Friday, December 30, 2011

छोटी-छोटी रेखाओं ने बदल दी परंपरा!

♦ अनुपमा

झारखंड की राजधानी रांची से निकलकर पुरुलिया जाने के रास्ते में झालदा ब्लॉक पड़ता है। झारखंड से बिलकुल सटा हुआ। जिला है पुरुलिया। इसी ब्लॉक में एक सुदूरवर्ती गांव है बोड़ारोला। पुरुलिया जिले के अन्य गांवों की तरह ही यह गांव भी है। घोर गरीबी, अशिक्षा की जकड़नवाला गांव। बीड़ी मजदूरों का गांव।

इसी गांव में मुलाकात हुई थी रेखा कालिंदी से। 14 साल की रेखा कालिंदी समुदाय से आती है। दो साल पहले रेखा ने उस गांव में क्रांति का जो बीज बोया, आज उसकी फसल उस पूरे निर्जन इलाके में काटी जा रही है। हुआ यह था कि रेखा की शादी उसके निर्धन पिता ने 12 साल की उम्र में ही तय करने को सोची। इसकी भनक रेखा को भी लगी। 12 साल की रेखा सामने आ गयी और बोली ऐसा नहीं हो सकता। अभी वह शादी नहीं करेगी। कालिंदी समुदाय की परंपरा के खिलाफ उठाया गया यह कदम था। रेखा को डांट फटकार मिली लेकिन वह नहीं मानी। उसने न कह दिया, तो उसका मतलब न ही हुआ। रेखा की घरवाले तो फिर भी जबरिया उसकी शादी करने पर तुले ही हुए थे लेकिन उसने मोबाइल फोन से पुरुलिया के लेबर कमिश्नर तक यह बात पहुंचा दी और फिर उसकी शादी रुक गयी।

रेखा को देखते ही यह सवाल जेहन में उठा कि क्या होता यदि रेखा की शादी हो ही गयी होती! आखिर उस समुदाय मे और इलाके में पीढ़ियों से ऐसा ही होता रहा है। रेखा की बड़ी बहन की शादी भी तो उसी उम्र में हो गयी थी। तीन साल में उसने चार बच्चों को भी जन्म दे दिया था लेकिन एक भी बच्चे को बचा नहीं सकी थी। रेखा कहती हैं, अपनी दीदी को देखकर ही तो मैं सिहर गयी थी और तय भी कर चुकी थी कि मेरी बारी आएगी तो ऐसा नहीं होने दूंगी। सबसे गौर करनेवाली बात यह है कि ऐसा रेखा ने सिर्फ अपने साथ नहीं किया। अपने साथ हमेशा परछाईं की तरह रहनेवाली चचेरी बहन बुधुमनी की शादी भी रेखा ने रुकवायी और फिर उसके बाद एक-एक कर अपने ही घर-परिवार की 21 लड़कियों की शादी 18 की उम्र के बाद ही करवाने के लिए रेखा ने सबको मानसिक तौर पर तैयार किया। साथ ही यह शादी रोको अभियान को पढ़ाई से भी जोड़ा। रेखा के घर की सभी लड़कियां, जो दिन भर घर में बीड़ी बनाने के कारोबार में लगी रहती थीं या वही करना उनकी नियति थी, वे स्कूल जाने लगीं और रेखा के यहां के लड़कियों की नियति यह नहीं रही कि जो जितनी तेजी से बीड़ी बनाएगा, उसकी शादी उतनी ही अच्छी होगी और उतनी ही जल्दी भी।

रेखा के इस अभियान की धमक घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर गांव के पुष्पा, सोना जैसी कई लड़कियों को प्रभाव में ले चुकी तो फिर बीड़ी छोड़ो, शादी तोड़ो अभियान का असर आसपास के गांवों में भी तेजी से होने लगा। बोड़ारोला के पास ही कुम्हारपाड़ा, कर्मकार पाड़ा के बाद झालदा, कोटशिला से पुरुलिया तक इस अभियान का क्रमशः असर हुआ। बहुत बड़े स्तर पर न सही तो बहुत छोटा दायरा भी नहीं रहा। दायरा इस मायने में भी बड़ा रहा कि इससे बीड़ी को ही जिंदगी की कसौटी मान लेने का मिथ टूटा, लड़कियों का पढ़ाई से वास्ता जुड़ा और अब कई घर में कई ऐसी लड़कियां मिलती हैं, जो स्कूल के वक्त स्कूल जरूर जाती हैं। अच्छी शादी के लिए बीड़ी पर दिन-रात हाथ नहीं फेरतीं। असर का एक नमूना तो रेखा कालिंदी के घर काफी देर बैठने के बाद विदा लेते हुए साफ दिखा।

विदा होते समय रेखा कहती है, दीदी, मैं टीचर बनना चाहती हूं। फिर धीरे से शरमाती हुई बुधनी भी दोहराती है, दीदी मैं भी टीचर ही बनना चाहती हूं। फिर एक के बाद एक पुष्पा, सोना आदि की तेज आवाज आती है, मैं भी, मैं भी…

बीड़ी के साथ जिंदगी गुजारने की नियति के साथ पैदा हुई बोड़ारोला की कई लड़कियां टीचर बनना चाहती हैं। रेखा कालिंदी के पिता कहते हैं, हम भी कोई शौक से थोड़े ही बचपन में ब्याहते थे इन्‍हें या बीड़ी में लगा देते थे, हमारी भी मजबूरी समझिए … लेकिन अब रेखा ने जो रेखा खींची है, वही हमारे परिवार की नयी परंपरा होगी।

साल भर का इंतजार, महीने भर का काम, कौड़ियों के भाव

♦ अनुपमा

नया साल जश्‍न का माहौल लेकर आता है। नये सिरे से अपनी प्राथमिकताओं को तय करने का अवसर भी होता है यह। बीड़ी पत्ता मजदूरों के लिए भी यह अवसर एक खास किस्म की खुशी का भाव लेकर आता है। उम्मीदों की लहर पर सवार होकर आता है। यह खुशी किसी जश्‍न के माहौल से नहीं उपजता बल्कि हर साल नये वर्ष के आगमन पर हजारों बीड़ी मजदूरों के मन में कुछ दिनों के काम की आस जगती है। उसी कुछ दिन पर उनके परिवार का पूरा साल गुजर-बसर करता है।

यह वह समय होता है, जब सरकार की ओर से केंदु पत्ता के जंगलों की नीलामी होती है। वन विभाग की ओर से नीलामी की प्रक्रिया शुरू होते ही आस-पास की महिलाएं अपने काम के लिए नाम लिखवाने पहुंचने लगती हैं। नीलामी होने के बाद ठेकेदार 25 फीसदी रकम वन विभाग को दे देते हैं और जंगलों की साफ-तराशी करवाते हैं। ऐसा पेड़ों में ज्यादा नयी पत्तियां निकलवाने के लिए किया जाता है। साफ तराशी के लगभग चार महीने बाद महिला मजदूरों का काम शुरू होता है। केंदू पत्ता को तोड़ना शुरू किया जाता है। नये साल की सौगात पर उम्मीद व टकटकी लगाये बैठी हजारों महिलाओं को एक महीने का रोजगार मिल जाता है।

महिलाएं सबसे ज्यादा खपती हैं, वैसे सहभागिता पूरे परिवार की होती है। यह संख्या कोई मामूली नहीं। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो राज्य में लगभग 70,000 लोग केंदू पत्ता तोड़ने का काम करते हैं। यह सरकारी आंकड़ा है, अगर सही मायने में देखें तो यह संख्या लाख को भी पार कर जाता है।

यह तो मोटे तौर पर काम मिलने और उसकी प्रारंभिक प्रक्रिया की बात हुई लेकिन इतना हो जाने के बाद ही बीड़ी मजदूरों की दशा-दुर्दशा की कहानी शुरू होती है। बानगी के तौर पर देखें, तो वन विभाग मजदूरों के कल्याण के नाम पर हर परिवार को एक जोड़ी चप्पल और स्वास्थ्य बीमा कराये जाने की बात कहता है लेकिन कुछ लोगों को छोड़ दें तो शायद ही यह सुविधा किसी परिवार को मयस्सर हुई हो। यूं भी परिवार पर एक जोड़ी चप्पल का गणित समझ से परे की बात है।

अब मेहनताना में शोषण कथा की बानगी पर गौर करें। प्रति 50, 000 पत्तियों को तोड़ने, सुखाने और फिर उसे फांड़ी में पहुंचाने की कीमत मात्र 90 रुपये है। दिनभर कड़ी धूप में मेहनत करके पत्तियों को तोड़ने के बाद महिलाएं उसे अपने 50-50 पत्तियों का एक पोला बनाती हैं और उसे या तो जंगल की पहाड़ियों पर या फिर घर के पास के मैदान में सुखाने के लिए छोड़ देती हैं। सुखाने के बाद वे सरकार की ओर से बने संग्रह केंद्र यानि फांड़ी तक सर पर ढोकर लाती हैं। सरकार इस घोषणा और योजना को उपलब्धियों के तौर पर बताती हैं लेकिन इस प्रक्रिया में महिला मजदूरों की दुर्दशा देखकर रोना आएगा। ये महिलाएं सुदूर जंगलों में 10-15 किलोमीटर की यात्रा कर पत्तियां तोड़ने का काम करती हैं। जाहिर सी बात है, यह काम शौकिया तौर पर नहीं होता बल्कि कर्ज में डूबे हुए परिवार मजबूरी में इस कदर कमरतोड़ मेहनत करते हैं। ऐसा करने के क्रम में अधिकतर महिलाओं का शरीर बीमारियों का घर हो जाता है। कई बार तो गर्भपात तक हो जाने की शिकायत मिलती है। कभी पत्तियों के रसायन की वजह से तो कभी जंगलों के खतरनाक व दुर्गम रास्तों की वजह से। पत्तियों का काम खत्म होने के बाद महिलाएं बैग या बोरी में पत्तियों को बांधने का काम करती हैं। एक मानक बोरे में लगभग 50 हजार पत्तियां होती हैं। पोला के हिसाब से देखें तो यह संख्या एक हजार की होती है। फिर इन बैगों का गट्ठा बनाया जाता है।

ऐसी ही दुरूह प्रक्रिया के बाद बीड़ी बनाने का कच्चा माल तैयार हो पाता है। इसके बारे में जब वन विभाग के प्रबंध निदेशक बी आर रल्लन से बात होती है, तो वे कहते हैं कि हमारा विभाग ही राज्य में ऐसा है, जो खनन के बाद सबसे ज्यादा राजस्व लाभ पहुंचाता है। हम अगले वर्ष से मजदूरों के लिए तीन तरह की सुविधाएं देने जा रहे हैं। वे कहते हैं इन लोगों के स्वास्थ्य का ख्याल रखते हुए ही हम लोग स्वास्थ्य कैंप भी लगाते हैं लेकिन कैंप तक महिलाएं कम ही पहुंचती हैं, इसलिए इस काम में लगी महिलाओं को लाभ नहीं मिल पाता।

स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ रिचा बताती हैं कि इस काम में जुड़ी महिलाओं का स्वास्थ्य खराब होना और उससे गर्भपात होना सामान्य-सी बात है। वन विभाग के अधिकारी राजस्व में नंबर दो होने को उपलब्धि के तौर पर बताते हैं लेकिन जिनके दम पर यह राजस्व का खेल होता है, वह आहिस्ते-आहिस्ते अपनी मौत मर रहे हैं। ठेका लेनेवालों की स्थिति भी कम भयावह नहीं है। वे लोग अपना ही दुखड़ा रोते नजर आये। चाईबासा और गो़ड्डा समेत कई जिलों में बीड़ी पत्ते का ठेका लेनेवाले ज्ञानेश्वर पांडे बताते हैं कि सरकार और माओवादियों के कारण सिर्फ पुराने खिलाड़ी ही इस व्यवसाय में टिक पाते हैं। सरकार ने इस वर्ष प्रति मानक बोरा 650 रुपये तय किया है। इसमें से 90 रुपये बीड़ी पत्ता तोड़ने वालों को फिर लोडिंग करनेवालों को और उसके बाद माओवादियों को। हर बोरे के हिसाब से माओवादियों को कम से कम 70 रुपये तो देने ही पड़ते हैं। इसके अलावा दूसरी तरह की वसूली भी वे करते हैं। लेवी का एक बड़ा हिस्सा माओवादियों का इसी से जाता है। कई बार तो माओवादी कारोबार का एक बड़ा हिस्सा लेवी के नाम पर वसूल लेते हैं। इस बात की पुष्टि बीबीसी के डेनियल लेक भी करते हैं।

एक शोध के अनुसार वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में माओवादियों को लगभग 40 फीसदी लेवी इसी से आता है। सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार गोकुल बसंत कहते हैं कि झारखंड में 40 फीसदी तो नहीं लेकिन कुल कारोबार का 15 से 20 फीसदी माओवादियों की ही जेब में जाता है। चूंकि केंदू पत्ता का व्यवसाय जंगलों से जुड़ा हुआ है और बिना उनकी अनुमति के वहां से एक पत्ता भी नहीं टूट सकता है, इसलिए माओवादी अपनी मनमर्जी करते हैं। यदि सरकारी आंकड़ों को ही सच मान लें तो इस वर्ष 56 करोड़ से ज्यादा का व्यवसाय हुआ है। यदि इसका बीस फीसदी भी माओवादियों की जेब में गया है तो यह आंकड़ा 11 करोड़ को पार कर जाता है। ज्ञानेश्वर बताते हैं कि माओवादियों की सहमति के बिना एक पत्ता भी नहीं टूट सकता। यदि कोई नया व्यवसायी इस क्षेत्र में आता है तो उसे सिर्फ घाटा ही मिलेगा क्योंकि उनसे कई संगठन पैसे की वसूली करने लगते हैं।

वे बताते हैं कि कि 1988-89 में जिन लोगों ने इसका व्यवसाय किया, वे फायदे में रहे। उस समय इसे आप हरा सोना कह सकते थे। लेकिन धीरे-धीरे पत्तियां और जंगल कम होने लगे और पत्तियों का दाम बढ़ने लगा। वसूली के लिए ही माओवादियों के नाम पर कई संगठन खड़े हो गये हैं। स्थानीय निवासी महेंद्र और उप प्रबंधक मनीष भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि माओवादियों के खौफ से यह सब कम हो रहा है। दबी जुबान से वे बताते हैं कि हम तो नीलामी करके निश्चिंत हो जाते हैं पर ठेकेदारों को झेलना पड़ता है। वे खुल कर तो बहुत नहीं बोलते लेकिन इशारों में ही इस बात को बताते हैं कि जंगल, ठेकेदार माओवादी, केंदू पत्ता और लेवी सबकी परस्पर निर्भरता है।

बेटी- रोटी- जीवन की गाड़ी, सब चलती बीड़ी से…

♦ अनुपमा
बीड़ी का सामूहिक निर्माण होते हुए तो कई जगहों पर दिखा लेकिन यह एक नये किस्म का अनुभव था। पाकुड़ से राजमहल जाने के क्रम में बीच में मिले एक मंदिर में बहुत सारे लोग एक साथ बैठे हुए हैं। सूप में तंबाकू और बगल में तेंदू पत्ता। दनादन हाथ चल रहे हैं, बीड़ी बनती जा रही है और इस समूह के बीच में बैठा एक आदमी बांग्ला में कुछ संगीतमय पाठ कर रहा है। पूछने पर पता चलता है कि समूह के बीच में बैठा हुआ आदमी परवचनिया है, जो बांग्ला रामायण का पाठ कर रहा है। यहां ऐसा हर रोज होता है। जिनकी गप्पें लड़ाने की उम्र ढल गयी है, उनकी ढलती उम्र के साथ जीवन में आध्यात्मिकता का समावेश ज्यादा हो गया है, वे रोज सबेरे नहा धोकर मंदिर में अपने-अपने तेंदू पत्ता और तंबाकू लिये पहुंचते हैं। साथ ही कुछ कम उम्र लड़कियां भी पहुंचती हैं। परवचनिया बाबा भी आते हैं। फिर दिन भर प्रवचन चलता रहता है और उसी रफ्तार से बीड़ी का निर्माण भी होता रहता है। शाम को प्रवचन के एवज में बाबा को थोड़ी-बहुत दान-दक्षिणा मिल जाती है।
बेटी-रोटी के साथ जीवन के आध्यात्मिक पक्ष से भी बीड़ी का यह जुड़ाव झारखंड़ से सटे पुरुलिया जिले के कई इलाके में देखा जा सकता है। घर में महिलाएं दिन भर अकेले या अपनी हम उम्र महिलाओं के साथ बीड़ी बनाती हैं। बेटियां अपनी सहेलियों के साथ झुंड में बैठकर बीड़ी बनाने का काम करती हैं और लड़के केंदू पत्ता और तंबाकू का जुगाड़ करने में लगे रहते हैं। लड़कियों के बीच तो बीड़ी बनाओ प्रतियोगिता भी होती है, कि कौन कितनी तेजी में कितनी बीड़ी बना पाता है। जो जितनी तेजी से बीड़ी बना सकेगी, उसे जिंदगी में उतनी ही कम कठिनाई होगी। तेज हाथ चलने से अच्छे घर में शादी होगी। ससुराल में मान-सम्मान मिलेगा।
झारखंड और बंगाल के सीमावर्ती इलाके के अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र को इसी बीड़ी के जरिये समझा जा सकता है। बंगाल से ही सटे दूसरे जिले पाकुड़ में जाने पर आध्यात्मिकता की जगह यहां बीड़ी के कारोबार से अपराधशास्त्र का रिश्ता भी जुड़ जाता है। पाकुड़ को झारखंड में बीड़ी उद्योग का गढ़ माना जाता है। इस जिले में छह लाइसेंसी फैक्ट्रियां हैं लेकिन इन छह लाइसेंसी फैक्ट्रियों की आड़ में उससे करीब दो गुना फैक्ट्रियां बगैर किसी लाइसेंस के ही चलायी जाती है। एक अनुमान के मुताबिक करीबन 30 करोड़ रुपये का कारोबार प्रतिमाह इन फैक्ट्रियों से होता है। पाकुड़ के एक उद्योगपति बताते हैं कि लाइसेंसी उद्योग से कम से कम दो लाख बीडियां सिर्फ पाकुड़ से ही प्रतिदिन वैध रूप में कम से कम 2 लाख बीड़ियां सप्लाई की जाती हैं जबकि गैर लाउसेंसी फैक्ट्रियों से भी टीपी-3 फार्म भरकर वैध रूप से ही एक से डेढ़ लाख बीड़ियां रोज ही बाहर भेजी जाती हैं। इसके अलावा अवैध रूप से भी बीड़ियां बाहर जाती हैं। बगल में बंगाल है, तो वहां तो माल आसानी से जाता ही है लेकिन सबसे ज्यादा खपत आगरा, दिल्ली और आंध्रप्रदेश में है। लेकिन यह सब कंपनियों के कारोबार का हिसाब-किताब है। जो बीड़ी के साथ ही सोते-जागते हैं, उन्हें इस अर्थशास्त्र से ज्यादा मतलब नहीं। उन्हें तो सिर्फ जिलालत का जीवन ही नसीब ही होता है।
पाकुड़ में लगभग 60 प्रतिशत महिलाएं बीड़ी निर्माण में लगी हुई हैं। पिछड़े और अल्पसंख्यक बहुल इलाके में तो करीबन शत-प्रतिशत घर का चूल्हा ही बीड़ी की कमाई से जलता है। कंपनियों के लिए यह इलाका क्यों इस कदर पसंद का है, इसे समझने के लिए बीड़ी की मजदूरी को समझना होगा। कंपनियों द्वारा मजदूरों के घर खास कर महिला़ओं के पास कच्ची सामग्री पहुंचा दी जाती है और फिर प्रति हजार बीड़ी निर्माण पर 55 रुपये की मजदूरी दी जाती है। सरकार के श्रम विभाग ने प्रति हजार बीड़ी लगभग 89.50 रुपये तय की है लेकिन श्रम विभाग का आदेश कागज में अपनी जगह रहता है। पाकुड़ में बीड़ी मजदूरों पर काम करनेवाले पत्रकार कृपा सिंधु बच्चन की मानें, तो बाकी राशि मजदूर यूनियनों के सौजन्य से कुछ लोगों की जेब में जाती है। सबका हिस्सा यहां तय कर दिया गया है। अब यदि बीड़ी बनाने की रफ्तार को देखें तो लगातार आठ घंटे तक हाथ फेरते रहने पर एक हजार बीड़ी का निर्माण हो पाता है। यदि कोई दिन-रात बीड़ी-बीड़ी करता रहता है तो बमुश्किल 110 रुपये कमाई हो पाती है। बीड़ी बीमारियों को भी जन्म देता है, मजदूरों की जिंदगी को अकाल निगलता रहता है, फिर भी बीड़ी से ही जुड़े रहना यहां के मजदूरों की मजबूरी भी है। सबसे बड़ा कारण है रोजगार के लिए विकल्पों का अभाव। सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन यहां जमीन की बजाय कागज पर ही ज्यादा होता है। यही वजह है कि मनरेगा जैसी योजनाएं भी यहां लोगों में काम के प्रति ललक नहीं पैदा कर पाती हैं। इसकी बानगी आप मनरेगा में कार्यरत लोगों की संख्या से भी लगा सकते हैं। अगस्त माह का आकलन करें तो 16 तारीख तक मनरेगा में काम करनेवालों की संख्या 1007 है। जबकि जिले में काम करनेवालों के नाम जो पंजीकृत हैं उनकी संख्या 1,65,311 हैं। मनरेगा में काम न करने के बारे में पूछने पर शबाना बताती हैं कि एक बार काम करने जायेंगे तो बीड़ी का काम भी छूट जायेगा। भले ही इसमें काम के एवज में पैसे कम मिलते हैं लेकिन समय से पैसे तो मिल जाते है नं। मनरेगा में हर दिन का न तो पैसा मिलता है और न ही कभी समय पर भुगतान ही होता है। काम मांगने पर भी काम नहीं मिल पाता। दूसरी बात ये कि हर परिवार से सिर्फ एक ही व्यक्ति को काम मिलता है जबकि हमारी जरूरतें कहीं ज्यादा हैं और इसके लिए घर के हर सदस्य को काम करना पड़ता है। मजदूर यूनियन के नेता कृष्णकांतमंडल, माणिक दूबे, मोहम्मद इकबाल भी इस मसले को कारगर ढंग से नहीं उठाते हैं कि बीड़ी मजदूरों को नब्बे रुपये प्रति हजार की मजदूरी दी जाए।
इस बारे में वहां के ग्रामीण बताते हैं कि फैक्ट्री के मालिक उन्हें कमीशन देते हैं इसलिए वे हमारी बात को दमदार तरीके से नहीं रखते। लेकिन मजदूर यूनियन के नेताओं का कहना है कि बीड़ी उद्योग में चूंकि दंबगई और राजनीतिज्ञों की सांठ-गांठ है इसलिए हमारी बात वे नहीं सुनते। बात चाहे जो भी हो लेकिन पाकुड़ के इलामी, लखनपुर, कालीबाड़ी, इसमत कदमसार जैसे गांवों की महिलाओं और बीड़ी मजदूरों की बदहाली की सुधि कोई नहीं लेनेवाला और जब तक उन्हें उनका हक नहीं मिलेगा वे गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पायेंगे-बीड़ी के बड़े कारोबारी चाहते भी हैं कि यह चक्रव्यूह बना रहे ताकि कौड़ी के मोल मजदूर मिलते रहें।

होश की दुनिया का तमाशा

♦ अनुपमा

पिछले महीने निरमलिया की मौत हो गयी। भूखे-प्याासे आखिर कब तक वह मेहनत करती रहती? चिलचिलाती धूप में जंगल से लकड़ी काटना और फिर उसे बाज़ार में बेचना, उसकी दिनचर्या थी। इतनी कड़ी मेहनत के बाद भी निरमलिया अपने अर्धविक्षिउप्तम पति और पांच बच्चों का पेट कहां भर पाती थी। वह परिवार के अन्य सदस्योंे को तो कुछ खिला भी देती थी, पर खुद कई-कई दिनों तक भूखे रह जाती थी। आखिर यह सिलसिला कितने दिन चल सकता था… निरमलिया पलामू जिले के छतरपुर ब्लॉ क के सुशीगंज की रहनेवाली थी। दुर्भाग्यस यह है कि उसकी मौत, पलामू में भूख से हुई मौतों की फेहरिस्तर में भी शामिल नहीं हो पायी। क्यों कि ऐसा करते ही प्रसाशन के क्रिया-कलापों पर प्रश्न चिह्न लग जाता। जब हमने यह जानने की कोशिश की कि आखिर उसकी मौत कसे हुई है, तो ग्रामीणों ने बताया कि वह भूख से मरी है। उसके घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। परंतु उपायुक्त् डॉ अमिताभ कॉशल ने बताया कि मामले की जांच करायी गयी है और बीडीओ वहां गये थे। उनके अमुसार निरमलिया ने एक दिन पहले यानी की शनिवार 28 जून की रात को खाना खाया था। शव का पोस्ट मार्टम शायद घरवालों की इजाज़त न मिलने के कारण नहीं हो पाया हो। लेकिन यह हो भी जाता तो क्या् इसकी पुष्टि की जाती? शायद नहीं।
पलामू और सूखा का कुछ ऐसा मेल हो गया ह कि छुड़ाये नहीं छूट रहा। यह विडंबना ही है कि भूख से होनेवाली मौत के आगोश में समाने वाले 99 फीसदी लोग आदिवासी और दलित ही हैं। चाहे वह कोरबा जनजाति के हों, भूइंयां, बिरहोर या फिर अन्यआ। जब सरकार की 19 योजनाएं उनके उत्थायन के लिए चलायी जा रही हैं और सुखाड़ के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपये खर्च किये जा चुके हैं… फिर यह मौतें क्यों ? निरमलिया की मौत का काला सच भी शायद कभी सामने न आ पाये। गढ़वा की लेप्सीर की मौत भी कुछ इसी तरह हुई थी और प्रशासन ने उसे भूख से हुई मौत मानने से ही इनकार कर दिया था। परंतु मीडिया और कुछ प्रबुद्धजनों की कोशिशों के बाद उन्हेंौ यह मानना पड़ा था कि उसकी मौत भूख से ही हुई है। निरमलिया की मौत सिर्फ एक कॉलम की खबर बन पायी और शायद इसीलिए उसे इंसाफ नहीं मिल सका।
पलामू में इस बार फिर सुखाड़ ने दस्त क दी है। तभी तो सुखाड़ से खौफजदा किसान इच्छास मृत्युी के लिए हस्ता क्षर अभियान चला रहे हैं। 5000 किसानों ने तो हस्तादक्षर भी कर दिये हैं और 30,000 और किसान अर्जी भर रहे हैं। यह जानकर आश्चहर्य होगा कि प्रदेश की 38 लाख हेक्टेकयर कृषि योग्य0 भूमि में से आज भी केवल 1.57 लाख हेक्टेहयर जमीन पर ही सिंचाई की सुविधा उपलब्धि है। सवाल है कि आखिर क्योंक? शायद इसलिए कि अब तक किसानों और खेती के मूल तकनीकों पर न तो यहां कोई काम हुआ है और न ही सरकार की कोई मंशा ही रही है। यदि मंशा होती तो यकीनन तस्वी र कुछ और होती और जमीनों पर जो दरार दिख रही हैं, वहां फसल लहलहा रही होती।
पलामू में घुसते ही आपको यह एहसास होने लगेगा कि कसी विकट और त्रासद जिन्द गी जीने को विवश है यहां की जनता। सुखाड़ की स्‍िथति जानने और वहां के लोगों की जीवन शैली जानने की उत्कशट इच्छाा लिये पिछले साल अपने एक साथी के साथ मनातू, लमटी, लेस्ली गंज व चेड़ाबारा गांव जाना हुआ था। इन गांवों के लोग इतने अनुभवी हैं कि धरती और आकाश को देख कर ही बता दें कि इस बार अकाल-सुखाड़ पड़ने वाला है या फिर बारिश और खेती की कोई गुंजाइश शेष है। चेड़ाबारा गांव के एक किसान सुकुल ने बताया कि सुखाड़ और गरीबी हमारी नियती ही बन गयी है। इससे बचने के लिए सरकार की तरफ से जो पहल होनी चाहिए, वह नहीं हो रही। गांव के लोगों ने कई बार यह निवेदन भी किया था कि शिवपुर में यदि डैम बन जाता तो अच्छा होता और अगर यह नहीं हो सकता तो गांव में 20 फुट (20 फीट के कुएं) कुआं ही बन जाता, तो कुछ हल निकल आता। कुछ ऐसी ही सोच कोल्हुाआ टोली और महुआ टोली के लोगों की भी थी। उनका मानना है कि इतने भर से ही कम से कम पीने और थोड़ी खेती के लिए कुछ पानी तो मिल ही जाता। अनाज के अभाव में यहां के लोग महुआ, गेठी (एक कसला कंदमूल) और चकवढ़ साग (जंगली पौधा) खाने को विवश हैं।
चैनपुर के लमटी गांव की स्‍िथति तो और भी भयावह है। दूरस्थस और दुर्गम रास्तोंड की वजह से न तो मीडियाकर्मी यहां पहुंच पाते हैं, न अधिकारी और न ही प्रबुद्धजन। जब हम इस गांव की स्‍िथति जानने पहुंचे तो पता चला कि कितनी लेप्सीथ और निरमलिया यहां हर साल दम तोड़ती रहती हैं परंतु उनकी मौत की गूंज किसी शून्यि में समा जाती है। वह खबर भी नहीं बन पाती। आदिम जनजाति कोरबा लोग यहां रहते हैं। सुखाड़ के दिनों में सिर्फ गेठी ही इनका भोजन होता है। गेठी की कड़वाहट को चूना लगाकर बहते पानी में रात भर बांस के जालीनुमा पात्र में डाल दिया जाए तो दूर किया जा सकता है। परंतु जहां न पानी है और न चूना के लिए पैसा तो फिर ये क्या करें? इसी गांव की धनुआ कोरबाइन ने बताया कि इसकी कड़वाहट को कम करने के लिए वो इसे काटकर 3-4 दिनों तक मिट्टी के घड़े में डालकर रेत में दबा देती हैं और तब खाती हैं। हमने देखा कि कड़वाहट कुछ कम तो हो जाती है परंतु ऐसा भी नहीं कि इसे खाया जा सके। पर पेट के लिए तो सब करना ही पड़ता है। जीने की जिद और जज्बेी को देखना हो तो एक बार लमटी जरूर देखें।
खैर… हम बात कर रहे थे पलामू और सुखाड़ की। बचपन में पलामू के बारे में हम कई-कई किस्सेे सुना करते थे। उन्हींक में से एक था मनातू स्टे़ट का किस्साम। मनातू स्टेजट में जबरन लोगों को बंधुआ बना कर मजदूरी करवायी जाती थी। मना करने या आनाकानी करने पर स्टे ट के महाराजा अपने पालतू चीता के पिंजरे में मजदूर को फेंकवा देते थे। इस डर से लोग उनके द्वारा किया जानेवाला अत्यााचार चुपचाप सह लेते थे या फिर मौत को गले लगा लेते थे। परंतु अब न स्टेदट रहा और न ही महाराज। फिर भी लोग तड़प रहे हैं, भूख और त्रासदी के पिंजरे से निकलने को छटपटा रहे हैं। लेकिन निकल भी नहीं पा रहे। वे न तो सुकून से जी पा रहे हैं और न ही मर पा रहे हैं। सवाल है कि मौत के मुंह में धकेलनेवाला वह शख्स कौन ह? सरकार, प्रशासन या फिर हम स्वमयं… पर इतना जरूर है कि यह पिंजरा इतना मजबूत ह कि पीढ़‍ियां दम तोड़ दे रही हैं पर उबर नहीं पा रहीं। आखिर क्योंक?
सवाल यह भी है कि जिस साल पलामू में सामान्यी वर्षा होती है, तो वह तकरीबन 1200 मिमी तक होती है। लेकिन जब कम वर्षा होती है तो भी यह करीबन 600 मिमी तक होती है। पी साईंनाथ ने लिखा है कि कम वर्षा होने के बाद यदि ऐसे अन्यय क्षेत्रों का तुलनात्म क अध्यंयन किया जाए तो यह स्पतष्टा होता है कि इससे कम वर्षा वाले क्षेत्र में भी ऐसी तबाही नहीं होती जितनी कि पलामू में। क्योंा? कहीं यह होश की दुनिया के लोगों के द्वारा खड़ा किया गया तमाशा तो नहीं? क्योंू नहीं वे इसका हल ढूंढ पा रहे हैं?
सचमुच यह बड़ा सवाल है और जवाब हम सब को मिलकर खोजना है।
31 JULY 2009