Thursday, June 17, 2010

डोमटोली में रोज लगने वाला एक स्कूल


रांची में कुल 1391 सरकारी प्राथमिक विद्यालय हैं. गली-मुहल्लों में खुले हुये निजी प्राईमरी स्कूलों की संख्या निकाली जाये तो यह आंकड़ा दुगुने के आसपास पहुंचता है. लेकिन शहर के डोमटोली इलाके में चलने वाला एक स्कूल इन सबों से अलग है. इसे न तो सरकार चलाती है और ना ही शिक्षा को उद्योग मानने वाले धनपति. कोई ट्रस्ट और एनजीओ भी नहीं.

टीवी मिस्त्री मो. एजाज कहते हैं- “इसे रोज मज़दूरी करने वाले हमारे जैसे लोग चलाते हैं. ”

करबला चौक के पास डोमटोली में रोज लगने वाला यह स्कूल दिहाड़ी मजदूरी करने वाले अभिभावकों के बच्चों के लिए आशा की किरण है. डोमटोली स्कूल के नाम से पुकारा जाने वाला प्रेरणा सामाजिक विद्यालय कहने को तो स्कूल ही है लेकिन है दूसरे सभी स्कूलों से अलग.

अब स्कूल की हालत को ही लें. भीषण गर्मी में स्कूल की खुली छत पर धूप का एक बड़ा हिस्सा रोके नहीं रूक रहा है. हालांकि इसे रोकने के लिए टाट-टप्पर के साथ ही स्कूल की टूटी-फूटी छत पर किसी ने अपने घर की चादर लाकर भी टांग दी है. बच्चे और उन्हें पढ़ाने वाली शिक्षिकायें पसीने से तरबतर हैं लेकिन कतारबद्ध बद्ध अलग-अलग कक्षाओं में बैठे बच्चे मौसम की मार को जैसे मात दे रहे हों.

ऐसे रखी नींव
तीन साल पहले इस स्कूल की नींव ऐसे लोगों ने रखी, जिनका शिक्षा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था. रोज-रोज कमाने-खाने वालों के लिये यह दुखद था कि उनके बच्चे आवारा घूमते रहें या बेटियां घरों में चुल्हा-बरतन करती रहें. मजदूरों के बच्चे पढ़-लिख कर क्या करेंगे, जैसे ताने तो थे ही.

इलाके के मजदूरों ने बैठक की और फिर शुरु हुआ तिहाड़ी मजदूरों के सपनों का स्कूल. पहले आपस में ही चंदा किया गया और बच्चों की पढ़ाई का सिलसिला शुरु हुआ. स्कूल खुला टीवी मिस्त्री मोहम्मद एजाज की छत पर, जहां शुरुवात में 10 बच्चे पढ़ने के लिये आये.

एजाज मुस्कराते हुए बताते हैं- “ आज इस स्कूल में 160 बच्चे हैं. इनमें से अधिकांशत: दाई, रिक्शाचालक, मिस्त्री या ऐसे ही छोटे काम करनेवाले लोगों के बच्चे हैं. स्कूल में नर्सरी, केजी, कक्षा एक व दो तक की पढ़ाई सीबीएस ई पैटर्न में होती है.”

शुरुवात में स्कूल चलाने के लिये 10-10 रुपये का चंदा इकट्ठा किया गया था लेकिन बाद में स्कूल के बाहर ही एक दानपेटी लगा दी गई, जिसमें लोग स्वेच्छा से पैसे डालने लगे. हालांकि स्कूल चलाने के लिये पैसों की तंगी हमेशा बनी रहती है लेकिन इलाके के लोग आश्वस्त हैं कि यह तंगी धीरे-धीरे जरुर दूर हो जाएगी.

बुलंद हौसले
स्कूल की शुरुवात करने वाले टीवी मिस्त्री मो. एजाज, बक्सा मिस्त्री मो. इकबाल, बिजली मिस्त्री मो. इरफान, सरस्वती चौरिया, बीएसएनल में कैजुअल बेसिस पर कार्यरत मो. जावेद, राजमिस्त्री शाहिद आलम जैसे लोगों से आप बात करें तो लगता है कि उन्होंने स्कूल चलाने को एक चुनौती की तरह लिया है. जाहिर है, स्कूल चलाने वालों के हौसले अभिभावकों को भी प्रेरित करते ही हैं.

अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने आये मो. आलम कहते हैं- “हमारे बच्चे भी पैसेवालों के बच्चों की तरह कुछ बड़ा काम करें. हालांकि स्कूल के पास फंड की कमी है पर हम आधे पेट खाकर भी इसे बंद नहीं होने देंगे.”

यहां पढऩे के लिए आने वाले बच्चों का उत्साह भी देखते ही बनता है. वे जानते है कि चार पंक्तियों में चार कक्षाएं लगती हैं. ऐसे में वे खुद ही इतने अनुशासित हो गये हैं कि पहली पंक्ति वाले बच्चे दूसरी पंक्ति वाले बच्चे की ओर पीठ करके बैठते है ताकि आवाज ज्यादा न गूंजे और कोई परेशानी न हो.

सबसे अलग

अपनी ही कक्षा के दूसरे साथियों को ब्लैकबोर्ड पर पहाड़े और गिनती का सबक याद कराकर आया एक बच्चा कहता है- “ सरकारी स्कूल से तो यह अच्छा है. कम से कम होमवर्क तो मिलता है. रोज स्कूल न आने पर टीचर की डांट का डर भी रहता है.”

वैसे यह डर स्वाभाविक भी है क्योंकि स्कूल के बाद कभी-कभार स्कूल के टीचर या संचालक बच्चों के घर तक पहुंच जाते हैं. यह देखने कि उनके इस अनोखे स्कूल का विद्यार्थी आखिर कर क्या रहा है !यहां पढ़ने वाले बच्चे सुविधाओं से कहीं अधिक अनुशासनात्मक और गुणात्मक शिक्षा को महत्व देते हैं. ऐसे में इनके सपनों को पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता.

12 वर्षीय शगुफ्ता परवीन कक्षा दो में पढ़ती हैं. शगुफ्ता बताती हैं –“ पहले सरकारी स्कूल में मैं पांचवीं की छात्रा थी, पर मैं न एक पंक्ति पढ़ पाती थी न लिख पाती थी. सरकारी स्कूल में जाकर बस बोर्ड से देखकर नकल उतारती थी. पर यहां के बच्चों को अंग्रेजी बोलते देखकर मैंने अपना नामांकन यहां करा लिया और आज मैं भी अंग्रजी में कुछ-कुछ बोल पाती हूं.”

15 वर्षीय कक्षा दो की छात्रा हिना शरमाते हुये बताती हैं- “ मेरे घरवालों ने तो अब तक मेरी शादी कर दी होती, यदि दो साल पहले एजाज सर मेरे घरवालों को समझाकर यहां पढ़ाई के लिये प्रेरित नहीं करते.”

अभिभावक भी मानते हैं कि इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे दूसरों से अलग हैं. शगुफ्ता के तीन बच्चे सरकारी स्कूल में और तीन इस स्कूल में पढ़ते हैं. वे बताती हैं कि सरकारी स्कूल में हर दिन बच्चों को खाना मिलता है और महीने के सौ रुपये भी लेकिन वे चाहती हैं कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले उनके बच्चे भी यहीं पढ़ें. वे कहती हैं- “यहां पढ़नेवाले मेरे बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि और प्रेम है. वे मन लगा कर पढ़ते हैं.”

अभिभावकों की खुशी के दूसरे कारण भी हैं. साजिया और मुन्नी के पिता शराब में डूबे रहते थे, पर स्कूल में शराब से होनेवाले नुकसान के बारे में जानकर बच्चों ने अपने अब्बू से पूछा कि अब्बा अगर आप मर गये तो हम कहां जायेंगे. आप शराब मत पीया कीजिए. और यकीन मानिए कि यह बात उन्हें इस कदर छू गयी कि अब वे उसे हाथ तक नहीं लगाते.

स्कूल की शिक्षिका बेनाडेल्ट मिंज कहती है कि इन बच्चों की आंखों में भी डॉक्टर, इंजीनियर और शिक्षक बनने के सपने तैर रहे हैं. वे दृढ़ता के साथ कहती हैं- “यहां पढ़ने वाले बच्चे सुविधाओं से कहीं अधिक अनुशासनात्मक और गुणात्मक शिक्षा को महत्व देते हैं. ऐसे में इनके सपनों को पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता.”

एक औऱ शिक्षिका अंबरी भी मानती हैं कि इस स्कूल के बच्चे बहुत गंभीरता से पढ़ाई कर रहे हैं और उन्हें इस बात का अहसास है कि उन्हें मां-बाप के सपनों को पूरा करना है. ज़ाहिर है, इस बस्ती की प्रार्थनाओं में यह दुआ भी शामिल रहती है कि उपरवाला इस स्कूल को और बुलंदी दे.

Saturday, June 5, 2010

हौसला देता हेसालौंग


एक लड़की है सीमा. झारखंड या देश की अन्य हजारों-लाखों लड़कियों की तरह. बिल्कुल सामान्य-सी लड़की. दैनिक मजदूरी करने वाली हेसालौंग के दलित परिवार से है. झारखंड के हजारीबाग जिले में. दलितों व पिछड़ी जातियों का गांव. झारखंड के सैकड़ों गांवों की तरह. सीमा हेसालौंग गांव की ही है. सीमा की खास बात यह है कि वह दो बार मैट्रिक फेल हुई लेकिन धैर्य बनाये रखा, मेहनत जारी रखी और तीसरी बार में पास कर गयी. अब इंटर में पढ़ रही है. अपने गांव की पहली दलित लड़की बनी, जो मैट्रिक पास हुई.

इलाके में चर्चे हुए. और सीमा के गांव हेसालौंग की चर्चा सिर्फ इसलिए, योंकि वह गांव अन्य सामान्य गांवों से ज्यादा मुश्किलों में है. अगल-बगल में खुले स्पंज आयरन फैट्रियों ने गांव की जमीन को बंजर कर दिया है. पीने का पानी मयस्सर नहीं होता लोगों को तो एक-एक बालटी पानी के लिए या तो एक किलोमीटर दूर चलकर चुआं पर जाते हैं या इकलौते चापाकल पर गर्मी की रातों में आठ-आठ घंटे लाइन में लगे रहते हैं. सीमा से यह पूछने पर कि तुमने तो इतिहास रच दिया. वह तुरंत अपने घर के बगल में एक छोटे से भवन की ओर इशारा करते हुए कहती है. इतिहास मैं क्या रचती, मेहनत-मजदूरी से फुर्सत कहां है, सब उसने करवा दिया. उस भवन ने. सीमा जिस भवन की ओर इशारा किया, वही एक चीज इस गांव में है, जो तमाम मुश्किल हालातों, चुनौतियों व परेशानियों के बावजूद हेसालौंग को एक ऐसे गांव के रूप में स्थापित करता है, जिसकी मिसाल देश भर में कहीं दी जा सकती है.

वह जिस भवन की ओर इशारा की वह पंचायत का सामुदायिक भवन है, जिसके बाहर दीवार पर आड़े-तीरछे शब्दों में लिखा हुआ है- मुंशी प्रेमचंद पुस्तकालय. पुस्तकालय के नाम पर चंद किताबें, एक टेबल, जिस पर सजाने-संवारने के लिए फटी-पुरानी धोती बिछी हुई है और कुछ बोरे, जिस पर बैठकर पढ़ाई होती है. किताबों के नाम पर अधिकतर टैस्ट कि किताबें, प्रेमचंद का मानसरोवर, कुछ उपन्यास, कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं और कुछेक बच्चों की किताबें. संसाधन भले ही कुछ न हो लेकिन इस लाइब्रेरी ने इलाके की तसवीर और तकदीर, दोनों बदल दी है.अभी झारखंड में मैट्रिक और इंटर की परीक्षा ली जा रही है. इस परीक्षा के पहले इस लाइब्रेरी में गांव के चंद युवाओं ने कई-कई बार प्रैटिस टेस्ट लेकर उनमें इतना आत्मविश्वास भर दिया है कि कोई सेेकंड डिविजन की बात नहीं करता. गांव के चंद पढ़े-लिखे नौजवान खुद से अध्ययन कर परीक्षा का मॉडल प्रश्न पत्र तैयार करते हैं. निर्धारित समय में टेस्ट लेते हैं और फिर परीक्षा परिणाम भी जारी करते हैं. पिछले पांच सालों से यही सिलसिला चल रहा है और अब नतीजा यह है कि इस एक गंवई लाइब्रेरी के टेस्ट में शामिल होने के लिए उस इलाके के परीक्षार्थी वाहन रिजर्व कर निर्धारित तिथि पर पहुंचते हैं. सरस्वती विद्या मंदिर और डीएवी जैसे स्कूलों के छात्र भी, जो उस इलाके का सबसे प्रतिष्ठित स्कूलों में है.

उसी लाइब्रेरी में मिली ममता, प्रभा, सीता, दीपिका जो इस बार इंटर की परीक्षा दे रही हैं. उनसे यह पूछने पर कि सामने परीक्षा है तो तनाव है कि नहीं. सबका जवाब प्राय: एक सा- काहे का टेंशन, साल भर यहां आकर पढ़ते हैं, जमकर टेस्ट देते हैं, तो टेंशन या? जिस दिन मैं वहां पहुंची, वहां कुछ लड़कियां डीबेट में भाग लेने आयी थी तो कुछेक को संगीत लास करना था. कुछ विज प्रतियोगिता में हिस्सा लेती, कुछेक को राइटिंग प्रतियोगिता में बाजी मारने की हड़बड़ी थी और शाम को सबको कराटे और स्पोकेन इंग्लिश लास जरूरी करना था. इतना सब कुछ उस एक छोटे से भवन में होता है. और एक खास बात यह कि यह लाइब्रेरी न तो किसी एनजीओ या ट्रस्ट का है और न ही किसी कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की मेहरबानी की उपज. बस पांच साल पहले गांव के ही लालदीप, मनोज, कैलाश, मंतोष, नवीन, कृष्णा आदि चंद नौजवानों ने गांव में चंदा शुरू किया. 667 रुपये जमा हुए, 500 की किताबें आयी, 167 में मुंशी प्रेमचंद की जयंती मनी और लाइब्रेरी शुरू. अब उस गांव का सबसे बड़ा सालाना आयोजन मुंशी प्रेमचंद जयंती ही है और चंदा तीन हजार के करीब हो जाता है. और हां, यह जान लेना भी जरूरी है, यहां सारी गतिविधियां नि:शुल्क है. कोई शुल्क नहीं, बल्कि यदि कोई विद्यार्थी अपने घर किताब ले गया और समय पर वापस नहीं कर सका तो अगले दिन कपिल उसके घर पहुंचकर कहता है-कितबवा लौटा दो, दूसरे को भी चाहिए होगा...इस लाइब्रेरी की देखरेख अब कपिल ही करता है. कपिल इसी लाइब्रेरी के सौजन्य से मैट्रिक की परीक्षा तो पास कर गया लेकिन आर्थिक तंगी के कारण फिलहाल उसकी आगे की पढ़ाई बंद है.

उस लाइब्रेरी में चलने वाली इन गतिविधियों के संचालन के बारे में जानना भी दिलचस्प है. कैलाश खुद इंटर पास हैं. अंग्रेजी स्कूल में पढ़े हैं, अंग्रेजी बोल लेते हैं तो वे गांव के छात्र-छात्राओं को हर शाम अंग्रेजी बोलना सिखाते हैं. कृष्णा मनोविज्ञान से स्नातक कर शिक्षक बन गये हैं. दिनभर सरकारी स्कूल में पढ़ाकर आते हैं तो शाम को लाइब्रेरी में बैठकर खुद पढ़ते हैं ताकि मॉडल टेस्ट पेपर तैयार किया जा सके. कृष्णा के साथ पारा शिक्षक नवीन पांडेय, मंतोष कुमार होते हैं. उसी गांव के एक नौजवान अरविंद हैं जो कराटे में ब्लैक बेल्ट धारी हैं. अरविंद गांव के 45 लड़के-लड़कियों को कराटे सीखाते हैं. और इसकी बुनियाद रखनेवालों में प्रमुख लालदीप गोप, जो नागपुर में विज्ञान अनुसंधान सहायक हैं, जब घर आते हैं तो लगातार कैरियर काउंसेलिंग का दौर चलता है.

मुफलिसी में विरासत बचाने की कोशिश


अनुपमा

जेठ बैसाख मासे-2
ए मन तोयें उदासे-2
ए भाई, जने देखूं तने दिसे
लहलह पात कहूं, केके कहूं बात
कहूं केके कहूं बात..

पूरे लय, छंद और ताल के साथ कालीशंकर जब कानों पर हाथ रखकर इस गीत को गाकर सुनाते हैं तो गाते-गाते वे खुद रुआंसे से हो जाते हैं. लेकिन इस गीत में रचे-बसे दुख की गहराई का सही अंदाजा तब लगता है जब वे शर्ट-पैंट उतारकर धोती पहनते हैं और इसे टूहिला पर सुनाते हैं. बांस की फट्टी के एक छोर पर कद्दू या लौकी का आधा खोखला हिस्सा (तुंबा), दूसरी ओर सिर्फ धागे को थोड़ी ऊंचाई से बांधने के लिए एक लकड़ी की हुक और काले बांस में छेदकर 4-5 जगह बांधे गए रेशम के धागे, यही है टूहिला का स्वरूप. धागों को कसकर, स्वर की परख करने के बाद कालीशंकर दादा ने टूहिला सीने से लगाया और इसे बजाते हुए गीत शुरू किया. गाते-गाते वे कब रोने लगे, पता ही नहीं चला. जितने गाढ़े दुख से रंगा यह गीत है, उतनी ही मार्मिक इसकी धुन. गीत खत्म हुआ तो कालीशंकर दो-चार मिनट तक ध्यान मुद्रा में वैसे ही खड़े रहे. पूरे माहौल में एक गहरी उदासी और सन्नाटा. आखिर इस गीत में ऐसा क्या है जो गाने और सुनने वाले को इतना विह्वल कर देता है?

काली दा पहले तो गीत का अर्थ बताते हैं, फिर कहते हैं, ‘यह जो टूहिला है न, यह दुख, विरह, वेदना के स्वर को बढ़ा देता है. इस वाद्य यंत्र को सीने से लगाकर बजाते हैं, नंगे बदन.’ दरअसल, यह आदि वाद्य यंत्र है, लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का. तब का जब मानव मन में सांस्कृतिक चेतना जगनी शुरू ही हुई थी. चूंकि वाद्य यंत्रों का कोई लिखित इतिहास नहीं है इसलिए इसकी प्रामाणिकता नहीं पेश की जा सकती. परंतु एक लोकगीत में इस बात का भी जिक्र है कि आदिवासी समाज के नायक और महान स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा भी टूहिला बहुत बढ़िया बजाया करते थे. एक और विशेष बात. बदलते समय के साथ सारे वाद्य यंत्र बदल गये पर टूहिला अब तक नहीं बदला है. दादा एक गहरी सांस लेते हुए अफसोस के साथ कहते हैं, ‘अब क्या बदलाव होगा इसमें? अब तो यह अपने आखिरी दौर में है. अब इसे बजाएगा कौन? मैं अपने बेटे तक को तो शागिर्द नहीं बना सका.’

उनका बेटा टूहिला नहीं बजाता, ड्राइवरी करता है. मन में सवाल उठता है कि झारखंड में तो इतने गायक और वादक हैं, फिर किसी में इस वाद्य यंत्र को सीखने की ललक क्यों नहीं होती? कालीशंकर कहते हैं, ‘एक कारण इसकी बनावट हो सकती है. इसे बजाने के लिए अन्य वाद्य यंत्रों से ज्यादा रियाज की जरूरत है. पर इसमें जितनी अधिक मेहनत है, उससे उलट नाम और दाम. यानी कीमत नहीं मिलती इसे बजाने से. लोग भूल चुके हैं इसे.’

कालीशंकर सारंगी और बांसुरी बजाने में भी दक्ष हैं. कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे कई शहरों और अमेरिका में भी जाकर वे अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं. लेकिन आज भी जो संतोष उन्हें टूहिला बजाकर मिलता है वह कहीं नहीं मिलता. रोज खेत से लौटकर, चाहे कितने भी थके क्यों न हों, टूहिला पर हाथ फेर ही लेते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरा मन तो बस टूहिला में ही बसता है. मैं चाहता हूं यह बचा रहे, सदा बजता रहे. कोई तो आए. मैं सिखाने को तैयार हूं. मुझे कुछ नहीं चाहिए इसके बदले में.’

कालीशंकर के गुरु उनके पिता श्री द्रीपनाथ महली उम्दा कलाकार और आकाशवाणी के स्थायी गायक-वादक थे. कालीशंकर टूहिला के इकलौते प्रोफेशनल वादक हैं. जैसे टूहिला अब विलुप्तप्राय है, वैसे ही इसके बजाने वालों में भी संभवत: आखिरी कलाकार बचे हैं कालीशंकर. रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय व क्षेत्रीय भाषा विभाग के प्राध्यापक व वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी गिरधारी राम गौंझू कहते हैं, ‘संगीत अकादमी के कोलकाता के कार्यक्रम में जब काली ने इसका प्रदर्शन किया था तो विशेषज्ञों ने कहा कि झारखंड को विशिष्टता प्रदान करने वाला यह अकेला वाद्य यंत्र है और इसे पुनजीर्वित करने की जरूरत है.’ 2005 से कला एवं संस्कृति विभाग ने जनजातीय वाद्य यंत्रों को प्रोत्साहन देने के लिए स्कीम भी चलाई कि टूहिला सीखने और सिखाने वालों को प्रोत्साहन राशि मिलेगी. फिर भी यह उपेक्षित है. लोक की यह खासियत होती है कि वह हमेशा सामूहिकता का बोध कराता है. सुख की घड़ी हो या दुख की, हर क्षण समूह बोध सामने होता है. ऐसे में लोक जगत में एकाकी जीवन की परिकल्पना, यह इसके संगीत की नई बात थी. मशहूर गायक मुकुंद नायक कहते हैं, ‘यह प्रकृति और मानव मन से जुड़ा हुआ विरह का स्वर है. उसी मन को शांत करने के लिए आदिपुरुषों ने शायद सबसे पहले टूहिला को लौकी, बांस और धागे से बनाया होगा.’

काली के घर से निकलते समय मन में सवाल उठता है, तो क्या आदिपुरुषों का आदि वाद्य यंत्र, मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत की पहली धरोहरों व आविष्कारों में से एक, टूहिला वाकई अपने आखिरी दौर में है? प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी एवं आदिवासी मामलों के जानकार डा. रामदयाल मुंडा कहते हैं, ‘टूहिला के लिए संदर्भ खड़ा करना होगा. इसे रीवाइव किए जाने की जरूरत है. इस वाद्य यंत्र का नाजुक पक्ष यह है कि इसे खुले बदन में ही बजाया जाता है. इसमें शरीर रेजोनेंस का काम करता है. इसकी वादन शैली काफी पेचीदा है. यदि इसे बचाना है तो इसमें कुछ बदलाव करना होगा. लौकी, रेशम के स्टिंग का विकल्प ढूंढ़ना होगा. यह एकांत में बजाया जाता है, समूह में नहीं. आवाज इतनी मृदु है कि वह अन्य वाद्य यंत्रों में खो-सी जाती है और यह केवल दुख में बजता है. इसमें सौंदर्य बोध डाल दिया जाए या एंप्लिफाई कर दिया जाए तो इसे बचाया जा सकता है.’ लेकिन काली उनकी बातों से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘ऐसा कभी भी नहीं होना चाहिए. कुछ चीजों को शाश्वत रूप में ही रहने देना चाहिए. यदि बदलाव किए गए तो मौलिकता नष्ट हो जाएगी. इसकी पहचान ही खत्म हो जाएगी.’ और एक आखिरी बात. कालीशंकर रांची में ही रहते हैं. उसी के निकट, जहां राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिए खेलगांव बना है, जहां झारखंड का पहला विशाल कला भवन बना है. लेकिन वे रांची में रहकर भी रांची में नहीं रहते. न किसी गांव में, न बस्ती-मोहल्ले में. उन्होंने बस्ती से दूर अकेले खेत में अपने सहिया के साथ खपरैल घर बना लिया हैं. वहीं काली का पूरा परिवार रहता है. मन में प्रश्न उठता है, क्या उनका यह एकाकी जीवन भी टूहिला का ही प्रभाव है?