Monday, April 22, 2013

धरमन जान का एक खत बाबू वीर कुंवर सिंह के नाम



बाबू साहेब
आदाब!

आज मेरा मन बहुत बेचैन है. आपको बहुत याद कर रही हूं. याद तो रोज ही करती हूं. हर पल आपकी यादों में ही रहती हूं लेकिन जब-जब आपकी जयंती-पुण्यतिथि जैसे आयोजन आते हैं, आपको ज्यादा ही याद करती हूं. आपसे कोई शिकायत नहीं बाबू साहेब. मैं जब धरती पर थी, तब भी आप ही मेरे दिल के सबसे करीब थे, और आज भी उतनी ही करीब महसूसती हूं आपको. अपनी बेचैनी किसी से साझा नहीं कर सकती, सो आपसे कर रही हूं. आपसे गुजारिश है कि इस पत्र को परेशानी का सबब न बनाइयेगा. मुझे मालूम है कि आप मेरी गुजारिश को स्वीकारते हैं.
बाबू साहेब, आप यह न सोचिएगा कि मैं अपनी पीड़ा व्यक्त कर रही हूं आपसे. बस! जब-जब आपके नाम का जयगान होता है, आपको महान सेनानी वगैरह बताया जाता है तब क्यों एक बार भी लोगों को मैं याद नहीं आती, यह सवाल कई बार मुझे परेशान करते हैं. आपने तो अपनी जिंदगी में सबको बता दिया था कि मैं आपकी हूं, आप मुझे तन-मन से स्वीकार कर रहे हैं. सिर्फ बताया ही नहीं था आपने, आपने तो अपने शहर आरा में मेरे नाम का एक मकबरा भी बनवा दिया था, ताकि हमारे प्रेम की एक निशानी रहे. भले ही प्रेम की वह निशानी शाहजहां-मुमताज के ताजमहल की तरह मशहूर नहीं हो सका लेकिन आरा में धरमन चैक पर धरमन बाई का मकबरा प्रेम की एक निशानी है, यह कौन नहीं जानता. आप अंग्रेजों से लड़ रहे थे, युद्ध का माहौल था, तब भी आप प्रेम की दुनिया मंे भी डूबे हुए थे. बाबू साहेब, आपने जब मुझसे प्रेम किया तो कभी परवाह नहीं की कि दुनिया क्या सोचेगी, लोग क्या कहेंगे. मैं एक तवायफ थी लेकिन आपने प्रेम किया और बाद में दुनिया के सामने डंके की चोट पर मुझे अद्र्धांगिनी भी बनाया. मैं उस दिन को अब भी बार-बार याद करती हूं, जब आपके पड़ोस के ही एक राजा ने आपको अपमानित करने के लिए मेरे मुजरे का आयोजन करवाया था और अंगरेजों के साथ मिलकर मुजरे के माहौल में आपकी खिल्ली उड़ा रहा था. आप उस भीड़ में अकेले-बेबस-लाचार हो गये थे. मेरा मन बेचैन हो गया था और मैंने ही प्रेम निवेदन किया था आपसे. आपने कहा था कि आपके पास अब कुछ नहीं, मैं बोली थी कि मैं हूं ना. आप कहते थे मुझसे कि नन्हीं, मुझे कुछ नहीं चाहिए तुमसे, सिर्फ तुम रहो मेरे साथ, मुझे ताकत मिलता है. मुझे बहुत जिद करनी पड़ी थी आपसे कि यह धन-दौलत जो मेरे पास है, वह अब किस काम आएगी, सबको लगा दीजिए अंगरेजों के खिलाफ लड़ने में. बार-बार कहने पर आप माने थे. आप ही का जोश-जुनून देख मैं भी चली गयी थी कि 1857 की लड़ाई में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तरफ से अंगरेजों से लड़ने. फिर मैं लौट न सकी थी उस युद्ध से. आप भी तो रोज कहते थे कि रोज जीओ नन्हीं, इस युद्ध में जिंदगी का कोई भरोसा नहीं. हर दिन एक नयी जिंदगी जीओ. मैं वैसे ही जिंदगी जी हूं आपके साथ. लेकिन इतने सालों बाद मन में एक कसक रहती है कि जब आपको कोई संकोच नहीं हुआ मुझे स्वीकारने में, मेरे प्रति प्रेम को दर्शाने में तो अब के लोगों को क्यों इतना संकोच होता है, क्यों इतनी शर्म आती है मेरा नाम लेने. क्यों मेरा नाम आते ही मुझे नचनिया-पतुरिया कह, एक दायरे में समेट देते हैं. आप विराट व्यक्तित्व वाले बाबू साहेब, आपके समानांतर खड़ा नहीं होना चाहती लेकिन इतनी उम्मीद तो करती ही हूं कि जो आपके नाम का माला जपते हैं, आपको एक महानायक बताते हैं, आपके नाम के आगे वीर शब्द जोड़ना नहीं भूलते, वे आपको समग्रता में क्यों नहीं स्वीकार पाते. क्यों आपकी नन्हीं यानि मुझे अब भी उसी हिकारत की दृष्टि से देखते हैं. क्यों उन्हें लगता है कि आपके साथ गलती से भी मेरा नाम जुड़ जाएगा तो आपकी बदनामी होगी. आपने तो कभी इसकी परवाह नहीं की थी बाबू साहेब, फिर आज के समय में जब दुनिया एक गांव में मिट रही है, जाति-धर्म का बंधन तोड़ने की बात रोज हो रही है, तब मुझे स्वीकार लेने में क्यों परेशानी होती है लोगों को.
बाबू साहेब, एक बात कहूं. यही एक बात कहने को इस खत को लिख भी रही हूं. आपकी बाते तो अब भी बहुत सुन ली जाएगी, क्योंकि आपको सरकार भी मानती है, लोग भी सम्मान देते हैं. आप किसी तरह समझाइये न लोगांे को कि अगर उन्हें आपके साथ मैं स्वीकार नही ंतो फिर साहस जुटाकर मेरे अस्तित्व को मिटा दे. बदल दे आरा के धरमन चैक का नाम, हटा दे सभी निशानियां. मेरे और मेरी छोटी बहन करमन के नाम पर जो भी निशानियां हैं, सब मिटा दे. बदल दे इतिहास को. मिटा दे वो इबारतें भी जो कहीं न कहीं, किसी न किसी कागज के बंडल में दबी पड़ी हुई है हमारेे साझा इतिहास की.
शायद ज्यादा बोल गयी बाबू साहेब. आपसे ही इतना बोल सकती हूं, इसलिए बोल गयी. आप पर ही इतना अधिकार रहा है मेरा, जहां मैं खुद को खुलकर व्यक्त कर सकती हूं. बाकि बातें फिर करूंगी आपसे, अभी आपको मैं भी आपके जन्मदिन की शुभकामनाएं दे रही हूं. आपको आपके जन्म दिन पर बहुत-बहुत प्यार बाबू साहेब. बहुत-बहुत प्यार...
आप ही की
नन्हीं 

नोटः- यह खत काल्पनिक है. धरमन बाबू वीर कुंवर सिंह की प्रेमिका थी, बाद में पत्नी बनीं. आज वीर कुंवर सिंह के जन्म दिन पर धरमन कुछ कहना चाहती हैं, इसलिए उनकी बातों को व्यक्त करने के लिए काल्पनिक पत्र का सहारा लिया गया है.

Saturday, April 20, 2013

टीबी वाया बीड़ीः मौत के साये में जिंदगी की डोर



जयक्रिस्टोपुर गांव में दिलावर की चुस्ती और फूर्ति देखते ही बनती है. 14-15 साल का दिलावर ठेला चलाते हुए खुद आता है. तुरंत बोरा बिछाता है. बोरे के कुछ बंडलों को खोलता है और सामने बीड़ी के पत्ते और तंबाकू का ढेर लगाकर तराजू से तौलने में व्यस्त हो जाता है. दिलावर आ गया-दिलावर आ गया की सूचना गांव की गलियो में पहुंचती है. दौड़ते-भागते महिलाएं, बच्चियां एक कॉपी के साथ टोकरीनुमा डाली में बीड़ी लेकर पहुंचने लगती हैं. दिलावर के साथ बैठा नरूल बीड़ियों को लेता जाता है, टोकरी में रखी कॉपी पर और अपने रजिस्टर में कुछ लिखता है और महिलाएं फिर बीड़ी पत्ता-तंबाकू लेकर विदा होते जाती हैं. आधे घंटे में एक टोकरी बीड़ी पत्ता और तंबाकू तौलकर नन्हा दिलावर तुरंत अपनी दुकान को समेटता है और ठेले को चलाते हुए वहां से विदा हो जाता है. दूसरे गांव के लिए.
जयक्रिस्टोपुर से निकलने के बाद हम भगीरामपुर गांव, अंजना गांव, नया अंजना गांव, चाचकी, इलामी, तारानगर, संग्रामपुर, रहसपुर, चांचपुर आदि गांवों में जाते हैं. अमूमन सभी गांवों में दिलावर की तरह ही कोई न कोई ठेला वाला दिखता है, जो सुबह-सुबह तंबाकू और बीड़ी पत्ते के साथ पहुंचकर उसे देने और बदले में बीड़ी लेने में व्यस्त रहता है. बीड़ी पत्ता मध्यप्रदेश का होता है, तंबाकू गुजरात की और मजदूर पांकुड़ के. ये सारे गांव झारखंड के सीमावर्ती जिले पांकुड़ जिला के गांव हैं. पांकुड़ जिला के सदर प्रखंड के अंतर्गत आनेवाले 128 गांवों में करीब 90 फीसदी गांवों में यह नजारा हर सुबह देखा जा सकता है. ये तमाम गांव बीड़ी गांव हैं. बीड़ी मजदूरों की बसाहट है इन गांवों में. अधिकांश मुस्लिम समुदाय के लोग हैं. यूं भी पांकुड़ जिला केंद्र सरकार की सूची में विशेष अल्पसंख्यक जिले के रूप में ही दर्ज है.
इन गांवों में अहले सुबह से लेकर रात में सोने तक अधिकांश लोगों की जिंदगी बीड़ी पर हाथ फेरते ही गुजरती है. बीड़ी और इन गांवों के लोगों की जिंदगी की ऐसी गुत्थमगुथाई हो गयी है कि यहां बीड़ी को हटाते हुए एक बड़े समुदाय और एक बड़ी आबादी के सामने अंधकारमय भविष्य का सवाल सामने आता है. यहां जो लड़की बीड़ी नहीं बना सकती, उसकी शादी में भी हजार मुश्किलें आती हैं. जो जितनी तेजी से बीड़ी के पत्तों पर हाथ फेरते हुए उसमें तंबाकू भरेगा और बीड़ी बनायेगा, वह उतना ही काबिल माना जाता है, योग्य भी. इन्हीं गांवों के लोगों ने मिलकर पांकुड़ को बीड़ी का देश का एक प्रमुख हब बनाया है. अकेले पांकुड़ में वैध तौर पर छह बड़ी बीड़ी फैक्ट्रियां इन्हीं के बुते चलती हैं. बंगाल की पताका बीड़ी फैक्ट्री, महराष्ट्र की सीएनआई और सूरती बीड़ी फैक्ट्री, मध्यप्रदेश की बालक बीड़ी फैक्ट्री और उत्तरप्रदेश की श्याम बीड़ी फैक्ट्री. इन वैध फैक्ट्रियों के अलावा अवैध तौर पर और बिना ब्रांड वाली कितनी फैक्ट्रियां है, यह सही-सही बताने की स्थिति में कोई नहीं होता. क्योंकि बीड़ी के धंधे में एक बड़ा खेल चलता है, जिससे पार पाने के लिए अवैध फैक्ट्रियों को चलाने में ही ज्यादा मुनाफा आता है. 20 लाख तक बीड़ी के प्रोडक्शन करनेवाली कंपनियों को न तो कोई टैक्स देना पड़ता है, न किसी खास नियम-कानून के दायरे मे लाया जाता है, सो अवैध की धूम इन दिनों ज्यादा ही मची है. यह जानकारी हमें रामअवतार गुप्ता से मिलती है, जो श्याम बीड़ी फैक्ट्री के प्रबंधक हैं और पांकुड़ में ही रहते हैं.
खैर! यह सब तो तकनीकि पेंच की बात हुई,इस इलाके में घूमते हुए असल सवाल दूसरे किस्म के उभरे. एक बड़ा सवाल यह कि आखिर जिन मजदूरों के बुते वैध-अवैध इतनी फैक्ट्रियां पांकुड़ में चलती है और जिनकी वजह से देश के कोने-कोने के बीड़ी व्यापारियों के लिए पांकुड़ पसंदीदा जगह बना हुआ है, उन मजदूरों के हिस्से में इस बीड़ी से क्या आता है? मजदूरी के तौर पर 1100 बीड़ी बनाने पर 75 रुपये मिलते हैं. मजदूरी का यह हिसाब तो एक हजार बीड़ी का होता है लेकिन तंबाकू-पत्ता देने और बीड़ी कलेक्ट करनेवाले बीचौलिये 100 बीड़ी इसलिए ज्यादा रखते हैं ताकि अगर कुछ बीड़ी डैमेज मिले तो उसकी भरपाई की जा सके. हालांकि सच्चाई यह होती है कि डैमेज कंट्रोल के नाम पर लिये जानेवाले 100 ज्यादा बीड़ियों का भी बीचौलिये अलग से कारोबार करते हैं. अब देखें तो एक मजदूर अगर बीड़ी बनाने में बहुत काबिल है, उस्ताद है तो भी अधिक से अधिक हजार बीड़ी से ज्यादा वह दिन भर की मेहनत के बाद नहीं बना पाता. औसतन 500 बीड़ी से ज्यादा कोई नहीं बना पाता. इससे मजदूरी का हिसाब साफ लगाया जा सकता है लेकिन यह तो मजदूरी है, जिसका हिसाब-किताब साफ-साफ दिखता है और लोगों से बात करने पर पता भी चलता है लेकिन बीड़ी मजदूरों को दूसरी सौगात भी वर्षोंं से मिल रही है, जिसका न कोई लेखा-जोखा है, न जिसके बारे में पता करने का कोई उपक्रम-औजार और मानक.  यह सौगात टीबी जैसी बीमारियों का है, जो तंबाकू के बीच दिन भर का समय गुजारने के बाद इन्हें मिलता तो है लेकिन टीबी से ही मर जाने तक इन्हें पता ही नहीं चल पाता कि आखिर वे अकाल, काल के गाल में किस बीमारी की वजह से समा गये!
आखिर ऐसा क्यों? जब केंद्र की सरकार देश भर में टीबी से लड़ने के लिए डॉट्स जैसे प्रोग्राम चला रही है, जन जागरूकता अभियान चलाने में लगी हुई है और तमाम संसाधनों और सुविधाओं को बहाल किये जाने की बात कर रही है तो टीबी की ज्यादा संभावनावाले इस इलाके में उस बीमारी की जांच के लिए बुनियादी सुविधा तक क्यों नहीं! क्यों जिला अस्पताल छोड़कर कहीं और टीबी बीमारी वाला प्रचार पोस्टर भी नहीं दिखता. न डॉट्स के कार्यकर्ता मिलते हैं न आंगनबाड़ी जैसे केंद्रों पर इसकी सुविधा मिलती है. स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार कृपासिंधु बच्चन बताते हैं, यह एक खेल है, जिसे समझना होगा. कोई बीड़ी फैक्ट्री नहीं चाहेगा कि इलाके में शिक्षा और स्वास्थ्य के समुचित उपाय हो, क्योंकि दोनांे सुविधाएं बहाल हो जाने से फिर बीड़ी के धंधे पर असर पड़ेगा. अगर मजदूरों को पता चलने लगे कि उन्हें टीबी जैसी बीमारी हो रही है तो फिर वे सावधान होने लगेंगे, नयी पीड़ी को जोड़ने से हिचकने लगेंगे,इसलिए दूसरे किस्म के स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए दिखावे के तौर पर अलग से बीड़ी अस्पताल जैसा संस्थान तो खोल दिया गया है लेकिन इस इलाके विशेष के लिए टीबी से पार पाने के लिए अलग से कोई खास इंतजाम नहीं किया जाता, ताकि यह बीमारी रहस्यमयी बीमारी ही बनी रहे! बच्चन की बातों को पड़ताल करने के लिए हम पांकुड़ के पास बीड़ी मजदूरों के लिए विशेष तौर पर खोले गये बीड़ी अस्पताल के प्रभारी  डॉ सुहैल अख्तर से तस्दीक करते हैं. डॉ अख्तर जिला चिकित्सा पदाधिकारी भी हैं. वह कहते हैं- हमारे इस केंद्र पर बलगम जांच की व्यवस्था अब तक नहीं है न डॉट्स और टीबी की दवाइयों की सुविधा है. इसके लिए हमने जिला उपायुक्त से आग्रह किया तो उसके लिए टेंडर भी हुआ लेकिन अब तक सुविधाएं बहाल नहीं हो सकी है. साथ ही वर्किंग हैंड की भी भारी कमी है. पिछले साल इस अस्पताल में करीब 1350 मरीज जांच कराने आये थे. उनमें से कितने टीबी मरीज रहे होंगे, यह बगैर जांच के बताने की स्थिति में तो डॉ अख्तर नहीं होते लेकिन वह कहते हैं कि हर माकरीब 10 मरीज तो टीबी के आते ही होंगे, ऐसा उनमें पाये जानेवाले लक्षणों को देखकर लगता है. पूर्व जिला चिकित्सा पदाधिकारी जितेंद्र सिंह भी कहते हैं कि हमारे पास कोई सुविधा नहीं कि बता सकें कि कितने मरीज टीबी से पीड़ित हैं. अधिकांश बुखार, सर्दी, खांसी मलेरिया आदि से पीड़ित होकर आते हैं लेकिन उनमें टीबी के भी मरीज होते हैं, यह उनके लक्षणों से पता चलता है. बीड़ी मजदूरों के लिए बने बीड़ी अस्पताल मंे सुविधाओं और संसाधनांे के अभाव में भले ही टीबी मरीजों के सही-सही आंकड़े नहीं मिल पाते लेकिन जिला यक्ष्मा पदाधिकारी डॉ बीके सिंह के हवाले से बीड़ी जोन में टीबी की भयावहता का एक पक्ष उभरकर सामने आता है. बकौल डॉ बीके सिंह, एक जनवरी 2012 से लेकर 31दिसंबर 2012 तक 1200 से ज्यादा टीबी के मरीज पाये गये हैं, जिनका इलाज फिलहाल जिला सदर अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य उपकेंद्रों में  चल रहा है. जून 2005 से पांकुड़ में टीबी का इलाज शुरू हुआ था. तब से लेकर  अब तक आधिकारिक तौर पर आठ हजार से ज्यादा मरीज चिन्हित किये गये हैं. इतनी संख्या तब है, जब टीबी को लेकर जनजागरूकता अभियान लगभग शून्य दिखता है. प्रचार प्रसार के नाम  24 मार्च को टीबी दिवस के दिन अस्पताल में और कुछ स्कूलों में आयोजन होता है. ग्रामीण क्षेत्रों में उसकी दस्तक तक नहीं पड़ती!

अनगढ़, बिखरे पत्थरों में खगोल विज्ञान का आदिम ज्ञान


हजारीबाग शहर से बाहर निकलकर कुछ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हम रोला पहुंचते हैं. न गांव, न शहर बल्कि कस्बे जैसा है रोला. वहां चारो ओर से बन रहे या बन चुके कुछ मकानों के बीच एक खेत में बिखरे पड़े आड़े-तीरछे  कुछ पत्थरों को दिखाते हुए शुभाशीष दास बार-बार कहते हैं- देखिए आदि विज्ञान और इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय चारो ओर से कैद होता जा रहा है, ऐसे ही यह एक दिन मिट जाएगा, मिट्टी में मिल जाएगा. शुभाशीष इधर-उधर बिखरे गड़े हुए पत्थरों को जब बार-बार आदि जमाने के वैज्ञानिक चेतना का एक महत्वपूर्ण साक्ष्य बताते हैं तो बातें कुछ साफ समझ में नहीं आती. हम उनसे पूछते हैं कि यह तो पत्थरगड़ी केंद्र है, जहां आदिवासी समाज किसी की मृत्यु के बाद उसकी स्मृति में पत्थरों को गाड़ा करते हैं, आप जब इसे विज्ञान का अहम केंद्र बता रहे हैं तो जरा समझाइये. शुभाशीष हंसते हुए कहते हैं- आप खुद सोचिए कि अगर यह सिर्फ मृत आत्मा की याद में गाड़े हुए पत्थर भर होते और किसी तरह एक परंपरा के निर्वहन की प्रक्रिया भर होती तो फिर सभी पत्थर अमूमन एक तरीके के होने चाहिए थे. सबको या तो गाड़ा जाना चाहिए था, या रखा होना चाहिए था. यह बताते हुए वह तुरंत अपने बैग से कंपास और इंच-टेप निकालते हैं. एक पत्थर पर कंपास को रखते हुए कहते हैं कि देखिए यह पूरी तरह से उत्तर-दक्षिण की दिशा में रखा हुआ है या नहीं? कंपास सभी पत्थरों का रखा होना उत्तर-दक्षिण दिशा ही बताता है. फिर वे दो पत्थरों के बीच की दूरी टेप से नापते हुए कहते हैं कि देखिए यह दो पत्थर जितनी दूरी पर हैं, अगला पत्थर ठीक उससे दो गुनी दूरी पर होगा और उससे अगला चार गुणा दूरी पर. परिणाम वैसा ही दिखता है. शुभाशीष कहते हैं सब विज्ञान पर आधारित है, विज्ञान के औजार हैं और वह भी तब के जब खगोल विज्ञान का यह आधुनिक ज्ञान विकसित नहीं हुआ था. आर्यभट्ट, ब्रह्मभट्ट से बहुत पहले आदिवासियों द्वारा स्थापित विज्ञान के केंद्र हैं, जिनकी अवधि करीब चार हजार साल पहले की बतायी जाती है. परंपरा निर्वहन के साथ विज्ञान के विकसित करने की एक अद्भुत कला और तकनीक के साक्ष्य को हम रोला में देख रहे थे. शुभाशीष कहते हैं कि यह तो कुछ नहीं हजारीबाग के ही बड़कागांव के पंकरी बरवाडीह में चलकर देखिए, वह तो कई मायनों में एस्ट्रोनोमिकल साइंस का दुनिया का एक अहम केंद्र है, जहां दो पत्थरों के बीच से उगते सूर्य को देखने के लिए पर्यटकों के साथ अब दूसरे मुल्क के विज्ञानी भी पहुंचने लगे हैं. पंकरी बरवाडीह में हम उस साइट को देखते हैं. शुभाशीष फिर कहते हैं, आप रांची से जमशेदपुर जाने के रास्ते में अति नक्सल प्रभावित बुंडू के चोकाहातू में भी कभी जाकर देखिए, वहां तो ऐसे पत्थरों का समंदर ही दिखेगा. वहां साढ़े आठ एकड़ जमीन में करीब आठ हजार ऐसे पत्थर दिखेंगे. शुभाशीष कहते हैं, यहां-वहां, कहां-कहां बतायें, पूरे झारखंड में, झारखंड ही नहीं कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरे भारत में ऐसे साइट मिलेंगे और दुनिया में मनुष्य द्वारा निर्मित इससे प्राचीन लेकिन जीवंत आराधना के केंद्र कहीं नहीं मिलेंगे और न ही विज्ञान के केंद्र.

परंपरागत पत्थरों में रहस्यमयी विज्ञान
शुभाशीष जितनी बातें बताते जाते हैं, हम उन पत्थरों के रहस्य, उनमें छुपे विज्ञान और उस परंपरा के महत्व को समझने की कोशिश करते हैं. हैरत भी होती है कि इतिहास कितनी चीजों को निगल लेता है. खगोल विज्ञान के इस अद्भुत ज्ञान को इतिहास ने क्यों निगल लिया था. यह सवाल हमारे मन में चल रहे होते हैं, दूसरी ओर सामने बैठे शुभाशीष डूबकर अपनी बात कह रहे होते हैं. वैसे, वे पिछले दो दशक से इन्हीं पत्थरों की दुनिया में डूबे हुए भी हैं. पहले एक प्राइवेट फर्म में मार्केटिंग का काम करते थे, फिर डीएवी स्कूल के प्रिंसिपल बने और दो दशक पहले इन पत्थरों की दुनिया को समझने का जुनून ऐसा सवार हुआ कि सब छोड़ इसी में लग गये. नतीजा यह कि पिछले दो दशक में वे ऐसी 40 जगहों की खोज कर चुके हैं और उनकी दो महत्वपूर्ण किताबें इन सर्च ऑफ मेगालिथऔर सेक्रेड स्टोन इन इंडियन सिविलाइजेशनइस विषय पर आ चुकी है, तीसरी आनेवाली है, जिसे वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के टेरेंस मेडेन के साथ मिलकर लिख रहे हैं. वह बताते हैं, झारखंड में आम बोलचाल की भाषा में इसे पथलगड़ी केंद्र कहते हैं. उरांव, हो, मुंडा और असुर आदिवासियों में पथरगड़ी की परंपरा पीढ़ियों से रही है. किसी की मृत्यु के बाद उसकी याद में पत्थर गाड़ने का रिवाज रहा है, जो अब भी एक अहम परंपरा है. इसे मेगालिथ भी कहते हैं जिसका शब्दानुवाद तो बड़ा पत्थर होता है लेकिन इसका एक आशय आदिवासियों का कब्र भी होता है और ऑस्ट्रिक स्पीच में इस प्रक्रिया को ससंदरी, हड़गड़ी, हड़सड़ी भी कहते हैं. यह परंपरा कब शुरू हुई, यह तो इतिहास के पन्ने नहीं बताते लेकिन यह माना जाता है कि नवपाषाण काल एवं ताम्र युग के समय से ही यह परंपरा चलन में रही है. साथ ही यह भी पता चलता है कि आदिवासियों ने मृतात्मा की याद में जब इस परंपरा की शुरुआत की तो उसमें कई जगहों पर खगोलीय विज्ञान व ज्योतिष ज्ञान के तत्वों को भी समायोजित किया. इन पत्थरों के जरिये ही वे काल, समय, मौसम आदि की भी गणना और अनुमान लगाते थे. बरवाडीह पंकरी में जो मेगालिथ साइट है, वहां दो पत्थरों के बीच उगता सूर्य उसी दिन दिखायी पड़ता है, जब वह पूरी तरह से पूरब दिशा से निकलता है. जिस दिन सूर्य पूरब दिशा से निकलता, उस दिन खुशी का पर्व और नये साल मनाने की एक संस्कृति भी कभी हुआ करती थी. यह दिन अब इक्विनॉक्स डे के रूप में जाना जाता है और साल में यह मौका दो बार आता है, जो पहली बार करीब 20 मार्च को आता है और दूसरी बार 22-23 सितंबर को. शुभाशीष बताते हैं, बात सिर्फ काल-मौसम गणना-आकलन की नहीं है, आप इन्हें गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि सभी पत्थरों का मिलान बायें कोण से (यानि लेफ्ट अलाइंड) किया गया है. ऐसा संभवतः इसलिए कि आदिवासी समाज हमेशा से वामा यानि स्त्री को अधिक महत्व देते रहा है और जब अपने जमाने के बौद्धिक आदिवासियों ने भी इस अनगढ़ विज्ञानशाला को स्थापित करना शुरू किया तो उसमें बायें पक्ष को ही सबसे ज्यादा महत्व दिया.

दुनिया जानती है और मानती भी है लेकिन...
आदिम जमाने में विकसित हुए खगोल विज्ञान के इस अद्भुत ज्ञान परंपरा को भारत में वह महत्व क्यों नहीं मिला, यह सवाल हमारे मन में घुमड़ रहे होते हैं. हम यह सवाल रांची विश्ववविद्यालय के इतिहास के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ एचएस पांडेय, झारखंड के कला-संस्कृति विभाग के पूर्व सहायक निदेशक रहे हरेंद्र सिन्हा, रांची बोकारो के रास्ते में पड़नेवाले चितरपुर में रहकर इन मेगालिथ पत्थरों के साथ ही पुरातत्व के दूसरे आयामों पर पिछले कई सालों से काम करने में मगन फैयाज आदि से भी करते हैं. डॉ एचएस पांडेय कहते हैं, यथार्थ के कई रहस्य दबे हुए हैं, देर से ही सही, लेकिन यदि रहस्य का उदघाटन हो जाए तो बहुत कुछ पता चलेगा. शुभाशीष कहते हैं, यह ज्ञान-विज्ञान अगर आदिवासियों की बजाय दूसरे समुदाय का होता तो वर्षों से इस कदर उपेक्षित न रहा होता. हरेंद्र सिन्हा कहते हैं कि कोशिश जारी है कि मिट्टी में मिलता जा रहा एक महत्वपूर्ण अध्याय सामने आये. इसके लिए वर्षों से प्रयास जारी है और कोशिश कर के हमने नष्ट होते एक-दो साइट की खुदाई करवाने की पुरातत्व विभाग से अनुमति भी ले ली है. उनकी बातों को विस्तार देते हुए फैयाज कहते हैं, ज्ञान-विज्ञान से चमत्कृत करनेवाली इस दुनिया को बहुत दिनों तक नहीं दबाये रखा जा सकता, सामने आ रहा है, दुनिया जब इसे जानती-मानती है तो भला भारत में कब तक इसे दबाकर रखा जा सकता है. उक्त सभी लोग अपने-अपने तरीके से सही बात कहते हैं और आज के संदर्भ में ही अगर देखें तो मेगालिथ के कई ऐसे साइट हैं, जो दुनिया भर में मशहूर हैं और उन पर तेजी से काम भी चल रहा है. सबसे पहला नाम तो स्टोनहेंज का ही लिया जा सकता है, जिसे दुनिया के आश्चर्यों में शामिल करने के साथ ही वर्ल्ड हेरिटेज घोषित किया जा चुका है. इंगलैंड में न्यूगै्रंज, कैलानिश, मिस्र में नबटा, मलेशिया में बातू रिटोंग आदि ऐसे मेगालिथ साइट हैं, जिन्हें दुनिया भर में ख्यातिप्राप्त है और पत्थरों में समाये आदिम जमाने के ज्ञान-विज्ञान के इन स्थलों को देखने दुनिया भर के लोग पहुंचते हैं. भारत में भी झारखंड के अलावा कश्मीर में बुर्जहोम, गुफकराल, राजस्थान में देवसा, मेघालय में शिलॉंग, कर्नाटक में विभूतिहाली आदि महत्वपूर्ण मेगालिथ साइट हैं. झारखंड में तो खैर इसकी भरमार ही है. पंकड़ी बरवाडीह, रोला, रांची, चोकाहातू, रामगढ़, नापो, बीरबीर आदि स्थलों पर ऐसे साइट खोजे जा चुके हैं. और स्थलों की खोज तेजी से जारी भी है. बरवाडीह जैसे मेगालिथ साइट पर सूर्योदय देखने के लिए साल में दो बार सैलानियों की भीड़ बढ़ने लगी है. दुनिया के विज्ञानी इसे समझने के लिए आने लगे हैं और राज्य की सरकार भी आखिर में इन्हें थोड़ा महत्व देने को तैयार होते हुए दिखने लगी है. इसका एक प्रमाण यह है कि कई मेगालिथ स्थलों पर अब सरकार की ओर से बड़े बड़े बोर्ड लगाकर लोगों को उस स्थल की महत्ता के बारे में सूचित किया गया है. पिछले साल राज्य सरकार ने इन मेगालिथ साइटों के संरक्षण व विकास के लिए 2.75 करोड़ रुपये जारी भी किये हैं. विशेषज्ञ कहते हैं, इन साइटों का अगर पॉपुलर तरीके से विकास हुआ तो इनके विनाश का ही रास्ता खुलेगा. बस, ये जहां बिखरे हैं, बिखरे रहने दिया जाए, कोई जमीन पर कब्जा न करे आसपास खुली जगह रहे, सरकार इतना ही सुनिश्चित करे तो कई महत्वपूर्ण अध्याय इन बिखरे पत्थरों से खुलेंगे. एच एस पांडे कहते हैं कि सरकार पहले तो यही कोशिश करे कि रांची-जमशेदपुर मार्ग में जो चोकाहातू मेगालिथ साइट है, उसे भारत के महत्वपूर्ण स्थलों में शामिल करवाने की कोशिश करे, क्योंकि वैसा और उतना बड़ा मेगालिथ साइट दुनिया में शायद ही कहीं होगा. वैसे मेगालिथ स्थलों को यह हक भी बनता है. इस श्रेणी में हिंदुओं के कई स्थल पहले से शामिल है हीं, बौद्ध धर्म के भी महाबोधि मंदिर जैसे स्थल उस श्रेणी में शामिल हैं, ईसाई धर्म के कई चर्च और ताजमहल के अलावा मुसलमानों के भी कई स्थल इसमें शामिल हैं तो आदिवासियों का भी एक महत्वपूर्ण स्थल शामिल हो, यह हक तो भारत के आदिम निवासियों का बनता ही है. और इस श्रेणी में मेगालिथ उनकी सबसे प्राचीन जीवंत परंपराओं में से एक है, जिसमें धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक परंपरा के साथ ज्ञान-विज्ञान की विशाल दुनिया भी समायी हुई है. जो पुरातत्व के जरिये नये सिरे से इतिहास की व्याख्या करने की क्षमता भी रखता है. मेगालिथ स्थलों को घूमते हुए ये बातें सच भी लगती हैं.

बाट जोहता कला का ठाट



वह बेहद थकाऊ यात्रा थी. उबाऊ भी. झारखंड के सीमावर्ती जिला पांकुड़ से हम सुबह-सुबह ही निकले थे. रास्ते का सन्नाटा भी उब पैदा कर रहा था और काठीकुंड जैसे इलाके से गुजरते हुए किराये पर ली हुई बोलेरो चला रहा ड्राइवर भी उस इलाके में माओवादियों के राज-पाट चलने के किस्से सुनाकर पुराने और पारंपरिक राग को दुहराये जा रहा था. लेकिन संथाल परगना के दुरूह इलाके से गुजरते हुए हमें झारखंड की आखिरी सीमा तक पहुंचने की बेताबी भी उतनी ही थी. अंदर से एक रोमांच और उत्साह भी हिलोरें मार रहा था. यह उत्साह- उमंग मलूटी गांव में जल्द से जल्द पहुंचने को लेकर था. हम वहां पहुंचकर देश के अनोखे और संभवतः टेरकोटा कला के इकलौते मंदिरों के गांव को देखना चाहते थे. एक छोटे से गांव में 72 अनोखेअद्भुत और बेजोड़ कलाकृतियों वाले मंदिरों को करीब से देखने की जिज्ञासा रोमांचित किये हुए थी. उन मंदिरों के अवशेषों में बची संभावनाओं को जानने की इच्छा ही उत्साह का संचार कर रही थी.
गांव में पहुंचने के पहले ही गेटछोटे-छोटे माइलस्टोन बताने लगते हैं कि हम मंदिरों के गांव में पहुंच रहे हैं.  गांव में प्रवेश पर भी कहीं मंदिर दिखते नहीं. हम भी मंदिरों की तलाश करने की बजाय गोपालदास मुखर्जी का पता पूछते हैं. उनके बारे में कई लोगों ने सलाह दी थी कि जैसे मलूटी गांव खासियतों से भरा हुआ हैवैसे ही उन मंदिरों को बचाने की जिद्द और अभियान में पिछले चार दशक से भी अधिक समय से लगे गोपाल दा भी खासियतों से भरे हुए हैं. लेकिन जैसे मलूटी अनामी-गुमनामी में रहते हुए उपेक्षित रहावैसे ही गोपाल दा भी. गोपाल दा से उनके घर में मुलाकात होती है. उम्र के 83वें साल में प्रवेश कर चुके गोपाल दास मुखर्जी मलूटी की चर्चा करते ही पहले निराशा के गहरे गर्त में समा जाते हैं. फिर तुरंत किसी नौजवान की तरह ऊर्जा से लैश हो जाते हैं. बच्चे की तरह बार-बार अपने कमरे में जाते हैंफाइलों का ढेर उठाकर लाते हैं. एक-एक कर दिखाते हुए इतिहास-भूगोल से लेकर वर्तमान-अतीत तक के बारे में बताते है. कहते हैं- आप जिस गांव में हैवह मंदिरों का गांव है. मंदिरों का शहर तो मदुरैकाशी है लेकिन मंदिरों का गांव कहने पर हिंदुस्तान में यही एक अकेला गांव हैजिसे देश और राज्य में भले न जाना जाये लेकिन दुनिया भर में जरूर जाना जाता है. अतीत यह है कि विष्णुपुर के मल्ल राजाओं के युग में यह गांव महुलटी नामक छोटा-सा गांव हुआ करता था.17वीं सदी के अंत में इस गांव में आकर ननकर राज्य के राजाओं ने अपनी राजधानी बनायी. ननकर का मतलब करमुक्त राज्य से होता है. राजधानी बनने के 100 साल बाद तक उस वंश के राजाओं ने इस गांव में लगातार मंदिर बनवाये और यह संख्या 108 हो गयी. अधिकांश मंदिर शिव के थेकुछ दूसरे-देवी देवताओं के भी लेकिन राजवंश का सूर्य अस्त हुआ तो  मंदिरों की भी दुर्दशा शुरू हो गई. लेकिन 300 घरों की इस बस्ती में अब भी 72 मंदिर मौजूद हैंजो जर्जर होने के बावजूद जीवंतता से अपने अतीत की कहानी को बयां करते हैं.
गोपाल दा से और भी ढेरों बातें होती हैं. वे पेशे से मास्टर रहे हैं. मास्टरी के दौरान ही होम्योपैथी डॉक्टरी भी सीख लिया थाजिसका इस्तेमाल अब वे गांव-इलाके के लोगों के मुफ्त इलाज में करते हैं. मास्टर-डॉक्टर बनने के पहले वे फौजी थे. फौज से अपने गांव लौटने के बाद उन्होंने दो चीजें एक साथ शुरू की. एक मास्टरी और उसके साथ ही अपने गांव की विरासत को बचाने की जंग. वर्षों की जंग का परिणाम यह भले न रहा हो कि सरकारें मलूटी जैसे दुर्लभ प्राचीन व पुरास्थल को बचाने के लिए बेचैन हो गयी हों लेकिन एक बड़ा असर यह जरूर हुआ कि मलूटी दुनिया भर में ख्यात हो गया।  झारखंड और बंगाल के ठीक बोर्डर एरिया पर बसे इसे छोटे से गांव में तमाम दुस्सवारियों के बावजूद देश-दुनिया के लोग यहां पहुंचने लगे. इस विडंबना के साथ ही सेव हेरिटेज एंड इनवायरमेंट जैसी प्रतिष्ठित संस्था ने इसे दुनिया के 12 मोस्ट इंडेंजर्ड कल्चरल हेरिटेज की साइट में भी डाल दिया है. इस सूची में यह भारत की इकलौती विरासत है. मुखर्जी कहते हैं- दुर्भाग्य है इस स्थान का कि यह बिहार-झारखंड के हिस्से में है. मुखर्जी यह बात कते हैं तो महज स्वयं बंगाली होने की वजह से नहीं. वे चंद कदमों की दूरी पर बसे बंगाल के वीरभूम में इसके न जाने की कसक को भी बयां नहीं करते. यह कसक इस वजह से कि 80 के दशक से आग्रह और अनुनय के बावजूद सरकारी तंत्रों से लड़ते-लड़ते निराश भी हो चुके हैं।
मुखर्जी दा से बात करने के बाद हम गाव की गलियों मे मंदिरों को देखने निकलते हैं। एक-एक कर मंदिर सामने आते जाते हैं, कलाकृतियों की शैली मन मोहते जाती है और उपेक्षा का दंश झेलते मंदिर खुद सच बयान करते जाते हैं। सी गांव में एक मौलीक्षा मां का मंदिर भी हैजहां इलाके के लोगों की भीड़ जुटती हैसाल में दो-तीन बार बड़े आयोजन भी होते हैं. स मंदिर के पास ही राज्य सरकार के पयर्टन विभाग ने एक गेस्ट हाउस भी बनाया हैजो बनने के बावजूद संचालक के अभाव में लंबे समय तक बंद पड़ा रहाअब जाकर किसी तरह वहां सेवा शुरू की जा रही है. लेकिन जो भी सुविधा है, जो भी चहल- पहल है वह मौलीक्षा मंदिर के पास ही दिखती है। उसको छोड़ दूसरे मंदिर गांव की गलियों के दायरे में आते हैं। उनकी स्थिति दिन-ब-दिन बद से बदतर होती जा रही है. हम सभी मंदिरों का चक्कर लगाते हैं. इनमें 58 मंदिर तो शिव के ही हैंजिनमें से कुछ टेराकोटा अलंकृत तो कुछ सामान्य हैं। कालीविष्णु तथा मौलीक्षा मंदिरों की संख्या 14 है. रख-रखाव व संरक्षण के अभाव में भले ही ये मंदिर जर्जर और ध्वस्त होने की राह पर हैं लेकिन इनके निर्माण की शैली इतनी अद्भुत है कि अब भी इनमें एक खास किस्म का आकर्षण हैएक खास किस्म की जीवंतता भी. इन सभी मंदिरों का निर्माण करीब 100 वर्षों में हुआ हैइसलिए शैलियों में एका देखने को नहीं मिलेगीमंदिरों की बनावट के अनुसार 58 मंदिर शिखर मंदिर हैंएक रासमंचएक बांग्ला और शेष 12 समतल छत वाले. पूरी तरह टेराकोटा कला से बने अब भी सात मंदिर शेष हैं. मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गयी कलाकृतियां इतनी आकर्षक हैं कि मंदिरों के धंस जानेध्वस्त होने की राह पर पहुंचने के बावजूद उनमे जीवंतता बची हुई है। महाभारत और रामायण की कथाएँ दीवारों की कलाकृतियों मे दिखती है। शौर्य-पराक्रम की कहानी भी। संगीत और लोकजीवन का पक्ष भी मंदिरों की दीवारों पर बनायों गईं कलाकृतियों मे हैं। 
झारखंड के दुमका जिले के शिकारीपाड़ा प्रखंड में अवस्थित इस मंदिर गांव की गलियों में घूमते हुए कई नये अनुभवों से हम गुजरते हैं. मन में सवाल आते हैं कि क्या इसकी स्थिति ऐसी ही होती यदि ऐसी ही कोई विरासत दक्षिण के किसी राज्य में होती! यह भी सवाल कौंधता है कि ब हर साल इस गांव को देखने फ्रांसइंगलैंडअमेरिका आदि देशों से शोधार्थी और पर्यटक पहुंचते हैं, कोलकाता के शांतिनिकेतन से हर साल यहां काफी संख्या में लोग आते हैंफिर झारखंड या इसके पहले बिहार की सरकार ने आध्यात्मिक,धार्मिक, पुरातात्विक व ऐतिहासिक पर्यटन की तमाम संभावनाओं से भरे इस स्थल को लेकर वह उत्साह या गंभीरता क्यूँ नहीं दिखाईं? अगर सोचा गया होता तो यह गांव अब तक देश का खास टूरिस्ट विलेज तो बन ही गया होता.
जवाब मिलता है, सीमावर्ती दूरस्थ क्षेत्र में बसे होने की कीमत भी चुका रहा है। अगर यह किसी शहरी क्षेत्र में होता तो सरकारें जरूर सक्रिय हुई होतीं. तब शायद वे भी इसको अपना ही मानते और इस पर गर्व करते, जो मंदिर को देश की सांस्कृतिक पहचान बताते नहीं अघाते और मंदिर-मंदिर खेलने की कला मे पारंगत भी हैं। इसकी उपेक्षा का आलम यह रहा कि 1980 तक तो मंदिरों के इस गांव पर सरकारों का कोई खास ध्यान ही नहीं गयाजबकि पास में बंगाल में अवस्थित तारापीठ नामक मंदिर तेजी से देश भर में ख्याति प्राप्त करता रहा. 1981 में गोपाल दास मुखर्जी ने केंद्र से इन मंदिरों को बचाने और विकसित करने के लिए संवाद स्थापित करना शुरू किया. केंद्र ने रुचि भी दिखायी लेकिन वर्ष 1983  में बिहार सरकार ने भी गजट पास कर दिया और यह राज्य की धरोहर बन गयीतब संरक्षण की दिशा में थोड़ा काम शुरू हुआ. 1996 तक छिटपुट चलता रहा लेकिन उसके बाद बंद हो गया. फिर वर्ष 2000 में राज्य का बंटवारा हुआ और मलूटी झारखंड के हिस्से में आ गया. आरंभ के कुछ सालों तक झारखंड सरकार का तो इस ओर ध्यान ही नहीं गया लेकिन कोर्ट के एक आदेश के बाद राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को इसके संरक्षण का काम सौंपा. तीन साल तक काम भी चलाकरीब 12 मंदिरों को जैसे-तैसे संरक्षित करने की खानापूर्ति भी हुई, फिर बंद. इस संदर्भ में जब राज्य सरकार के कला-संस्कृति विभाग में पुरातत्व के उपनिदेश डॉ अमिताभ से बात होती है तो वे कहते हैं कि राज्य सरकार ने 2004-05 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को 40 लाख रुपये इसके संरक्षण के लिए दिये थे. संरक्षण का काम कितना बढ़ा है यह उसी विभाग के अधिकारी बतायेंगे. डॉ अमिताभ यह भी बताते हैं कि हमलोगों को पता है कि यह राज्य में इकलौता जीवंत (लीविंग) पुरातात्विक साइट हैजहां आज भी लोग देखने जाते हैंपूजा-पाठ भी करते हैं इसलिए हमलोग इसके लिए तेजी से कोशिश कर रहे हैं. चार महीने पहले कोलकाता में हुई बैठक में यह तय हुआ और इसे विश्व धरोहरों की श्रेणी में शामिल करवाने का आवेदन भी किया गया है. संरक्षण का काम न होने बीच में छोड़ दिये जाने की बात जानने के लिए हम भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पुरातात्विक अधीक्षक एन जी निकोसे से बात करते हैं. बकौल निकोसे, ‘‘ राज्य सरकार से हमें 30 लाख रुपये दिये गये थे. हमने 20 लाख का काम कर दिया है. एक से लेकर 15 नंबर तक के मंदिर के संरक्षण का काम हुआ हैशेष दस लाख रुपये का काम भी मार्च के बाद होगा. चूंकि हमारे पास स्टाफ एक ही हैएक ही इंजीनियर है और यह सिविल डीपॉजिट वर्क हैइसलिए थोड़ा विलंब हुआ है.
निकोसे पुरातत्वविद हैं. वे मंदिरों को संख्या के अनुसार बताते हैं कि कितने का काम हो गया हैकितने का बाकी है. वे पैसों की भाषा में भी समझाते हैं कि इतने का काम हुआ हैइतने का बाकी है. वे सिविल डीपॉजिट जैसे शब्दावलियों के जरिये भी समझाते हैं. वे अपने अनुसार सही ही समझाते हैं लेकिन सदियों पूर्व बने मलूटी के मंदिरों को शायद ही यह भाषाएं समझ में आये. वे मंदिर इतने वर्षों तक भी बिना किसी संरक्षण-संवर्धन के टिके हुए हैं तो यह उनकी अपनी मजबूती है. धंसते, गिरते हुए भी वे अपने अस्तित्व के साथ खड़े हैं और फिर खड़े होने की संभावनाओं को बचाये हुए हैं तो यह उनके निर्माण की ही खासियत है. लेकिन विरासत को बचाने की तकनीक ने साथ नहीं दिया तो मंदिर ज्यादा दिनों तक तकनीकि शब्दावलियों को सुनकर आश्वासन पर शायद टिक न पाएंकुल 108 मंदिरों में से अब केवल 72 ही बचे हैं.
वैसे वहां से लौटते हुए कुछ लोगों से फोन पर बात होती है तो मंदिरों के इस गांव को लेकर उम्मीद की लौ भी जगती है. मलुटी मंदिरों का गहराई से अध्ययन कर चुके प्रो सुरेंद्र झा कहते हैं, ‘‘ एशिया में ऐसी जगह कहीं नहीं हैमंदिरों का कोई ऐसा गांव नहीं हैना टेरकोटा कला से निर्मित ऐसे मंदिर इसलिए देर-सबेर ही सहीअब इस पर ध्यान जाने लगा है तो कल को इसके दिन भी बहुरेंगे.’’ झारखंड राज्य पर्यटन विकास निगम के प्रबंध निदेशक सुनील कुमार से बात होती है तो वे कहते हैं कि हम उस गांव को लेकर गंभीर हैं. गेस्ट हाउस बनावकर जिला प्रशासन को सौंप चुके हैं. जिला प्रशासन और भी जिन संसाधनों के विकास का खाका बनाकर सौंपेगाहम उसे करेंगे.’’