Friday, December 30, 2011

बेटी- रोटी- जीवन की गाड़ी, सब चलती बीड़ी से…

♦ अनुपमा
बीड़ी का सामूहिक निर्माण होते हुए तो कई जगहों पर दिखा लेकिन यह एक नये किस्म का अनुभव था। पाकुड़ से राजमहल जाने के क्रम में बीच में मिले एक मंदिर में बहुत सारे लोग एक साथ बैठे हुए हैं। सूप में तंबाकू और बगल में तेंदू पत्ता। दनादन हाथ चल रहे हैं, बीड़ी बनती जा रही है और इस समूह के बीच में बैठा एक आदमी बांग्ला में कुछ संगीतमय पाठ कर रहा है। पूछने पर पता चलता है कि समूह के बीच में बैठा हुआ आदमी परवचनिया है, जो बांग्ला रामायण का पाठ कर रहा है। यहां ऐसा हर रोज होता है। जिनकी गप्पें लड़ाने की उम्र ढल गयी है, उनकी ढलती उम्र के साथ जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश ज्यादा हो गया है, वे रोज सबेरे नहा धोकर मंदिर में अपने-अपने तेंदू पत्ता और तंबाकू लिये पहुंचते हैं। साथ ही कुछ कम उम्र लड़कियां भी पहुंचती हैं। परवचनिया बाबा भी आते हैं। फिर दिन भर प्रवचन चलता रहता है और उसी रफ्तार से बीड़ी का निर्माण भी होता रहता है। शाम को प्रवचन के एवज में बाबा को थोड़ी-बहुत दान-दक्षिणा मिल जाती है।
बेटी-रोटी के साथ जीवन के आध्यात्मिक पक्ष से भी बीड़ी का यह जुड़ाव झारखंड़ से सटे पुरुलिया जिले के कई इलाके में देखा जा सकता है। घर में महिलाएं दिन भर अकेले या अपनी हम उम्र महिलाओं के साथ बीड़ी बनाती हैं। बेटियां अपनी सहेलियों के साथ झुंड में बैठकर बीड़ी बनाने का काम करती हैं और लड़के केंदू पत्ता और तंबाकू का जुगाड़ करने में लगे रहते हैं। लड़कियों के बीच तो बीड़ी बनाओ प्रतियोगिता भी होती है, कि कौन कितनी तेजी में कितनी बीड़ी बना पाता है। जो जितनी तेजी से बीड़ी बना सकेगी, उसे जिंदगी में उतनी ही कम कठिनाई होगी। तेज हाथ चलने से अच्छे घर में शादी होगी। ससुराल में मान-सम्मान मिलेगा।
झारखंड और बंगाल के सीमावर्ती इलाके के अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र को इसी बीड़ी के जरिये समझा जा सकता है। बंगाल से ही सटे दूसरे जिले पाकुड़ में जाने पर आध्यात्मिकता की जगह यहां बीड़ी के कारोबार से अपराधशास्त्र का रिश्ता भी जुड़ जाता है। पाकुड़ को झारखंड में बीड़ी उद्योग का गढ़ माना जाता है। इस जिले में छह लाइसेंसी फैक्ट्रियां हैं लेकिन इन छह लाइसेंसी फैक्ट्रियों की आड़ में उससे करीब दो गुना फैक्ट्रियां बगैर किसी लाइसेंस के ही चलायी जाती है। एक अनुमान के मुताबिक करीबन 30 करोड़ रुपये का कारोबार प्रतिमाह इन फैक्ट्रियों से होता है। पाकुड़ के एक उद्योगपति बताते हैं कि लाइसेंसी उद्योग से कम से कम दो लाख बीडियां सिर्फ पाकुड़ से ही प्रतिदिन वैध रूप में कम से कम 2 लाख बीड़ियां सप्लाई की जाती हैं जबकि गैर लाउसेंसी फैक्ट्रियों से भी टीपी-3 फार्म भरकर वैध रूप से ही एक से डेढ़ लाख बीड़ियां रोज ही बाहर भेजी जाती हैं। इसके अलावा अवैध रूप से भी बीड़ियां बाहर जाती हैं। बगल में बंगाल है, तो वहां तो माल आसानी से जाता ही है लेकिन सबसे ज्यादा खपत आगरा, दिल्ली और आंध्रप्रदेश में है। लेकिन यह सब कंपनियों के कारोबार का हिसाब-किताब है। जो बीड़ी के साथ ही सोते-जागते हैं, उन्हें इस अर्थशास्त्र से ज्यादा मतलब नहीं। उन्हें तो सिर्फ जिलालत का जीवन ही नसीब ही होता है।
पाकुड़ में लगभग 60 प्रतिशत महिलाएं बीड़ी निर्माण में लगी हुई हैं। पिछड़े और अल्पसंख्यक बहुल इलाके में तो करीबन शत-प्रतिशत घर का चूल्हा ही बीड़ी की कमाई से जलता है। कंपनियों के लिए यह इलाका क्यों इस कदर पसंद का है, इसे समझने के लिए बीड़ी की मजदूरी को समझना होगा। कंपनियों द्वारा मजदूरों के घर खास कर महिला़ओं के पास कच्ची सामग्री पहुंचा दी जाती है और फिर प्रति हजार बीड़ी निर्माण पर 55 रुपये की मजदूरी दी जाती है। सरकार के श्रम विभाग ने प्रति हजार बीड़ी लगभग 89.50 रुपये तय की है लेकिन श्रम विभाग का आदेश कागज में अपनी जगह रहता है। पाकुड़ में बीड़ी मजदूरों पर काम करनेवाले पत्रकार कृपा सिंधु बच्चन की मानें, तो बाकी राशि मजदूर यूनियनों के सौजन्य से कुछ लोगों की जेब में जाती है। सबका हिस्सा यहां तय कर दिया गया है। अब यदि बीड़ी बनाने की रफ्तार को देखें तो लगातार आठ घंटे तक हाथ फेरते रहने पर एक हजार बीड़ी का निर्माण हो पाता है। यदि कोई दिन-रात बीड़ी-बीड़ी करता रहता है तो बमुश्किल 110 रुपये कमाई हो पाती है। बीड़ी बीमारियों को भी जन्म देता है, मजदूरों की जिंदगी को अकाल निगलता रहता है, फिर भी बीड़ी से ही जुड़े रहना यहां के मजदूरों की मजबूरी भी है। सबसे बड़ा कारण है रोजगार के लिए विकल्पों का अभाव। सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन यहां जमीन की बजाय कागज पर ही ज्यादा होता है। यही वजह है कि मनरेगा जैसी योजनाएं भी यहां लोगों में काम के प्रति ललक नहीं पैदा कर पाती हैं। इसकी बानगी आप मनरेगा में कार्यरत लोगों की संख्या से भी लगा सकते हैं। अगस्त माह का आकलन करें तो 16 तारीख तक मनरेगा में काम करनेवालों की संख्या 1007 है। जबकि जिले में काम करनेवालों के नाम जो पंजीकृत हैं उनकी संख्या 1,65,311 हैं। मनरेगा में काम न करने के बारे में पूछने पर शबाना बताती हैं कि एक बार काम करने जायेंगे तो बीड़ी का काम भी छूट जायेगा। भले ही इसमें काम के एवज में पैसे कम मिलते हैं लेकिन समय से पैसे तो मिल जाते है नं। मनरेगा में हर दिन का न तो पैसा मिलता है और न ही कभी समय पर भुगतान ही होता है। काम मांगने पर भी काम नहीं मिल पाता। दूसरी बात ये कि हर परिवार से सिर्फ एक ही व्यक्ति को काम मिलता है जबकि हमारी जरूरतें कहीं ज्यादा हैं और इसके लिए घर के हर सदस्य को काम करना पड़ता है। मजदूर यूनियन के नेता कृष्णकांतमंडल, माणिक दूबे, मोहम्मद इकबाल भी इस मसले को कारगर ढंग से नहीं उठाते हैं कि बीड़ी मजदूरों को नब्बे रुपये प्रति हजार की मजदूरी दी जाए।
इस बारे में वहां के ग्रामीण बताते हैं कि फैक्ट्री के मालिक उन्हें कमीशन देते हैं इसलिए वे हमारी बात को दमदार तरीके से नहीं रखते। लेकिन मजदूर यूनियन के नेताओं का कहना है कि बीड़ी उद्योग में चूंकि दंबगई और राजनीतिज्ञों की सांठ-गांठ है इसलिए हमारी बात वे नहीं सुनते। बात चाहे जो भी हो लेकिन पाकुड़ के इलामी, लखनपुर, कालीबाड़ी, इसमत कदमसार जैसे गांवों की महिलाओं और बीड़ी मजदूरों की बदहाली की सुधि कोई नहीं लेनेवाला और जब तक उन्हें उनका हक नहीं मिलेगा वे गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पायेंगे-बीड़ी के बड़े कारोबारी चाहते भी हैं कि यह चक्रव्यूह बना रहे ताकि कौड़ी के मोल मजदूर मिलते रहें।

No comments:

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.