारीख तक मनरेगा में काम करनेवालों की संख्या 1007 है। जबकि जिले में काम करनेवालों के नाम जो पंजीकृत हैं उनकी संख्या 1,65,311 हैं। मनरेगा में काम न करने के बारे में पूछने पर शबाना बताती हैं कि एक बार काम करने जायेंगे तो बीड़ी का काम भी छूट जायेगा। भले ही इसमें काम के एवज में पैसे कम मिलते हैं लेकिन समय से पैसे तो मिल जाते है नं। मनरेगा में हर दिन का न तो पैसा मिलता है और न ही कभी समय पर भुगतान ही होता है। काम मांगने पर भी काम नहीं मिल पाता। दूसरी बात ये कि हर परिवार से सिर्फ एक ही व्यक्ति को काम मिलता है जबकि हमारी जरूरतें कहीं ज्यादा हैं और इसके लिए घर के हर सदस्य को काम करना पड़ता है। मजदूर यूनियन के नेता कृष्णकांतमंडल, माणिक दूबे, मोहम्मद इकबाल भी इस मसले को कारगर ढंग से नहीं उठाते हैं कि बीड़ी मजदूरों को नब्बे रुपये प्रति हजार की मजदूरी दी जाए।
इस बारे में वहां के ग्रामीण बताते हैं कि फैक्ट्री के मालिक उन्हें कमीशन देते हैं इसलिए वे हमारी बात को दमदार तरीके से नहीं रखते। लेकिन मजदूर यूनियन के नेताओं का कहना है कि बीड़ी उद्योग में चूंकि दंबगई और राजनीतिज्ञों की सांठ-गांठ है इसलिए हमारी बात वे नहीं सुनते। बात चाहे जो भी हो लेकिन पाकुड़ के इलामी, लखनपुर, कालीबाड़ी, इसमत कदमसार जैसे गांवों की महिलाओं और बीड़ी मजदूरों की बदहाली की सुधि कोई नहीं लेनेवाला और जब तक उन्हें उनका हक नहीं मिलेगा वे गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पायेंगे-बीड़ी के बड़े कारोबारी चाहते भी हैं कि यह चक्रव्यूह बना रहे ताकि कौड़ी के मोल मजदूर मिलते रहें।

होश की दुनिया का तमाशा

♦ अनुपमा

पिछले महीने निरमलिया की मौत हो गयी। भूखे-प्याासे आखिर कब तक वह मेहनत करती रहती? चिलचिलाती धूप में जंगल से लकड़ी काटना और फिर उसे बाज़ार में बेचना, उसकी दिनचर्या थी। इतनी कड़ी मेहनत के बाद भी निरमलिया अपने अर्धविक्षिउप्तम पति और पांच बच्चों का पेट कहां भर पाती थी। वह परिवार के अन्य सदस्योंे को तो कुछ खिला भी देती थी, पर खुद कई-कई दिनों तक भूखे रह जाती थी। आखिर यह सिलसिला कितने दिन चल सकता था… निरमलिया पलामू जिले के छतरपुर ब्लॉ क के सुशीगंज की रहनेवाली थी। दुर्भाग्यस यह है कि उसकी मौत, पलामू में भूख से हुई मौतों की फेहरिस्तर में भी शामिल नहीं हो पायी। क्यों कि ऐसा करते ही प्रसाशन के क्रिया-कलापों पर प्रश्न चिह्न लग जाता। जब हमने यह जानने की कोशिश की कि आखिर उसकी मौत कसे हुई है, तो ग्रामीणों ने बताया कि वह भूख से मरी है। उसके घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। परंतु उपायुक्त् डॉ अमिताभ कॉशल ने बताया कि मामले की जांच करायी गयी है और बीडीओ वहां गये थे। उनके अमुसार निरमलिया ने एक दिन पहले यानी की शनिवार 28 जून की रात को खाना खाया था। शव का पोस्ट मार्टम शायद घरवालों की इजाज़त न मिलने के कारण नहीं हो पाया हो। लेकिन यह हो भी जाता तो क्या् इसकी पुष्टि की जाती? शायद नहीं।
पलामू और सूखा का कुछ ऐसा मेल हो गया ह कि छुड़ाये नहीं छूट रहा। यह विडंबना ही है कि भूख से होनेवाली मौत के आगोश में समाने वाले 99 फीसदी लोग आदिवासी और दलित ही हैं। चाहे वह कोरबा जनजाति के हों, भूइंयां, बिरहोर या फिर अन्यआ। जब सरकार की 19 योजनाएं उनके उत्थायन के लिए चलायी जा रही हैं और सुखाड़ के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपये खर्च किये जा चुके हैं… फिर यह मौतें क्यों ? निरमलिया की मौत का काला सच भी शायद कभी सामने न आ पाये। गढ़वा की लेप्सीर की मौत भी कुछ इसी तरह हुई थी और प्रशासन ने उसे भूख से हुई मौत मानने से ही इनकार कर दिया था। परंतु मीडिया और कुछ प्रबुद्धजनों की कोशिशों के बाद उन्हेंौ यह मानना पड़ा था कि उसकी मौत भूख से ही हुई है। निरमलिया की मौत सिर्फ एक कॉलम की खबर बन पायी और शायद इसीलिए उसे इंसाफ नहीं मिल सका।
पलामू में इस बार फिर सुखाड़ ने दस्त क दी है। तभी तो सुखाड़ से खौफजदा किसान इच्छास मृत्युी के लिए हस्ता क्षर अभियान चला रहे हैं। 5000 किसानों ने तो हस्तादक्षर भी कर दिये हैं और 30,000 और किसान अर्जी भर रहे हैं। यह जानकर आश्चहर्य होगा कि प्रदेश की 38 लाख हेक्टेकयर कृषि योग्य0 भूमि में से आज भी केवल 1.57 लाख हेक्टेहयर जमीन पर ही सिंचाई की सुविधा उपलब्धि है। सवाल है कि आखिर क्योंक? शायद इसलिए कि अब तक किसानों और खेती के मूल तकनीकों पर न तो यहां कोई काम हुआ है और न ही सरकार की कोई मंशा ही रही है। यदि मंशा होती तो यकीनन तस्वी र कुछ और होती और जमीनों पर जो दरार दिख रही हैं, वहां फसल लहलहा रही होती।
पलामू में घुसते ही आपको यह एहसास होने लगेगा कि कसी विकट और त्रासद जिन्द गी जीने को विवश है यहां की जनता। सुखाड़ की स्‍िथति जानने और वहां के लोगों की जीवन शैली जानने की उत्कशट इच्छाा लिये पिछले साल अपने एक साथी के साथ मनातू, लमटी, लेस्ली गंज व चेड़ाबारा गांव जाना हुआ था। इन गांवों के लोग इतने अनुभवी हैं कि धरती और आकाश को देख कर ही बता दें कि इस बार अकाल-सुखाड़ पड़ने वाला है या फिर बारिश और खेती की कोई गुंजाइश शेष है। चेड़ाबारा गांव के एक किसान सुकुल ने बताया कि सुखाड़ और गरीबी हमारी नियती ही बन गयी है। इससे बचने के लिए सरकार की तरफ से जो पहल होनी चाहिए, वह नहीं हो रही। गांव के लोगों ने कई बार यह निवेदन भी किया था कि शिवपुर में यदि डैम बन जाता तो अच्छा होता और अगर यह नहीं हो सकता तो गांव में 20 फुट (20 फीट के कुएं) कुआं ही बन जाता, तो कुछ हल निकल आता। कुछ ऐसी ही सोच कोल्हुाआ टोली और महुआ टोली के लोगों की भी थी। उनका मानना है कि इतने भर से ही कम से कम पीने और थोड़ी खेती के लिए कुछ पानी तो मिल ही जाता। अनाज के अभाव में यहां के लोग महुआ, गेठी (एक कसला कंदमूल) और चकवढ़ साग (जंगली पौधा) खाने को विवश हैं।
चैनपुर के लमटी गांव की स्‍िथति तो और भी भयावह है। दूरस्थस और दुर्गम रास्तोंड की वजह से न तो मीडियाकर्मी यहां पहुंच पाते हैं, न अधिकारी और न ही प्रबुद्धजन। जब हम इस गांव की स्‍िथति जानने पहुंचे तो पता चला कि कितनी लेप्सीथ और निरमलिया यहां हर साल दम तोड़ती रहती हैं परंतु उनकी मौत की गूंज किसी शून्यि में समा जाती है। वह खबर भी नहीं बन पाती। आदिम जनजाति कोरबा लोग यहां रहते हैं। सुखाड़ के दिनों में सिर्फ गेठी ही इनका भोजन होता है। गेठी की कड़वाहट को चूना लगाकर बहते पानी में रात भर बांस के जालीनुमा पात्र में डाल दिया जाए तो दूर किया जा सकता है। परंतु जहां न पानी है और न चूना के लिए पैसा तो फिर ये क्या करें? इसी गांव की धनुआ कोरबाइन ने बताया कि इसकी कड़वाहट को कम करने के लिए वो इसे काटकर 3-4 दिनों तक मिट्टी के घड़े में डालकर रेत में दबा देती हैं और तब खाती हैं। हमने देखा कि कड़वाहट कुछ कम तो हो जाती है परंतु ऐसा भी नहीं कि इसे खाया जा सके। पर पेट के लिए तो सब करना ही पड़ता है। जीने की जिद और जज्बेी को देखना हो तो एक बार लमटी जरूर देखें।
खैर… हम बात कर रहे थे पलामू और सुखाड़ की। बचपन में पलामू के बारे में हम कई-कई किस्सेे सुना करते थे। उन्हींक में से एक था मनातू स्टे़ट का किस्साम। मनातू स्टेजट में जबरन लोगों को बंधुआ बना कर मजदूरी करवायी जाती थी। मना करने या आनाकानी करने पर स्टे ट के महाराजा अपने पालतू चीता के पिंजरे में मजदूर को फेंकवा देते थे। इस डर से लोग उनके द्वारा किया जानेवाला अत्यााचार चुपचाप सह लेते थे या फिर मौत को गले लगा लेते थे। परंतु अब न स्टेदट रहा और न ही महाराज। फिर भी लोग तड़प रहे हैं, भूख और त्रासदी के पिंजरे से निकलने को छटपटा रहे हैं। लेकिन निकल भी नहीं पा रहे। वे न तो सुकून से जी पा रहे हैं और न ही मर पा रहे हैं। सवाल है कि मौत के मुंह में धकेलनेवाला वह शख्स कौन ह? सरकार, प्रशासन या फिर हम स्वमयं… पर इतना जरूर है कि यह पिंजरा इतना मजबूत ह कि पीढ़‍ियां दम तोड़ दे रही हैं पर उबर नहीं पा रहीं। आखिर क्योंक?
सवाल यह भी है कि जिस साल पलामू में सामान्यी वर्षा होती है, तो वह तकरीबन 1200 मिमी तक होती है। लेकिन जब कम वर्षा होती है तो भी यह करीबन 600 मिमी तक होती है। पी साईंनाथ ने लिखा है कि कम वर्षा होने के बाद यदि ऐसे अन्यय क्षेत्रों का तुलनात्म क अध्यंयन किया जाए तो यह स्पतष्टा होता है कि इससे कम वर्षा वाले क्षेत्र में भी ऐसी तबाही नहीं होती जितनी कि पलामू में। क्योंा? कहीं यह होश की दुनिया के लोगों के द्वारा खड़ा किया गया तमाशा तो नहीं? क्योंू नहीं वे इसका हल ढूंढ पा रहे हैं?
सचमुच यह बड़ा सवाल है और जवाब हम सब को मिलकर खोजना है।
31 JULY 2009

Saturday, June 25, 2011

जीवन के संघर्ष को देसज स्वर देनेवाला जमीनी फिल्मकार

अनुपमा

50 साल की उम्र में जब अमूमन लोग रिटारयमेंट की उम्र की ओर बढ़ रहे होते हैं और सुखद भविष्य के ताने-बाने बुनने में ही अपनी उर्जा लगा रहे होते हैं, उस उम्र मंे एक आदमी कैमरा का एबीसीडी जानना शुरू करता है. कैमरे की भाषा को समझने के साथ-साथ उसका प्रयोग शुरू करता है. इस उम्र में फिल्मकार बनने को सोचता है और आठ सालों में कैमरे और मानवीय संवेदना, सामाजिक सरोकार और संघर्ष के स्वरों का मेलजोल कराने में इतना माहिर हो जाता है कि अपनी उम्र के 58वंे साल में जब वह शख्स पहुंचता है और 58वें राष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा होती है तो उसकी दो फिल्मों को एक साथ रजत कमल श्रेणी में रख लिया जाता है. सोशल ऐक्टिविज्म करते-करते वीडियो ऐक्टिविज्म करनेवाले इस 58 वर्षीय शख्स का नाम है मेघनाथ, जिनकी दो फिल्में ‘ लोहा गरम है’ और ‘ एक रोपा धान’ को इस साल राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है.
उनकी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा इस साल हुई है. लेकिन इसके काफी पहले उनकी फिल्मों की पहचान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुकी है. दुनिया भर में इनकी या इनके फिल्मों की ख्याति को आंकना हो तो इसे 2003 में इनके द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘ विकास बंदूक की नाल से’ से समझा जा सकता है. मेघनाथ ने यह फिल्म तो बनायी थी हिंदी में लेकिन उस फिल्म की ताकत को समझनेवाले लोगों ने उसे अपनी भाषाओं में तेजी से ढाल लिया. इंग्लिश, फ्रेंच, स्पेनिश में उसे बनाया जा चुका है. दुनिया के 50 से अधिक विश्वविद्यालयों में उसका प्रदर्शन हो चुका है. विकास का एजेंडा सेट करने से पहले उस फिल्म को दिखाया जाता है. यूट्यूब पर जाये ंतो अब तक 5,26,000 से ज्यादा लोग उस एक फिल्म को देख चुके हैं. लेकिन यह सब मेघनाथ की बाहरी दुनिया है. रांची, जहां वे रहते हैं, उस छोटे-से शहर में उन्हें जानने-पहचाननेवालों की जमात कुछ ज्यादा नहीं. कुछ लोग हैं, जो उन्हें नाम के साथ-साथ उनके काम से भी परिचित हैं. कई ऐसे भी हैं, जिनके बीच उनकी पहचान खद्दड़ वाला हाफ कुरता पहनकर झकझक सफेद दाढ़ी-बाल लहराते हुए हीरो पुक बाइक पर शहर की सड़कों पर इधर-उधर घूमते रहनेवाले एक बुजुर्ग शख्स भर की है, जो आयोजनों में दर्शक दीर्घा में बैठा दिखता है, कभी नौजवानों-किशोरों के साथ बैठकर फिल्मों पर घंटों गप्पबाजियां करता रहता है या बच्चों को फिल्म पढ़ाने काॅलेज कैंपस जाते रहता है. लेकिन मेघनाथ जान-पहचान के इस दायरे को और ज्यादा बढ़ाना भी नहीं चाहते. रांची शहर के बाहरी हिस्से में एक छोटे से घर में कैद होकर अपने फिल्मकार साथी बिजू टोप्पो के साथ फिल्मो की दुनिया मे खोये रहना ही उन्हें ज्यादा भाता है. उस छोटे से मकान को लोग ‘ अखड़ा’ के नाम से जानते हैं और बिजू टोप्पो मेघनाथ के वह साथी हैं, जिनके साथ मेघनाथ ने फिल्मी यात्रा शुरू की, अब भी जारी है. इस साल मेघनाथ और बिजू, दोनों को संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पुरस्कार मिलेगा. मेघनाथ कहते हैं- सब बिजू ही करता है, मैं तो उसके साथ रहता हूं. बिजू से पूछिए तो कहते हैं- सब दादा करते हैं, मैं तो उनके कहे अनुसार करता हूं. दोनों एक-दूसरे को क्रेडिट देते रहते हैं. बिजू अभी हाल ही में एक फिल्म बनाये हैं, जिसका नाम है सोना गही पिंजरा. अपने गांव-घर के सदस्यों को लेकर ही बिजू ने इस फिल्म का निर्माण कर दिया है. भागदौड़ की जिंदगी में मानव समाज कैसे पारिवारिक, सामूहिक और सांस्कृतिक परिवेश से मजबूरी में कटता जा रहा है,उसी विडंबना को बिजू ने इस फिल्म में दिखाया है. मेघनाथ और बिजू हमेशा एक साथ फिल्मों पर काम करते हैं, एक साथ फिल्में बनाते हैं लेकिन एक विषय पर दोनों की सोच में बड़ा फर्क है. मेघनाथ फीचर फिल्मों के निर्माण से तौबा करते नजर आते हैं तो बिजू कहते हैं- क्यों नहीं बनायेंगे फीचर फिल्म, जरूर बनायेंगे लेकिन वह अपने तरीके की फिल्म होगी. अपना विषय होगा, अपने लोग नायक-नायिका होंगे, परिवेश भी अपना होगा, लेकिन बनायेंगे तो जरूर. इस बात पर मेघनाथ हंसते हुए कहते हैं, जब बिजू बनायेगा तो समझिये मैं भी बनाउंगा.
मेघनाथ अपने बारे में बात करने से बचते हैं. वह कहते हैं, मैं बंबई का बंगाली हूं लेकिन मुझे झारखंडी कहलाना ज्यादा आत्मीय संतोष प्रदान करता है. मेघनाथ पिछले दो दशक से झारखं डमें रच-बस गये हैं. बंबई में पिताजी उद्योगपति थे. वहां से कोलकाता चले आये और संत जेवियर्स काॅलेज से पढ़ाई-लिखाई पूरी हुई. पढ़ाई के दौरान ही संत जेवियर्स काॅलेज के केमिस्ट्री विभाग के अध्यक्ष मशहूर समाजसेवी फादर जेराल्ड बेकर्स से मुलाकात हुई. मेघनाथ बताते हैं, बेकर्स से पहली मुलाकात 1971 के रिफ्यूजी कैंप में हुई, उनसे ही समाजसेवा की प्रेरणा मिली और फिर एमए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर झारख्ंाड के पलामू इलाके में चले आये. छोटे- छोटे चेक डैमों के निर्माण के लिए ग्रामीणों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर आंदोलन करने में लग गये. फिर कोयलकारो आंदोलन हुआ तो उसमें भी शरीक हुए और जब अलग राज्य निर्माण के लिए झारखंड आंदोलन चला तो उसमें भी भाग लिये. मेघनाथ से यह पूछने पर कि फिल्मों मंे अचानक कैसे टर्न हो गये, कहते हैं- अचानक कुछ नहीं हुआ. बचपन से ही फिल्मों के परिवेश से परिचित था. पलामू में काम करने के दौरान ही लगा कि फिल्मों से इनकी बातों को स्वर दिया जा सकता है. फिर मैंने किसी छात्र की तरह इसे सीखने का निर्णय लिया. 1988-89 में एक्टिविस्ट फिल्म वर्कशोप हुआ तो उसमें भाग लिया. फिर दिल्ली जाकर आनंद पटवर्धन के साथ रहा. उनसे बहुत कुछ सीखा. वहीं पर ‘ फ्राॅम बीहाइंड द बैरिकेट’ फिल्म को असिस्ट किया. बाद में पुणे में जाकर फिल्म एप्रेसिएशन कोर्स किया. एक छात्र की तरह सब सीखता रहा और फिर जब झारखंड लौटा तो बिजू, सुनील मिंज, जेवियर आदि मित्रों के साथ फिल्म बनाने में लग गया. साथी फिल्म बनाते रहे, उसमें मैं भी अपनी भूमिका का निर्वहन करता रहा. जनजीवन के संघर्ष को ही प्रमुख विषय बनाये जाने के सवाल पर मेघनाथ हंसते हुए कहते हैं- अनजाने में ही सही, बचपन में मैंने पहला संघर्ष और आंदोलन अपने पिताजी के खिलाफ ही किया था. पिताजी की बंबई में फैक्ट्री थी. मजदूर उनके खिलाफ अंादेोलनरत थे. मैं भी उनके आंदोलन में शामिल हो गया. बाद में जाना कि मैं अपने पिता के खिलाफ ही आंदोलन में चला गया था. फिर गंभीरता से मेघनाथ कहते हैं- संघर्ष को सामूहिक स्वर देना ही तो फिल्मों का काम है, फिल्में मनोरंजन का साधन नहीं है, यही तो समझाने की कोशिश करता हूं, नये लड़कों को. सौ में दस भी समझ जायेंगे तो समझूंगा कि फिल्मों को काॅलेजों में पढ़ाते रहने का मेरा मकसद सफल हो रहा है...


मशहूर फिल्म ऐक्टिविस्ट मेघनाथ से बातचीत

सिनेमा के सामाजिक प्रयोग की संभावनाएं अभी शेष हैं, उसी में संभावनाएं तलाश रहा हूं

1. आपकी दो फिल्मों को इस बार राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए चुना गया है. आपकी नजर में इन दोनों फिल्मों की खासियतें क्या हैं?
- सम्मान या पुरस्कार मिलना, न मिलना अलग बात है लेकिन हर फिल्म की अपनी खासियतें तो होती ही हैं. राष्ट्रीय पुरस्कार समारोह के लिए हमारी दो फिल्में ‘ एक रोपा धान’ और ‘ आयरन इज हाॅट’ का चयन हुआ है. एक संघर्ष की फिल्म है, दूसरे रचना की. आयरन इज हाॅट यानि लोहा गरम है में संघर्ष है, एक रोपा धान में रचना है. लोहा गरम है में हमने यह दिखाने की कोशिश की है कि स्पंज आयरन फैक्ट्रियां कैसे झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में लोगों की जिंदगानियां खत्म कर रही हैं. एक रोपा धान किसानों को प्रेरित करनेवाली फिल्म है.
2. आप खुद फिल्म बनाये. जिनके मसले को लेकर फिल्म बनाये, वही नहीं देख सके तो फिर डोक्यूमेंट्री फिल्में विशेषकर अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों का मकसद क्या है?
- यह सच है कि भारत में मुख्यधारा की सिनेमा की जो ताकत है, उसका जो चक्रव्यूह है, उसके सामने डोक्यूमेंट्री या अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों की कोई औकात नहीं. हमारे पास सबसे बड़ी चुनौती स्क्रीनिंग की है. लेकिन तकनीक के विकास से चीजें अब आसान हो रही हैं. अब आप उनके बीच, जिनके लिए, जिनके सवालों को लेकर या जिन्हें प्रेरित करने के लिए फिल्मों का निर्माण हो रहा है, फिल्में दिखा सकते हैं. रही बात मकसद की तो मेरा यह मानना है कि ऐसी फिल्मों का मकसद सिनेमा के सामाजिक व शैक्षणिक प्रयोग के आधार को मजबूत करना है. भारत में यह होना अभी बाकी है. सिनेमा मनोरंजन के लिए होता है, मनोरंजन का माध्यम है, ऐसा मानने वाले तो अधिकतर मिलेंगे ही. दक्षिण के राज्यों में एमजी रामचंद्रण, करूणानिधि, एनटी रामाराव जैसे लोग सिनेमा का राजनीतिक प्रयोग भी मजबूती से कर इस परंपरा को स्थापित कर चुके हैं लेकिन इस सशक्त विधा के सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक प्रयोग का अध्याय शुरू होना अभी बाकी है.
3.पब्लिक रिस्पांस के आधार पर आपको अपनी किस फिल्म को बनाकर सबसे ज्यादा संतुष्टि मिली?
- हमें सबसे ज्यादा शुकून तो ‘ कोड़ा राजी’ बनाते हुए मिला. अपने इलाके के लोग कैसे चाय बगान में काम करने बंगाल व पूर्वोत्तर के हिस्से में पहुंचे और वहां पहुंचने पर किन मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं, यह करीब से देखने-समझने का मौका मिला. आज भी चाय बगान इलाके से मजदूर आते हैं और कोड़ा राजी की चर्चा करते हैं. अपनी बात रखते हैं ताकि बदलते संदर्भ और बढ़ती चुनौतियों पर उनके सवालों को लेकर दूसरी फिल्म भी बनायी जा सके. वैसे ‘ विकास बंदूक की नाल से’ फिल्म का अपना महत्व रहा. उस फिल्म को देखने के बाद उडि़सा के कोरापुट, पुरसिल आदि इलाके के ग्रामीणों ने कारपोरेट लुटेरों से बचने के लिए अपने-अपने गांव में गेट लगा दिये.चींटी लड़े पहाड़ से फिल्म का व्यापक स्तर पर पलामू के महुआडांड़, कोयलकारो आदि इलाके में प्रदर्शन हुआ. आयरन इज हाॅट और गांव छोड़ब नाही जैसी फिल्में जिंदल और मिततल जैसी कंपनियों से लड़ रहे आंदोलनकारियों को उर्जा प्रदान करती है.

4.आपकी फिल्मों की राजनीतिक धारा अमूमन वामपंथ की रही है. राजनीतिक रूप से वामपंथ का गढ़ ही अपने देश में ढह रहे हैं. फिर फिल्मों में वाम राजनीति का भविष्य कितना बचेगा?
- माक्र्सवादियों के साथ यही तो सबसे बड़ी विडंबना है िक वे सिर्फ संघर्ष-संघर्ष की रट लगाते रहते हैं. संघर्ष के साथ रचना भी हो, इसकी कोशिश ही नहीं हुई. मुझे इस मामले में गांधी का माॅडल सबसे ज्यादा पसंद है कि संघर्ष के साथ रचना करते रहो. बंगाल में माक्र्सवादी 34 साल से संघर्ष का ही पाठ पढ़ाते रह गये. और राजनीति के कचरे लोग रचनात्मक माॅडल खड़ा करते रहे. चाहे वह तमिलनाडु का हेल्थ सिस्टम में किया गया प्रयोग हो या छत्तीसगढ़ का पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम का नया स्वरूप. बंगाल ने 34 वर्षों में कौन सा ऐसा माॅडल दिया! मेरे मित्र शंकर गुहा नियोगी कहते रहे कि संघर्ष कर रहे हैं. काहे का ऐसा संघर्ष जिसमें रचना की गुंजाइश ही न हो. लेकिन इतनी शिकायतें और नाराजगी के बावजूद मैं चाहता हूं कि भारतीय राजनीति में वाम मजबूत हो. ममता बनर्जी के लोगों ने सिंगुर-नंदिग्राम आंदोलन के दौरान कई बार मेरी फिल्म ‘ गांव छोड़ब नाही’ फिल्म के उपयोग करने के लिए हमसे संपर्क किया लेकिन हमने मना कर दिया,क्योंकि हम वाम को नुकसान पहुंचाने वाले अभियान का हिस्सा नहीं बन सकते.
5.दर्जन भर से अधिक डोक्यूमेंट्री अथवा अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों को बना लेने के बाद क्या भविष्य में फीचर फिल्म बनाने के बारे में भी सोचते हैं.
- ना, कतई नहीं. उस बारे में तो कभी सोचते ही नहीं. जो कर रहा हूं, यदि उसे ही अच्छे से कर सकंू तो यही मेरे लिए ज्यादा होगा. हां फीचर फिल्मों का विषय मेरे जेहन में है. कभी किसी निर्देशक के माध्यम से मेरा वह आइडिया जरूर सामने आयेगा लेकिन मैं खुद फीचर फिल्मों के निर्माण या निर्देश्ज्ञन के बारे में कभी नहीं सोचता. व्ही शांताराम को मकसद के रूप में गुरू की तरह मानता हूं. आदमी, दो आंखें बारह हाथ जैसी फिल्मों का निर्माण उन्होंने वर्षो पहले किया था. वैसी फिल्मों का निर्माण फिर कम ही हो सका. कुछ-कुछ वैसी फिल्मों की परिकल्पना जेहन में है, खैर, वह तो बाद की बात है.

Thursday, February 17, 2011

नेशनल गेम्स : राष्ट्र कहां है, राज्य कहां है?

अनुपमा
12 फरवरी को दोपहर बारह बजे के बाद से ही लोगो का राजधानी रांची के खेलगांव में पहुंचना शुरुू हुआ. शाम पांच बजे तक लोगों का कारवां हुजूम में बदल गया. देश के कोने-कोने से पहुंचे लगभग छह हजार खिलाड़ी, उनके संग आये लगभग चार हजार खेल प्रशिक्षक व खेल संघों के पदाधिकारी आदि, झारखंड सरकार के पदाधिकारी, नेतागण, खेल प्रेमी. इन सबको मिलाकर करीबन 35 हजार की भीड़ जुटी. मार्च पास्ट हुआ, आकाश से फूल बरसाये गये. झारखंड के राज्यपाल एमओएच फारूख, मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा, रांची के सांसद व केंद्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय, झारखंड ओलिंपक संघ के अध्यक्ष आरके आनंद और दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेल से देश भर में किरकिरी के पात्र बने इंडियन ओलिंपिक संघ के प्रमुख सुरेश कलमाड़ी ने उद्घाटन किया. इकलौते केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत को खेल और राष्ट्रीयता पर अपने विचार रखने का मौका नहीं मिल सका. शेष ने अपने विचार रखे. अतीशबाजी हुई. झारखंडी गीत-संगीत की झलक दिखी और उसके बाद शाहरूख खान की कंपनी सिने युग को दिये गये करोड़ों रूपये के सौजन्य से पहुंची अभिनेत्री अमीषा पटेल, समीरा रेड्डी, अभिनेता विवेक ओबेराॅय, गायक सुखविंदर ने जलवा बिख्ेारना शुरू किया. कहो ना प्यार है... गीत पर अमीषा पटेल ने ठुमके लगाये, सुखविंदर ने चक दे इंडिया गीत सुनाये. मौज-मस्ती के इस आलम में यह सवाल उसी समय से हवा में तैरने लगा कि यह कैसा राष्ट्रीय खेल है, जहां राष्ट्र का कोई भी एक प्रमुख व्यक्ति मौजूद नहीं है? न प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, न उपराष्ट्रपति. और न ही केंद्रीय खेल मंत्री. आखिर ऐसा क्यों? क्या झारखंड एक गरीब राज्य है इसलिए? क्या झारखं डमें भारतीय जनता पार्टी की सरकार है इसलिए? क्या सुरेश कलमाड़ी मंच पर पहुंचे थे, इसलिए उनसे बचने के लिए केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन आना उचित नहीं समझे या फिर यह कि झारखं डमें राष्ट्रीय खेल के आयोजकों ने केंद्र के इन आला पदधारियों से गंभीरता से संपर्क ही नहीं किया? 12 फरवरी को सतही तौर पर मौज-मस्ती का आलम था लेकिन अंदर से यह सवाल उद्घाटन समारोह के दौरान ही उठना शुरू हो गया. संस्कृतिकर्मी अश्विनी पंकज लगभग आक्रोशित शब्दों में कहते हैं- राज्य बनने के बाद पहली बार झारखं डमें कोई राष्ट्रीय स्तर का आयोजन हो रहा था. यहां देश भर के खिलाड़ी पहुंचे हैं, झारखं डमें कोई भी नक्सली घटना घट जाने पर, संसाधन में हिस्सेदारी लेने के नाम पर राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ानेवाले केंद्रीय नेताओं को एक बार भी यह नहीं लगा कि गांव-कस्बे से पहुंचे इन खिलाड़ियों का मनोबल बढ़ाने के लिए वहां पहुंचना जरूरी है. अश्विनी यह भी पूछते हैं कि क्यों नहीं क्रिकेट के इतर अन्य खेलों के स्टार खिलाड़ी जैसे सानिया मिरजा, अभिनव बिंद्रा जैसे खिलाड़ी भी यहां पहुंचे. क्या किसी निजी कंपनी के सौजन्य से यह आयोजन होता, तो ये सब नहीं पहुंचते? क्या क्रिकेट का आयोजन होता तो भी इतनी अनदेखी की जाती,? ऐसा क्यों हुआ, इसका सही-सही जवाब किसी के पास नहीं है. राज्य के उप मुख्यमंत्री व खेलमंत्री सुदेश महतो तहलका से बातचीत में कहते हैं राज्य के मुख्यमंत्री ने स्वयं खुद दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति को आमंत्रित किया था, क्यों नहीं आये, वे यह नहीं बता सकते. जब यही सवाल राष्ट्रीय खेल के उद्घाटन और समापन समारोह के लिए बनी कमिटी के चेयरमैन आइएएस अधिकारी एनएन सिन्हा से पूछा जाता है तो उनका जवाब होता है- कौन क्यों नहीं आया, यह झारखंड ओलिंपिक संघ वाले आयोजक बतायेंगे. राज्य के मुख्य सचिव एके सिंह का कहना होता है कि बुलाया तो सबको गया था लेकिन सबकी व्यसस्तताएं थीं. खेल की तिथि को लेकर भी अनिश्चितता बनी हुई थी, इसलिए भी बहुत गंभीर पहल नहीं हो सकी.
छह बार की टालमटोल के बाद 33 विभिन्न खेलों के साथ राज्य के रांची, धनबाद, जमशेदपुर के 22 स्टेडियमों में हो रहे 34वें राष्ट्रीय खेल का आयोजन पहले से ही कई किस्म के आरोपों-विवादों से भरा हुआ है. उद्घाटन समारोह के बाद तकनीकी बातों से दूर व्यावहारिक तौर पर भी कई ऐसे सवाल हवा में उछलने लगे हैं. खेल के पहले ही दिन झारखंड को दो स्वर्ण पदक समेत मिले कुछ छह पदकों से संतोष का भाव तो उभरा है लेकिन आयोजन की व्यवस्था को लेकर सवाल बढ़ते ही जा रहे हैं. उद्घाटन समारोह स्थल पर पहले ही दिन कई नलों में पानी का नहीं होना, टाॅयलेट का फ्लैश तक सही नहीं होना तो शिकायतों की फेहरिश्त में है लेकिन जिस तरह से राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व द्वारा नकारे जाने की बात को उठाया जा रहा है, उसी के समानांतर क्षेत्रीय आकांक्षाओं को भी अनदेखी किये जाने की बात भी नाराजगी का सबब बनता जा रहा है. झारखंड की ओर से बाॅरो खिलाड़ियों को बहुतायत में उतारे जाने से तो खेलप्रेमियों के एक बड़े तबके में नाराजगी है ही, उद्घाटन समारोह में जिस तरह से पास वितरण को लेकर बंदरबांट हुई और झारखंड के कई नेताओ की अनदेखी की गयी, वह भी एक सवाल है. राज्य के पूर्व खेल मंत्री बंधु तिर्की कहते हैं कि चंद लोगों ने इस आयोजन को घर में होनेवाले जन्मदिन पार्टी की तरह बना दिया, जिसमें पसंद और नापसंद के हिसाब से मेहमानों को आमंत्रित किया जाता है. तिर्की कहते हैं कि मुझे कोई पास देकर चला गया, इसका मलाल नहीं है लेकिन जो खेलगांव बनने को लेकर विस्थापित हुए लोग हैं, जो खेलगांव के निर्माण में लगे रहे मजदूर हैं, उन्हें तो एक बार की इस भव्यता को देखने का अवसर देना चाहिए था. रांची के उप महापौर अजय नाथ शाहदेव कहते हैं कि मुझे भी पास नहीं मिला लेकिन मैं तो यही सोचकर पहुंचा कि यह राज्य के लिए प्रतिष्ठा की बात है, इसमें सबको साथ देना चाहिए. यह सब कबाड़ा क्यों हुआ, पास वितरण में और लोगों को आमंत्रित करने में भी इतनी चूक कैसे हुई, इसका जवाब राष्ट्रीय खेल के आयोजन से जुड़े राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी सुखदेव सिंह इस तरह देते हैं. वह कहते हैं कि ऐसे कामों का जिम्मा भी जब ब्यूरोक्रैसी के पास रहेगा तो यह होगा ही. राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी अब इस सवाल को लेकर आरटीआई से सूचना मांगने की तैयारी में हैं कि खेल के आयोजन मे पास का वितरण किसे-किसे और कितना-कितना किया गया.
राष्ट्रीय खेल का समापन 26 फरवरी को होना है. अब एक बार फिर से खेल के समापन समारोह में किसी राष्ट्रीय व्यक्तित्व को बुलाकर इसे राष्ट्रीयता का प्रतिक बनाने की कोशिश जारी है. प्रधानमंत्री से समय लेने की कोशिश जारी है, अभी तक आधिकारिक सहमति नहीं मिल सकी है. केंद्रीय खेल मंत्री अजय माकन को भी बुलाने की कोशिश जारी है, ताकि उद्घाटन न सही, समापन में ही उनका भाषण दिलाकर इसकी शान बढ़ायी जाये. ग्लैमर के रंग में यह सवाल आनेवाले दिनों में और भी गंभीर होगा. एक वरिष्ठ पुलिस पदाधिकारी कहते हैं कि झारखंड संवेदनशील राज्य माना जाता है. नक्सलियों का गढ़ भी है. हो सकता है आनेवाले दिनों में नक्सली इस बात को भी समझाते फिरे कि देख लो राष्ट्रीय स्वाभिमान, पहली बार राष्ट्रीय आयोजन में कोई समय देने को तैयार नहीं हुआ? यह पिछड़ा राज्य है इसलिए, आदिवासी राज्य है इसलिए? सवाल तो बाद में और भी उठने हैं जैसा कि भाजपा के पूर्व विधायक सरयू राय कहते हैं- ग्लैमर के नाम पर करोड़ों रुपये बहाये गये, यह पैसा कहां से आयेगा या आया, इसका ब्यौरा भी तो कोई दे!

Tuesday, January 25, 2011

गांव में सरकार बनी, राज्य में उम्मीद जगी


झारखंड में पंचायत चुनाव सपना था, अब चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने और परिणाम आने के बाद वह हकीकत में बदल गया है. गांव-गांव में सरकार बनने की प्रक्रिया जारी है. राज्य निर्माण के बाद पहली बार हुए पंचायत चुनाव ने राज्य के विकास के लिए एक नयी आधारशिला तो तैयार की ही है, राज्य की मेनस्ट्रीम पोलिटिक्स को भी प्रभावित करने लगा है. आधी आबादी ने पहली बार इतनी जोरदार दस्तक दी है, पढ़े-लिखे नौजवानों ने अपने कैरियर का मोह छोड़ गांव की राजनीति को पसंद किया है, कई माओवादी भी लोकतंत्र की राह पकड़ इस गांव-गिरांव की सरकार में शामिल हो रहे हैं. उम्मीद की जा रही है कि इन सभी बातों का असर राजनीतिक और आर्थिक विकास के मोरचे पर जड़वत हो चुके झारखंड पर निकट भविष्य में देखने को मिलेगा. कैसा होगा असर, क्या है उम्मीदें, एक रिपोर्टः-



अनुपमा
28 दिसंबर को जाॅनी उरांव की खुशी देखते ही बन रही थी. रांची से सटे बेड़ो के एक किसान परिवार की 18 वर्षीया बेटी जाॅनी रांची वीमेंस काॅलेज में स्नातक पार्ट वन की छात्रा हैं और उस दिन उनकी यह खुशी अपने काॅलेज में टाॅपर बनने की नहीं बल्कि मुखिया चुने जाने की थी. इतनी छोटी उम्र में जाॅनी मुखिया बनी तो हैरत भरी निगाहों से उन्हें लोग देख रहे थे लेकिन जाॅनी जब बातचीत शुरू करती हैं तो झारखंड के कई नेताओं से ज्यादा स्पष्ट उच्चारण के साथ अपनी उम्र से बहुत आगे की गंभीरता दिखाती हैं. जाॅनी कहती हैं,‘‘ कुछ साथियों ने सलाह दी थी कि अगर समाज को बदलने की इतनी इच्छा रखती हो तो चुनाव क्यों नहीं लड़ जाती और मैं साथियों की सलाह से चुनाव लड़ गयी. सिर्फ ट्रायल मारने या शौक पूरा करने के लिए नहीं बल्कि चुनाव चल रहा था तो मैं चुनाव प्रचार से लौटने के बाद रोज ही पंचायत के अधिकार, मुखिया के अधिकार और जिम्मेवारियों का अध्ययन भी करती थी ताकि अगर जीत जाउं तो क्या-क्या करूंगी, कैसे-कैसे करूंगी. जाॅनी कहती हैं कि जीतने से पहले ही मैं शिक्षा को बढ़ावा देने, बुनियादी समस्याओं को दूर करने का खाका तैयार कर चुकी हूं.’’ सच में जिस आत्मविश्वास से 18 साल की जाॅनी उरांव अपनी बातों को बता रही थी, वैसा आत्मविश्वास 20-30 साल से राजनीति-राजनीति का खेल खेलने वाले झारखंड के कई नेताओं मंे भी देखने को नहीं मिलता. जिस दिन रांची में जाॅनी से बात हो रही थी, उसी दिन जमशेदपुर में एमबीए की एक छात्रा सविता टुडू भी उसी आत्मविश्वास से लवरेज मीडिया से मुखातिब हो रही थी. घसियाडीह की रहनेवाली सविता भी मुखिया चुनी गयीं. वह कहती हैं कि अब मुझे पंचायत प्रबंधन में ही अपनी सारी उर्जा को लगाना है, नौकरी के बारे में तो सोचूंगी भी नहीं.
32 साल बाद और राज्य बनने के बाद पहली बार तमाम पेंच को पार करते हुए पंचायत चुनाव के आये नतीजे ने राज्य के अलग-अलग हिस्से में जाॅनी, सविता की तरह भारी संख्या में आत्मविश्वासी युवा वर्ग को लोकतंत्र की असली राजनीति में उभरने का मौका दिया है.. अधिकतर वैसे हैं, जो ठेठ ग्रामीण परिवेश से आते हैं, कई ऐसे हैं जो कैरियर के तमाम मोह को छोड़ बदलाव की छअपटाहट लिए चुनावी मैदान में उतरे थे और इन सबके बीच अब तक मेनस्ट्रीम पेालिटिक्स के लिए उपेक्षित समुदाय से भी इन ग्रासरूट नेताओं का उदय हुआ है. अर्थशास्त्री और इंस्टीट्यूट आॅफ ह्ूमैन डेवलपमेंट के झारखंड चैप्टर के प्रमुख प्रो हरिश्वर दयाल कहते हैं, झारखंड की राजनीति में यह नया उभार तमाम तरह के सवालों के बीच उम्मीद की किरण दिखा रहा है. प्रो दयाल कहते हैं कि इस पहली बार के पंचायत चुनाव में अलग-अलग हिस्से में अच्छी-खासी संख्या में माओवादी संगठन से जुड़े लोगों का भी चुनावी मैदान में उतरने की खबर आयी थी. बहुत बड़ा नहीं तो छोटे स्तर पर ही सही, माओवादियों की मेनस्ट्रीमिंग होने से भविष्य में बेहतरी की उम्मीद कर सकते हैं. राज्य महिला आयोग की सदस्य व वरिष्ठ पत्रकार वासवी इसे अलग नजरिये से देखती हैं. वह कहती हैं कि यह झारखंड बनने के बाद की सबसे बड़ी सामाजिक क्रांति है, जिसके जरिये देहरी तक सीमित रहनेवाली गांव-घर की महिलाएं भी अब समाज और सत्ता के मेनस्ट्रीम में दस्तक दे रही हैं. घर में नमक-तेल का बजट बनानेवाली महिलाएं गांव-पंचायत के विकास के लिए बजट बनायेंगी.बेशक उन्हें शुरुआती दौर में कई किस्म के परेशानियों का सामना करना पड़ेगा लेकिन कुल सीटों के मुकाबले लगभग 60 प्रतिशत सीटों पर कब्जा जमानेवाली आधी आबादी झारखंड की राजनीति को एक नयी दिशा में ले जायेंगी, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए.
यह सच भी है. झारखंड के राजनीतिक दल भी इस बदलाव की ताकत को समझ रहे हैं और उन्हें भी इस बात का अहसास है कि निकट भविष्य में मुख्यधारा की राजनीति पर इसका असर पड़ेगा. राज्य में भले ही पंचायत चुनाव पार्टी के आधार पर नहीं हुआ लेकिन राजनीतिक दलों ने चुनाव के वक्त जिस तरह की रुचि दिखायी, उससे कुछ और संकेत भी मिलते हैं. झारख्ंांड के आगामी विधानसभा और आम चुनावों में भी इसका असर दिखेगा क्योंकि राजनीतिक दलों को यह बात अब समझ में आने लगी है कि धीरे- धीरे ही सही, गांव मंे रहनेवाले नौजवानों और वर्तमान पीढ़ी को गांव में सरकार का एक नया रूप देखने को मिलेगा. और फिर इस आधार पर वे बड़े नेताओं से भी अपने लिए बड़ी उम्मीदें रखेंगे. पंचायत चुनाव का झारखंड की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा, यह अभी से दिखने भी लगा है. कांग्रेस और भाजपा, दोनों राष्ट्रीय दलों के नेता अपनी डफली पर अपना राग गाने के अलावा पंचायत चुनाव के जरिये पहली बार गांव-गांव में सरकार बनानेवाले प्रतिनिधियों को अपने पाले में करने की जुगत में लग गये हैं. यह अकारण नहीं था कि 12 जनवरी को भाजपा और कांग्रेस, दोनों दलों के वरिष्ठ नेता इस संबंध में बयान देते नजर आयें. केंद्रीय मंत्री सह रांची के सांसद सुबोधकांत 12 जनवरी को राजधानी से सटे पिस्का-नगड़ी के इलाके में नवनिर्वाचित पंचायत समिति के सदस्यों, मुखिया व पार्षदों को सम्मानित करने पहुंचे तो उन्होंने इस बात पर बार-बार जोर दिया कि आज यह गांव की सरकार का सपना कांग्रेस और सोनिया गांधी की इच्छाशक्ति के कारण ही संभव हो सका है. दूसरी ओर उसी दिन राजधानी रांची के पास ही रातू इलाके में रांची के पूर्व सांसद व भाजपा नेता रामटहल चैधरी भी ऐसे ही आयोजन में भाग लेने पहुंचे और उन्होंने भी अपनी सभा में इस बात को बार-बार दुहराया कि आज पंचायत चुनाव के जरिये झारखंड नयी पारी करने को तैयार है तो यह भाजपा के कारण ही संभव हो सका है. इन दो बड़े राष्ट्रीय दलों के अलावा झारखंडी नामधारी पार्टियां तो चुनाव के समय से ही खुलकर उम्मीदवारों का समर्थन और उम्मीदवारों को अपने पक्ष में करने के अभियान में लगी हुई थीं.
पंचायत चुनाव को लेकर शुरू से ही सवाल-दर-सवाल उठानेवाले लोग अब भी यह मान रहे हैं कि इस पंचायत चुनाव के हो जाने से पिछले दस सालों से राजनीतिक और आर्थिक विकास के मोरचे पर जड़वत झारखंड में कोई बड़ी तब्दीली नहीं होने वाली. झारखंड में अब भी एक बड़ा वर्ग यही मान रहा है कि पंचायत चुनाव हो जाने से भी कुछ नहीं होगा बल्कि भ्रष्टाचार और लूट का विकेंद्रीकरण होगा लेकिन झारखंड के पूर्व डीजीपी और सलाहकार रह चुके आरआर प्रसाद जैसे लोग स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि, पहले फेज में हो सकता है कि ऐसा स्वरूप बनता हुए दिखे लेकिन चीजें तेजी से पटरी पर भी आयेंगी. ऐसे वाद-विवाद तो चलते रहेंगे लेकिन अब यह तय हो गया है कि झारखंड को पंचायत चुनाव नहीं होने की वजह से हर साल जो लगभग 500 करोड़ रुपये की केंद्रीय राशि का नुकसान सहना पड़ रहा था, अब वह नहीं होगा.
राज्य में 4423 पंचायतों में कुल 32,260 गांव आते हैं. इनमें से कई गांव ऐसे हैं जो आज भी विकास क्या बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हुए गांव हैं. कई इलाके ऐसे हैं, जो पिछड़ेपन के मामले में देश भर में चुनिंदा इलाकों में आते हैं तो कई ऐसे आदिवासी समुदाय वाले पंचायत हैं, जहां से उस समुदाय के बड़े नेता के अब तक राजनीति में नहीं होने की वजह से कोई अधिकारी, मंत्री, जनप्रतिनिधि वगैरह उन तक पहुंचना भी मुनासिब नहीं समझते थे. अब पंचायत चुनाव के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि मजबूरी में ही सही, उन इलाकों को भी थोड़ी राहत तो मिलेगी ही. यह बताया जा रहा है कि शीघ्र ही बैकवर्ड रिजन ग्रांट फंड, इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान आदि के तहत हर पंचायत को औसतन 2.73 करोड़ रुपये मिलेंगे, जिसे मुखिया के माध्यम से इंदिरा आवास, ग्रामीण सड़कों के निर्माण, पंचायत भवन निर्माण, नाली निर्माण, वनरोपण, चेक डेम निर्माण, आंगनबाड़ी केंद्रों के संचालन, ख्ेाल मैदानों के विकास आदि पर खर्च किया जाएगा. जाहिर सी बात है, झारखंड में पिछले दस सालों में यह भी तो ठीक से नहीं ही हो सका है, इसलिए गांव में बनी पहली सरकार से पहले फेज में इस बदलाव की उम्मीद तो है ही.

Monday, January 24, 2011

दूसरा दंतेवाड़ा


यह दंडकारण्य का वह दंतेवाड़ा तो नहीं, जहां के एक बड़े हिस्से में माओवादियों द्वारा पीपुल्स गवर्नमेंट का राज चलता है लेकिन एशिया का सबसे बड़ा साल जंगल सारंडा पिछले दस सालों में जिस मुहाने पर पहुंच चुका है, वहां उसे दूसरा दंतेवाड़ा ही कहा जा सकता है. 80 हजार हेक्टेयर में फैला यह विशालकाय क्षेत्र कभी अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता था अब यह माओवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ होने की वजह से चरचे में आता है या फिर अवैध खनन के कारण. सितंबर माह के आखिरी दिनों में सारंडा फिर से गरमाहट में था. तीन दिनों तक करीबन चार हजार पुलिस बलों ने सारंडा के एक हिस्से में एंटी नक्सल आॅपरेशन चलाया. हासिल क्या हुआ, नहीं कहा जा सकता लेकिन सारंडा का सन्नाटा गोलियों से कुछ देर के लिए टूटा और फिर उसी सन्नाटे के आगोश में समा गया. सारंडा के जंगल से लौटकर वहां के हालात पर पेश है एक रिपोर्ट



बहादुर सिंह मुंडा एक-एक कर बातों को समझाते हैं. जब हम सारंडा के इलाके में प्रवेश करेंगे तो गाड़ी का हाॅर्न कुछ अंतराल पर लगातार बजते रहना चाहिए. गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम दुरुस्त रखना होगा. तेज आवाज में गीत-संगीत बजते रहना चाहिए, वह कानफाड़ू ही क्यों न हो. और हां, गाड़ी की खिड़कियों के शीशे बंद करने की बिल्कुल जरूरत नहीं, खुले रहने चाहिए. यह सब इसलिए ताकि हर सौ कदम पर किसी न किसी रूप में मौजूद माओवादी कार्यकताओं को यह कतई न लगे कि कोई पुलिसवाला जा रहा है, जिसकी गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम नहीं होता या उसने खिड़कियों को बंद रखा है या हाॅर्न बजाये बिना चुपके से निकलना चाह रहा हो. क्योंकि ऐसे संदेह होने पर इस बात की भी गुंजाइश बनती है कि औसतन हरेक किलोमीटर की दूरी पर बिछे लैंडमाईंस, केन बम की चपेट में आप आ जायें.
बहादुर के इन हिदायतों से सिहरन पैदा हो रही थी. रोंगटे खड़े हो रहे थे लेकिन यात्रा में खुद बहादुर साथ में चल रहे थे, इसलिए भय थोड़ा कम था. सब समझ लेने के बाद हम छोटानागरा इलाके के लिए निकलते हैं. छोटानागरा कभी धार्मिक पर्यटक स्थल के रूप में मशहूर था, बताया जाता है कि कभी यहां उड़िसा के क्योंझर राज ने मानव निर्मित खालों से दो नगाड़े बनवाये थे, जो अब आस्था के केंद्र के तौर पर विराजमान हैं. लेकिन अब छोटानागरा की नयी पहचान है. इस रूप कि वहीं से वह रास्ता शुरू होता है, जहां खून, बारूद, विस्फोट, वर्चस्व की भाषा ही अब मुख्यधारा की भाषा है. यानी माओवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ का इलाका. कटे हुए रोड डरा रहे थे. कटे हुए रोड का एक सीधा मतलब होता है कि यहां लैंडमाइंस की आशंका है.
डर के इस माहौल में स्वभाव से संकोची- शर्मिले बहादुर खामोशी को तोड़ते हुए पहला सवाल करते हैं. आपलोग पत्रकार हैं तो यह एक बात मालूम होगा कि हमारे पुरखों ने जंगल-पहाड़ों की दुर्गमता से लड़ाई लड़ अपने रहने के लिए, अपनी खेती बारी के लिए जगह तैयार की. जानवरों की खोह में इंसानों के आने-जाने के अवसर उपलब्ध करायें लेकिन जब इसके एवज में वर्षों से पानी-बिजली की मांग करते रहे तो कोई सुनने को तैयार नहीं. बहाने लाख बने लेकिन हमारे ही गांव के बगल में जब कंपनियां आती है तो उनके लिए दस दिनों के अंदर ही बिजली-पानी-सड़क आदि का इंतजाम हो जाता है. ऐसा क्यों?
बहादुर अपनी बात जारी रखना चाहते हैं. अगला सवाल होता है- आप यह बतायें कि यदि कोई ग्रामीण एक शाम का खाना माओवादियों को मजबूरी मंे खिला देता है तो उसे नक्सली मददगार घोषित करते हुए मारा-पीटा जाता है, जेल भेजा जाता है लेकिन उद्योगपति, व्यवसायी, कारोबारी वर्षों से लाखों-करोड़ों की लेवी देते हैं, वे नक्सली मददगार क्यों नहीं घोषित होते. शर्मिले-संकोची बहादुर सिंह का स्वर मुखर होता है. अगला सवाल फिर- आपने कभी सोचा है कि नक्सलियों और पुलिसवालों को, दोनों को ही सारंडा से इतना मोह क्यों है?
हम भी इसी सवाल का जवाब तलाशने गये थे कि आखिर एशिया के सबसे बड़े साल जंगल में ही इतनी रुचि क्यों जबकि नक्सलियों का सारंडा से कोई कम खौफ झारखंड के और भी दूसरे इलाके में नहीं है. चतरा जिले में में तो माओवादियों ने प्रतापपुर के 40 से अधिक गांवों की जिंदगी को चार माह तक नाकेबंदी कर कैद कर रखा था लेकिन वहां कोई बड़ा आॅपरेशन नहीं चला. पलामू के भी गांवों में साल के आरंभिक माह में ही कई गांवों की जिंदगी माओवादी फरमान के कारण रूकी रही. लातेहार इलाके में जहां कई प्रखंड ऐसे हैं, जहां एक-एक पत्ता माओवादियों की मर्जी से ही खड़कता है. गुमला के इलाके में जहां पाट और पहाड़ी क्षेत्रों के बीच नक्सली संगठन अपना राज चलाते हैं लेकिन वहां कोई बड़ा आॅपरेशन होता नहीं दिखता. रांची से सटे बुंडू-तमाड़ के इलाके में तो विधायक रमेश सिंह की हत्या, इंसपेक्टर फ्रांसिस इंदवार की हत्या हुई, कई-कई बड़े लूट कांड हुए, माओवादी नेता कुंदन पाहन की इजाजत के बगैर इलाके के गांवों में कुछ नहीं होता तो वहां कोई इतना बड़ा आॅपरेशन कभी क्यों नहीं चलाया गया जबकि कुछ माह पूर्व वहां के 40 गांवों के ढाई हजार ग्रामीणों ने पुलिस को यह भरोसा दिलाया था कि यदि आरपार की लड़ाई लड़नी है, इलाके से नक्सलियों को खदेड़ना है तो दो-तीन माह तक सघन अभियान चलायें, हम साथ देंगे. लेकिन वैसा कुछ नहीं हो सका. तो फिर सारंडा में ही इतनी रुचि क्यों?
दरअसल, सारंडा के नाम पर जो गरमाहट पिछले दिनों हुई उससे फिर कई सवाल खड़े होते हैं. 24 से 27 सितंबर के बीच करीबन तीन से चार हजार पुलिसबलों ने सारंडा एरिया के थोलकोबाद, मनोहरपुर, छोटानागरा, जराईकेला, दीघा, भालूलता, बिमलागढ़, राउरकेला, किरीबुरू के रास्ते इलाके को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की. दीघा, तिरिलपोसी जैसे गांवों में तीन दिनों तक जिंदगी ठहरी रही. कोबरा पुलिस के नेतृत्व में पहुंचे पुलिसबलों की इतनी संख्या के बावजूद माओवादियों ने 25 सितंबर को सात लैंडमाइंस विस्फोट कर दो जवानों को उड़ा दिया. कोबरा का भी एक जवान शहीद हुआ. कोबरा बटालियन के असिस्टेंट कमांडेंट नितेश कुमार घायल हो गये. इसके एवज में पुलिसवालो की ओर से द्वंद्व भरे बयान सामने आने लगे. कभी कहा गया कि दर्जन भर माओवादी मार दिये गये हैं, आधे दर्जन से अधिक कैंप ध्वस्त कर दिये गये हैं. फिर कभी कहा गया कि चार माओवादी मारे गये हैं. अचानक से आॅपरेशन को रोक दिया गया और सारे पुलिसवाले बीहड़़ से वापस आ गये तो एक लाश को दिखाया गया कि एक माओवादी की लाश हमारे हाथ लग सकी है, बाकि के लाश माओवादी उठा ले गये. लेकिन इस बात का खंडन करते हुए माओवादी प्रवक्ता समरजी का कहना है कि इस मुठभेड़ से उनके संगठन को कोई नुकसान नहीं हुआ. न ही कोई कैंप ध्वस्त हुआ, न ही कोई मारा गया, पुलिस गलत बयानी कर रही है. इस बाबत पूछे जाने पर चाईबासा जिला के एसपी अरुण कुमार कुछ भी बताने से इंकार करते हैं. वह कहते हैं िकइस संबंध में राज्य के वरीय पुलिस पदाधिकारी ही कुछ बता सकते हैं. वरीय पुलिस पदाधिकारियों में डीजीपी नेयाज अहमद कहते हैं कि हमने सफलता पायी है, अब फिर नये सिरे से बड़े स्तर पर आॅपरेशन की शुरुआत होगी. माओवादी प्रवक्ता समरजी या पुलिस पदाधिकारियों की बात को परे कर दे ंतो इलाके में अधिकांश लोग यह मानने को तैयार नहीं कि करीबन 72 घंटे तक इलाके को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग आदि करने के बाद पुलिस ने कुछ हासिल किया. सिवाय इसके कि इलाका अशांत रहा. जैसा कि छोटानागरा में मिले प्रमोद सिंकू कहते हैं- पुलिस या तो आरपार की लड़ाई लड़े या हमें माओवादियों के भरोसे छोड़ दे. हमलोग तो दोनों के बीच पीस कर बर्बाद हो रहे हैं. न इधर के रहे हैं, न उधर के. यहां की नयी पीढ़ी दहशत और हिंसा के बीच पैदा हो रही है. उससे भविष्य में एक सभ्य, जिम्मेवार भारतीय नागरिक बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
सिंकू सच ही कहते हैं. सारंडा हमेशा से ही शिकारगाह बना रहा है. पहले यह सरायकेला इस्टेट का शिकारगाह हुआ करता था, अब बड़ी कंपनियों, दलालों, माओवादियों के लिए शिकारगाह है. इतिहास में जाये ंतो 19 दिसंबर 2001 को पुलिस ने इस इलाके में नक्सली ईश्वर महतो को मार गिराया था, जिसके बाद नक्सलियों ने एक का बदला सौ से लेने की बात कही थी. सौ तो नहीं लेकिन आधिकारिक तौर पर अब तक 70 का आंकड़ा सारंडा के इलाके में पहुंच चुका है. सुरक्षाबलों के लिए कब्रगाह बन चुके सारंडा में 19 दिसंबर 2002 को नक्सलियों ने बिटकलसोय में बम विस्फोट कर 12 पुलिसकर्मियों को मार गिराया था. ग्रामीण भी मारे गये थे और करीब 34 महत्वपूर्ण हथियार लूट लिये गये थे. उसके दो साल बाद ही बलिवा कांड हुआ, जिसमें करीब तीस पुलिसकर्मी शहीद हो गये. दो साल बाद 2006 में फिर नक्सलियों ने एक बड़े कांड को अंजाम दिया, जिसमें 12 पुलिसवालें शहीद हुए. पुलिसवालों की शहादत, गोली-बारूदों की आवाज ने शांत सारंडा को अशांत इलाके में तब्दील कर दिया गया.
प्रसिद्ध पर्यटन स्थल को खुंखार व जानलेवा जंगल में बदलने में सबसे बड़ी भूमिका नक्सलियों की रही और उतनी ही भूमिका राजनीति की भी. इसी इलाके से मधुकोड़ा जैसे नेता मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे लेकिन उन्हेांने खान-खदानों का जो खेल किया, सबने देखा. वर्तमान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा भी सारंडा के पड़ोस के ही हैं. दूसरी ओर नक्सलियों का ट्रेंड देखें तो पता चलेगा कि वह किसी एक इलाके में बहुत दिनों तक डेरा नहीं डाले रखते लेकिन सारंडा एक ऐसी जगह है, जहां से नक्सली किसी भी कीमत पर नहीं जाना चाहते. सबसे बड़ा कारण है वहां से मिलनेवाली मोटी लेवी की रकम. खुफिया विभाग ने दो साल पहले पुलिस मुख्यालय को जो जानकारी दी थी, उसके अनुसार पश्चिमी सिंहभूम से ही सबसे ज्यादा लेवी की वसूली माओवादी करते हैं. एक आंकड़े के अनुसार यह रकम चार करोड़ 46 लाख 30 हजार रुपये सालाना है. हालांकि जानकार बताते हैं कि खुफिया विभाग की यह जानकारी सही नहीं बल्कि इस इलाके से लगभग एक करोड़ रुपये प्रतिमाह की लेवी दी जाती है. मनोहरपुर में मिले सामाजिक कार्यकर्ता और मानकी-मुंडा समिति के सलाहकार डाहंगा बताते हैं कि यह सब धीरे-धीरे हुआ. पहले यहां के लोग बहुत शांत थे, अब भी शांत हैं. लेकिन जब से खनन कंपनियों के साथ दलालों का आना शुरू हुआ, तब से पूरी व्यवस्था ही बदल गयी. यहां के नौजवानों को माओवादी संगठन यह फरेबियत दिखाने लगे कि यदि थोड़ी कोशिश करो तो पैसे की भरमार है. उसी पैसे के फेरे में नौजवान इसमें जुड़ते चले गये और अब तो जो हालात है, सामने है.
सारंडा के जंगलों में घूमते हुए रास्ते में आपको हाथियों के समूह, टेढ़े-मेढ़े रास्ते मिलेंगे, चारों ओर पहाड़ियां ही पहाड़ियां, तो लगता है कि सात सौ पहाड़ियों के इलाके में हैं लेकिन लगभग 80 हजार हेक्टेयर के क्षेत्रफल में फैले एशिया के सबसे बड़े जंगल में जितने किस्म के संकट हैं, उससे भयभित होना स्वाभाविक है. कई जगहों पर सड़क को ही खलिहान बने देखना साफ बताता है िकइस रास्ते कभी-कभार ही कोई आता-जाता होगा. कई जगहों पर उड़े सड़क बताते हैं कि यहां कभी विस्फोट हुआ है. अंदर के गांव जाने के रास्ते में पेंड़ पर स्थायी तौर पर लगे नक्सली पोस्टर बताते हैं कि यहां पोस्टर को हटानेवाला कोई नहीं. इन सबके बीच एक स्कूल में फुटबाॅल मैच खेलती लड़कियों को देख भय के आलम में रोमांच का अनुभव होता है. सारंडा तबाही और बर्बादी के उस मुहाने पर पहुंच चुका है जहां से वापस आने की उम्मीदें नहीं दिखती. माओवादियों के बारे में या पुलिसवालों के बारे में बच्चे तक कुछ नहीं बताना चाहते. लेकिन निराशा के गहरे गर्त में भी कहीं-कहीं टिमटिमाती उम्मीदें दिखती हैं. जैसा कि मनोहरपुर में मिले हितेंद्र कहते हैं- नक्सली कोई क्रांति न हीं कर रहे न ही उन्हें बदलाव आदि से कोई लेना-देना रह गया है. उनका मुख्य काम पैसे की उगाही है. जब वाकई उन्हें बदलाव से मतलब होता तो सारंडा का ही एक हिस्सा है बंदगांव का इलाका. जहां जंगल माफियाओं ने पिछले दस वर्षों से तबाही मचा रखी है. बच्चों से जंगल कटवाते हैं. ग्रामीणों का घर जला देते हैं. महिलाओं से दुष्कर्म करते हैं लेकिन कहां कभी किसी माओवादी नेता उन माफियाओं को सजा देने सामने आया. हितेंद्र आगे बताते हैं कि इसी सारंडा को ठेकेदारों ने लूटा, कहां माओवादी ठेकेदारों को मारते हैं. उन्हें तो सिर्फ पुलिसवालों से दुश्मनी है लेकिन यह भूल जाते हैं कि पुलिसवाले भी अपनी नौकरी करते हैं. हितेंद्र हमें माओवादियों और ठेकेदारों-बिचैलियों के रिश्ते को समझने के लिए गोइलकेरा जाने के लिए कहते हैं. रास्ते में बहादुर मुंडा बताते हैं कि इतना ही नहीं एक और खेल भी चलता है. ठेकेदारों और माओवादियों की दोस्ती इतनी गहरी होती है कि आप विश्वास नहीं कर सकते. ठेकेदार किसी पुल-पुलिया का निर्माण करवा रहे होते हैं तो माओवादियों से सेटिंग कर वे बीच में ही उसे उड़वा देते हैं. फायदा यह होता है कि ठेकेदार सरकारी फाइलों में यह दिखा देते हैं कि हमने तो 90 प्रतिशत कार्य पूरा करवा लिया था, माओवादी उड़ा दिये तो हम क्या करें. पेमेंट 90 प्रतिशत कार्य के आधार पर होता है, कार्य दस प्रतिशत ही हुआ रहता है. दिखावे के लिए या फिर जनता को जोड़े रखने के लिए नक्सलियों ने किरीबुरू के इलाके में किसानों को पंपिंग सेट वगैरह भी दिये हैं, जिससे वे खेती करते हैं.
मनोहरपुर से वापसी में हम गोइलकेरा में रूकते हैं. गोइलकेरा की एक चाय दुकान पर मिले वंशीधर समीकरण और सांठगांव को समझाते हैं. वह कहते हैं- आप यह सोच सकते हैं कि इतने घनघोर जंगल में पुलिस की इतनी मुस्तैदी के बीच माओवादियों को खाद्य सामग्री किस तरह पहुंचती होगी. उनके पास अत्याधुनिक चीजें कैसे पहुंच जाती है. उनके पास सारे लैटेस्ट इलेक्ट्राॅनिक इक्विपमेंट कैसे रहते हैं. कभी इस खेल में खुद शामिल रह चुके वंशीधर कहते हैं- माओवादियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कई चैनल बने हुए हैं. सबसे बड़े चैनल ठेकेदार हैं जो निर्माण कार्य के लिए ले जायी जा रही सामग्री के बीच या मजदूरों को खिलाने-पिलाने के नाम पर सारी खाद्य सामग्री माओवादियों तक पहुंचा देते हैं. बाकी बची कसर रेल से पूरी की जाती है. सारंडा के इलाके में रेलगाड़ियों का परिचालन माओवादियों के इशारे पर ही होता है. वह जहां चाहते हैं गाड़ियां रूकती है, फिर उसमें सामग्री लोड की जाती है और निर्धारित पड़ाव पर उसकी डिलिवरी कर दी जाती है. रेल ड्राइवर या गार्ड कुछ नहीं कह पाते क्योंकि उन्हें पता है कि झारखंड से होकर 1500 किलोमीटर की रेल लाइन गुजरती है, जिसमें करीब 1300 किलोमीटर की यात्रा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से ही होती है. 292 रेलवे स्टेशनों में 168 उनके निशाने पर हैं.
खैर! इन सारी बातों के साथ बहादुर सिंह मुंडा के सवाल सारंडा यात्रा में बढ़ते जा रहे थे. बहादुर बताते हैं कि अभी तो कम भयावह है लेकिन कुछ वर्षों बाद यहां सिर्फ और सिर्फ खून की नदियां ही बहनी है. पुलिस हथियारों के बल पर नक्सलियों से पार पाना चाहती है, जो संभव नहीं. गांववालों को भरोसे में लेना होगा. विकास करना होगा. जब हम किरीबुरू के इलाके मंेज ा रहे होते हैं तो बीच में कहीं रूककर बहादुर किसी के घर से कागज का एक टुकड़ा लाते हैं. उसे बांचते हुए कहते हैं- आपको मालूम न कि यहां एक चीड़िया माइंस है, जहां एशिया की सर्वश्रेष्ठ कोटी के अयस्क मौजूद हैं. दुनिया में ऐसा उत्कृष्ट कोटी का लोहा सिर्फ अमेरिका में ही पाया जाता है. वह बताते हैं कि सारंडा खनन से खोखला हुआ है. 80 हजार हेक्टेयर वाले इलाके में फिलहाल 14022 हेक्टेयर माइनिंग से प्रभावित इलाका है. नये माइंस के लिए 37814 हेक्टेयर में प्रस्ताव मिला है. दोनों को मिला दे ंतो यह खेत्रफल 51836 हेक्टेयर पहुंचता है. इस तरह मात्र 28 164 हेक्टेयर इलाका ही वैसा बचेगा, जिसमें जंगल भी बचे रहेंगे, इंसानों को भी रहना होगा और जानवरों को भी.
गोइलकेरा से चक्रधरपुर आने के क्रम में कई-कई सवाल सामने होते हैं. हम चाईबासा जाते हैं जहां प्रसिद्ध प्राध्यापक प्रो अशोक सेन से मुलाकात होती है. प्रो सेन कहते हैं कि यह अभिशप्त इलाका है. अंग्रेजों के जमाने में यहां उनका जुल्म था, अब नये शासकों का जुल्म है. प्रो सेन कहते हैं कि पुलिस बार-बार तमाशा क्यों करती है. यदि कोई अभियान चलाना है तो गंभीरता से चलाओ या नहीं चलाओ. यह क्या है कि चलायें, इलाका मानसिक तौर पर तैयार हुआ तो बीच में रोक दिये. वह बताते हैं कि आप इसी से समझ सकते हैं कि चाईबासा कोल्हान का एक प्रमुख स्थान है. यहां से जमशेदपुर के बीच अंग्रेजों के जमाने में भी एक ही सवारी गाड़ी चलती थी, अब भी एक ही चलती रही. अभी हाल में आंदोलन के बाद एक और गाड़ी का ठहराव हुआ है. अंग्रेजों ने इसे मालगाड़ी के लिए बनाया था, अब के शासक भी इंसानों की बजाय माल को ही ज्यादा तरजीह देते हैं. विकास ही नहीं हुआ तो क्या होगा, विनाश तो तय है, चाहे जिस रूप में है. लेकिन मध्यप्रदेश कैडर केे पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और वर्तमान में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के नक्सल मैनेजमेंट डिविजन के सदस्य डीएम जाॅन मित्रा कहते हैं कि माओवादियों को दमन से तो खत्म नहीं ही किया जा सकता लेकिन विकास से भी वे खत्म नहीं होंगे.राजनीतिक सक्रियता जरूरी है और असामनता की लकीर जो वर्षोें से खिंची गयी है, उसे धीरे-धीरे पाटना होगा. छल और फरेब सार्वजनिक संस्थानों ने भी किया है, उसे सुधारना होगा लेकिन लौंग टर्म प्लानिंग के तहत काम करना होगा.
सारंडा की खाक छानने के बाद हम चक्रधरपुर पहुंच चुके थे. वहां बहादुर सिंह मुंडा विदा लेते हैं. कहते हैं- सेवा समाप्त. अब यह भूलकर जायें कि हम और आप कभी मिले भी हैं. चक्रमधर में रात आठ बज गये थे. बहादुर समझाते हैं- आगे टैबोघाटी में भी वही फाॅर्मूला अनाइयेगा. वह भी सारंडा का ही हिस्सा है. तेज म्यूजिक, तेज और रूक-रूक कर लगातार हाॅर्न बजाना, खिड़कियों के शीशे को खोले रखना... टैबोघाटी यानी बंदगांव से टैबो थाना तक का वह इलाका, जो चाईबासा, चक्रधरपुर, सारंडा इलाके में जाने की मुख्य सड़क है. इन दोनों थाना क्षेत्रों के बीच करीब 30 किलोमीटर की यात्रा करनी होती है, जहां कोई मोबाइल काम नहीं करता. जो टावर लगाया जाता है,उड़ा दिया जाता है. रोड की हालत यह है कि आप 60 की स्पीड में भी नहीं चल सकते. बंदगांव की बंद गलियां और टैबो की टफ घाटी फिर से रांेगटे ख़ड़े करते हैं. भय के इस माहौल से निकलते यानी टैबोघाटी पार करते ही एक बार बहादुर सिंह मुंडा का फोन आता है- कहां पहुंचे? फिर बहादुर कहते हैं कि आप असल सारंडा तो जा ही नहीं सके, जिसके लिए यह कभी मशहूर रहा है. आप न तो कायदे से छोटानगरा का मंदिर देख सके, न दक्षिण कोयल नदी में सुवर्ण कणों को, न थोलकोबाद, जहां ज्वालामुखी फटने के अवशेष हैं, न टायबो जलप्रपात देखने गयें, जहां 116 प्रकार के प्रजाति के पौधे मौजूद हैं. फिर बहादुर कहते हैं, कोई बात नहीं- समीज आश्रम तो देख लिये न, जो शंकराचार्य द्वारा स्थापित है और जहां पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव भी आ चुके हैं. कम से कम आपने मनोहरपुर से सूर्यास्त होते तो देख लिया न, जिसे देखने के लिए दस साल पहले तक सैकड़ों की संख्या में उड़िसा, बंगाल, बिहार के पर्यटक पहुंचते थे.

Monday, January 17, 2011

नींद न परे राती एहो दैया, झुरत पलंग वैसी मने मन...

घासी की थांती पर फेरे हाथ

जिस तरह भारतवर्ष में हिंदी का महत्व है, कुछ वैसा ही महत्व झारखं डमें नागपुरी का है. 1859-1926 के कालखंड मंे रहने वाले झारखं डमें नागपुरी के एक महान कवि घासीराम ने कई ऐसी रचनाएं की, जो आज भी झारखंड के हर गांवों के अखरे में सुनाये जाते हैं. गाये जाते हैं. उनकी तुलना विद्यापति से की जाती है. घासीराम का रचना संसार बड़ा था, उन पर हुए शोधकार्य भी विस्तृत हैं लेकिन विडंबना यह है कि उनके परिजनों ने जिस एक स्मृति को संजोकर रखा है, वह भी अब आखिरी पड़ाव में है. घासीराम के परिजनों की पीड़ा क्या है, पढ़िए एक रिपोर्टः-


अनुपमा


घायल बिहरबान, थिर न रहत प्राण
निसु दिने रे दैया
दहत मदन तन छने-छन.
सिहरी उठति छाती
नींद न परे राती
एहो दैया, झुरत पलंग वैसी मने मन...
रांची से करीब 50 किलोमीटर की दूरी तय कर हम करकट गांव पहुंचे थे. रामेश्वर राम के दरवाजे पर हाजिर थे. लगभग आधे घंटे की प्रतिक्षा के बाद किसी तरह घिसटकर, पैरों और हाथों के बल चलकर घर की देहरी तक पहुंचते हंै रामेश्वर. लगभग पंद्रह मिनट तक शांत रहते है रामेश्वर राम और उसके बाद स्थूल पड़े लकवाग्रस्त शरीर की पूरी उर्जा समेट कर इस गीत को जब सुनाते हैं तो कुछ देर के लिए वहल अलग ही दुनिया रचाते-बसाते हैं. हम उनकी शारीरिक अस्वस्थता को देख उनसे विनम्र निवेदन करते हैं कि बस, दादा अब रहने दीजिए, आपने एक सुना दिया न! रामेश्वर बिना कुछ बोले दूसरे गीत को गाना शुरू कर देते हैं. दूसरे गीत को खत्म कर लेेने के बाद कहते हैं- जानते हंै आपने गीत सुनने की फरमाईश किससे की है! हुलास राम के बेटे से. फिर रामेश्वर कहते हैं- आपको मालूम कि हुलास कौन थे- घासीराम के बेटे. फिर रामेश्वर का सवाल होता है, आपको यह पता है कि घासीराम कौन थे! एक वाक्य बोलने में भी काफी परेशानियों से गुजरनेवाले रामेश्वर राम उस वक्त सवालों का अंतहीन सिलसिला शुरू करने जा रहे थे कि बीच में ही जबान लड़खड़ाने लगा. कुछ देर दम लेने के बाद एक वाक्य बोलते हैं- हम एक गीत नहीं गा सकते.थे जब भी गायेंगे जोड़ा ही गायेंगे, इसलिए आपने मना किया तो भी नहीं माना. और जब गीत गाना शुरू कर देंगे तो चाहे कुछ भी हो जाये, उसे आधे में नहीं छोड़ेंगे, पूरा कर के ही दम लेंगे.
रामेश्वर राम की आधी-अधूरी रह गयी बातों को देवकी किस अंदाज में पूरा करती हैं, उसकी बात करने से पहले यह जानते चलें कि घासीराम कौन थे? घासीराम झारखंड के जनमानस मंे बसे ऐसे कवि-गीतकार हैं, जिनके गीतो के बोल शायद ही छोटानागपुर का कोई गांव ऐसा हो, जहां सुनायी न पड़ते हो. घासीराम वह कवि थे, जिनकी किताब ‘नागपुरी फाग शत्तक‘ 1911 में ही मुंबई से प्रकाशित होकर आयी थी और झारखंड के गांव-गांव तक पहुंच गयी थी. घासीराम वह रचनाकार हैं, जिन्होंने दुर्गा सप्शति को नागपुरी गीतों-कविताओं में ढाल कर एक पुस्तक ही तैयार कर दी थी. जिन्होंने चंडीपुराण का नागपुरी गीतमय अनुवाद कर दिया था. घासीराम का रचना संसार यहीं खत्म नहीं होता, जब उनके किताबों का छपने का प्रबंध नहीं हुआ तो उन्होंने काॅपियों में ही किताब की शक्ल में लिखना शुरू किया और चंडीपुराण, रामजन्म, कृष्ण का जीवन, चैंतिसा, सुदामाचरित, उषा हरण, नागवंशावली जैसी पुस्तकों को रचा जो अप्रकाशित रह गये.
रामेश्वर राम की पत्नी और घासीराम की पौ़त्रवधु देवकी देवी कहती हैं- घासीराम सिर्फ इतने भर नहीं थे, उनके बारे में यह कहावत मशहूर है कि एक ढेला को हवा में उछालो और वह जब तक वापस जमीन पर आकर गिरेगा, उतने देर में घासीराम एक गीत की रचना कर देते थे. लेकिन इन सबके बीच विडंबना यह है कि झारखंड के इतने बडे़ रचनाकार की स्मृतियां अब उनके गांव में भी उस तरह नहीं बची हुई है. उनके नाम पर कहीं कोई एक सांस्कृतिक प्रतिमान तक खड़ा हो सका. करकट गांव में उस खपरैल मंदिर को दिखाते हुए रामेश्वर राम के बेटै देंवेंद्र कहते हैं- यह ीवह मंदिर है, जहां घासीराम रोज बैठा करते थे, रचना करते थे. हमने अपनी औकात के हिसाब से सारे पुराने घरों को तोड़ परिवारों के बंटवारे के हिसाब से नये घर बना लिये लेकिन यह मंदिर वैसे ही रहने दे रहे हैं. इस उम्मीद के साथ कि कभी न कभी तो कोई आयेगा, जो यह पूछेगा कि क्या घासीराम की कोई स्मृति यहां बची है तो यह मंदिर दिखा सकेंगे. बाकि के सारी थांति पर तो बड़े विद्वानों ने हाथ की सफाई कर दी. इसका आशय पूछने पर देवेंद्र कहते हैं कि कुछ साल पहले तक यहां तरह-तरह के बौद्धिक जमात के लोग आते थे. घासीराम के बारे में दो-चार बातें बताते थे. स्मारक, लाइब्रेरी आदि बनाने-बनवाने आदि की बातें कहते थे और दर्जनों की संख्या में उपलब्ध घासीराम जी की पांडुलिपियों में एकाध लेकर जाते थे. कुछेक इस आश्वासन के साथ भी कि इसे किताब की शक्ल में छपवा देंगे. लेकिन वे बौद्धिक फिर वापस नहीं आते थे, हर बार कोई नया ही चेहरा सामने होता था, नये अंदाज में और ऐसे ही नये-नये चेहरों ने एक-एक कर सारी पांडुलिपियां तक अपने पास रख ली, यहां तक कि उनकी कुछ प्रकाशित किताबें थीं, वह भी ले गये. बौद्धिक जमात की इस चैर्यकला पर कोई कुछ नहीं बोलता. हालांकि रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा विभाग के प्रमुख डाॅ गिरिधारी राम गौंझू कहते हैं- यह जिसने भी किया अच्छा नहीं किया लेकिन हम यह भी नहीं कह सकते कि घासीराम आज हाशिये पर चले गये हैं या उपेक्षित रहे हैं. गौंझू कहते हैं कि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को आधार बनाकर कई-कई शोध हुए हैं. डाॅ श्रवण कुमार गोस्वामी, डाॅ बीपी केशरी, डाॅ गोविंद साहू, कविवर नहन जैसे विद्वानों ने गहनता से अध्ययन किया है. उससे लोगों को वाकिफ कराने का काम किया है. लेखक व नागपुरी गीतों की दुनिया पर गहराई से काम करनेवाले नागपुरी संस्थान के प्रमुख प्रो बीपी केशरी कहते हैं-घासीराम की तुलना नागपुरी में विद्यापति से की जाती है, जिन्होंने कई-कई उत्कृष्ट रचनाओं से नागपुरी गीत व कविता संसार को समृद्ध किया. यह सच भी है कि घासीराम पर कई-कई महत्वपूर्ण शोध कार्य हुए हैं लेकिन इससे उनके परिजनों की टीस कम नहीं होती. जैसा कि देवेंद्र कहते हैं- हमें क्या मिला! हम किसी पैसे की मांग नहीं कर रहे. हम लालची नहीं हैं लेकिन यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि उनकी स्मृति में कुछ तो हो जाये. देवेंद्र कहते हैं कि घासीराम के परिजनों ने उनकी विरासत को अपने स्तर से हर संभव संजोकर रखने की कोशिश की है. घासीराम के बेटे हुलास राम एक बड़े कवि हुए. उन्होंने शिव वंदना, फगुआ आदि पुस्तकों की रचना की. खुद बहुत बढ़ियां गाते भी थे. हुलास राम के बेटे यानि मेरे पिता रामेश्वर राम, जब तक स्वस्थ रहे, तब तक हर रोज सुबह-शाम घासीराम के गीतों को गाकर रियाज करते थे, कंठस्थ कर लिये हैं उनके गीतों को. और अब मैं, यानी घासीराम के परिवार की चैथी पीढ़ी भी उनके गीतों को गाने की कोशिश करता हूं लेकिन मेरे पास तो उनके गीत तक नहीं बचे हैं. जो ले गये हैं, यदि वे मेहरबानी कर लौटा दे ंतो हम उस विरासत को संभालकर रख सकेंगे, हमें भी सहेजने की कला आती है. इतना सब कहने के बाद देवेंद्र घर में जाते हैं. चिथड़े हो चुके कुछ काॅपियों को लाते हैं और उसमें से एक गीत अलाप लेकर गुनगुनाते हैं. एक को खत्म करने के बाद तुरंत दूसरे गीत को भी पूरा करते हैं. जोड़ा गीत परंपरा का निर्वाह करते हुए. चलते समय वह कहते हैं- हमारे परिवार वालों को अब भी घासीराम के कई गीत कंठस्थ है, आपलोग उसे प्रकाशित करवा सकते हैं. हम गीतों को उपलब्ध करवा सकते हैं, अपनी स्मृति के आधार पर. इतने छल के बावजूद घासीराम के परिजनों की उम्मीदें नहीं टूटी, यह गौर करनेवाली बात है.