Friday, December 30, 2011

साल भर का इंतजार, महीने भर का काम, कौड़ियों के भाव

♦ अनुपमा

नया साल जश्‍न का माहौल लेकर आता है। नये सिरे से अपनी प्राथमिकताओं को तय करने का अवसर भी होता है यह। बीड़ी पत्ता मजदूरों के लिए भी यह अवसर एक खास किस्म की खुशी का भाव लेकर आता है। उम्मीदों की लहर पर सवार होकर आता है। यह खुशी किसी जश्‍न के माहौल से नहीं उपजता बल्कि हर साल नये वर्ष के आगमन पर हजारों बीड़ी मजदूरों के मन में कुछ दिनों के काम की आस जगती है। उसी कुछ दिन पर उनके परिवार का पूरा साल गुजर-बसर करता है।

यह वह समय होता है, जब सरकार की ओर से केंदु पत्ता के जंगलों की नीलामी होती है। वन विभाग की ओर से नीलामी की प्रक्रिया शुरू होते ही आस-पास की महिलाएं अपने काम के लिए नाम लिखवाने पहुंचने लगती हैं। नीलामी होने के बाद ठेकेदार 25 फीसदी रकम वन विभाग को दे देते हैं और जंगलों की साफ-तराशी करवाते हैं। ऐसा पेड़ों में ज्यादा नयी पत्तियां निकलवाने के लिए किया जाता है। साफ तराशी के लगभग चार महीने बाद महिला मजदूरों का काम शुरू होता है। केंदू पत्ता को तोड़ना शुरू किया जाता है। नये साल की सौगात पर उम्मीद व टकटकी लगाये बैठी हजारों महिलाओं को एक महीने का रोजगार मिल जाता है।

महिलाएं सबसे ज्यादा खपती हैं, वैसे सहभागिता पूरे परिवार की होती है। यह संख्या कोई मामूली नहीं। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो राज्य में लगभग 70,000 लोग केंदू पत्ता तोड़ने का काम करते हैं। यह सरकारी आंकड़ा है, अगर सही मायने में देखें तो यह संख्या लाख को भी पार कर जाता है।

यह तो मोटे तौर पर काम मिलने और उसकी प्रारंभिक प्रक्रिया की बात हुई लेकिन इतना हो जाने के बाद ही बीड़ी मजदूरों की दशा-दुर्दशा की कहानी शुरू होती है। बानगी के तौर पर देखें, तो वन विभाग मजदूरों के कल्याण के नाम पर हर परिवार को एक जोड़ी चप्पल और स्वास्थ्य बीमा कराये जाने की बात कहता है लेकिन कुछ लोगों को छोड़ दें तो शायद ही यह सुविधा किसी परिवार को मयस्सर हुई हो। यूं भी परिवार पर एक जोड़ी चप्पल का गणित समझ से परे की बात है।

अब मेहनताना में शोषण कथा की बानगी पर गौर करें। प्रति 50, 000 पत्तियों को तोड़ने, सुखाने और फिर उसे फांड़ी में पहुंचाने की कीमत मात्र 90 रुपये है। दिनभर कड़ी धूप में मेहनत करके पत्तियों को तोड़ने के बाद महिलाएं उसे अपने 50-50 पत्तियों का एक पोला बनाती हैं और उसे या तो जंगल की पहाड़ियों पर या फिर घर के पास के मैदान में सुखाने के लिए छोड़ देती हैं। सुखाने के बाद वे सरकार की ओर से बने संग्रह केंद्र यानि फांड़ी तक सर पर ढोकर लाती हैं। सरकार इस घोषणा और योजना को उपलब्धियों के तौर पर बताती हैं लेकिन इस प्रक्रिया में महिला मजदूरों की दुर्दशा देखकर रोना आएगा। ये महिलाएं सुदूर जंगलों में 10-15 किलोमीटर की यात्रा कर पत्तियां तोड़ने का काम करती हैं। जाहिर सी बात है, यह काम शौकिया तौर पर नहीं होता बल्कि कर्ज में डूबे हुए परिवार मजबूरी में इस कदर कमरतोड़ मेहनत करते हैं। ऐसा करने के क्रम में अधिकतर महिलाओं का शरीर बीमारियों का घर हो जाता है। कई बार तो गर्भपात तक हो जाने की शिकायत मिलती है। कभी पत्तियों के रसायन की वजह से तो कभी जंगलों के खतरनाक व दुर्गम रास्तों की वजह से। पत्तियों का काम खत्म होने के बाद महिलाएं बैग या बोरी में पत्तियों को बांधने का काम करती हैं। एक मानक बोरे में लगभग 50 हजार पत्तियां होती हैं। पोला के हिसाब से देखें तो यह संख्या एक हजार की होती है। फिर इन बैगों का गट्ठा बनाया जाता है।

ऐसी ही दुरूह प्रक्रिया के बाद बीड़ी बनाने का कच्चा माल तैयार हो पाता है। इसके बारे में जब वन विभाग के प्रबंध निदेशक बी आर रल्लन से बात होती है, तो वे कहते हैं कि हमारा विभाग ही राज्य में ऐसा है, जो खनन के बाद सबसे ज्यादा राजस्व लाभ पहुंचाता है। हम अगले वर्ष से मजदूरों के लिए तीन तरह की सुविधाएं देने जा रहे हैं। वे कहते हैं इन लोगों के स्वास्थ्य का ख्याल रखते हुए ही हम लोग स्वास्थ्य कैंप भी लगाते हैं लेकिन कैंप तक महिलाएं कम ही पहुंचती हैं, इसलिए इस काम में लगी महिलाओं को लाभ नहीं मिल पाता।

स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ रिचा बताती हैं कि इस काम में जुड़ी महिलाओं का स्वास्थ्य खराब होना और उससे गर्भपात होना सामान्य-सी बात है। वन विभाग के अधिकारी राजस्व में नंबर दो होने को उपलब्धि के तौर पर बताते हैं लेकिन जिनके दम पर यह राजस्व का खेल होता है, वह आहिस्ते-आहिस्ते अपनी मौत मर रहे हैं। ठेका लेनेवालों की स्थिति भी कम भयावह नहीं है। वे लोग अपना ही दुखड़ा रोते नजर आये। चाईबासा और गो़ड्डा समेत कई जिलों में बीड़ी पत्ते का ठेका लेनेवाले ज्ञानेश्वर पांडे बताते हैं कि सरकार और माओवादियों के कारण सिर्फ पुराने खिलाड़ी ही इस व्यवसाय में टिक पाते हैं। सरकार ने इस वर्ष प्रति मानक बोरा 650 रुपये तय किया है। इसमें से 90 रुपये बीड़ी पत्ता तोड़ने वालों को फिर लोडिंग करनेवालों को और उसके बाद माओवादियों को। हर बोरे के हिसाब से माओवादियों को कम से कम 70 रुपये तो देने ही पड़ते हैं। इसके अलावा दूसरी तरह की वसूली भी वे करते हैं। लेवी का एक बड़ा हिस्सा माओवादियों का इसी से जाता है। कई बार तो माओवादी कारोबार का एक बड़ा हिस्सा लेवी के नाम पर वसूल लेते हैं। इस बात की पुष्टि बीबीसी के डेनियल लेक भी करते हैं।

एक शोध के अनुसार वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों को लगभग 40 फीसदी लेवी इसी से आता है। सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार गोकुल बसंत कहते हैं कि झारखंड में 40 फीसदी तो नहीं लेकिन कुल कारोबार का 15 से 20 फीसदी माओवादियों की ही जेब में जाता है। चूंकि केंदू पत्ता का व्यवसाय जंगलों से जुड़ा हुआ है और बिना उनकी अनुमति के वहां से एक पत्ता भी नहीं टूट सकता है, इसलिए माओवादी अपनी मनमर्जी करते हैं। यदि सरकारी आंकड़ों को ही सच मान लें तो इस वर्ष 56 करोड़ से ज्यादा का व्यवसाय हुआ है। यदि इसका बीस फीसदी भी माओवादियों की जेब में गया है तो यह आंकड़ा 11 करोड़ को पार कर जाता है। ज्ञानेश्वर बताते हैं कि माओवादियों की सहमति के बिना एक पत्ता भी नहीं टूट सकता। यदि कोई नया व्यवसायी इस क्षेत्र में आता है तो उसे सिर्फ घाटा ही मिलेगा क्योंकि उनसे कई संगठन पैसे की वसूली करने लगते हैं।

वे बताते हैं कि कि 1988-89 में जिन लोगों ने इसका व्यवसाय किया, वे फायदे में रहे। उस समय इसे आप हरा सोना कह सकते थे। लेकिन धीरे-धीरे पत्तियां और जंगल कम होने लगे और पत्तियों का दाम बढ़ने लगा। वसूली के लिए ही माओवादियों के नाम पर कई संगठन खड़े हो गये हैं। स्थानीय निवासी महेंद्र और उप प्रबंधक मनीष भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि माओवादियों के खौफ से यह सब कम हो रहा है। दबी जुबान से वे बताते हैं कि हम तो नीलामी करके निश्चिंत हो जाते हैं पर ठेकेदारों को झेलना पड़ता है। वे खुल कर तो बहुत नहीं बोलते लेकिन इशारों में ही इस बात को बताते हैं कि जंगल, ठेकेदार माओवादी, केंदू पत्ता और लेवी सबकी परस्पर निर्भरता है।

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