Thursday, September 30, 2010

अपेक्षाओं और उपेक्षाओं की मायानगरी- ‘झॉलीवुड’

अनुपमा

मोरहाबादी मैदान के पास हम ऐक्शन, कैमरा, कट और शॉट जैसे शब्द सुनकर रुक जाते हैं. किसी गाने की शूटिंग चल रही है बिना किसी मेकअप रूम के. कोई एयरकंडीशनर नहीं, न ही कोई और ताम-झाम. मौजूद लोगों में से एक चिल्लाता है- जल्दी करो, ट्रैफिक का टाइम हो रहा है. तकनीक के नाम पर इनके पास सामान्य वीडियो कैमरे हैं और एडिटिंग के लिए भाड़े पर ली गई बुनियादी-सी मशीनें. स्टूडियो के नाम पर मुफ्त की पहाड़ियां, मैदान, नदियां और सड़कें.

आम-से वीडियो कैमरे से ‘बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा’ सरीखी डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके निर्माता-निर्देशक श्रीप्रकाश ने पहली बार झॉलीवुड के लिए फीचर फिल्म बनाई थी. नागपुरी और सादरी भाषा में बनी इस फिल्म का नाम था ‘बाहा’. झॉलीवुड की मायानगरी में संघर्ष कर रहे कलाकारों पर आधारित इस फिल्म ने झारखंड में बहुत नाम कमाया, लेकिन कमाई के नाम पर बस लाख-सवा लाख रुपए ही जुटा पाई जो इसकी लागत का एक मामूली-सा हिस्सा भर था. गौरतलब है कि यहां एक फिल्म करीब 6 से 7 लाख रुपए में बनती है, जो हिंदी फिल्मों के चरित्र कलाकार के मेहनताने से भी काफी कम है.

फिल्म निर्माता कमाई न कर पाने की दो मुख्य वजहें बताते हैं. एक- झारखंड के सारे सिनेमाहॉल बहुत बुरी हालत में हैं जहां कुछ गिने-चुने दर्शक ही जुटते हैं (कुछ हॉलवाले डिजिटल फिल्मों को दिखाने में आनाकानी भी करते हैं). टिकटों की कीमत छोटे शहरों में 8 से 14 रुपए और रांची जैसे शहरों में 20 से 60 रुपए तक है. रांची जैसे शहरों में इन फिल्मों को बस मॉर्निंग शो में ही दिखाते हैं, इसलिए व्यवसाय की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाती. इसके अलावा ज्यादातर घरों में इन फिल्मों की पायरेटेड डीवीडी पहले-दूसरे दिन ही पहुंच जाती हैं
चूंकि झॉलीवुड कमाई के मामले में बहुत पीछे है लिहाजा इसके सितारे भी ज्यादा पैसा नहीं कमा पाते. झॉलीवुड के एंग्री यंग मैन दीपक लोहार के अलावा यहां कोई अन्य हीरो या हीरोइन आर्थिक दृष्टि से बहुत मजबूत नहीं हैं. ‘बाहा’ की 29 वर्षीया हीरोइन शीतल सुगंधिनी मुंडा समुदाय से हैं. एक इतनी नामी फिल्म में काम भी उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव नहीं ला पाया है. वे एक एनजीओ में नौकरी करती हैं. ‘झारखंड का छैला’ के निर्देशक अनिल सिकदर के लाइटिंग इंजीनियर ऋषिकेश के मुताबिक इन फिल्मों में हीरो को तकरीबन 20 और हीरोइन को 15 हजार रुपए मिलते हैं. कुछ तो अपने घर का भी पैसा लगा देते हैं, इस उम्मीद में कि एक बार जम गए तो आगे उनकी पूछ बढ़ेगी. सपनों के बनने और बिखरने का खेल बॉलीवुड की तर्ज पर यहां भी कम नहीं होता.

एनएफडीसी (राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम) की जिम्मेदारी भले ही भारत की क्षेत्रीय बोलियों में बनने वाली फिल्मों को बढ़ावा देना है पर शायद झॉलीवुड उनकी नजरों के दायरे से बाहर की चीज है. यह बात और है कि इन फिल्मों को भी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के उन्हीं मानकों पर परखा जाता है जिन पर अन्य स्थापित भारतीय फिल्म उद्योगों की फिल्मों का परीक्षण होता है. पर क्या सरकारी तंत्र इनके प्रति जरा भी जवाबदेह नहीं है?

फिल्म निर्माताओं का मानना है कि यदि सरकार उन्हें थोड़ी-सी टैक्स में सब्सिडी दे, सिनेमाहॉलों के लिए साल में छह सप्ताह इन क्षेत्रीय फिल्मों को दिखाना अनिवार्य कर दे और गांव-गुरबों के छोटे-छोटे सिनेमाहॉलों को बढ़ावा दे तो झॉलीवुड की भी किस्मत बदल जाएगी. 2008 में गठित अखिल भारतीय संथाली फिल्म समिति (एआईएसएफए) के अध्यक्ष रमेश हांसदा कहते हैं, ‘बिना किसी सरकारी सहयोग के हमने झारखंड में स्थानीय बोली और लोगों को लेकर फिल्में बनाई और दिखाई हैं. लोगों ने इन्हें खूब सराहा लेकिन सरकार हमें नजरअंदाज करती है, अगर वह हमारी ओर ध्यान दे तो कोई कारण नहीं कि हम अच्छा नहीं कर पाएं.’

हालांकि झॉलीवुड में बनने वाली ज्यादातर फिल्में डिजिटल कैमरों की सहायता से बनाई जाती हैं, मगर यहां अब तक 9 सेल्यूलाइड फिल्में भी बन चुकी हैं. समुदाय की आवाज को सेल्यूलाइड का माध्यम देने वाले ऐसे लोगोंं में करनडीह के रहने वाले दशरथ हांसदा (रमेश हांसदा के भाई) और प्रेम मार्डी का नाम पहले आता है. इन दो कलाकारों ने ही सबसे पहले 'चांदो लिखोन' (झारखंड की पहली जनजातीय फिल्म) बनाकर संथाली (आदिवासी) चलचित्र के सपने को साकार किया था. युगल किशोर मिश्र और रवि चौधरी ने भी कुछ सेल्यूलाइड फिल्में बनाई हैं. हालांकि महंगी होने की वजह से इन्हें वापस डिजिटल तकनीक का सहारा लेना पड़ रहा है.

‘अमू’ फिल्म को संगीत देने वाले और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पैठ बना चुके नंदलाल नायक भी अमेरिका छोड़-छाड़कर एक साल पहले झारखंड आ बसे हैं. वे एक महत्वाकांक्षी फिल्म बनाने में लगे हैं. यह फिल्म झारखंड से लड़कियों के पलायन और माओवाद के इर्द-गिर्द घूमती है. इसी तरह पत्रकार और संस्कृतिकर्मी मनोज चंचल भी पलायन को केंद्र में रखकर ‘बीरची’ नामक फिल्म बना रहे हैं. बिरसा मुंडा और आदिवासी आंदोलनों को केंद्र में रखकर भी कई फिल्में बनी हैं.

इसका यह मतलब कतई नहीं है कि यहां की फिल्में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों कजैसी होती हैं. झॉलीवुड अपने दर्शकों की जरूरतों का पूरा खयाल रखता है. यहां की लगभग सभी फिल्मों में गाने, रोमांस, ऐक्शन और मार-धाड़ वाले दृश्यों का अच्छा तालमेल होता है.

अनिल सिकदर के मुताबिक झॉलीवुड का सालाना कारोबार दो से ढाई करोड़ रुपए का है और यह अब झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बिहार तक फैलने लगा है. यहां की इकलौती इंफोटेनमेंट पत्रिका ‘जोहार सहिया’ के संपादक अश्विनी कुमार पंकज के मुताबिक आने वाले समय में झॉलीवुड में काफी संभावनाएं हैं.

त्रासदी यह है कि दर्शकों की अपेक्षाओं और सरकारी उपेक्षाओं के बीच फंसे झॉलीवुड की भिड़ंत उच्च तकनीक और तामझाम से लैस हिंदी फिल्मों से है, लेकिन झारखंड की मायानगरी अपने स्तर पर अपने अस्तित्व को बनाए रखने के संघर्ष में जुटी है और यह एक शुभ संकेत है

अजब कारनामों से भरे गजब प्रदेश में फिर सरकार

अनुपमा
और अंततः अजब कारनामों से भरे गजब प्रदेश झारखंड में फिर से सरकार बन ही गई. फिर वही गठबंधन, वही कुनबा, जो इसके पहले भी सरकार चला रहा था. भारतीय जनता पार्टी, आजसू और झारखंड मुक्ति मोर्चा. फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस बार मुखिया बदला है, पहले शिबू सोरेन मुख्यमंत्री थे, अब अर्जुन मुंडा. सरकार कितने दिन चलेगी यह कोई नहीं बता सकता.

झारखंड में सरकारों के भविष्य को लेकर कोई कुछ बता भी नहीं सकता. इस मामले में यह अनोखा प्रदेश है. राज्य गठन के दसवें साल में है, आठवीं बार मुख्यमंत्री के पद पर शासक का बदलाव हो रहा है. किसी और की बात क्या की जाए, खुद झारखंड के सबसे बड़े नेता और इस सरकार की स्टीयरिंग अपने हाथ में रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन तहलका से बातचीत में कहते हैं, 'यहां कोई सरकार कभी अपना कार्यकाल पूरा नहींे कर सकती.' अब शिबू की बात मान लें तो इस सरकार का भी हश्र वैसा ही होने वाला है, जैसा कि पहले एक-एक कर सभी सरकारों का होता रहा है. शिबू की बात छोड़ भी दंे तो आजसू के दूसरे नंबर के नेता और फिर से मंत्री पद पर विराजमान होने की कतार में लगे चंद्रप्रकाश चौधरी भी सरकार के भविष्य पर बहुत विश्वास के साथ कुछ नहीं कहते. हंसते हुए कहते हैं, 'देखिए, पूरा होइए जाएगा कार्यकाल...!'

लगभग तीन माह पहले तक इसी गठबंधन के सहारे शिबू की सरकार चल रही थी. कथित मान-सम्मान और विश्वास को झटका लगने की दुहाई देते हुए भाजपा ने शिबू को दगाबाज, धोखेबाज नेता करार दिया जिसके बाद सरकार गिर गई. लेकिन अब अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाने अथवा बनवाने के लिए 'पार्टी विद ए डिफरेंस' यानी भाजपा ने सारे नियम, आदर्श, सिद्धांत ताक पर रख दिए. भाजपा के कई दिग्गज दिल्ली में छटपटाते रहे लेकिन अध्यक्ष नितिन गडकरी ने विदेश से ही सरकार बनाने के लिए हरी झंडी दे दी. भाजपा संसदीय बोर्ड ने जिस शिबू के पाला बदलने के बाद उनकी सरकार को हटाने का निर्णय लिया था, उस संसदीय बोर्ड का फैसला धरा का धरा रह गया.

बकौल शिबू वे आज भी केंद्र में यूपीए के साथ हैं. केंद्र मंे यूपीए के साथ होने की बात कहने वाली पार्टी के साथ मिलकर राज्य में भाजपा द्वारा सरकार बनाने की हड़बड़ी ही वह अकेली चीज है जो इस बार की सरकार के लिए नई है. ऐसा क्यों, यह सवाल आजकल प्रदेश में अहम बना हुआ है. हर जगह एक ही चर्चा है कि यदि सरकार के लिए इन्हीं दलों का कॉकटेल बनना था तो फिर उस वक्त नौटंकी की जरूरत ही क्या थी! और फिर इस दरम्यान ऐसा क्या हो गया कि जिससे शिकायत थी, उसी से मोहब्बत हो गई.

राज्य के पहले मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी कहते हैं, 'छह माह पहले भी इसी गठबंधन की सरकार बनी थी, चार माह तक ही चल सकी. ढाई माह से राष्ट्रपति शासन है. अब फिर वही गठजोड़ सत्ता में है. वह सरकार क्यों गिरी थी और ढाई माह में कैसे सारे मनमुटाव दूर हो गए, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.' मरांडी आगे कहते हैं कि औद्योगिक घरानों ने सरकार बनवाने में कीमत लगाई है, खरीद-फरोख्त की भी राजनीति हुई है. मैं खरीद-फरोख्त की राजनीति नहीं कर सकता था, इसलिए मौका आने पर भी 25 विधायकों के होते हुए भी मैंने सरकार बनाने की पहल नहीं की.

लेकिन राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के विधायक दल की नेता अन्नपूर्णा देवी इस सरकार के गठन के लिए मरांडी को ही कटघरे में खड़ा करती हैं. वे कहती हैं, 'कांग्रेस और झाविमो चाहते तो सरकार पहले ही बन सकती थी. यदि कांग्रेस के नेतृत्व में ही सरकार बन जाती तो क्या हो जाता? वे बाबूलाल पर परोक्ष तरीके से निशाना साधते हुए कहती हैं, ' कहने को तो यहां कुछ साफ-सुथरी छवि वाले नेता भी हैं लेकिन मौका मिलने पर सबका स्वार्थ नजर आने लगता है.'

जाहिर-सी बात है कि इस नए ढांचे को सरकार की बजाय अपने-अपने स्वार्थों और मजबूरियों में जुटी एक भीड़ कह सकते हैं. झारखंड सरकार के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, 'चूंकि राष्ट्रपति शासन में काम तेजी से हो रहा था, भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने का सिलसिला शुरू हो चुका था और कई चीजें पटरी पर आने लगी थीं, इसलिए गैरकांग्रेसी दलों में छटपटाहट होना स्वाभाविक था. पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुविधा का छिन जाना और विधायकों के फंड के उपयोग पर रोक लग जाना सभी को परेशान कर रहा था. ऐसे में दलगत भावनाओं से परे जाकर हर छटपटाता हुआ विधायक बस किसी तरह, किसी भी सरकार के बनने की बाट जोह रहा था. इसलिए इस बार अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार बनने में न कोई हंगामा हुआ, न विरोधी गुटों के नेताओं की ओर से ही रटे-रटाए वाक्य दुहराए गए. वरना तीन माह पहले तक झामुमो के नेता भाजपाइयों के खिलाफ आग उगल रहे थे तो भाजपा के नेता झामुमोवालों को पानी पी-पीकर कोस रहे थे.'

झामुमो से राजनीतिक जीवन की शुरुआत करके भाजपा में कद्दावर नेता बनने वाले अर्जुन मुंडा को चालाक नेता और शासक माना जाता है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास को किनारे लगाकर जब से अर्जुन मुंडा ने सरकार बनाने की कमान अपने हाथों में ली थी, तभी से यह तय माना जा रहा था कि सरकार बनेगी. अब यह भी माना जा रहा है कि अर्जुन मुंडा हैं तो वे इस भानुमति के कुनबे को चला भी लेंगे. लेकिन चुनौतियां इतनी हैं कि उनके लिए भी ऐसा करना आसान नहीं होने वाला है. इस अजीबोगरीब गठबंधन के पेंच उन्हें हर समय परेशान करते रहेंगे.

फिलहाल यह सरकार भाजपा के 18, जदयू के दो, झामुमो के 18, आजसू के पांच और दो निर्दलीय विधायकों के गणित से चलने को तैयार है. दूसरी ओर शासन की चुनौतियां सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी हैं. पूरा राज्य सूखे की चपेट में है. केंद्र से पैसा लेकर राहत कार्य सही ढंग से पहुंचवाना बड़ा काम माना जाएगा. राज्य में विकास योजनाओं पर ब्रेक लगा हुआ है. सालाना बजट की चौथाई राशि भी अब तक खर्च नहीं की जा सकी है जबकि वित्तीय वर्ष के छह माह गुजर चुके हैं. पेसा कानून के तहत पंचायत चुनाव करा लेना मुंडा के सामने बड़ी चुनौती है. इन सबके साथ नक्सलवाद शाश्वत समस्या के तौर पर रहेगा ही.

झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पुत्र और राज्य के नए उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कहते हैं कि हमारी प्राथमिकता पंचायत चुनाव कराने की ही है, हम इसे अच्छे से कराएंगे. इस सरकार के गठन पर हेमंत कहते हैं कि जनता नहीं चाहती कि एक बार फिर चुनाव का बोझ उसके माथे पर पड़े, इसके लिए सरकार का बनना बहुत जरूरी था. 'हम भाजपा के साथ फिर से सरकार बना रहे हैं तो इस पर बहुत सवाल उठाने की जरूरत नहीं क्योंकि हमारे लिए दोनों राष्ट्रीय दल यानी भाजपा और कांग्रेस एक ही तरह की पार्टी हैं' भाजपा के साथ मिलकर फिर से सरकार बनाने पर सोरेन कहते हैं.

चुनौतियों से निपटना और विकास को गति देना अलग मसला है. झारखंड में फिर से वही बड़ा सवाल सामने है कि बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाएगी. यानी कि सरकार कितने दिन और चलेगी?

सदन में विपक्षी नेता कांग्रेस के विधायक राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अभी हम छह माह तक अविश्वास प्रस्ताव पेश नहीं कर सकते लेकिन इन दलों के गठबंधन में ही इतने कलह हैं कि इसका भविष्य बेहतर नहीं कहा जा सकता.

क्या होगा, यह आने वाला समय बताएगा, फिलहाल राज्य अपने स्थापना के दशक वर्ष में आठवें मुख्यमंत्री का आश्वासन सुनने को तैयार है, काम को परखने को तैयार है और बदलाव को देखने के लिए बेताब है