Wednesday, November 3, 2010

भूखे-सूखे छतरपुर में टीबी की छतरी




♦ अनुपमा

यूं तो पलामू ही झारखंड का अभिशप्त इलाका है, उसमें भी उसका छतरपुर इलाका विचित्र विडंबनाओं से भरा हुआ है। उसे झारखंड का विदर्भ भी कहा जाता है। पिछले साल जब सुखाड़ और उससे उपजी भुखमरी के कारण वहां के 13,400 किसानों ने हस्ताक्षर कर सामूहिक रूप से इच्छामृत्यु का संकल्प लिया था, तो अचानक से यह इलाका सुर्खियों में आ गया था। हर साल यहां भूख से लोग मरते हैं। इतना ही नहीं, यहां लोग जान-पहचान वाली बीमारी से भी हमेशा मौत के आगोश में समाते रहते हैं, कहीं कोई चर्चा नहीं होती। छतरपुर के लुतियाहीटोला में पहुंचने पर ऐसी ही परिस्थितियों से हमारा सामना हुआ, जहां रोजमर्रा की जिंदगी में बेमौत मर जाना किसी को हैरत में नहीं डालता।

लुतियाहीटोला एक छोटा-सा गांव है। वहां करीब 100-200 मीटर की दूरी पर नौ क्रशर मशीनें लगी हुई हैं। बच्चों और महिलाओं की फौज दिन-रात वहां काम में लगी हुई रहती हैं। पत्थरों की पिसाई से निकले डस्ट उनकी जिंदगी को मौत की तरफ ले जाते हैं। पुरुष वहां काम न कर, बिहार के करवंदियों में पहाड़ों से पत्थर तोड़ने चले जाते हैं। करवंदिया क्रशरों के लिए मशहूर जगह है। जब करवंदिया से काम कर मर्द लौटते हैं, तो हाथ में थोड़ी सी रकम होती है और साथ में बड़ी बीमारी। एड्स जैसी बीमारी। कई बार तो इन्हें पता ही नहीं चलता बीमारी का, कुछेक को जब तक पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है या पता चलने पर भी समाज के डर से छुपा कर रखा जाता है।

लुतियाहीटोला के बगल में ही एक गांव है बरडीहा। वहां हमारी मुलाकात कई लोगों से होती है। बताया जाता है कि अभी हाल ही में सूरजदेव एड्स से मर गया है। एड्स का पता चलने से पहले वह टीबी की खुराक खा चुका था। उसी गांव का गोपी भी है। गोपी भी हमेशा खांसता रहता था। सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता उसे जबर्दस्‍ती अस्‍पताल ले गयी, तो पता चला कि गोपी को टीबी है। टीबी का इलाज चला। ठीक नहीं हुआ तो सुनीता चंदा कर उसे जिला मुख्यालय डालटनगंज ले गयी। इलाज के लिए। वहां पता चला कि गोपी को एड्स है। फिलहाल गोपी टीबी सेनेटोरियम में भरती है। सूरजदेव की पत्नी कुंती की कहानी भी गोपी की तरह ही है। कुंती भी टीबी की दवा खाती रही। ठीक नहीं हुआ, प्राइवेट अस्पताल में गयी तो पता चला कि उसे भी एड्स है। इन दो गांवों की कहानी ऐसी ही है। या तो अधिकांश लोगों को टीबी है या एड्स।

यूं भी यहां जिस माहौल में लोग रहते हैं, टीबी की संभावना हमेशा बनी रहती है। प्रदूषण, डस्ट और कुपोषण के कारण टीबी का खतरा बढ़ा ही रहता है और वैसे में मजबूरी में क्रशर पर काम करते रहना जानलेवा साबित होता है। टीबी की मरीज मीना और महेश हमें क्रशर प्लांट में काम करते हुए ही मिले। वे कहते हैं कि हमें भी मालूम है कि टीबी है तो हमें यहां काम नहीं करना चाहिए लेकिन करें तो क्या करें!

छतरपुर के एक हिस्से के कई गांव ऐसी ही विडंबनाओं में घिरे हुए हैं। वह तो भला है कि सुनीता या उमेश जैसे सामाजिक कार्यकर्ता उनके बीच होते हैं। सुनीता या उमेश इस इलाके में घूम-घूमकर लोगों को डॉट् प्रोवाइड करवाते हैं। इलाज के लिए चंदा कर भी उनकी जांच करवाते हैं। लोगों को जागरूक करते हैं। जैसा कि परमेश्वर भुइयां बताते हैं – मेरा शरीर लगातार कमजोर होता जा रहा था। इलाज के लिए पैसा नहीं था… तब जाकर सुनीता जी और उमेश जी से मुलाकात हुई। इन लोगों ने न सिर्फ इलाज करवाया बल्कि घर लाकर दवा भी दे गये। कारू राम, सोनवा देवी भी ऐसी ही बात बताती हैं।

आगे बढ़ने पर एक गांव मिलता है हुटुकदाग। यहां मिलते हैं निरंजन मिस्त्री। जर्जर काया, सूखे होठ, निस्‍तेज आंखों वाले निरंजन हुटुकदाग में अपनी पत्नी के घर यानी ससुराल में रह रहे हैं। पिछले आठ माह से वे वहीं हैं। शादी के बाद इनकी तबीयत खराब हुई तो लोगों ने कहा कि जादू-टोना कर दिया गया है। कई माह तक झाड़-फूंक करवाने में ही लगे रहे। उमेश कहते हैं – काफी समझाने-बुझाने के बाद जांच के लिए तैयार हुए। जांच के बाद पता चला कि इन्हें टीबी है। तब जाकर इलाज शुरू हो सका। खैरादोहर, बरमनवा, तुकतुका, चेराई, डागरा, चुरुआ जैसे गांवों में भी हालात ऐसे ही हैं।

डॉट प्रोवाइडर मुनेश्वर सिंह बताते हैं कि प्राइवेट प्रैक्टिशनर डॉक्टर और झोलाछाप ओझा यह जानते हुए भी कि लोगों को टीबी की दवाएं मुफ्त में मिल जाती हैं, वहां तक नहीं पहुंचने देते। ग्रामीण जागरूकता के अभाव में इसे अपनी नियति मान बैठते हैं। फिजिशियन डॉक्टर मुकेश कुमार कहते हैं कि सरकार दवाई तो मुफ्त में दे रही है लेकिन जिन्हें इन दवाइयों की जरूरत है, उन्हें इसके बारे में अच्छे से मालूम ही नहीं है। जागरूकता अभियान को और तेज किये जाने की जरूरत है। उन गांवों में, जहां टीबी मरीजों की संख्या ज्यादा है, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर दवा उपलब्ध किये जाने की जरूरत है। डॉट प्रोवाइडर जहां नहीं हैं, वहां इसके लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

हालांकि दूसरी ओर स्टेट टीबी ऑफिसर राकेश दयाल कहते हैं – लोगों में जागरूकता आयी है। अस्पताल में मरीजों की संख्या बढ़ रही है। लोग सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए आने लगे हैं। यह अच्छा संकेत है। बेहतर परिणाम के लिए पारा मेडिकल और डॉक्टरों की ट्रेनिंग भी करायी जा रही है। सब ठीक रहा तो शीध्र ही अत्याधुनिक सुविधा भी झारखंड में उपलब्ध हो जाएगी। लेकिन डॉक्टर आइबी प्रसाद कहते हैं कि गरीबी का इस बीमारी से सीधा वास्ता है। यह तो बढ़ेगा ही। जरूरी है कि लोगों को बताया जाए कि जब आपको टीबी हो तो मुंह पर कपड़ा रखकर दूसरों से बात करे। और तमाम उपायों के बीच छतरपुर की सुनीता और उमेश जैसे लोगों की जरूरत हर इलाके में हैं। तभी इससे मुकाबला संभव है।

नापो को नापो तो जानें


♦ अनुपमा

यह असम का माजुली गांव नहीं है, जिसका अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है और मिटता जा रहा है तो उस मिटते हुए गांव को, दांव पर लगी जिंदगियों को देखने हजारों सैलानी देश के कोने-कोने से पहुंचते हैं। यह एक झारखंडी गांव है, जिसका अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है, जिंदगियां तिल-तिल मौत के आगोश में समा रही हैं लेकिन इस गुमनाम गांव को देखने-सुनने कोई नहीं आता। गांव का नाम है नापो। हजारीबाग जिले में पड़ता है। उसी हजारीबाग जिले में, जो मिथ और लोकमानस में हजार बागों के इलाके के रूप में मशहूर रहा है। अब इसकी नयी पहचान है। बाग की जगह यहां जानलेवा धुआं उगलती हुई चिमनियां दिखती हैं और इन चिमनियों ने हजारीबाग को राज्य में सबसे ज्यादा स्पंज आयरन फैक्ट्री वाले जिले के रूप पहचान दिलायी है।

इस जिले में करीबन 35 स्पंज आयरन फैक्ट्रियां हैं। इन्हीं में से दो फैक्ट्रियों के बीच नापो गांव पड़ता है। हेसालौंग पंचायत में। 40 घरों की बसावट और आबादी करीब 200, सारे हरिजन। अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी की हालत झारखंड के अन्य दर्जनों विवश गांव की तरह ही। बड़ा फर्क यह है कि यह गांव हर रोज, पल-पल काल के गाल में समा रहा है। औसत तौर पर देखें तो हर घर में टीबी के मरीज मिलेंगे।

गांव में पहुंचते ही सबसे पहला सामना होता है मैनवा देवी से। अपढ़ मैनवा के पास सवालों का ढेर है। वह पूछती हैं कि क्या देखने आये हैं यहां। देख लीजिए काली घास, काले पेड़, मरे हुए लोग, मुरझायी हुई जवानी, बीमार बचपन, बंजर जमीन, अंधकारमय भविष्य। मैनवा को टीबी है। वह डेढ़ साल से प्राइवेट डॉक्टरों से इलाज करवा रही हैं। पैसे का अभाव होता है तो इलाज छोड़ देती है। सरकार के डॉट्स प्रोग्राम की कोई जानकारी मैनवा को नहीं है। मैनवा से बातचीत के क्रम में ही वहां तिलवा देवी, दीना भुइयां, कमल भुइयां, किता भुइयां, सावित्री देवी, कुंती देवी, लछवा देवी, गोहरी देवी आदि की भीड़ जुटती है। यह संख्या देखते ही देखते 25 की हो जाती है। सब के सब टीबी मरीज। किसी ने आज तक सरकारी प्रोग्राम यानी डॉट्स, आरएनटीसीपी या एमडीआर के बारे नहीं जाना-सुना। न कभी कोई समझानेवाला आया, सरकारी दवा देने आया। ये वैसे मरीज हैं, जो खाने-पीने से थोड़ा पैसा बचा तो जान बचाने की ललक में टीबी की थोड़ी दवाई खरीद लाते हैं। थोड़ा ठीक महसूस हुआ तो फिर टीबी हब में काम करने निकल पड़ते हैं।

किता भुइयां कहते हैं, हमारी मजबूरी है कि हम चाहे मर जाएं, मिट जाएं, ज्यादा दिनों तक घर में नहीं रह सकते। हमें बच्चों का पेट भरने के लिए, खुद का पेट भरने के लिए कमाने जाना ही होगा। पहले तो खेती भी एक सहारा था लेकिन 2003-2004 के बाद से अनाज देनेवाले खेत, बंजर होकर बीमारियां ही देते हैं। इन 25 टीबी मरीजों में से मात्र दो ही ऐसे मिलें, जो यह मानते हैं कि सरकार दवाई तो देती है लेकिन उनका सवाल है कि यहां से सरकारी अस्पताल दस किलोमीटर की दूरी पर है। हम वहां हर खुराक लेने नहीं जा सकते। आवाजाही की परेशानियां, पैसे की किल्लत सबसे बड़ी समस्या है।

दरअसल इस गांव में 2003-04 के बाद से भविष्य पर ग्रहण लगना शुरू हुआ। उन वर्षों में दो स्पंज आयरन फैक्ट्रियां इस गांव के दोनों ओर महज डेढ़ किलोमीटर के फासले पर लगी जबकि सरकारी कायदे-कानून के अनुसार कम से कम दो फैक्ट्रियों के बीच पांच किलोमीटर की दूरी होनी चाहिए। फिर क्या था, धीरे-धीरे उपजाऊ जमीन भी लोगों को दाने-दाने के लिए तड़पाने लगा। स्पंज आयरन फैक्ट्रियों से निकलने वाले धुएं, डस्ट खेत में पड़कर उसे बंजर बनाने लगे। लोगों ने खेती-बारी का काम-काज छोड़कर कोयले के अवैध कारोबार में कदम रखा। कारोबार नहीं, मजदूरी में। अहले सुबह ही यहां के लोग कई-कई किलोमीटर की यात्रा तय कर कोयला निकालते हैं और फिर इन्हीं फैक्ट्रियों तक कोयले को पहुंचाते हैं। एक बोरे में लगभग 180-200 किलो कोयला लाते हैं, और इस हाड़तोड़ काम के एवज में कीमत मिलती है 80 रुपये।

इसी गांव में मिले दशरथ अपनी पीड़ादायी कहानी को इस तरह बयां करते हैं, ‘मेरे पिता चौधरी भुइयां ने सारी जमीन बेच दी। कोई विकल्प नहीं।’ वहीं की मंजू देवी कहती हैं, पति की मौत हो गयी। छह बच्चे हैं, जमीन से कुछ होता नहीं, मुझे खुद टीबी है लेकिन मेरे पास मजदूरी के अलावा कोई विकल्प नहीं। जिस रोज टीबी की परेशानी की वजह से काम नहीं कर पाती, उस रोज बच्चों को भी भूखे पेट सोना पड़ता है।

जानकारों के अनुसार गरीबी और प्रदूषण, दोनों ने ही इस गांव को टीबी गांव के रूप में स्थापित किया है। इस गांव में इतने टीबी मरीज होने के बावजूद डॉट्स प्रोवाइडर का नहीं होना आश्चर्यचकित करता है। मजबूरी में ग्रामीणों को झोला छाप डॉक्टरों पर निर्भर रहना पड़ता है। कभी किसी गैर सरकारी संस्थानों ने भी नापो की सुध नहीं ली। गांव में कुछेक के पास लाल कार्ड है तो कुछेक के घर बिजली भी पहुंच गयी है लेकिन बिजली बिल भरने को पैसा नहीं, सो…! बांधनी कहती हैं कि यहां सिर्फ 25 लोगों ने स्वीकार किया कि टीबी है जबकि सच यह है कि यहां सबको खांसी है और यदि जांच हो तो हर घर में टीबी निकले। डॉ अरुण कहते हैं – यह हो सकता है क्योंकि टीबी के मरीजों के साथ रहने से इसका खतरा वैसे ही बढ़ा रहता है। टीबी का एक बड़ा कारण कुपोषण, गरीबी और भुखमरी तो है ही। हेसालौंग के रहनेवाले मानवाधिकार कार्यकर्ता कृष्णा कहते हैं – इस गांव के लोगों से तो जीने का भी अधिकार छीन लिया गया है।

यह कहानी सिर्फ नापो की नहीं है। झारखंड में कई-कई नापो हैं। स्वास्थ्य विभाग के यक्ष्मा नियंत्रण कार्यालय संभाग के अनुसार झारखंड में हर 35वें मिनट एक व्यक्ति की मौत टीबी से होती है। जबकि आश्चर्यजनक भी है कि झारखंड देश का एक ऐसा राज्य है, जहां सबसे अधिक एमडीआर के मामले सामने आये हैं। पूर्व जिला यक्ष्मा पदाधिकारी डॉ प्रसाद कहते हैं – राज्य में करीब 45 हजार मरीज ऐसे हैं, जिनका इलाज जिला यक्ष्मा नियंत्रण केंद्र में हो रहा है। सरकार अपने स्तर से हर संभव सुविधा उपलब्ध कराती है। लेकिन नापो को देखने, समझने के बाद स्पष्ट होता है कि डॉ प्रसाद की बात सैद्धांतिक तौर पर तो सही है, व्यावहारिक तौर पर यह हजम होनेवाली बात नहीं।

Friday, October 29, 2010

सुनिए बहलेनियों, भिनसरियों की व्‍यथा

♦ अनुपमा

झारखंड में एक जगह है तोरपा। वहीं की रहनेवाली है बहलेन कोनगाड़ी। बहलेन से पिछले दिनों इटकी टीबी अस्पताल में मुलाकात हुई। रांची से सटे इटकी का टीबी अस्पताल अंग्रेजों के जमाने से ही बड़ा मशहूर अस्पताल है। वहीं जेनरल वार्ड के एक बेड पर पड़ी हुई मिली बहलेन। पीला चेहरा, मरमराई हुई आंखें, खामोश बहलेन के चेहरे पर एक अजीब सी उदासी छायी हुई थी। बस यूं ही बातों-बातों में पूछा, कुछ उसके बारे में जानने के लिहाज से। एक बड़ी लड़की बहलेन, बच्‍चों की तरह सिसकने लगी। रोते-रोते उसने जो दास्तान सुनायी, वह बेहद दर्दनाक है। जिस रोज हम बहलेन से मिल रहे थे, ठीक उसके दो दिन पहले ही उसका छह माह का बच्‍चा अबॉर्ट हो गया था। डॉट्स की दवाई में जो गरमी होती है, उसके कारण गिर गया था बच्‍चा। वहां मिली एक नर्स बताती है कि यह दवा होती है इतनी गरमीवाली कि ऐसा होना स्वाभाविक था। पर बहलेन उस बच्‍चे को जन्‍म देना चाहती थी। उसे पालना चाहती थी। प्रेम के प्रतीक के रूप में रखना चाहती थी। वह प्रेम पूरी तरह से फ्रॉड ही था, फिर भी। लेकिन वह ऐसा कुछ भी न कर सकी।

बहलेन एक साल पहले दिल्‍ली गयी थी। झारखंड से जानेवाली और सैकड़ों लड़कियों की तरह। अपने परिवार की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए, कुछ हसीन ख्‍वाबों के साथ। दलालों द्वारा दिखाये गये सुनहरे सपनों के साथ। बहलेन को अपने ही गांव का एक दलाल ले गया था। वहां उसे एक घर में दाई (मेड) का काम मिल गया। तय हुआ कि उसे तीन हजार रुपये हर माह मिलेंगे। पर रात-दिन खटने के बाद भी सारा पैसा दलाल ले उड़ा। दिल्‍ली के पश्चिम विहार में काम करने के दौरान ही उसे एक मुसलिम लड़के नासिर से प्‍यार हो गया। शादी का झांसा देकर वह उसका शारीरिक शोषण करता रहा। जब पता चला कि बहलेन पेट से है, तो वह भाग गया। बहलेन यह सब जानते हुए भी अपने बच्‍चे को जन्म देना चाहती थी, पर अब वह इसे नियति मान बैठी है। रात दिन खटने और ठीक से भोजन न मिलने के कारण बेहद कमजोर हो गयी। इसी बीच उसे टीबी हो गया। वह लौटकर अपने गांव आ गयी। लगातार खांसी होने पर गांव के लोगों ने उसे टीबी सेनेटोरियम में जांच के लिए भेजा तो पता चला कि उसे टीबी है। पिछले दो माह से उसका इलाज यहां चल रहा है और वह पहले से बेहतर महसूस कर रही है।

बहलेन से मिलने के बाद हम जैसे ही आगे बढ़े, हमारी नजर एक छोटी-सी बच्‍ची पर पड़ी। नाम है भिनसरिया कोरबा। भिनसरिया बिशुनपुर, गुमला की है। आज ही अस्पताल में भर्ती हुई है। पर हालत बिल्‍कुल गंभीर। पूछने पर कुछ भी नहीं बोलती। उसे अस्पताल में भर्ती करवाने के लिए लायी शिक्षिका बताती हैं कि वह अनाथ है और उसके माता-पिता (महाबीर कोरबा और चैती कोरबा) की मौत भी टीबी के कारण ही हो गयी थी। कोरबा प्रजाति विलुप्‍त होने के कगार पर है और उनके इलाज के लिए अब भी कोई विशेष उपाय नहीं किये गये हैं। सोमरी कच्‍छप भी इसी अस्पताल में भर्ती है। उसका पिछले चार महीनों से इलाज चल रहा है। इसके पहले उन्होंने दो महीने तक प्राइवेट में इलाज कराया था। लेकिन जब हालत बदतर हो गयी और इलाज के पैसे नहीं बचे, तो टीबी सेनेटोरियम में आयी है।

अस्पताल में ऐसे कुल 217 मरीज हैं और सबकी कहानी मार्मिक व बेहद संवेदनशील है। इसमें हर कटेगरी के मरीज शामिल हैं। इटकी सेनेटोरिम के अधीक्षक आरजेपी सिंह कहते हैं कि कटेगरी 1, 2 और 3 में सभी के मरीज आते हैं। अस्पताल में 415 लोगों के रखने की व्‍यवस्था है परंतु हमारी कोशिश होती है कि कॉम्‍प्‍लीकेटेड केसेज को छोड़कर बाकी मरीजों को उनके नजदीक के सेंटर पर इलाज के लिए भेज दिया जाए। रेसीस्टेंट केस को डॉट्स प्‍लस प्रोवाइड किया जाता है। झारखंड में एसटीडीसी और एलपीए की ट्रेनिंग हो चुकी है और बहुत जल्‍द ही यहां एडवांस टेस्ट की सुविधा भी उपलब्‍ध होगी। एसटीएस के रूप में काम करनेवाले हिमांशु कहते हैं कि इलाज का समय पूरा होने से पहले ही मरीज कभी-कभी दवा लेना छोड़ देते हैं। ऐसे में उन्हें काउंसलिंग देना और समझाना एक टेढ़ी खीर साबित होता है। आंगनबाड़ी सेविका या एएनएम भी इस काम में मदद करते हैं। पर पिछले वर्ष 2009 में 939 और इस वर्ष अब तक 600 लोगों का इलाज यहां हो चुका है। झारखंड में हर वर्ष टीबी मरिजों की संख्‍या बढ़ती जा रही है। यदि अस्पताल के मरिजों की संख्‍या देखें तो 2005 में जहां 659, 2006 में 683, 2007 में 815, 2008 में 879 मरीजों का इलाज सिर्फ इटकी टीबी सेनेटोरियम में हुआ। जो बाहर गये, उनकी बात अलग। प्राइवेट प्रैक्टिशनर के पास अलग। झारखंड अन्य कई चीजों का हब रहा है। अब टीबी का भी हब है। भारत में सबसे तेजी से टीबी मरीजों की संख्‍या यहां बढ़ रही हैं। इसमें धनबाद नंबर वन पर है। कोयले की कमाई में टीबी की बात कौन करेगा। सभी माइनिंग एरिया में कमोबेश स्थिति बदतर ही है।

Thursday, September 30, 2010

अपेक्षाओं और उपेक्षाओं की मायानगरी- ‘झॉलीवुड’

अनुपमा

मोरहाबादी मैदान के पास हम ऐक्शन, कैमरा, कट और शॉट जैसे शब्द सुनकर रुक जाते हैं. किसी गाने की शूटिंग चल रही है बिना किसी मेकअप रूम के. कोई एयरकंडीशनर नहीं, न ही कोई और ताम-झाम. मौजूद लोगों में से एक चिल्लाता है- जल्दी करो, ट्रैफिक का टाइम हो रहा है. तकनीक के नाम पर इनके पास सामान्य वीडियो कैमरे हैं और एडिटिंग के लिए भाड़े पर ली गई बुनियादी-सी मशीनें. स्टूडियो के नाम पर मुफ्त की पहाड़ियां, मैदान, नदियां और सड़कें.

आम-से वीडियो कैमरे से ‘बुद्धा वीप्स इन जादूगोड़ा’ सरीखी डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाकर राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके निर्माता-निर्देशक श्रीप्रकाश ने पहली बार झॉलीवुड के लिए फीचर फिल्म बनाई थी. नागपुरी और सादरी भाषा में बनी इस फिल्म का नाम था ‘बाहा’. झॉलीवुड की मायानगरी में संघर्ष कर रहे कलाकारों पर आधारित इस फिल्म ने झारखंड में बहुत नाम कमाया, लेकिन कमाई के नाम पर बस लाख-सवा लाख रुपए ही जुटा पाई जो इसकी लागत का एक मामूली-सा हिस्सा भर था. गौरतलब है कि यहां एक फिल्म करीब 6 से 7 लाख रुपए में बनती है, जो हिंदी फिल्मों के चरित्र कलाकार के मेहनताने से भी काफी कम है.

फिल्म निर्माता कमाई न कर पाने की दो मुख्य वजहें बताते हैं. एक- झारखंड के सारे सिनेमाहॉल बहुत बुरी हालत में हैं जहां कुछ गिने-चुने दर्शक ही जुटते हैं (कुछ हॉलवाले डिजिटल फिल्मों को दिखाने में आनाकानी भी करते हैं). टिकटों की कीमत छोटे शहरों में 8 से 14 रुपए और रांची जैसे शहरों में 20 से 60 रुपए तक है. रांची जैसे शहरों में इन फिल्मों को बस मॉर्निंग शो में ही दिखाते हैं, इसलिए व्यवसाय की ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाती. इसके अलावा ज्यादातर घरों में इन फिल्मों की पायरेटेड डीवीडी पहले-दूसरे दिन ही पहुंच जाती हैं
चूंकि झॉलीवुड कमाई के मामले में बहुत पीछे है लिहाजा इसके सितारे भी ज्यादा पैसा नहीं कमा पाते. झॉलीवुड के एंग्री यंग मैन दीपक लोहार के अलावा यहां कोई अन्य हीरो या हीरोइन आर्थिक दृष्टि से बहुत मजबूत नहीं हैं. ‘बाहा’ की 29 वर्षीया हीरोइन शीतल सुगंधिनी मुंडा समुदाय से हैं. एक इतनी नामी फिल्म में काम भी उनकी जिंदगी में कोई बड़ा बदलाव नहीं ला पाया है. वे एक एनजीओ में नौकरी करती हैं. ‘झारखंड का छैला’ के निर्देशक अनिल सिकदर के लाइटिंग इंजीनियर ऋषिकेश के मुताबिक इन फिल्मों में हीरो को तकरीबन 20 और हीरोइन को 15 हजार रुपए मिलते हैं. कुछ तो अपने घर का भी पैसा लगा देते हैं, इस उम्मीद में कि एक बार जम गए तो आगे उनकी पूछ बढ़ेगी. सपनों के बनने और बिखरने का खेल बॉलीवुड की तर्ज पर यहां भी कम नहीं होता.

एनएफडीसी (राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम) की जिम्मेदारी भले ही भारत की क्षेत्रीय बोलियों में बनने वाली फिल्मों को बढ़ावा देना है पर शायद झॉलीवुड उनकी नजरों के दायरे से बाहर की चीज है. यह बात और है कि इन फिल्मों को भी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के उन्हीं मानकों पर परखा जाता है जिन पर अन्य स्थापित भारतीय फिल्म उद्योगों की फिल्मों का परीक्षण होता है. पर क्या सरकारी तंत्र इनके प्रति जरा भी जवाबदेह नहीं है?

फिल्म निर्माताओं का मानना है कि यदि सरकार उन्हें थोड़ी-सी टैक्स में सब्सिडी दे, सिनेमाहॉलों के लिए साल में छह सप्ताह इन क्षेत्रीय फिल्मों को दिखाना अनिवार्य कर दे और गांव-गुरबों के छोटे-छोटे सिनेमाहॉलों को बढ़ावा दे तो झॉलीवुड की भी किस्मत बदल जाएगी. 2008 में गठित अखिल भारतीय संथाली फिल्म समिति (एआईएसएफए) के अध्यक्ष रमेश हांसदा कहते हैं, ‘बिना किसी सरकारी सहयोग के हमने झारखंड में स्थानीय बोली और लोगों को लेकर फिल्में बनाई और दिखाई हैं. लोगों ने इन्हें खूब सराहा लेकिन सरकार हमें नजरअंदाज करती है, अगर वह हमारी ओर ध्यान दे तो कोई कारण नहीं कि हम अच्छा नहीं कर पाएं.’

हालांकि झॉलीवुड में बनने वाली ज्यादातर फिल्में डिजिटल कैमरों की सहायता से बनाई जाती हैं, मगर यहां अब तक 9 सेल्यूलाइड फिल्में भी बन चुकी हैं. समुदाय की आवाज को सेल्यूलाइड का माध्यम देने वाले ऐसे लोगोंं में करनडीह के रहने वाले दशरथ हांसदा (रमेश हांसदा के भाई) और प्रेम मार्डी का नाम पहले आता है. इन दो कलाकारों ने ही सबसे पहले 'चांदो लिखोन' (झारखंड की पहली जनजातीय फिल्म) बनाकर संथाली (आदिवासी) चलचित्र के सपने को साकार किया था. युगल किशोर मिश्र और रवि चौधरी ने भी कुछ सेल्यूलाइड फिल्में बनाई हैं. हालांकि महंगी होने की वजह से इन्हें वापस डिजिटल तकनीक का सहारा लेना पड़ रहा है.

‘अमू’ फिल्म को संगीत देने वाले और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पैठ बना चुके नंदलाल नायक भी अमेरिका छोड़-छाड़कर एक साल पहले झारखंड आ बसे हैं. वे एक महत्वाकांक्षी फिल्म बनाने में लगे हैं. यह फिल्म झारखंड से लड़कियों के पलायन और माओवाद के इर्द-गिर्द घूमती है. इसी तरह पत्रकार और संस्कृतिकर्मी मनोज चंचल भी पलायन को केंद्र में रखकर ‘बीरची’ नामक फिल्म बना रहे हैं. बिरसा मुंडा और आदिवासी आंदोलनों को केंद्र में रखकर भी कई फिल्में बनी हैं.

इसका यह मतलब कतई नहीं है कि यहां की फिल्में डॉक्यूमेंट्री फिल्मों कजैसी होती हैं. झॉलीवुड अपने दर्शकों की जरूरतों का पूरा खयाल रखता है. यहां की लगभग सभी फिल्मों में गाने, रोमांस, ऐक्शन और मार-धाड़ वाले दृश्यों का अच्छा तालमेल होता है.

अनिल सिकदर के मुताबिक झॉलीवुड का सालाना कारोबार दो से ढाई करोड़ रुपए का है और यह अब झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बिहार तक फैलने लगा है. यहां की इकलौती इंफोटेनमेंट पत्रिका ‘जोहार सहिया’ के संपादक अश्विनी कुमार पंकज के मुताबिक आने वाले समय में झॉलीवुड में काफी संभावनाएं हैं.

त्रासदी यह है कि दर्शकों की अपेक्षाओं और सरकारी उपेक्षाओं के बीच फंसे झॉलीवुड की भिड़ंत उच्च तकनीक और तामझाम से लैस हिंदी फिल्मों से है, लेकिन झारखंड की मायानगरी अपने स्तर पर अपने अस्तित्व को बनाए रखने के संघर्ष में जुटी है और यह एक शुभ संकेत है

अजब कारनामों से भरे गजब प्रदेश में फिर सरकार

अनुपमा
और अंततः अजब कारनामों से भरे गजब प्रदेश झारखंड में फिर से सरकार बन ही गई. फिर वही गठबंधन, वही कुनबा, जो इसके पहले भी सरकार चला रहा था. भारतीय जनता पार्टी, आजसू और झारखंड मुक्ति मोर्चा. फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस बार मुखिया बदला है, पहले शिबू सोरेन मुख्यमंत्री थे, अब अर्जुन मुंडा. सरकार कितने दिन चलेगी यह कोई नहीं बता सकता.

झारखंड में सरकारों के भविष्य को लेकर कोई कुछ बता भी नहीं सकता. इस मामले में यह अनोखा प्रदेश है. राज्य गठन के दसवें साल में है, आठवीं बार मुख्यमंत्री के पद पर शासक का बदलाव हो रहा है. किसी और की बात क्या की जाए, खुद झारखंड के सबसे बड़े नेता और इस सरकार की स्टीयरिंग अपने हाथ में रखने वाले पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन तहलका से बातचीत में कहते हैं, 'यहां कोई सरकार कभी अपना कार्यकाल पूरा नहींे कर सकती.' अब शिबू की बात मान लें तो इस सरकार का भी हश्र वैसा ही होने वाला है, जैसा कि पहले एक-एक कर सभी सरकारों का होता रहा है. शिबू की बात छोड़ भी दंे तो आजसू के दूसरे नंबर के नेता और फिर से मंत्री पद पर विराजमान होने की कतार में लगे चंद्रप्रकाश चौधरी भी सरकार के भविष्य पर बहुत विश्वास के साथ कुछ नहीं कहते. हंसते हुए कहते हैं, 'देखिए, पूरा होइए जाएगा कार्यकाल...!'

लगभग तीन माह पहले तक इसी गठबंधन के सहारे शिबू की सरकार चल रही थी. कथित मान-सम्मान और विश्वास को झटका लगने की दुहाई देते हुए भाजपा ने शिबू को दगाबाज, धोखेबाज नेता करार दिया जिसके बाद सरकार गिर गई. लेकिन अब अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बनाने अथवा बनवाने के लिए 'पार्टी विद ए डिफरेंस' यानी भाजपा ने सारे नियम, आदर्श, सिद्धांत ताक पर रख दिए. भाजपा के कई दिग्गज दिल्ली में छटपटाते रहे लेकिन अध्यक्ष नितिन गडकरी ने विदेश से ही सरकार बनाने के लिए हरी झंडी दे दी. भाजपा संसदीय बोर्ड ने जिस शिबू के पाला बदलने के बाद उनकी सरकार को हटाने का निर्णय लिया था, उस संसदीय बोर्ड का फैसला धरा का धरा रह गया.

बकौल शिबू वे आज भी केंद्र में यूपीए के साथ हैं. केंद्र मंे यूपीए के साथ होने की बात कहने वाली पार्टी के साथ मिलकर राज्य में भाजपा द्वारा सरकार बनाने की हड़बड़ी ही वह अकेली चीज है जो इस बार की सरकार के लिए नई है. ऐसा क्यों, यह सवाल आजकल प्रदेश में अहम बना हुआ है. हर जगह एक ही चर्चा है कि यदि सरकार के लिए इन्हीं दलों का कॉकटेल बनना था तो फिर उस वक्त नौटंकी की जरूरत ही क्या थी! और फिर इस दरम्यान ऐसा क्या हो गया कि जिससे शिकायत थी, उसी से मोहब्बत हो गई.

राज्य के पहले मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा (झाविमो) के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी कहते हैं, 'छह माह पहले भी इसी गठबंधन की सरकार बनी थी, चार माह तक ही चल सकी. ढाई माह से राष्ट्रपति शासन है. अब फिर वही गठजोड़ सत्ता में है. वह सरकार क्यों गिरी थी और ढाई माह में कैसे सारे मनमुटाव दूर हो गए, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.' मरांडी आगे कहते हैं कि औद्योगिक घरानों ने सरकार बनवाने में कीमत लगाई है, खरीद-फरोख्त की भी राजनीति हुई है. मैं खरीद-फरोख्त की राजनीति नहीं कर सकता था, इसलिए मौका आने पर भी 25 विधायकों के होते हुए भी मैंने सरकार बनाने की पहल नहीं की.

लेकिन राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के विधायक दल की नेता अन्नपूर्णा देवी इस सरकार के गठन के लिए मरांडी को ही कटघरे में खड़ा करती हैं. वे कहती हैं, 'कांग्रेस और झाविमो चाहते तो सरकार पहले ही बन सकती थी. यदि कांग्रेस के नेतृत्व में ही सरकार बन जाती तो क्या हो जाता? वे बाबूलाल पर परोक्ष तरीके से निशाना साधते हुए कहती हैं, ' कहने को तो यहां कुछ साफ-सुथरी छवि वाले नेता भी हैं लेकिन मौका मिलने पर सबका स्वार्थ नजर आने लगता है.'

जाहिर-सी बात है कि इस नए ढांचे को सरकार की बजाय अपने-अपने स्वार्थों और मजबूरियों में जुटी एक भीड़ कह सकते हैं. झारखंड सरकार के एक बड़े अधिकारी कहते हैं, 'चूंकि राष्ट्रपति शासन में काम तेजी से हो रहा था, भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने का सिलसिला शुरू हो चुका था और कई चीजें पटरी पर आने लगी थीं, इसलिए गैरकांग्रेसी दलों में छटपटाहट होना स्वाभाविक था. पूर्व मुख्यमंत्रियों की सुविधा का छिन जाना और विधायकों के फंड के उपयोग पर रोक लग जाना सभी को परेशान कर रहा था. ऐसे में दलगत भावनाओं से परे जाकर हर छटपटाता हुआ विधायक बस किसी तरह, किसी भी सरकार के बनने की बाट जोह रहा था. इसलिए इस बार अर्जुन मुंडा के नेतृत्व में सरकार बनने में न कोई हंगामा हुआ, न विरोधी गुटों के नेताओं की ओर से ही रटे-रटाए वाक्य दुहराए गए. वरना तीन माह पहले तक झामुमो के नेता भाजपाइयों के खिलाफ आग उगल रहे थे तो भाजपा के नेता झामुमोवालों को पानी पी-पीकर कोस रहे थे.'

झामुमो से राजनीतिक जीवन की शुरुआत करके भाजपा में कद्दावर नेता बनने वाले अर्जुन मुंडा को चालाक नेता और शासक माना जाता है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रघुवर दास को किनारे लगाकर जब से अर्जुन मुंडा ने सरकार बनाने की कमान अपने हाथों में ली थी, तभी से यह तय माना जा रहा था कि सरकार बनेगी. अब यह भी माना जा रहा है कि अर्जुन मुंडा हैं तो वे इस भानुमति के कुनबे को चला भी लेंगे. लेकिन चुनौतियां इतनी हैं कि उनके लिए भी ऐसा करना आसान नहीं होने वाला है. इस अजीबोगरीब गठबंधन के पेंच उन्हें हर समय परेशान करते रहेंगे.

फिलहाल यह सरकार भाजपा के 18, जदयू के दो, झामुमो के 18, आजसू के पांच और दो निर्दलीय विधायकों के गणित से चलने को तैयार है. दूसरी ओर शासन की चुनौतियां सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी हैं. पूरा राज्य सूखे की चपेट में है. केंद्र से पैसा लेकर राहत कार्य सही ढंग से पहुंचवाना बड़ा काम माना जाएगा. राज्य में विकास योजनाओं पर ब्रेक लगा हुआ है. सालाना बजट की चौथाई राशि भी अब तक खर्च नहीं की जा सकी है जबकि वित्तीय वर्ष के छह माह गुजर चुके हैं. पेसा कानून के तहत पंचायत चुनाव करा लेना मुंडा के सामने बड़ी चुनौती है. इन सबके साथ नक्सलवाद शाश्वत समस्या के तौर पर रहेगा ही.

झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन के पुत्र और राज्य के नए उपमुख्यमंत्री हेमंत सोरेन कहते हैं कि हमारी प्राथमिकता पंचायत चुनाव कराने की ही है, हम इसे अच्छे से कराएंगे. इस सरकार के गठन पर हेमंत कहते हैं कि जनता नहीं चाहती कि एक बार फिर चुनाव का बोझ उसके माथे पर पड़े, इसके लिए सरकार का बनना बहुत जरूरी था. 'हम भाजपा के साथ फिर से सरकार बना रहे हैं तो इस पर बहुत सवाल उठाने की जरूरत नहीं क्योंकि हमारे लिए दोनों राष्ट्रीय दल यानी भाजपा और कांग्रेस एक ही तरह की पार्टी हैं' भाजपा के साथ मिलकर फिर से सरकार बनाने पर सोरेन कहते हैं.

चुनौतियों से निपटना और विकास को गति देना अलग मसला है. झारखंड में फिर से वही बड़ा सवाल सामने है कि बकरे की मां आखिर कब तक खैर मनाएगी. यानी कि सरकार कितने दिन और चलेगी?

सदन में विपक्षी नेता कांग्रेस के विधायक राजेंद्र सिंह कहते हैं कि अभी हम छह माह तक अविश्वास प्रस्ताव पेश नहीं कर सकते लेकिन इन दलों के गठबंधन में ही इतने कलह हैं कि इसका भविष्य बेहतर नहीं कहा जा सकता.

क्या होगा, यह आने वाला समय बताएगा, फिलहाल राज्य अपने स्थापना के दशक वर्ष में आठवें मुख्यमंत्री का आश्वासन सुनने को तैयार है, काम को परखने को तैयार है और बदलाव को देखने के लिए बेताब है

Thursday, June 17, 2010

डोमटोली में रोज लगने वाला एक स्कूल


रांची में कुल 1391 सरकारी प्राथमिक विद्यालय हैं. गली-मुहल्लों में खुले हुये निजी प्राईमरी स्कूलों की संख्या निकाली जाये तो यह आंकड़ा दुगुने के आसपास पहुंचता है. लेकिन शहर के डोमटोली इलाके में चलने वाला एक स्कूल इन सबों से अलग है. इसे न तो सरकार चलाती है और ना ही शिक्षा को उद्योग मानने वाले धनपति. कोई ट्रस्ट और एनजीओ भी नहीं.

टीवी मिस्त्री मो. एजाज कहते हैं- “इसे रोज मज़दूरी करने वाले हमारे जैसे लोग चलाते हैं. ”

करबला चौक के पास डोमटोली में रोज लगने वाला यह स्कूल दिहाड़ी मजदूरी करने वाले अभिभावकों के बच्चों के लिए आशा की किरण है. डोमटोली स्कूल के नाम से पुकारा जाने वाला प्रेरणा सामाजिक विद्यालय कहने को तो स्कूल ही है लेकिन है दूसरे सभी स्कूलों से अलग.

अब स्कूल की हालत को ही लें. भीषण गर्मी में स्कूल की खुली छत पर धूप का एक बड़ा हिस्सा रोके नहीं रूक रहा है. हालांकि इसे रोकने के लिए टाट-टप्पर के साथ ही स्कूल की टूटी-फूटी छत पर किसी ने अपने घर की चादर लाकर भी टांग दी है. बच्चे और उन्हें पढ़ाने वाली शिक्षिकायें पसीने से तरबतर हैं लेकिन कतारबद्ध बद्ध अलग-अलग कक्षाओं में बैठे बच्चे मौसम की मार को जैसे मात दे रहे हों.

ऐसे रखी नींव
तीन साल पहले इस स्कूल की नींव ऐसे लोगों ने रखी, जिनका शिक्षा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था. रोज-रोज कमाने-खाने वालों के लिये यह दुखद था कि उनके बच्चे आवारा घूमते रहें या बेटियां घरों में चुल्हा-बरतन करती रहें. मजदूरों के बच्चे पढ़-लिख कर क्या करेंगे, जैसे ताने तो थे ही.

इलाके के मजदूरों ने बैठक की और फिर शुरु हुआ तिहाड़ी मजदूरों के सपनों का स्कूल. पहले आपस में ही चंदा किया गया और बच्चों की पढ़ाई का सिलसिला शुरु हुआ. स्कूल खुला टीवी मिस्त्री मोहम्मद एजाज की छत पर, जहां शुरुवात में 10 बच्चे पढ़ने के लिये आये.

एजाज मुस्कराते हुए बताते हैं- “ आज इस स्कूल में 160 बच्चे हैं. इनमें से अधिकांशत: दाई, रिक्शाचालक, मिस्त्री या ऐसे ही छोटे काम करनेवाले लोगों के बच्चे हैं. स्कूल में नर्सरी, केजी, कक्षा एक व दो तक की पढ़ाई सीबीएस ई पैटर्न में होती है.”

शुरुवात में स्कूल चलाने के लिये 10-10 रुपये का चंदा इकट्ठा किया गया था लेकिन बाद में स्कूल के बाहर ही एक दानपेटी लगा दी गई, जिसमें लोग स्वेच्छा से पैसे डालने लगे. हालांकि स्कूल चलाने के लिये पैसों की तंगी हमेशा बनी रहती है लेकिन इलाके के लोग आश्वस्त हैं कि यह तंगी धीरे-धीरे जरुर दूर हो जाएगी.

बुलंद हौसले
स्कूल की शुरुवात करने वाले टीवी मिस्त्री मो. एजाज, बक्सा मिस्त्री मो. इकबाल, बिजली मिस्त्री मो. इरफान, सरस्वती चौरिया, बीएसएनल में कैजुअल बेसिस पर कार्यरत मो. जावेद, राजमिस्त्री शाहिद आलम जैसे लोगों से आप बात करें तो लगता है कि उन्होंने स्कूल चलाने को एक चुनौती की तरह लिया है. जाहिर है, स्कूल चलाने वालों के हौसले अभिभावकों को भी प्रेरित करते ही हैं.

अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने आये मो. आलम कहते हैं- “हमारे बच्चे भी पैसेवालों के बच्चों की तरह कुछ बड़ा काम करें. हालांकि स्कूल के पास फंड की कमी है पर हम आधे पेट खाकर भी इसे बंद नहीं होने देंगे.”

यहां पढऩे के लिए आने वाले बच्चों का उत्साह भी देखते ही बनता है. वे जानते है कि चार पंक्तियों में चार कक्षाएं लगती हैं. ऐसे में वे खुद ही इतने अनुशासित हो गये हैं कि पहली पंक्ति वाले बच्चे दूसरी पंक्ति वाले बच्चे की ओर पीठ करके बैठते है ताकि आवाज ज्यादा न गूंजे और कोई परेशानी न हो.

सबसे अलग

अपनी ही कक्षा के दूसरे साथियों को ब्लैकबोर्ड पर पहाड़े और गिनती का सबक याद कराकर आया एक बच्चा कहता है- “ सरकारी स्कूल से तो यह अच्छा है. कम से कम होमवर्क तो मिलता है. रोज स्कूल न आने पर टीचर की डांट का डर भी रहता है.”

वैसे यह डर स्वाभाविक भी है क्योंकि स्कूल के बाद कभी-कभार स्कूल के टीचर या संचालक बच्चों के घर तक पहुंच जाते हैं. यह देखने कि उनके इस अनोखे स्कूल का विद्यार्थी आखिर कर क्या रहा है !यहां पढ़ने वाले बच्चे सुविधाओं से कहीं अधिक अनुशासनात्मक और गुणात्मक शिक्षा को महत्व देते हैं. ऐसे में इनके सपनों को पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता.

12 वर्षीय शगुफ्ता परवीन कक्षा दो में पढ़ती हैं. शगुफ्ता बताती हैं –“ पहले सरकारी स्कूल में मैं पांचवीं की छात्रा थी, पर मैं न एक पंक्ति पढ़ पाती थी न लिख पाती थी. सरकारी स्कूल में जाकर बस बोर्ड से देखकर नकल उतारती थी. पर यहां के बच्चों को अंग्रेजी बोलते देखकर मैंने अपना नामांकन यहां करा लिया और आज मैं भी अंग्रजी में कुछ-कुछ बोल पाती हूं.”

15 वर्षीय कक्षा दो की छात्रा हिना शरमाते हुये बताती हैं- “ मेरे घरवालों ने तो अब तक मेरी शादी कर दी होती, यदि दो साल पहले एजाज सर मेरे घरवालों को समझाकर यहां पढ़ाई के लिये प्रेरित नहीं करते.”

अभिभावक भी मानते हैं कि इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे दूसरों से अलग हैं. शगुफ्ता के तीन बच्चे सरकारी स्कूल में और तीन इस स्कूल में पढ़ते हैं. वे बताती हैं कि सरकारी स्कूल में हर दिन बच्चों को खाना मिलता है और महीने के सौ रुपये भी लेकिन वे चाहती हैं कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले उनके बच्चे भी यहीं पढ़ें. वे कहती हैं- “यहां पढ़नेवाले मेरे बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि और प्रेम है. वे मन लगा कर पढ़ते हैं.”

अभिभावकों की खुशी के दूसरे कारण भी हैं. साजिया और मुन्नी के पिता शराब में डूबे रहते थे, पर स्कूल में शराब से होनेवाले नुकसान के बारे में जानकर बच्चों ने अपने अब्बू से पूछा कि अब्बा अगर आप मर गये तो हम कहां जायेंगे. आप शराब मत पीया कीजिए. और यकीन मानिए कि यह बात उन्हें इस कदर छू गयी कि अब वे उसे हाथ तक नहीं लगाते.

स्कूल की शिक्षिका बेनाडेल्ट मिंज कहती है कि इन बच्चों की आंखों में भी डॉक्टर, इंजीनियर और शिक्षक बनने के सपने तैर रहे हैं. वे दृढ़ता के साथ कहती हैं- “यहां पढ़ने वाले बच्चे सुविधाओं से कहीं अधिक अनुशासनात्मक और गुणात्मक शिक्षा को महत्व देते हैं. ऐसे में इनके सपनों को पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता.”

एक औऱ शिक्षिका अंबरी भी मानती हैं कि इस स्कूल के बच्चे बहुत गंभीरता से पढ़ाई कर रहे हैं और उन्हें इस बात का अहसास है कि उन्हें मां-बाप के सपनों को पूरा करना है. ज़ाहिर है, इस बस्ती की प्रार्थनाओं में यह दुआ भी शामिल रहती है कि उपरवाला इस स्कूल को और बुलंदी दे.

Saturday, June 5, 2010

हौसला देता हेसालौंग


एक लड़की है सीमा. झारखंड या देश की अन्य हजारों-लाखों लड़कियों की तरह. बिल्कुल सामान्य-सी लड़की. दैनिक मजदूरी करने वाली हेसालौंग के दलित परिवार से है. झारखंड के हजारीबाग जिले में. दलितों व पिछड़ी जातियों का गांव. झारखंड के सैकड़ों गांवों की तरह. सीमा हेसालौंग गांव की ही है. सीमा की खास बात यह है कि वह दो बार मैट्रिक फेल हुई लेकिन धैर्य बनाये रखा, मेहनत जारी रखी और तीसरी बार में पास कर गयी. अब इंटर में पढ़ रही है. अपने गांव की पहली दलित लड़की बनी, जो मैट्रिक पास हुई.

इलाके में चर्चे हुए. और सीमा के गांव हेसालौंग की चर्चा सिर्फ इसलिए, योंकि वह गांव अन्य सामान्य गांवों से ज्यादा मुश्किलों में है. अगल-बगल में खुले स्पंज आयरन फैट्रियों ने गांव की जमीन को बंजर कर दिया है. पीने का पानी मयस्सर नहीं होता लोगों को तो एक-एक बालटी पानी के लिए या तो एक किलोमीटर दूर चलकर चुआं पर जाते हैं या इकलौते चापाकल पर गर्मी की रातों में आठ-आठ घंटे लाइन में लगे रहते हैं. सीमा से यह पूछने पर कि तुमने तो इतिहास रच दिया. वह तुरंत अपने घर के बगल में एक छोटे से भवन की ओर इशारा करते हुए कहती है. इतिहास मैं क्या रचती, मेहनत-मजदूरी से फुर्सत कहां है, सब उसने करवा दिया. उस भवन ने. सीमा जिस भवन की ओर इशारा किया, वही एक चीज इस गांव में है, जो तमाम मुश्किल हालातों, चुनौतियों व परेशानियों के बावजूद हेसालौंग को एक ऐसे गांव के रूप में स्थापित करता है, जिसकी मिसाल देश भर में कहीं दी जा सकती है.

वह जिस भवन की ओर इशारा की वह पंचायत का सामुदायिक भवन है, जिसके बाहर दीवार पर आड़े-तीरछे शब्दों में लिखा हुआ है- मुंशी प्रेमचंद पुस्तकालय. पुस्तकालय के नाम पर चंद किताबें, एक टेबल, जिस पर सजाने-संवारने के लिए फटी-पुरानी धोती बिछी हुई है और कुछ बोरे, जिस पर बैठकर पढ़ाई होती है. किताबों के नाम पर अधिकतर टैस्ट कि किताबें, प्रेमचंद का मानसरोवर, कुछ उपन्यास, कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं और कुछेक बच्चों की किताबें. संसाधन भले ही कुछ न हो लेकिन इस लाइब्रेरी ने इलाके की तसवीर और तकदीर, दोनों बदल दी है.अभी झारखंड में मैट्रिक और इंटर की परीक्षा ली जा रही है. इस परीक्षा के पहले इस लाइब्रेरी में गांव के चंद युवाओं ने कई-कई बार प्रैटिस टेस्ट लेकर उनमें इतना आत्मविश्वास भर दिया है कि कोई सेेकंड डिविजन की बात नहीं करता. गांव के चंद पढ़े-लिखे नौजवान खुद से अध्ययन कर परीक्षा का मॉडल प्रश्न पत्र तैयार करते हैं. निर्धारित समय में टेस्ट लेते हैं और फिर परीक्षा परिणाम भी जारी करते हैं. पिछले पांच सालों से यही सिलसिला चल रहा है और अब नतीजा यह है कि इस एक गंवई लाइब्रेरी के टेस्ट में शामिल होने के लिए उस इलाके के परीक्षार्थी वाहन रिजर्व कर निर्धारित तिथि पर पहुंचते हैं. सरस्वती विद्या मंदिर और डीएवी जैसे स्कूलों के छात्र भी, जो उस इलाके का सबसे प्रतिष्ठित स्कूलों में है.

उसी लाइब्रेरी में मिली ममता, प्रभा, सीता, दीपिका जो इस बार इंटर की परीक्षा दे रही हैं. उनसे यह पूछने पर कि सामने परीक्षा है तो तनाव है कि नहीं. सबका जवाब प्राय: एक सा- काहे का टेंशन, साल भर यहां आकर पढ़ते हैं, जमकर टेस्ट देते हैं, तो टेंशन या? जिस दिन मैं वहां पहुंची, वहां कुछ लड़कियां डीबेट में भाग लेने आयी थी तो कुछेक को संगीत लास करना था. कुछ विज प्रतियोगिता में हिस्सा लेती, कुछेक को राइटिंग प्रतियोगिता में बाजी मारने की हड़बड़ी थी और शाम को सबको कराटे और स्पोकेन इंग्लिश लास जरूरी करना था. इतना सब कुछ उस एक छोटे से भवन में होता है. और एक खास बात यह कि यह लाइब्रेरी न तो किसी एनजीओ या ट्रस्ट का है और न ही किसी कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की मेहरबानी की उपज. बस पांच साल पहले गांव के ही लालदीप, मनोज, कैलाश, मंतोष, नवीन, कृष्णा आदि चंद नौजवानों ने गांव में चंदा शुरू किया. 667 रुपये जमा हुए, 500 की किताबें आयी, 167 में मुंशी प्रेमचंद की जयंती मनी और लाइब्रेरी शुरू. अब उस गांव का सबसे बड़ा सालाना आयोजन मुंशी प्रेमचंद जयंती ही है और चंदा तीन हजार के करीब हो जाता है. और हां, यह जान लेना भी जरूरी है, यहां सारी गतिविधियां नि:शुल्क है. कोई शुल्क नहीं, बल्कि यदि कोई विद्यार्थी अपने घर किताब ले गया और समय पर वापस नहीं कर सका तो अगले दिन कपिल उसके घर पहुंचकर कहता है-कितबवा लौटा दो, दूसरे को भी चाहिए होगा...इस लाइब्रेरी की देखरेख अब कपिल ही करता है. कपिल इसी लाइब्रेरी के सौजन्य से मैट्रिक की परीक्षा तो पास कर गया लेकिन आर्थिक तंगी के कारण फिलहाल उसकी आगे की पढ़ाई बंद है.

उस लाइब्रेरी में चलने वाली इन गतिविधियों के संचालन के बारे में जानना भी दिलचस्प है. कैलाश खुद इंटर पास हैं. अंग्रेजी स्कूल में पढ़े हैं, अंग्रेजी बोल लेते हैं तो वे गांव के छात्र-छात्राओं को हर शाम अंग्रेजी बोलना सिखाते हैं. कृष्णा मनोविज्ञान से स्नातक कर शिक्षक बन गये हैं. दिनभर सरकारी स्कूल में पढ़ाकर आते हैं तो शाम को लाइब्रेरी में बैठकर खुद पढ़ते हैं ताकि मॉडल टेस्ट पेपर तैयार किया जा सके. कृष्णा के साथ पारा शिक्षक नवीन पांडेय, मंतोष कुमार होते हैं. उसी गांव के एक नौजवान अरविंद हैं जो कराटे में ब्लैक बेल्ट धारी हैं. अरविंद गांव के 45 लड़के-लड़कियों को कराटे सीखाते हैं. और इसकी बुनियाद रखनेवालों में प्रमुख लालदीप गोप, जो नागपुर में विज्ञान अनुसंधान सहायक हैं, जब घर आते हैं तो लगातार कैरियर काउंसेलिंग का दौर चलता है.

मुफलिसी में विरासत बचाने की कोशिश


अनुपमा

जेठ बैसाख मासे-2
ए मन तोयें उदासे-2
ए भाई, जने देखूं तने दिसे
लहलह पात कहूं, केके कहूं बात
कहूं केके कहूं बात..

पूरे लय, छंद और ताल के साथ कालीशंकर जब कानों पर हाथ रखकर इस गीत को गाकर सुनाते हैं तो गाते-गाते वे खुद रुआंसे से हो जाते हैं. लेकिन इस गीत में रचे-बसे दुख की गहराई का सही अंदाजा तब लगता है जब वे शर्ट-पैंट उतारकर धोती पहनते हैं और इसे टूहिला पर सुनाते हैं. बांस की फट्टी के एक छोर पर कद्दू या लौकी का आधा खोखला हिस्सा (तुंबा), दूसरी ओर सिर्फ धागे को थोड़ी ऊंचाई से बांधने के लिए एक लकड़ी की हुक और काले बांस में छेदकर 4-5 जगह बांधे गए रेशम के धागे, यही है टूहिला का स्वरूप. धागों को कसकर, स्वर की परख करने के बाद कालीशंकर दादा ने टूहिला सीने से लगाया और इसे बजाते हुए गीत शुरू किया. गाते-गाते वे कब रोने लगे, पता ही नहीं चला. जितने गाढ़े दुख से रंगा यह गीत है, उतनी ही मार्मिक इसकी धुन. गीत खत्म हुआ तो कालीशंकर दो-चार मिनट तक ध्यान मुद्रा में वैसे ही खड़े रहे. पूरे माहौल में एक गहरी उदासी और सन्नाटा. आखिर इस गीत में ऐसा क्या है जो गाने और सुनने वाले को इतना विह्वल कर देता है?

काली दा पहले तो गीत का अर्थ बताते हैं, फिर कहते हैं, ‘यह जो टूहिला है न, यह दुख, विरह, वेदना के स्वर को बढ़ा देता है. इस वाद्य यंत्र को सीने से लगाकर बजाते हैं, नंगे बदन.’ दरअसल, यह आदि वाद्य यंत्र है, लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का. तब का जब मानव मन में सांस्कृतिक चेतना जगनी शुरू ही हुई थी. चूंकि वाद्य यंत्रों का कोई लिखित इतिहास नहीं है इसलिए इसकी प्रामाणिकता नहीं पेश की जा सकती. परंतु एक लोकगीत में इस बात का भी जिक्र है कि आदिवासी समाज के नायक और महान स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा भी टूहिला बहुत बढ़िया बजाया करते थे. एक और विशेष बात. बदलते समय के साथ सारे वाद्य यंत्र बदल गये पर टूहिला अब तक नहीं बदला है. दादा एक गहरी सांस लेते हुए अफसोस के साथ कहते हैं, ‘अब क्या बदलाव होगा इसमें? अब तो यह अपने आखिरी दौर में है. अब इसे बजाएगा कौन? मैं अपने बेटे तक को तो शागिर्द नहीं बना सका.’

उनका बेटा टूहिला नहीं बजाता, ड्राइवरी करता है. मन में सवाल उठता है कि झारखंड में तो इतने गायक और वादक हैं, फिर किसी में इस वाद्य यंत्र को सीखने की ललक क्यों नहीं होती? कालीशंकर कहते हैं, ‘एक कारण इसकी बनावट हो सकती है. इसे बजाने के लिए अन्य वाद्य यंत्रों से ज्यादा रियाज की जरूरत है. पर इसमें जितनी अधिक मेहनत है, उससे उलट नाम और दाम. यानी कीमत नहीं मिलती इसे बजाने से. लोग भूल चुके हैं इसे.’

कालीशंकर सारंगी और बांसुरी बजाने में भी दक्ष हैं. कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे कई शहरों और अमेरिका में भी जाकर वे अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं. लेकिन आज भी जो संतोष उन्हें टूहिला बजाकर मिलता है वह कहीं नहीं मिलता. रोज खेत से लौटकर, चाहे कितने भी थके क्यों न हों, टूहिला पर हाथ फेर ही लेते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरा मन तो बस टूहिला में ही बसता है. मैं चाहता हूं यह बचा रहे, सदा बजता रहे. कोई तो आए. मैं सिखाने को तैयार हूं. मुझे कुछ नहीं चाहिए इसके बदले में.’

कालीशंकर के गुरु उनके पिता श्री द्रीपनाथ महली उम्दा कलाकार और आकाशवाणी के स्थायी गायक-वादक थे. कालीशंकर टूहिला के इकलौते प्रोफेशनल वादक हैं. जैसे टूहिला अब विलुप्तप्राय है, वैसे ही इसके बजाने वालों में भी संभवत: आखिरी कलाकार बचे हैं कालीशंकर. रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय व क्षेत्रीय भाषा विभाग के प्राध्यापक व वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी गिरधारी राम गौंझू कहते हैं, ‘संगीत अकादमी के कोलकाता के कार्यक्रम में जब काली ने इसका प्रदर्शन किया था तो विशेषज्ञों ने कहा कि झारखंड को विशिष्टता प्रदान करने वाला यह अकेला वाद्य यंत्र है और इसे पुनजीर्वित करने की जरूरत है.’ 2005 से कला एवं संस्कृति विभाग ने जनजातीय वाद्य यंत्रों को प्रोत्साहन देने के लिए स्कीम भी चलाई कि टूहिला सीखने और सिखाने वालों को प्रोत्साहन राशि मिलेगी. फिर भी यह उपेक्षित है. लोक की यह खासियत होती है कि वह हमेशा सामूहिकता का बोध कराता है. सुख की घड़ी हो या दुख की, हर क्षण समूह बोध सामने होता है. ऐसे में लोक जगत में एकाकी जीवन की परिकल्पना, यह इसके संगीत की नई बात थी. मशहूर गायक मुकुंद नायक कहते हैं, ‘यह प्रकृति और मानव मन से जुड़ा हुआ विरह का स्वर है. उसी मन को शांत करने के लिए आदिपुरुषों ने शायद सबसे पहले टूहिला को लौकी, बांस और धागे से बनाया होगा.’

काली के घर से निकलते समय मन में सवाल उठता है, तो क्या आदिपुरुषों का आदि वाद्य यंत्र, मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत की पहली धरोहरों व आविष्कारों में से एक, टूहिला वाकई अपने आखिरी दौर में है? प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी एवं आदिवासी मामलों के जानकार डा. रामदयाल मुंडा कहते हैं, ‘टूहिला के लिए संदर्भ खड़ा करना होगा. इसे रीवाइव किए जाने की जरूरत है. इस वाद्य यंत्र का नाजुक पक्ष यह है कि इसे खुले बदन में ही बजाया जाता है. इसमें शरीर रेजोनेंस का काम करता है. इसकी वादन शैली काफी पेचीदा है. यदि इसे बचाना है तो इसमें कुछ बदलाव करना होगा. लौकी, रेशम के स्टिंग का विकल्प ढूंढ़ना होगा. यह एकांत में बजाया जाता है, समूह में नहीं. आवाज इतनी मृदु है कि वह अन्य वाद्य यंत्रों में खो-सी जाती है और यह केवल दुख में बजता है. इसमें सौंदर्य बोध डाल दिया जाए या एंप्लिफाई कर दिया जाए तो इसे बचाया जा सकता है.’ लेकिन काली उनकी बातों से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘ऐसा कभी भी नहीं होना चाहिए. कुछ चीजों को शाश्वत रूप में ही रहने देना चाहिए. यदि बदलाव किए गए तो मौलिकता नष्ट हो जाएगी. इसकी पहचान ही खत्म हो जाएगी.’ और एक आखिरी बात. कालीशंकर रांची में ही रहते हैं. उसी के निकट, जहां राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिए खेलगांव बना है, जहां झारखंड का पहला विशाल कला भवन बना है. लेकिन वे रांची में रहकर भी रांची में नहीं रहते. न किसी गांव में, न बस्ती-मोहल्ले में. उन्होंने बस्ती से दूर अकेले खेत में अपने सहिया के साथ खपरैल घर बना लिया हैं. वहीं काली का पूरा परिवार रहता है. मन में प्रश्न उठता है, क्या उनका यह एकाकी जीवन भी टूहिला का ही प्रभाव है?

Tuesday, May 11, 2010

मैं बच्‍ची नहीं थी मां और न ही अनपढ़-गंवार ...


निरुपमा पाठक का ख़त, मां सुधा पाठक के नाम…
पत्र शैली में निरुपमा हत्‍याकांड से जुड़े पहलुओं को समझने की कोशिश


मेरी प्‍यारी मां,
तुझे बहुत-बहुत-बहुत सारा प्‍यार!

मां, परसों मदर्स डे था न। मुझे यहां स्वर्गलोक में जरा भी अच्‍छा नहीं लग रहा था मां। सोचा क्‍यों न पापा की चिट्ठी का जवाब लिखूं, जो दुनिया से विदा होने के पहले उन्होंने मुझे लिखी थी। लेकिन तू तो जानती है न मां कि मैं पापा से ज्‍यादा बातें नहीं कह पाती। जो कहना होता है, तुमसे ही कहती हूं। तो मदर्स डे के दिन अपने अजन्मे बच्‍चे के साथ दिन भर यूं ही तुझे याद करती रही और कुछ-कुछ लिखने की कोशिश करती रही।

मां, मुझे अच्‍छा नहीं लग रहा कि तू मेरे कारण परेशान है और फजीहत झेल रही है लेकिन मैं अब कुछ कर भी तो नहीं सकती न! बहुत दूर हूं मां। अगर करने की स्थिति में होती, तो तुम्हें कष्‍ट न होने देती। ऐसे भी तुझे पता है न कि मैं अपनी मां पर जान छिड़कती हूं, उसे कितना प्‍यार करती हूं, यह शब्‍दों में बयां नहीं कर सकती। तू ही बता न कि अगर मैं मां-पापा से प्‍यार न करती और भरोसे का कत्ल करना चाहती तो क्‍यों सिर्फ यह पूछने के लिए दिल्‍ली से कोडरमा जाती कि क्‍या मैं प्रिभयांशु से शादी करूं। मां उसके साथ पति-पत्नी के रिश्ते के बीच जितने भी तरह के भाव होते हैं, उन सभी भावों से तो गुजर ही चुकी थी न, सिर्फ एक सामाजिक मान्यता मिलनी बाकी थी।

मां, प्रिभयांशु के साथ मैं एक दोस्त या प्रेमिका की तरह नहीं बल्‍िक हमसफर की तरह ही रह रही थी। और फिर मुझे आपलोगों के भरोसे का कत्ल करना होता तो मैं अपनी अन्य सहेलियों की तरह कोर्ट में शादी करने के बाद बताती कि मैंने शादी कर ली। तब आपलोगों की मजबूरी होती मां कि अपनी सहमति की मुहर लगाएं। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैं दो वर्षों के प्‍यार पर जीवन देने वाली मां और पालन करने वाले पिता के प्‍यार को हल्‍का नहीं करना चाहती थी। उसका मान कम नहीं करना चाहती थी।

यह भरोसा था मुझे मां कि जब आपलोगों ने झुमरीतिलैया से मुझे पढ़ाई करने के लिए दिल्‍ली भेजा है, अखबारी दुनिया में नौकरी करने की छूट दी है तो फिर अपने तरीके से, अपनी पसंद के लड़के के साथ जिंदगी भी गुजारने देंगे। मैं कानूनन सब करने में सक्षम थी मां, लेकिन मैं कानून से ज्‍यादा आपलोगों की कद्र करती थी। आपलोगों पर भरोसा करती थी। इसलिए सहमति की मुहर लगाने कोडरमा पहुंची थी। और सुनो न मां, अब तो दो-दो जिंदगियां बरबाद हो ही चुकी हैं। मैं और मेरी संतान ने दुनिया से अलग कर लिया है खुद को। अब प्रियभांशु को भी बरबाद करने के लिए दांव-पेंच क्‍यों चले जा रहे हैं मां।

मां, क्‍या मैं बेवकूफ थी, जो मुझे पता नहीं चल सका था कि मेरे गर्भ में उसका बच्‍चा पल रहा है? मैं अबॉर्शन करा सकती थी न, लेकिन मैंने नहीं करवाया। मैं और कई उपाय भी अपना सकती थी लेकिन नहीं अपनाये। इसलिए कि मैं प्रिभयांशु को मन से चाहती थी, तो तन देने में भी नहीं हिचकी। मां उसने कोई बलात्कार नहीं किया और न ही संबंध बनाने के बाद मुझे बंधक बनाकर रखा कि नहीं तुझे बच्‍चे को जन्म देना ही होगा। यह सब मेरी सहमति से ही हुआ होगा न मां, तो उसे क्‍यों फंसाने पर आमादा है पुलिस। जरा इस बात पर भी सोचना तुम।

हां मां, अब यहां स्वर्गलोक में आ चुकी हूं तो यहां कोई भागदौड़ नहीं। फुर्सत ही फुर्सत है। ऐसी फुर्सत कि वक्‍त काटे नहीं कट रहा। धरती की तरह जीवन की बहुरंगी झलक नहीं है यहां, जीवन एकाकी और एकरस है। लिखने की आदत भी पड़ गयी है, तो सोच रही हूं कि आज पापा के उस आखिरी खत का जवाब भी दे दूं। पापा से कहना वो मेरे जवाब को मेरी हिमाकत न समझें बल्‍िक एक विनम्र निवेदन समझेंगे।

उन्होंने अपने पत्र में सनातन धर्म का हवाला दिया है। अब यहां स्वर्गलोक में जब फुर्सत है तो सनातन धर्म के गूढ़ रहस्यों से भी परिचित हो रही हूं। सनातन धर्म के बारे में पापा शायद ज्‍यादा जानते होंगे मां लेकिन मैं अब सोच रही हूं कि मैंने भी तो उसी धर्म के अनुरूप ही काम किया न। मां, सनातन धर्म ने तो प्रेम पर कभी पाबंदी नहीं लगायी और न ही जातीय बंधन इसमें कभी हावी रहा। देखो ना मां, कृष्‍ण की ही बात कर करो। जगतपालक विष्‍णु के अवतार कृष्‍ण। प्रेम की ऐसी प्रतिमूर्ति बने कि रुक्‍िमणी को भूल लोग उन्हें राधा के संग ही पूजने लगे। घर-घर में तो पूजते हैं लोग राधा-कृष्‍ण को। फिर राधा-कृष्‍ण की तरह रहने की छूट क्‍यों नहीं देते अपनी बेटियों को? क्‍या राधा-कृष्‍ण सिर्फ पूजे जाने के लिए हैं? जीवन में उतारे जाने के लिए नहीं? और यदि जीवन में जो चीजें नहीं उतारी जा सकतीं, उसे वर्जना के दायरे में रखा जाना चाहिए न मां। मां अपने कोडरमा वाले घर में भी राधा-कृष्‍ण की तस्‍वीर है, हटा देना उसे सदा-सदा के लिए।

हां मां, पापा से कहना कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की तस्‍वीर भी फेंक दें, वह भी सनातन धर्म की कसौटी पर पूजे जाने लायक नहीं हैं। याद हैं मां, बचपन से एक भजन मैं सुना करती थी – बाग में जो गयी थी जनक नंदिनी, चारों अंखियां लड़ी की लड़ी रह गयीं। राम देखे सिया और सिया राम को। चारों अंखियां लड़ी की लड़ी रह गयीं… फिर भाव समझाते थे प्रवचनी बाबा कि शिवधनुष तोड़ने से पहले का नजारा है यह। सीता जी फूल तोड़ने बाग में गयी थीं, राम से नैन लड़े तो दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गये। जानती हो मां, इस भजन को याद आने के बाद मैं यह सोच रही हूं कि राम ने भी तो अपने पिता की मर्जी से सीता से शादी की नहीं थी। वह तो गये थे अपने गुरू के साथ ताड़का से रक्षा के लिए लेकिन जब नजरें सीता से मिलीं तो चले गये शिवधनुष तोड़ने। क्‍या राम को यह नहीं पता था कि धनुष तोड़ने का मतलब होगा शादी कर लेना। फिर क्‍यों नहीं एक बार उन्होंने अपने पिता दशरथ से यह अनुमति ली। दशरथ को तो बाद में पता चला न मां कि जनक की बेटी से उनका बेटा शादी करने जा रहा है। तो मां, क्‍या गुरु के जानने से काम चल जाता है। मेरे भी गुरू तो जानते ही थे न। दिल्‍ली में रहनेवाले सभी गुरु और मित्र इस बात के जानते थे कि मैं प्रिभयांशु से शादी करने जा रही हूं। फिर भी मैंने गुरु के बजाय आपलोगों की सहमति लेना जरूरी समझा। राम की तस्‍वीर हटा देना मां उन्होंने भी अपने पिता से पूछे बिना अपना ब्‍याह तय कर लिया था।

मां, पिताजी को माता कुंती की भी याद दिलाना न। सनातनी कुंती की। उन्हें तो कोई कभी कुल्‍टा नहीं कहता। उन्हें आदर्श क्‍यों माना जाता है जबकि उन्होंने छह पुत्रों का जन्म पांच अलग-अलग पुरुषों से संबंध बनाकर दिया। और मां कर्ण वह तो विवाह से पहले ही उनके गर्भ से आये थे न। यह तो सनातनी पौराणिक इतिहास ही कहता है न मां। फिर कुंती को कुल्‍टा क्‍यों नहीं कहते पापा। पापा की कसौटी पर तो तो वह चरित्रहीन ही कही जानी चाहिए।

और द्रौपदी, मां। कोई द्रौपदी को दोष क्‍यों नहीं देता। अच्‍छा जरा ये बताओ तो मां कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, कोई एक स्त्री पांच-पांच पुरुषों के साथ कैसे रह सकती है। लेकिन वो रहती थी और उसे कोई दोष नहीं देता। पापा को कहना कि वह द्रौपदी को भी अच्‍छी औरतों की श्रेणी में न रखा करें। एक बात कहूं मां, पापा ने शुरुआती दिनों में ही एक गलती कर दी थी। मुझे धर्म प्रवचन की बातें बताकर। उन्होंने ही एक बार बताया था कि इस जगत में ब्रह्मा की पूजा क्‍यों नहीं होती क्‍योंकि ब्रह्मा ने अपनी ही मानस पुत्री से शादी कर ली थी। छि: कितने गंदे थे न ब्रह्मा।

और मां, रामचंद्र के वंशजों में तो किसी की तस्‍वीर घर में नहीं रखना, क्‍योंकि तुम्हें भी तो पापा ने बताया ही होगा कि धर्म अध्यात्म और सनातनी इतिहास के क्रम में भागीरथी कैसे दुनिया में आये थे। दो महिलाओं के आपसी संबंध से उत्पन्न हुए थे न मां वो। यानी लेस्बियनिज्‍म की देन थे। बताओ तो सही, भला नैतिक रूप से कहां आये थे वो? मैं भी गंदी थी मां। अनैतिक। इन लोगों की तरह ही अनैतिक। मैं कुतर्क नहीं कर रही और न ही अपने पक्ष में कोई दलील ही दे रही हूं मां। यह सब मन में बातें आयीं तो सोचा तुमसे कह दूं। खैर, एक बात कहूं मां, मुझसे तू चाहे जिंदगी भर नफरत करना, घृणा करना, लेकिन अब छोड़ दो न प्रिभयांशु को। उसने कुछ नहीं किया जबरदस्ती मेरे साथ। मैं बच्‍ची नहीं थी मां और न ही अनपढ़-गंवार थी। सब मेरी रजामंदी से ही हुआ होगा न मां।

और हां मां, मुझे फिर से धरती पर भेजने की तैयारी चल रही है। मेरे बच्‍चे को भी फिर से दुनिया में भेजा जाएगा। मैंने तो सोच लिया है कि इस बार अपने नाम के आगे पीछे कोई टाइटल नहीं लगाऊंगी। सीधे-सीधे नाम लिखूंगी। कोई पाठक, तिवारी, यादव, सिंह नहीं। सीधे-सीधे सिर्फ नाम। जैसे कि दशरथ, राम, कृष्‍ण… इन सबकी तरह। इनके नामों के साथ कहां लिखा हुआ मिलता है कि दशरथ सिंह, राम सिंह, कृष्‍ण यादव। मां मैं फिर आ रही हूं। इस बार फिर प्‍यार करुंगी। अपने तरीके से जीने की कोशिश करुंगी। फिर मारी जाऊंगी तो भी परवाह नहीं। पर एक ख्‍वाहिश है मां, ईश्वर से मेरे लिए दुआ मांगना कि इस बार किसी अनपढ़ के यहां जन्म लूं… जो ज्‍यादा ज्ञान रखता हो। जो सनातनी हो लेकिन व्‍यावहारिक सनातनी, सैद्धांतिक नहीं। जो कम से कम अपने संतान को अपने तरीके से जीने की आजादी दे।

बस मां! अभी इतना ही । शेष फिर कभी। तुम अपना ख्‍याल रखना मां और पापा का भी। भाई-मामा को प्रणाम कहना। जल्‍दी ही मिलती हूं मां। नाम बदला हो सकता है लेकिन तू गौर करती रहना… तुम मुझे पहचान ही लोगी।

तुम्हारी बेटी
निरुपमा

Monday, May 3, 2010

कला जगत की कलाबाजियों से दूर


अनुपमा
कला जगत की कलाबाजियों से उनका दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं। न बाजार के दांव-पेंच से ज्‍यादा वास्ता है। शायद इसीलिए रेशमा दत्ता का नाम आज फाइन आर्ट्स की दुनिया में एक अनचीन्‍हा नाम है। पर इनकी सधी हुई उंगलियां मिट्टी में जान फूंक देती हैं। झारखंड के घोर नक्‍सल प्रभावित क्षेत्र में रेशमा अकेले दम पर जो काम कर रही हैं, वह कलाबाजियों और बाजार से बहुत आगे की चीज है। 60 घरेलू महिलाओं को कलाकार बनाकर, आत्मनिर्भर बनाकर खामोश क्रांति कर रहीं रेशमा का सूत्र वाक्‍य है – आप अपना काम करो, जहां हो, वहीं कुछ सार्थक करो, देश-दुनिया बदलने के चक्‍कर में अपने गांव-मोहल्‍ले में भी काम करने का अवसर क्‍यों गंवाना
रेशमा की कहानी

दोपहर के एक बजे का समय है। झारखंड की राजधानी रांची से करीब 50 किलोमीटर की दूरी तय कर हम बुंडू पहुंचे हैं। वहां हमने एक युवक से पूछा – रेशमा दत्ता जी का घर किधर है? थोड़ी देर सोचकर वह पूछता है – कौन रेशमा दत्ता?

अच्‍छा वो रेशमा दीदी। जो मिट्टी वाला काम करती हैं। इस तरह रेशमा के घर पहुंचने से पहले ही यह पता चल जाता है कि यहां के बड़े-बूढ़े-नौजवान, सब उसे मिट्टी वाली दीदी के नाम से ही जानते हैं।

इसके बाद हमें रेशमा के घर तक पहुंचा दिया जाता है। घर के नाम पर हमारा सामना सबसे पहले एक बेडौल पुराने फाटक और ढही हुई चाहरदीवारी से होता है। देखकर मन में एक शंका भी होती है कि यह किसी कलाकार का आशियाना तो नहीं लगता! लेकिन अंदर घुसते ही बाहर से वीरान दिखनेवाला यह खंडहर कला की जन्नत-सा लगने लगता है। बड़े से बाग में जगह-जगह लगी हुईं टेराकोटा की कलाकृतियां, पत्थर की मूर्तियां, मोटरसाइकिल के टूटे हुए सायलेंसर, रिंग और अन्य चीजों से बनी मानव आकृति, तरह-तरह के फूल-फल, बगल में एक बड़ा तालाब और उन सबके बीच एक छोटा सा घर। उस घर के बाहर की दीवारों पर टेराकोटा की नक्‍काशी, बरामदे में रखी हुई मिट्टी की मूर्तियां। घर और कैंपस का हर कोना कला का परिचय देता हुआ दिखता है। कहीं टेराकोटा, डोकरा, एपलिक तो कहीं सीरामिक की कलाकृतियां चारों ओर करीने से सजी हुई हैं।

यकीनन, कैंपस में पहुंचते ही हम यह भूल जाते हैं कि हम उस बुंडू में हैं, जो पिछले कई वर्षों से गुंडागर्दी, अपराध और नक्‍सली गतिविधियों के कारण दहशत का पर्याय बन गया है। पिछले कुछ वर्षों में यहां ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिसे सोचकर ही सिहरन पैदा हो जाती है। मसलन, दो वर्ष पूर्व एक स्कूल के कार्यक्रम में जदयू विधायक रमेश सिंह मुंडा को सरेआम गोलियों से भून दिया जाना, कुछ माह पूर्व इंस्पेक्‍टर फ्रांसिस इंदवार को अगवा कर मौत के घाट उतार दिया जाना आदि। यह दो घटनाएं तो राष्‍ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रही। लूट-अपराध की छोटी-छोटी कई घटनाएं तो रोज ही घटती हैं। बुंडू की पहचान भी अब इन्हीं घटनाओं से जोड़कर होती है। लेकिन रेशमा के कैंपस में ये सारे सवाल, सारे खौफ धरे के धरे रह जाते हैं। वहां पहुंचते ही एक गोरी-सी आम दिखने वाली लड़की, मिट्टियों के ढ़ेर के बीच सामने होती है। जींस और बांह तक चढ़ाये हुए स्वेटर में। मैं यह पूछने की बजाय कि क्‍या आप रेशमा हैं, सीधे यही पूछ देती हूं – मिट्टी से इतना लगाव…!

रेशमा भी बिना औपचारिक हुए तुरंत बोलती हैं – तो मिट्टी के बिना जीवन भी कहां है? मैं तो मिट्टी में ही जीती हूं, मिट्टी के साथ ही जीना चाहती हूं। यह मिट्टी बहुत कुछ दे सकती है, सब कुछ दे सकती है।

अदभुत तरीके का व्‍यक्‍ितत्व देख रेशमा के बारे में अधिक से अधिक जल्‍दी से जल्‍दी जान लेने की इच्‍छा है लेकिन वह बताना शुरू करती हैं – कि अभी उनके साथ 60 महिलाएं काम कर रही हैं। सब यहीं की हैं। आसपास के गांव की। बिल्‍कुल घरेलू महिलाएं। यहां आने से पहले कोई कलाकार नहीं थीं। 25 वर्ष की पोलियोग्रस्त देवंती से लेकर 80 साल की मीनू तक। ऐसा भी नहीं कि यहां आनेवाली महिलाएं कुम्हार के घर से ताल्‍लुक रखती हों और कुछ जन्मजात हुनर उनके पास हो। लेकिन एक महीने की ट्रेनिंग के बाद वे सब अपने आप में स्वतंत्र कलाकार हैं। रेशमा के वर्कशाप में हमारी मुलाकात रूबी से होती है जो एक सधे हुए प्रोफेशनल कलाकार की तरह हमसे बात करती हैं और कहती हैं – अब हम कहीं भी एग्जिविशन लगा सकते हैं, अकेले जा सकते हैं, ऑर्डर लेकर माल सप्‍लाई कर सकते हैं। वैसे आत्मविश्वास से लबरेज पुष्‍पा, सुधा और बाकी अन्य भी हैं। घर की देहरी तक यह आत्मविश्वास का आना, रेशमा के त्याग और उन सबमें अपने को खपा देने का ही परिणाम है।

शांति निकेतन से फाइन आर्ट्रस में बैचलर की डिग्री, महाराजा सेगीराव से मास्टर की डिग्री व जापान से फेलोशिप करने के बाद रेशमा लौटकर सीधे अपने गांव बुंडू पहुंची थीं। इन उम्दा जगहों पर प्रशिक्षण लेने के बाद रेशमा के सामने कई विकल्‍प थे। वह कहीं भी जा सकती थीं। घर की आर्थिक हालत भी ऐसी थी कि इन्हें कहीं बाहर रहकर अपना काम करने में आर्थिक परेशानी नहीं आती लेकिन रेशमा ने अपने काम के लिए चुना तो अपने दादा की उस पुरानी लाह फैक्‍ट्री के खंडहर मकान को, जो एक तरीके से भूत बंगला ही हो चुका था। रेशमा ने वहां अपने दो साथियों शुचि स्मितो व बहादुर के साथ काम करना शुरू किया। शुरू में गांव की दस महिलाओं के साथ पास के ही खेत से मिट्टी लाकर काम शुरू किया और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक सेल्‍फ हेल्‍प ग्रुप बनाया – आधार। आधार आज कॉपरेटिव के रूप में काम कर रहा है।

रेशमा शुरुआती दिनों को याद कर रूआंसी हो जाती हैं और कहती हैं कि उस वक्त सिर्फ बैठकर रोने का मन करता था। चारों ओर विरानगी ही विरानगी। काम करो तो उसका कोई रिस्पांस नहीं। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। आर्थिक तंगी और काम को तवज्‍जो न मिलने के कारण दो साथी वापस चले गये। पर रेशमा अकेले डटी रही।

मेहनत धीरे-धीरे रंग लायी। महिलाओं की संख्‍या 10 से 20, 20 से 40 हुई, जो अब 60 है। यह वही महिलाएं हैं, जिनकी सीमा घर की देहरी के अंदर सिर्फ चूल्‍हा-चौका तक थी। लेकिन अब ये अहमदाबाद, रांची, दिल्‍ली जाकर एग्जिविशन लगाती हैं। खास यह कि इनमें से अधिकांश अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाएं हैं। ये महिलाएं दिन के 11 बजे तक अपने घर का सारा काम निपटाकर यहां पहुंचती हैं और शाम पांच बजे तक फिर घर वापस चली जाती हैं। इनमें से कई तो दो से ढाई हजार रुपये मासिक वेतन पर काम करती हैं और कुछ को काम के आधार पर पैसा मिलता है। खास बात यह कि यहां काम करने वाली एक महिला अंधी भी हैं। रेशमा ने इन महिलाओं के काम को झारक्राफ्ट (झारखंड राज्‍य का आर्ट एंड कल्‍चर शो रूम) से जोड़ दिया है, वहीं के ऑर्डर पर ये माल तैयार कर पहुंचाती हैं।

रांची झारक्राफ्ट के शो रूम में पहुंचिए तो बुंडू वाला टेराकोटा एक ब्रांड की तरह स्थापित हो चुका है। अब सिरामिक और डोकरा आर्ट का काम भी महिलाएं करने लगी हैं। रेशमा डोकरा और टेराकोटा का फ्यूजन कर नया प्रयोग कर रही हैं। रेशमा चाहती हैं कि ये महिलाएं इसे खुद चलाएं और खुद इसे आगे बढ़ाएं। वे इससे होनेवाले लाभ को उसके विकास में लगाती हैं और खुद के खर्चे के लिए इंटेरियर डेकोरेशन का काम करती हैं। अभी हाल ही में इन्होंने नेशनल मेटलर्जिकल लेबोरेटरी व जमशेदपुर में सिद्धगोरा सूर्य मंदिर के इंटीरियर डेकोरेशन का काम किया है। रेशमा जिन महिलाओं के साथ काम करती हैं। उनमें से कुछ के घर के सदस्य नक्‍सल संगठन से भी जुड़े रहे हैं। एक युवा कारीगर तो स्वयं ही यह काम करने आता था। पर रेशमा का इन सबसे कोई वास्ता नहीं, वह सिर्फ कला को जानती हैं।

बातचीत के दौरान रेशमा अपने वर्कशॉप को दिखाने ले जाती हैं, जहां बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) के डोकरा कलाकार काम में लगे हैं। उनमें से एक बोरेन कुंभकार कहता है – दीदी के साथ काम करने का अपना मजा है। कभी कोई टेंशन नहीं…। बस हरदम कुछ नया और अनोखा करने को मिलता है। घर के कैंपस से सटे पास के तालाब को देखकर बरबस पूछ लिया – क्‍या इसमें मछली पालन करवाती हैं? कलाकार मन विचलित हो उठता है और रेशमा कहती हैं। मैं ऐसा कोई काम नहीं कर सकती। मारने का काम मुझसे नहीं होगा। ये परती जमीन को देखिए। अगली बार आएंगी तो आपको किसान रेशमा दिखेगी। मैं पूरे देश का तो कुछ नहीं कर सकती पर इन 60 महिलाओं के लिए तो कुछ जरूर करूंगी। मेरा सपना है कि एक ऐसा स्कूल खोलूं जहां बस्ते का बोझ न हो। सिर्फ मस्ती हो और कला हो। यानी एक ऐसा शांति निकेतन जहां कई रेशमा जन्म ले और कला को पूरी पहचान मिले। यदि ऐसा हुआ तो काफी हद तक नक्‍सल समस्या का भी समाधान हो जाएगा और बच्‍चों को सही दिशा मिल जाएगी।

पर्सनल इंटरव्‍यू
शांति निकेतन, बड़ौदा आर्ट कॉलेज, जापान की यात्रा के बाद वापस गांव? अवसर तो बहुत थे आपके पास, फिर यहीं क्‍यों?

मुझे लगता है कि मैं बिजनेस नहीं कर सकती। कुछ काम होना चाहिए। और काम करने के लिए मुझे अपनी मिट्टी से बेहतर कोई जगह नहीं लगी। यूं ही एक दिन सोची कि चलते हैं अपने गांव और फिर आयी तो कहीं जाने को सोचती भी नहीं।

आप जहां काम कर रही हैं, वह नक्‍सलियों का गढ़ माना जाता है, क्‍या आपको कभी किसी किस्म की परेशानी हुई?

मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। मैं तो इस बारे में सोचती भी नहीं। मेरे साथ तो काम करने वाला लड़का खुद ही बताता था कि वह नक्‍सली गिरोह में शामिल है। मुझे उससे क्‍या लेना-देना। फिर गांव के सारे लोग भी कहते हैं – दीदी आप जो काम कर रही हैं, उससे किसी को क्‍या परेशानी होगी, सब तो खुश रहते हैं।

कला के बाजार में कला और कलाकारों की बोलियां करोड़ों में लगती हैं। आपकी इच्‍छा नहीं होती उस रेस में शामिल होने की?

(जोर से हंसते हुए) सड़ी, मुझे तो पता भी नहीं रहता कि कहां क्‍या हो रहा है। मैं जानना भी नहीं चाहती। इस खंडहर को कला मंदिर बनाने में ही इतनी व्‍यस्त रहती हूं कि कुछ जानने की फुर्सत भी तो नहीं मिलती। मेरे पास कोई फोन भी तो नहीं आता। कभी-कभी तो दो-तीन दिनों तक एक रिंग भी नहीं…

जब वापस अपने गांव लौटीं तो शुरुआती दिनों में कितनी मुश्किलें हुईं। संघर्ष के उन दिनों को कैसे याद करती हैं?

विरासत में यह एक खंडहर मिला था लेकिन साथ में परिवार वालों का सपोर्ट था। लेकिन उन दिनों मैं सोच भी नहीं पाती थी कि यहां कुछ हो पाएगा। कभी-कभी रोने लगती थी अकेले। कोई संसाधन नहीं। सिर्फ अपने गांव के खेत की मिट्टी और यहां आनेवाली महिलाओं पर भरोसा रहता था। बस, उन्हीं दोनों ने मनोबल को टूटने नहीं दिया।

सबसे ज्‍यादा खुशी कब मिलती है?

जब अपने साथी कलाकारों में से किसी को यह कहते हुए सुनती हूं कि मेरा घर-परिवार तो अच्‍छे से चल रहा है। जब कोई यह कहती है कि मैंने तो अपने बड़े का दाखिला यहां करवा दिया। बस उनकी खुशी से मैं सबसे ज्‍यादा खुश होती हूं।

आपका ड्रीम प्रोजेक्‍ट क्‍या है?

ड्रीम प्रोजेक्‍ट तो नहीं कह सकती लेकिन दो काम तो करने की सोच रखी है। एक की शुरुआत अभी करनेवाली हूं। अब इस साल से खेती करने जा रही हूं। मैंने पानी के लिए बोरिंग डलवा दी है। अब पास के खेत में खेती होगी। धान गेहूं आलू आदि की। और भविष्‍य में एक स्कूल खोलने की इच्‍छा है। उस स्कूल में पढ़ाई के नाम पर भारी बस्ता नहीं होगा। जीवन की मस्ती के साथ पढ़ाई। और हां… शुल्‍क नहीं। एक पैसा भी नहीं।

अचानक खेती का खयाल कैसे आया?

अचानक नहीं। मेरे साथ करने वाली महिलाएं कहा करती हैं कि वे खेती भी कर सकती हैं। फिर मैं सोचती हूं कि यहां से इतनी कमाई तो होती नहीं कि वे घर की गृहस्थी भी चला लें। अब खुद से खेती करेंगी तो कम से कम चावल, गेहूं, सब्‍जी के झंझट से तो मुक्‍त रहेंगी न। और फिर मैं सच कहूं, खेती से ज्‍यादा क्रिएटिव और जरूरी काम मुझे कुछ नहीं लगता। शायद इसलिए भी…

और अपने जीवन का ड्रीम प्रोजेक्‍ट? मतलब शादी करने का खयाल…!

अरे नहीं नहीं। शादी करने का खयाल भी नहीं आता अब तो। अब कोई पूछता भी नहीं इस बारे में। मैं खुश हूं। जीवन का ड्रीम प्रोजेक्‍ट दिखाऊंगी न। अगली बार आइएगा – किसान रेशमा मिलेगी। फिर कभी बाद में आइएगा – अपने मकसद के साथ मिलूंगी – मास्टरनी रेशमा…

Thursday, February 25, 2010

“चाह कर भी वे मेरी बेटियों को मार नहीं पाएंगे”

मीतू खुराना। किसी कहानी या उपन्यास की काल्पनिक पात्र नहीं। पढ़ी-लिखी और देश की राजधानी में रहने वाली एक महिला का नाम। पेशे से पेडियाटि­शियन हैं। उनके पति डॉ कमल खुराना (आर्थोपेडिक सर्जन) रोहिणी में रहते हैं। पर आप सोच रहें होंगे, इसमें बताने जैसी क्‍या बात है? बात है। ध्यान से सुनिए। मीतू ने अपराध किया है। कानून की नज़र में नहीं। ससुराल वालों की नजर में। उन्होंने अपराध किया है बेटियों को जन्म देने का। उन्‍हें कोख में ही न मार डालने का। जन्म के बाद भी उनसे लगाव रखने का। इसकी वजह से उन्हें बार-बार घर से निकाला गया और आज वो अपने मायके में हैं। पति से अलगाव की हद तक अपनी नवजात बच्चियों की परवाह करने वाली नीतू वूमेन आफ सब्स्टांस हैं। सुनते हैं, उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी…

हर लड़की यह सोचती है कि उसकी शादी अच्छे घर में हो। पति उसे चाहनेवाला हो और एक सपनों का घर हो। जिसे वह सजाये-संवारे और एक खुशहाल परिवार बनाये। मैंने भी कुछ ऐसे ही ख्‍़वाब बुने थे। अभी-अभी तो उसे संजोना और बुनना शुरू ही किया था मैंने। पर कब सब कुछ बिखरना शुरू हुआ, पता ही नहीं चला। खैर… सीधी-सीधी बात बताती हूं। शादी नवंबर 2004 में डॉ कमल खुराना से हुई। कहने को तो अच्छा घर था, पर यहां आते ही मुझे दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाने लगा। मैं यह सब जुल्म चुपचाप सहती रही कि चलो कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। शादी के दो महीने बाद ही यानी जनवरी 2005 में मैं गर्भवती हो गयी। गर्भ के साथ ही मेरे सपने भी आकार ले रहे थे। छठवें सप्‍ताह में मेरा अल्‍ट्रासाउंड हुआ और यह पता लगा कि मेरे गर्भ में एक नहीं बल्कि दो-दो ज़‍िंदगियां पल रही हैं। मेरा उत्साह दुगना हो गया। मैं बहुत खुश थी। परंतु मेरी सास मुझ पर सेक्‍स डिटर्मिनेशन करवाने के लिए दबाव डालने लगीं। मैंने इसके लिए मना कर दिया। ऐसा करने पर मुझे तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा। इसमें मेरे पति की भूमिका भी कम नहीं थी। मेरा दाना-पानी बंद कर दिया गया और रोज़-रोज़ झगड़े होने लगे। मुझे जीवित रखने के लिए रात को मुझे एक बर्फी और एक गिलास पानी दिया जाता था। गर्भावस्था में ऐसी प्रताड़ना का दुख आप खुद समझ सकते हैं। इस मुश्किल घड़ी में भी मेरे मायके के लोग हमेशा मेरे साथ रहे। शायद इसी वजह से मैं आज जीवित भी हूं।

चलिए आगे का हाल बताती हूं। जब मैं गर्भ चयन के लिए प्रताड़ना के बाद भी राज़ी नहीं हुई तो इन लोगों ने एक तरकीब निकाली। यह जानते हुए कि मुझे अंडे से एलर्जी है, उन्होंने मुझे अंडेवाला केक खिलाया। मेरे बार-बार पूछने पर कि इसमें अंडा तो नहीं है, मुझसे कहा गया कि नहीं, यह अंडारहित केक है। केक खाते ही मेरी तबीयत बिगड़ने लगी। मुझमें एलर्जी के लक्षण नजर आने लगे। मझे पेट में दर्द, उल्टी व दस्त होने लगा। ऐसी हालत में मुझे रात भर अकेले ही छोड़ दिया गया। दूसरे दिन पति और सास मुझे अस्पताल ले गये। लेकिन वो अस्पताल नहीं था। वहां मेरा एंटी नेटल टेस्ट हुआ था। मुझे लेबर रूम में ले जाया गया। यहां पर गायनेकेलॉजिस्ट (स्त्री रोग विशेषज्ञ) ने मेरी जांच कर केयूबी (किडनी, यूरेटर, ब्लैडर) अल्‍ट्रासाउंड करने की सलाह दी। लेकिन वहां मौजूद रेडियोलॉजिस्ट ने सिर्फ मेरा फीटल अल्‍ट्रासाउंड किया और कहा कि अब आप जाइए। जब मैंने देखा और कहा कि गायनेकेलॉजिस्ट ने तो केयूबी अल्‍ट्रासाउंड के लिए कहा था, आपने किया नहीं, तो उसने कहा कि ठीक है आप लेट जाइए और उसके बाद उसने केयूबी किया।

इस घटना के बाद तो प्रताड़नाओं का दौर और भी बढ़ गया। मेरे पति व ससुराल वाले मुझे गर्भ गिराने (एमटीपी) के लिए ज़ोर देने लगे। मेरी सास ने तो मुझसे कई बार यह कहा कि यदि दोनों गर्भ नहीं गिरवा सकती, तो कम से कम एक को तो गर्भ में ही ख़त्म करवा लो। दबाव बनाने के लिए मेरा खाना-पीना बंद कर दिया गया। मेरे पति मुझसे अब दूरी बरतने लगे और एक दिन तो उन्होंने रात के 10 बजे मुझे यह कह कर घर से निकाल दिया कि जा अपने बाप के घर जा। जब मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे मेरा मोबाइल और अपने कार की चाभी ले लेने दीजिए, क्‍योंकि गर्भावस्था में मैं खड़ी नहीं रह पाऊंगी तो उन्होंने कहा कि इस घर की किसी चीज़ को हाथ लगाया तो थप्पड़ लगेगा… मेरे ससुर ने हस्तक्षेप किया और कहा कि इसे रात भर रहने दो, सुबह मैं इसके घर छोड़ दूंगा। उनके कहने पर मुझे रात भर रहने दिया गया। सास की दलील थी कि दो-दो लड़कियां घर के लिए बोझ बन जाएंगी, इसलिए मैं गर्भ गिरवा लूं। अगर दोनों को नहीं मार सकती तो कम से कम एक को तो ज़रूर ख़त्म करवा लूं। जब मैं इसके लिए राज़ी नहीं हुई तो उन्होंने मुझसे कहा कि ठीक है यदि जन्म देना ही है, तो दो, लेकिन एक को किसी और को दे दो।

आज भी मुझे वह भयानक रात याद है। तारीख थी 17 मई 2005… इतना गाली-गलौज और डांट के बाद मैं घबरा गयी थी और उस रात को ही मुझे ब्लीडिंग शुरू हो गयी। इतना खून बहने लगा कि एबॉर्शन का ख़तरा मंडराने लगा। खुद तो मदद करने की बात छोड़िए, चिकित्सकीय सहायता के लिए मेरे पिता को भी मुझे बुलाने की इजाज़त नहीं दी गयी। मैंने किसी तरह तड़पते-कराहते रात गुज़ारी और सुबह किसी तरह फोन कर पापा को बुला पायी। पापा के काफी देर तक मनुहार के बाद मेरे पति मुझे नर्सिंग होम ले जाने को तैयार हो गये। लेकिन खीज इतनी कि गाड़ी को सरसराती रफ्तार से रोहिणी से जनकपुरी तक ले आये। उस बीच मेरी जो दुर्गति हुई होगी, उसकी कल्पना आप खुद भी कर सकते हैं।

इन तीन घटनाओं और बार-बार गर्भपात करवाने की ज़ोर-जबरदस्ती के बाद मेरे पिता ने मुझे अपने पास बुला लिया। मेरी पूरी ऊर्जा बस इसी में लगी हुई थी कि मुझे अपने गर्भ में पल रही जुड़वां बेटियों को जन्म देना है। परंतु जुड़वां बच्चियों की वजह से मेरे ससुरालवालों ने टेस्ट करवाने और अस्पताल ले जाने की ज़हमत कभी नहीं उठायी। ऐसे समय में मेरी मां हर पल मेरे साथ थीं। इतने पर भी मेरे पति को बरदाश्त नहीं हुआ। वह अक्‍सर मेरे घर आकर भी मुझसे लड़ाई किया करते थे। चूंकि मैंने गर्भपात नहीं करवाया, इसलिए मेरे पति ने तो डीएनए टेस्ट तक की मांग कर दी ताकि यह पता लगाया जा सके कि पिता कौन है? ऐसा इसलिए कि मेरी सास को किसी साधु ने बताया था कि उनके बेटे को सिर्फ एक पुत्रधन की प्राप्ति होगी। मुझे उनकी ऐसी सोच से बहुत गहरा आघात लगा। मैंने अपनी सास को कई बार समझाया कि बेटा और बेटी के लिए मां नहीं बल्कि पिता जिम्मेवार होता है, तो उनकी प्रतिक्रिया यह थी कि इसके लिए जिम्मेवार मैं हूं क्‍योंकि मैंने अबॉर्शन के लिए मना कर दिया। खैर… यह सब चलता रहा और तनावों के बीच मैंने समय से पहले ही यानी 11 अगस्त 2005 को प्री-टर्म बेबी को जन्म दिया। मेरी बेटियां ज़‍िंदगी से जूझ रही थीं। जन्म के नौ दिनों बाद भी मेरे ससुराल से उन्हें देखने के लिए कोई नहीं आया। दसवें दिन नेरी ननद, मेरी सास और ससुर मुझसे मिलने आये। मेरी एक चाची ने मेरी ननद से खुश होते हुए कहा कि बुआ बनने पर बधाई हो। लेकिन खुश होने के बजाय मेरी ननद ने कहा कि भगवान बचाये, दुबारा हमें यह दिन न देखना पड़े। बात आयी-गयी हो गयी। अब दुखी होने का मौसम लगता है गया? मेरी सास बहुत खुश थीं कि बेटियां सातवें महीने में हुई हैं, इसलिए इनका बचना मुश्किल है। मेरी छोटी बिटिया को तो एक महीने तक अस्पताल में ही रखना पड़ा। पर मैं खुश हूं कि अब वे दोनों स्वस्थ हैं और अब तो स्कूल जाने लगी हैं। अस्पताल का खर्च भी अच्छा-खासा था पर मेरे ससुराल के लोगों ने एक फूटी कौड़ी तक नहीं दी। ऐसी मुश्किल घड़ी मे मेरे पापा हमेशा मेरे साथ रहे और अस्पताल का सारा खर्च उन्होंने ही वहन किया। यदि पापा जीवन के इस कठिन मोड़ पर या यूं कहें कि हर विपत्ति की घड़ी में मेरे साथ न होते तो न जाने मेरा और मेरी बच्चियों का क्‍या हश्र हुआ होता?

चूंकि शादी के बाद ससुराल ही लड़की का अपना घर होता है। यह सोचकर मैंने भी प्रताड़नाओं के बावजूद कई बार ससुराल वापस जाने की कोशिश की। हालांकि वहां उनके शब्दबाण मुझे छलनी कर जाते थे। मैं खुद यह सब बरदाश्त कर सकती थी, लेकिन मेरी बच्चियों को वहां कोई नहीं पूछता था। मेरी और मेरी बच्चियों के लिए वहां लेस मात्र भी प्यार नहीं था। अब तो मुझे इस बात का भी एहसास हो गया कि मैं और मेरी बच्चियों की ज़‍िंदगी यहां ख़तरे में है। मेरी सास ने मेरी चार माह की बच्‍ची को सीढ़ियों से धकेल दिया और कहा कि एक्‍सीडेंटली ऐसा हो गया। पर यकीन मानिए मेरी खुशकिस्मती थी कि मैं समय पर आ गयी और बच्‍ची के कैरी कॉट को थाम लिया।

आखिर कब तक मैं उन्हें मौत के मुंह में धकेले रखती? मेरी बच्चियों के लिए किसी के भी मन में कोई प्यार और संवेदना नहीं थी। दादा-दादी और बुआ सब उनकी अवहेलना करते थे। इसके बावजूद मैंने तीन सालों तक लगातार यह कोशिश की मेरी ससुराल के लोग इन्हें अपना लें और बच्चियों को एक स्थायी घर और प्रेम का वातावरण मिले। पर ऐसा हो न सका। आप सोच रहे होंगे कि आखिर मैं इतने दिनों तक यह सब क्‍यों सहती रही? मैंने इनके ख़‍िलाफ़ कोई शिक़ायत क्‍यों नहीं दर्ज करवायी? पर ऐसा नहीं है। मैंने गर्भावस्था के दौरान सेक्‍स डिटर्मिनेशन टेस्ट करवाने के लिए और गर्भपात पर जोर दिये जाने के ख़‍िलाफ़ पुलिस में शिक़ायत दर्ज करवायी थी। साथ ही थाने में यह गुहार भी लगायी थी कि उनके ख़‍िलाफ़ कोई एक्‍शन न लिया जाए। चूंकि मैं सोचती थी कि बच्चियों के जन्म के बाद शायद उन लोगों के मन में बच्‍चों के प्रति प्रेम उमड़ आएगा। लेकिन कुछ नहीं हुआ।

अति तो तब हो गयी, जब मार्च 2008 में मेरे पति ने आधी रात को मुझे घर से बेदखल कर दिया और मुझसे कहा कि तुम आपसी सहमति से तलाक ले लो। ऐसा इसलिए ताकि वह दूसरी शादी कर सकें और उससे बेटा पैदा कर सकें। मुझे इस बात का अंदेशा पहले से ही था कि वो ऐसा कर सकते हैं। इसलिए मैंने इस बार के प्रवास में जबरन कराये गये अल्‍ट्रासाउंड के काग़ज़ात और अन्य अस्पताल के काग़ज़ात, जो कि मेरे पति के कब्जे में रहते थे, वो सब ले लिये। अब मैंने इनके ख़‍िलाफ़ शिक़ायत दर्ज करायी है ताकि मेरे आंसुओं का हिसाब मिले न मिले, मेरी बच्चियों को एक सुखद जीवन मिल सके। तमाम तरह की कोशिशों और समझौतों से थकने के बाद 10 अप्रैल, 2008 को मैंने वूमेन कमिशन, स्वास्थ्य मंत्रालय व कई स्वयंसेवी संगठनों में अपनी शिक़ायत दर्ज करवायी।

9 मई, 2008 को मैने पीएनडीटी सेल में भी शिक़ायतनामा दर्ज करवाया। पिछले साल छह जून को मुझे आरटीआई के आवेदन के आलोक में जवाब आया कि मानिटरिंग कमिटी व डिस्ट्रिक्‍ट एप्रोप्रिएट अथॉरिटी (उत्तर पश्चिम दिल्ली) ने तीन जून को अस्पताल पर रेड किया और पाया कि फार्म-एफ नहीं भरा गया है। (और यह सच भी है)। चूंकि इसका भरा जाना जरूरी होता है। कानून में दर्ज है – (“Person conducting ultrasonography on a pregnant woman shall keep complete record thereof in the clinic/centre in Form-F and any deficiency or inaccuracy found therein shall amount to contravention of provisions of section-5 or section-6 of the Act, unless contrary is proved by the persons conducting such ultrasonography”)

सेक्‍शन पांच व छह के अनुसार गर्भवती स्त्री की अल्‍ट्रासोनोग्राफी की सहमति ली जानी व गर्भ में पल रहे बच्चे के सेक्‍स के बारे में जानकारी किसी को न देने की बात कही गयी है। गर्भवती स्त्री को इससे होनेवाले साइड इफेक्‍ट व बाद के प्रभावों की जानकारी देना व उसकी सहमति अनिवार्य है। पर मेरे केस में ऐसा नहीं हुआ। जबरन ऐसा करवाना कानूनन अपराध है। इसके बावजूद अब तक अस्पताल पर कोई भी कारर्वाई नहीं की गयी है। जब मेरे मामले को मीडिया ने हाइलाइट किया, तो मेरे पास डिस्ट्रिक्‍ट एप्रोप्रिएट अथॉरिटी का एक खत आया कि मैं उनके समक्ष जाकर अपनी बात रखूं। मैं अपने एक मित्र के साथ वहां जाकर सीडीएमओ से मिली और पूछा कि इस केस में मेरे बयान का क्‍या महत्व है, तो मुझे समझाया गया कि कानून को व्यापक करने की ज़रूरत है। मुझे बहुत इंपल्सिव तरीके से इस मामले में कोई काम नहीं करना चाहिए, जिसकी कीमत मुझे बाद में अदा करनी पड़े। मुझसे यह भी कहा गया कि मैं अपने पति से बात करूं और उनकी बात मान लूं। अगर उनकी मांग एक बेटे की है, तो मैं उसे पूरा कर सकती हूं। मैं बार-बार गर्भवती हो सकती हूं और जब बेटा हो तो उसे जन्म दे सकती हूं। मुझे तो यह समझाने की भी चेष्‍टा की गयी कि अल्‍ट्रासाउंड मशीन डायग्नोसिस के लिए कितना ज़रूरी है और अगर उसे सील कर दिया गया तो कुछ लोग उसकी सुविधा का लाभ लेने से वंचित रह जाएंगे। अंत में मुझसे कहा गया कि मैं अपने पति से समझौता कर लूं ताकि डॉक्‍टरों को परेशान न होना पड़े। मैंने जब उपर्युक्त सवालों के सीडीएमओ द्वारा पूछे जाने को लेकर केंद्र व राज्य के पीएनडीटी विभाग से यह पूछा कि मुझसे इस तरह की बातें सीडीएमओ ने क्‍यों कहीं, क्‍या औरतें सिर्फ बच्‍चा जनने की मशीन हैं, जब तक कि बेटा पैदा न करे – पर मुझे दोनों में से कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिला।

अंत में मैंने एक प्राइवेट केस पीसी-पीएनडीटी एक्‍ट के तहत नवंबर 2008 में दर्ज करवाया। जनवरी 2009 में एप्रोप्रिएट अथॉरिटी ने भी जयपुर गोल्डन हॉस्पिटल के ख़‍िलाफ़ केस फाइल किया है। लेकिन दोनों ही मामले अभी तक लंबित हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की डॉ किरण वालिया ने मेरे केस को री-ओपन करवाया था। उन्होंने यह भी देखा कि सीडीएमओ जो मेरे केस को देख रहे थे, वह बदल गये हैं। उनके सहयोग के लिए मैं उनकी आभारी हूं। पर अफ़सोस के साथ मुझे कहना पड़ रहा है कि मैं चौतरफा मार झेल रही हूं। हर अथॉरिटी चाहे वह पुलिस हो, ज्युडिसियरी या अस्पताल – जहां मैं काम करती हूं – की ओर से केस वापस लेने का दबाव पड़ रहा है। इस प्रताड़ना और धमकियों की वजह से मुझे अपनी नौकरी तक छोड़नी पड़ी। यकीन मानिए, यहां तक कि हाईकोर्ट के जज ने भी मुझे अपने पति से रीकौंसाइल की सलाह दे डाली। जब मैंने पूछा कि रीकौंसाइल से क्‍या आशय है आपका? तो उन्होंने कहा कि मुझे अपने पति के साथ रहना चाहिए। इस पर मैंने उनसे कहा कि – चाहे मैं और मेरी बेटियों को जान से ही हाथ धोना क्‍यों न पड़े, इस पर जज साहब ने कहा कि यदि मैं अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती हूं तो कम से कम मैं उन्हें आपसी सहमति से तलाक दे दूं। इस बात के जवाब में मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि मैं ऐसा तभी करूंगी, जब हिंदू विवाह अधिनियम में यह बदलाव हो जाए कि वह व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है यदि वह बेटा पैदा करके न दे।

मैं जिस गलती की सजा भुगत रही हूं – वह ये कि मेरे गर्भ में बेटियां आयीं और मैंने गर्भपात करवाने से मना कर दिया। मेरा कई ऐसे लोगों से सामना हुआ है और उनका मानना है कि मेरे पति और ससुराल के लोगों का यह सोचना कि एक बेटा चाहिए, जायज़ है। हर परिवार की ऐसी मंशा होती है। मेरे एक सहकर्मी डॉक्‍टर का मानना है कि दूसरे या उसके बाद के गर्भधारण के लिए सेक्‍स डिटर्मिनेशन व मादा भ्रूण हत्या को कानूनन जायज़ बना देना चाहिए। मेरे कई डॉक्‍टर साथी, जिनकी शादी हो गयी है और उनकी एक बेटी है, बेटा नहीं, उनका मानना है कि सेक्‍स डिटर्मिनेशन व मादा भ्रूण हत्या के लिए वे तैयार हैं क्‍योंकि उनके ससुराल वालों को एक बेटा चाहिए। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि जो कदम मैंने उठाया है, वो ऐसा नहीं करेंगे। क्‍योंकि वो बच्चे के लिए एक स्थायी घर व पिता चाहते हैं।

कई ग़रीब मरीज़ मेरे पास ऐसे आते हैं, जो बेटों की चाह में कई-कई बेटियां जनमा चुके हैं। कई बार मुझे ऐसा लगता है कि क्‍या हमारा समाज औरतों को सिर्फ बेटा पैदा करने की मशीन समझता है? मेरी जैसी स्त्रियां, जो ऐसा नहीं सोचतीं कि महिलाएं जन्मजात पुरुषों से अलग हैं और बेटियों का गर्भपात करने से मना कर देती हैं, वे समाज की नज़र में अपराधी हैं। उन्हें पागल समझा जाता है। आज भी कई लोगों की मेरे पति व ससुरालवालों के प्रति सहानुभूति है। लेकिन मैं आपसे ही पूछना चाहती हूं क्‍या एक सृजनशील स्त्री अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को सिर्फ इसलिए मार दे कि वह मादा है? क्‍या मानवता या ममत्व के नाते ऐसा करना अपराध है? शायद अपराध तब होता, जब मैं अपनी बच्चियों को कोख में ही मार डालती या जन्म के बाद उन्हें मार डालती या किसी और को दे देती। लेकिन एक मां होने के नाते मैं ऐसा सोच भी कैसे सकती थी? ज़रा आप भी सोचिए। क्‍या मुझे इसकी सज़ा मिलनी चाहिए? शायद नहीं? यदि मुझे मिली तब भी कोई बात नहीं परंतु मेरी बेटियों को भी इसकी सज़ा मिल रही है, जो मुझे क़तई बरदाश्त नहीं। मैं उन्हें उनका हक़ दिलवा कर रहूंगी। मैं इस लड़ाई में अकेली हूं, पर यक़ीन मानिए, यह लड़ाई मेरे अकेले की नहीं है। इससे अन्य महिलाओं को भी न्याय मिल पाएगा। जो मेरी तरह आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं, वो कैसे इतनी बड़ी लड़ाई लड़ कर न्याय हासिल कर पाएंगी। मैं चाहती हूं कि मेरी तरह फिर किसी महिला को घर से न निकाला जाए और उनकी बेटियों को उनका पूरा अधिकार मिले।

यह कहानी भेजने के क्रम में मुझे ख़बर मिली है कि कोर्ट ने अस्पताल को सम्मन जारी कर दिया है और डॉ मीतू को बयान के लिए बुलाया गया है। केस की तारीख 1 दिसंबर है। लेकिन डॉ कमल खुराना अब एक नयी चाल चल रहे हैं और अपने बचाव के लिए वे बेटियों को कस्टडी में लेना चाहते हैं। यह सोचनेवाली बात है कि चार साल के बाद आचानक उनका बेटियों के प्रति प्रेम कैसे उमड़ पड़ा, जिन्हें वे गर्भ में और पैदा होने के बाद भी मार डालना चाहते थे, पैसे देकर केस वापस लेने का दबाव बना रहे थे, तलाक की बात कर रहे थे? कहीं ये उन मासूम जानों को मार डालने की साज़‍िश तो नहीं है?

न बना चोर तू मर्ज़ी से न बना मैं सिपाही!

सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए जैसे ही एक खबर पर नजर गयी, आंखें वहीं टिक गयीं और दिमाग़ में कई विचार एक साथ टकराने लगे। वैचारिक द्वंद्व अब भी जारी है। खबर थी – सब्जी चुरा रहे थे तीन पुलिसकर्मी, हुई धुनाई। झारखंड की राजधानी रांची में बरियातू बिजली आफिस के पास एक सब्जी दुकान से सब्जी चोरी करते हुए तीन सिपाहियों को दुकान की संचालिका प्रभा देवी व उसके पति ने रंगे हाथों पकड़ा और उनकी जम कर धुनाई की। तीनों सिपाही वहां टीओपी में कार्यरत हैं। स्थानीय लोगों की प्रतिक्रिया यह थी कि चोरों को पकड़नेवाले ही चोर हो गये हैं, तो इससे चोरी को और भी प्रश्रय मिलेगा। परंतु हमारी चिंता और परेशानी की वजह कुछ और है।

पुलिस कहने को तो जनता की सेवक है पर पुलिस को देखते ही लोग खौफजदा हो जाते हैं। डरते हैं कि वे वसूली न करें। ऐसे में यह घटना और भी अचंभित करती है। मसलन तीनों ही पुलिसवालों के हाथ में डंडा था। वे अन्य पुलिसकर्मियों की तरह रौब दिखाकर सब्जी व अन्य चीजों की उगाही कर सकते थे। फिर रात के अंधेरे में चोरी की ज़रूरत क्‍यों पड़ गयी? क्‍या उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी? आखिर उनकी क्‍या मजबूरी रही होगी? क्‍या उनका परिवार इतना बड़ा है कि तनख्वाह से काम नहीं चल पाता या उन्हें समय से तनख्वाह नहीं मिलती? मेरी उन पुलिसकर्मियों से कोई सहानुभूति नहीं है और न सब्जी बेचनेवाली से ही कोई हमदर्दी है, परंतु यह प्रश्न बेचैन ज़रूर कर रहा है। चोरी किसी भी व्यक्ति के लिए अंतिम विकल्प होता है। लोग भीख मांग लेते हैं, मगर चोरी को पाप समझते हैं। फिर किस मजबूरी ने उन्हें ऐसा करने को बाध्य किया।

घटना 23 अक्‍टूबर की रात की है। जिस दिन सारा शहर और गांव अस्ताचलगामी सूर्य की उपासना कर रहा था। चोर उचक्‍के भी इस दिन चोरी करने से कतराते हैं। ठीक इसी दिन झारखंड में आगामी विधानसभा चुनावों की घोषणा भी हुई थी। यानी नये सरकार के आने का बिगुल फूंका जा रहा था। तो क्‍या यह प्रशासन की कमजोरी है कि उसके कर्मचारी अवैधानिक कार्य में लिप्‍त हैं? या फिर नेता खुद तो मालामाल हुए जा रहे हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा में लगे लोगों की सुध लेने की भी फुर्सत नहीं है। उनके घरों की मजबूरी जानने की ज़हमत जब ये नहीं उठा सकते, तो जनता की क्‍या खाक फिकर करेंगे। पिछले दिनों फ्रांसिस इंदवार को नक्‍सलियों ने अगवा कर मार डाला। तब जाकर राजनीतिक दलों के लोगों की आंख खुली। भाजपा के नेताओं ने सहानुभूति दिखाते हुए उनके परिवारवालों को एक लाख रुपये का चेक दिया और राहुल गांधी ने सांत्वना देते हुए कहा कि मेरे पिताजी भी शहीद हुए थे और फ्रांसिस इंदवार भी शहीद हुए हैं। हालांकि फ्रांसिस के घरवाले इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उनकी शहादत के बाद उनकी पत्नी को नौकरी और मुआवजा तत्काल मिल गया। परंतु शहादत से पहले उनका परिवार फाकाकशी में जीने को मजबूर था। छह महीने से उसे तनख्वाह तक नहीं मिली थी। उस वक्त क्‍यों नहीं उसकी ओर ध्यान गया।

जिस राज्य के अधिकांश विधायक करोड़पति हैं, रोज़ उनके नये-नये ठिकानों और संपत्तियों का ब्योरा सामने आ रहा हो, जिस देश के आधे से अधिक सांसद करोड़पति हों और बिना हवाई जहाज़ के एक कदम भी चल नहीं सकते, उन्हें जनता की क्‍यों फिकर होगी? उनके लिए तो कर्मचारी और गरीब जनता कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं। झारखंड राज्य प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण और संपन्न राज्य है, पर जनता उतनी ही गरीब। उन्हें दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं है। राज्य के हालात कुछ ऐसे हैं कि राजधानी रांची से चंद किलोमीटर की दूरी पर विगत तीन माह पहले मांडर और कांके के इलाकों में भूखी जनता ने सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली के अनाजों के गोदामों को ही लूट लिया। आर्थिक मुफलिसी में कोई भी व्यक्ति गलत राह पकड़ सकता है।

तीनों पुलिसकर्मी कोई सांगठनिक अपराध नहीं कर रहे थे। लूट, बलात्कार या ऐसे किसी कुकृत्य में भी नहीं शामिल थे। सब्जी की चोरी कर रहे थे। पर क्‍यों? यह प्रश्न बार-बार हंट कर रहा है। मन को उद्विग्न कर रहा है। उनके बचाव में लिखना मेरा मक़सद नहीं है। क्‍योंकि कोई भी अपराध, अपराध है। किसने किया और क्‍यों इससे वह कम नहीं हो जाता। चोरी तो चोरी है। लेकिन सिर्फ न्यूज को रोमांटिक तरीके से पढ़ने, जी भरकर गाली दे लेने व चार दिनों बाद भूल जाने से कुछ नहीं होगा। कोई ठोस और कारगर उपाय जरूरी है। इस पर जरा आप भी सोचिए।

सरकार चाहे तो सबका पेट भर सकती है। खाद्य सब्सिडी दे सकती है और खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था को सुनिश्चित कर सकती है। लेकिन सरकार सिर्फ कार्पोरेट जगत को ही रियायत देने पर आमादा है और आम जनता अपने जीने के मूलभूत अधिकारों के लिए रोज़-रोज़ जूझ रही है। क्‍या बेरोज़गार और क्‍या नौकरीपेशा। जब पूरी दुनिया ही खाद्य संकट के दौर से गुज़र रही है, ऐसे में यह सोचने की ज़रूरत है कि क्‍या कारें और कंप्यूटर के सस्ते होने से करोड़ों भूखे लोगों का पेट भर पाएगा। देश की करोड़ों आबादी आज भी एक वक्‍त भूखे पेट सोने को अभिशप्त है। योजना आयोग के अनुसार बीपीएल परिवारों की संख्या पहले 6.52 करोड़ थी, जो अब घटकर 5.91 करोड़ हो गयी है। विश्व बैंक देश के 42 फीसदी लोगों को ही गरीबी रेखा से नीचे मानता है, जबकि अर्जुन सेनगुप्‍ता 77 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा से नीचे मानते हैं। ऐसे में जो भी योजनाएं बनती हैं, वह 42 फीसदी को ध्यान में रख कर बनती हैं और उसका लाभ भी उन तक नहीं पहुंच पाता है। एक शायर ने खूब कहा है – कोई भी शय अच्छी नहीं लगती, पेट जब तक भरा नहीं होता। गांधी जी ने भी कहा था – गरीबों के लिए रोटी ही अध्यात्म है। भूख से पीड़ित उन लाखों-करोड़ों लोगों पर किसी और चीज का प्रभाव नहीं पड़ सकता। कोई दूसरी बात उनके हृदय को छू भी नहीं सकती, लेकिन जब आप उनके पास रोटी लेकर जाएंगे तो वे आपको ही भगवान की तरह पूजेंगे। रोटी के सिवा उन्हें कुछ और सूझ ही नहीं सकता। सच भी है, पहले पेट की आग हो ठंढ़ी, तभी कुछ भी सही और ग़लत दिखता है।

न बना चोर तू मर्ज़ी से न बना मैं सिपाही!

सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए जैसे ही एक खबर पर नजर गयी, आंखें वहीं टिक गयीं और दिमाग़ में कई विचार एक साथ टकराने लगे। वैचारिक द्वंद्व अब भी जारी है। खबर थी – सब्जी चुरा रहे थे तीन पुलिसकर्मी, हुई धुनाई। झारखंड की राजधानी रांची में बरियातू बिजली आफिस के पास एक सब्जी दुकान से सब्जी चोरी करते हुए तीन सिपाहियों को दुकान की संचालिका प्रभा देवी व उसके पति ने रंगे हाथों पकड़ा और उनकी जम कर धुनाई की। तीनों सिपाही वहां टीओपी में कार्यरत हैं। स्थानीय लोगों की प्रतिक्रिया यह थी कि चोरों को पकड़नेवाले ही चोर हो गये हैं, तो इससे चोरी को और भी प्रश्रय मिलेगा। परंतु हमारी चिंता और परेशानी की वजह कुछ और है।

पुलिस कहने को तो जनता की सेवक है पर पुलिस को देखते ही लोग खौफजदा हो जाते हैं। डरते हैं कि वे वसूली न करें। ऐसे में यह घटना और भी अचंभित करती है। मसलन तीनों ही पुलिसवालों के हाथ में डंडा था। वे अन्य पुलिसकर्मियों की तरह रौब दिखाकर सब्जी व अन्य चीजों की उगाही कर सकते थे। फिर रात के अंधेरे में चोरी की ज़रूरत क्‍यों पड़ गयी? क्‍या उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी? आखिर उनकी क्‍या मजबूरी रही होगी? क्‍या उनका परिवार इतना बड़ा है कि तनख्वाह से काम नहीं चल पाता या उन्हें समय से तनख्वाह नहीं मिलती? मेरी उन पुलिसकर्मियों से कोई सहानुभूति नहीं है और न सब्जी बेचनेवाली से ही कोई हमदर्दी है, परंतु यह प्रश्न बेचैन ज़रूर कर रहा है। चोरी किसी भी व्यक्ति के लिए अंतिम विकल्प होता है। लोग भीख मांग लेते हैं, मगर चोरी को पाप समझते हैं। फिर किस मजबूरी ने उन्हें ऐसा करने को बाध्य किया।

घटना 23 अक्‍टूबर की रात की है। जिस दिन सारा शहर और गांव अस्ताचलगामी सूर्य की उपासना कर रहा था। चोर उचक्‍के भी इस दिन चोरी करने से कतराते हैं। ठीक इसी दिन झारखंड में आगामी विधानसभा चुनावों की घोषणा भी हुई थी। यानी नये सरकार के आने का बिगुल फूंका जा रहा था। तो क्‍या यह प्रशासन की कमजोरी है कि उसके कर्मचारी अवैधानिक कार्य में लिप्‍त हैं? या फिर नेता खुद तो मालामाल हुए जा रहे हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा में लगे लोगों की सुध लेने की भी फुर्सत नहीं है। उनके घरों की मजबूरी जानने की ज़हमत जब ये नहीं उठा सकते, तो जनता की क्‍या खाक फिकर करेंगे। पिछले दिनों फ्रांसिस इंदवार को नक्‍सलियों ने अगवा कर मार डाला। तब जाकर राजनीतिक दलों के लोगों की आंख खुली। भाजपा के नेताओं ने सहानुभूति दिखाते हुए उनके परिवारवालों को एक लाख रुपये का चेक दिया और राहुल गांधी ने सांत्वना देते हुए कहा कि मेरे पिताजी भी शहीद हुए थे और फ्रांसिस इंदवार भी शहीद हुए हैं। हालांकि फ्रांसिस के घरवाले इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उनकी शहादत के बाद उनकी पत्नी को नौकरी और मुआवजा तत्काल मिल गया। परंतु शहादत से पहले उनका परिवार फाकाकशी में जीने को मजबूर था। छह महीने से उसे तनख्वाह तक नहीं मिली थी। उस वक्त क्‍यों नहीं उसकी ओर ध्यान गया।

जिस राज्य के अधिकांश विधायक करोड़पति हैं, रोज़ उनके नये-नये ठिकानों और संपत्तियों का ब्योरा सामने आ रहा हो, जिस देश के आधे से अधिक सांसद करोड़पति हों और बिना हवाई जहाज़ के एक कदम भी चल नहीं सकते, उन्हें जनता की क्‍यों फिकर होगी? उनके लिए तो कर्मचारी और गरीब जनता कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं। झारखंड राज्य प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण और संपन्न राज्य है, पर जनता उतनी ही गरीब। उन्हें दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं है। राज्य के हालात कुछ ऐसे हैं कि राजधानी रांची से चंद किलोमीटर की दूरी पर विगत तीन माह पहले मांडर और कांके के इलाकों में भूखी जनता ने सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली के अनाजों के गोदामों को ही लूट लिया। आर्थिक मुफलिसी में कोई भी व्यक्ति गलत राह पकड़ सकता है।

तीनों पुलिसकर्मी कोई सांगठनिक अपराध नहीं कर रहे थे। लूट, बलात्कार या ऐसे किसी कुकृत्य में भी नहीं शामिल थे। सब्जी की चोरी कर रहे थे। पर क्‍यों? यह प्रश्न बार-बार हंट कर रहा है। मन को उद्विग्न कर रहा है। उनके बचाव में लिखना मेरा मक़सद नहीं है। क्‍योंकि कोई भी अपराध, अपराध है। किसने किया और क्‍यों इससे वह कम नहीं हो जाता। चोरी तो चोरी है। लेकिन सिर्फ न्यूज को रोमांटिक तरीके से पढ़ने, जी भरकर गाली दे लेने व चार दिनों बाद भूल जाने से कुछ नहीं होगा। कोई ठोस और कारगर उपाय जरूरी है। इस पर जरा आप भी सोचिए।

सरकार चाहे तो सबका पेट भर सकती है। खाद्य सब्सिडी दे सकती है और खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था को सुनिश्चित कर सकती है। लेकिन सरकार सिर्फ कार्पोरेट जगत को ही रियायत देने पर आमादा है और आम जनता अपने जीने के मूलभूत अधिकारों के लिए रोज़-रोज़ जूझ रही है। क्‍या बेरोज़गार और क्‍या नौकरीपेशा। जब पूरी दुनिया ही खाद्य संकट के दौर से गुज़र रही है, ऐसे में यह सोचने की ज़रूरत है कि क्‍या कारें और कंप्यूटर के सस्ते होने से करोड़ों भूखे लोगों का पेट भर पाएगा। देश की करोड़ों आबादी आज भी एक वक्‍त भूखे पेट सोने को अभिशप्त है। योजना आयोग के अनुसार बीपीएल परिवारों की संख्या पहले 6.52 करोड़ थी, जो अब घटकर 5.91 करोड़ हो गयी है। विश्व बैंक देश के 42 फीसदी लोगों को ही गरीबी रेखा से नीचे मानता है, जबकि अर्जुन सेनगुप्‍ता 77 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा से नीचे मानते हैं। ऐसे में जो भी योजनाएं बनती हैं, वह 42 फीसदी को ध्यान में रख कर बनती हैं और उसका लाभ भी उन तक नहीं पहुंच पाता है। एक शायर ने खूब कहा है – कोई भी शय अच्छी नहीं लगती, पेट जब तक भरा नहीं होता। गांधी जी ने भी कहा था – गरीबों के लिए रोटी ही अध्यात्म है। भूख से पीड़ित उन लाखों-करोड़ों लोगों पर किसी और चीज का प्रभाव नहीं पड़ सकता। कोई दूसरी बात उनके हृदय को छू भी नहीं सकती, लेकिन जब आप उनके पास रोटी लेकर जाएंगे तो वे आपको ही भगवान की तरह पूजेंगे। रोटी के सिवा उन्हें कुछ और सूझ ही नहीं सकता। सच भी है, पहले पेट की आग हो ठंढ़ी, तभी कुछ भी सही और ग़लत दिखता है।

होश की दुनिया का तमाशा

पिछले महीने निरमलिया की मौत हो गयी। भूखे-प्‍यासे आखिर कब तक वह मेहनत करती रहती? चिलचिलाती धूप में जंगल से लकड़ी काटना और फिर उसे बाज़ार में बेचना, उसकी दिनचर्या थी। इतनी कड़ी मेहनत के बाद भी निरमलिया अपने अर्धविक्ष‍िप्‍त पति और पांच बच्‍चों का पेट कहां भर पाती थी। वह परिवार के अन्‍य सदस्‍यों को तो कुछ खिला भी देती थी, पर खुद कई-कई दिनों तक भूखे रह जाती थी। आखिर यह सिलसिला कितने दिन चल सकता था… निरमलिया पलामू जिले के छतरपुर ब्‍लॉक के सुशीगंज की रहनेवाली थी। दुर्भाग्‍य यह है कि उसकी मौत, पलामू में भूख से हुई मौतों की फेहरिस्‍त में भी शामिल नहीं हो पायी। क्‍योंकि ऐसा करते ही प्रसाशन के क्रिया-कलापों पर प्रश्‍नचिह्न लग जाता। जब हमने यह जानने की कोशिश की कि आखिर उसकी मौत कसे हुई है, तो ग्रामीणों ने बताया कि वह भूख से मरी है। उसके घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। परंतु उपायुक्‍त डॉ अमिताभ कॉशल ने बताया कि मामले की जांच करायी गयी है और बीडीओ वहां गये थे। उनके अमुसार निरमलिया ने एक दिन पहले यानी की शनिवार 28 जून की रात को खाना खाया था। शव का पोस्‍टमार्टम शायद घरवालों की इजाज़त न मिलने के कारण नहीं हो पाया हो। लेकिन यह हो भी जाता तो क्‍या इसकी पुष्टि की जाती? शायद नहीं।

पलामू और सूखा का कुछ ऐसा मेल हो गया ह कि छुड़ाये नहीं छूट रहा। यह विडंबना ही है कि भूख से होनेवाली मौत के आगोश में समाने वाले 99 फीसदी लोग आदिवासी और दलित ही हैं। चाहे वह कोरबा जनजाति के हों, भूइंयां, बिरहोर या फिर अन्‍य। जब सरकार की 19 योजनाएं उनके उत्‍थान के लिए चलायी जा रही हैं और सुखाड़ के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपये खर्च किये जा चुके हैं… फिर यह मौतें क्‍यों? निरमलिया की मौत का काला सच भी शायद कभी सामने न आ पाये। गढ़वा की लेप्‍सी की मौत भी कुछ इसी तरह हुई थी और प्रशासन ने उसे भूख से हुई मौत मानने से ही इनकार कर दिया था। परंतु मीडिया और कुछ प्रबुद्धजनों की कोशिशों के बाद उन्‍हें यह मानना पड़ा था कि उसकी मौत भूख से ही हुई है। निरमलिया की मौत सिर्फ एक कॉलम की खबर बन पायी और शायद इसीलिए उसे इंसाफ नहीं मिल सका।
पलामू में इस बार फिर सुखाड़ ने दस्‍तक दी है। तभी तो सुखाड़ से खौफजदा किसान इच्‍छा मृत्‍यु के लिए हस्‍ताक्षर अभियान चला रहे हैं। 5000 किसानों ने तो हस्‍ताक्षर भी कर दिये हैं और 30,000 और किसान अर्जी भर रहे हैं। यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि प्रदेश की 38 लाख हेक्‍टेयर कृषि योग्‍य भूमि में से आज भी केवल 1.57 लाख हेक्‍टेयर जमीन पर ही सिंचाई की सुविधा उपलब्‍ध है। सवाल है कि आखिर क्‍यों? शायद इसलिए कि अब तक किसानों और खेती के मूल तकनीकों पर न तो यहां कोई काम हुआ है और न ही सरकार की कोई मंशा ही रही है। यदि मंशा होती तो यकीनन तस्‍वीर कुछ और होती और जमीनों पर जो दरार दिख रही हैं, वहां फसल लहलहा रही होती।
पलामू में घुसते ही आपको यह एहसास होने लगेगा कि कसी विकट और त्रासद जिन्‍दगी जीने को विवश है यहां की जनता। सुखाड़ की स्‍िथति जानने और वहां के लोगों की जीवन शैली जानने की उत्‍कट इच्‍छा लिये पिछले साल अपने एक साथी के साथ मनातू, लमटी, लेस्‍लीगंज व चेड़ाबारा गांव जाना हुआ था। इन गांवों के लोग इतने अनुभवी हैं कि धरती और आकाश को देख कर ही बता दें कि इस बार अकाल-सुखाड़ पड़ने वाला है या फिर बारिश और खेती की कोई गुंजाइश शेष है। चेड़ाबारा गांव के एक किसान सुकुल ने बताया कि सुखाड़ और गरीबी हमारी नियती ही बन गयी है। इससे बचने के लिए सरकार की तरफ से जो पहल होनी चाहिए, वह नहीं हो रही। गांव के लोगों ने कई बार यह निवेदन भी किया था कि शिवपुर में यदि डैम बन जाता तो अच्‍छा होता और अगर यह नहीं हो सकता तो गांव में 20 फुट (20 फीट के कुएं) कुआं ही बन जाता, तो कुछ हल निकल आता। कुछ ऐसी ही सोच कोल्‍हुआ टोली और महुआ टोली के लोगों की भी थी। उनका मानना है कि इतने भर से ही कम से कम पीने और थोड़ी खेती के लिए कुछ पानी तो मिल ही जाता। अनाज के अभाव में यहां के लोग महुआ, गेठी (एक कसला कंदमूल) और चकवढ़ साग (जंगली पौधा) खाने को विवश हैं।

चैनपुर के लमटी गांव की स्‍िथति तो और भी भयावह है। दूरस्‍थ और दुर्गम रास्‍तों की वजह से न तो मीडियाकर्मी यहां पहुंच पाते हैं, न अधिकारी और न ही प्रबुद्धजन। जब हम इस गांव की स्‍िथति जानने पहुंचे तो पता चला कि कितनी लेप्‍सी और निरमलिया यहां हर साल दम तोड़ती रहती हैं परंतु उनकी मौत की गूंज किसी शून्‍य में समा जाती है। वह खबर भी नहीं बन पाती। आदिम जनजाति कोरबा लोग यहां रहते हैं। सुखाड़ के दिनों में सिर्फ गेठी ही इनका भोजन होता है। गेठी की कड़वाहट को चूना लगाकर बहते पानी में रात भर बांस के जालीनुमा पात्र में डाल दिया जाए तो दूर किया जा सकता है। परंतु जहां न पानी है और न चूना के लिए पैसा तो फिर ये क्‍या करें? इसी गांव की धनुआ कोरबाइन ने बताया कि इसकी कड़वाहट को कम करने के लिए वो इसे काटकर 3-4 दिनों तक मिट्टी के घड़े में डालकर रेत में दबा देती हैं और तब खाती हैं। हमने देखा कि कड़वाहट कुछ कम तो हो जाती है परंतु ऐसा भी नहीं कि इसे खाया जा सके। पर पेट के लिए तो सब करना ही पड़ता है। जीने की जिद और जज्‍बे को देखना हो तो एक बार लमटी जरूर देखें।
खैर… हम बात कर रहे थे पलामू और सुखाड़ की। बचपन में पलामू के बारे में हम कई-कई किस्‍से सुना करते थे। उन्‍हीं में से एक था मनातू स्‍टेट का किस्‍सा। मनातू स्‍टेट में जबरन लोगों को बंधुआ बना कर मजदूरी करवायी जाती थी। मना करने या आनाकानी करने पर स्‍टेट के महाराजा अपने पालतू चीता के पिंजरे में मजदूर को फेंकवा देते थे। इस डर से लोग उनके द्वारा किया जानेवाला अत्‍याचार चुपचाप सह लेते थे या फिर मौत को गले लगा लेते थे। परंतु अब न स्‍टेट रहा और न ही महाराज। फिर भी लोग तड़प रहे हैं, भूख और त्रासदी के पिंजरे से निकलने को छटपटा रहे हैं। लेकिन निकल भी नहीं पा रहे। वे न तो सुकून से जी पा रहे हैं और न ही मर पा रहे हैं। सवाल है कि मौत के मुंह में धकेलनेवाला वह शख्‍स कौन ह? सरकार, प्रशासन या फिर हम स्‍वयं… पर इतना जरूर है कि यह पिंजरा इतना मजबूत ह कि पीढ़‍ियां दम तोड़ दे रही हैं पर उबर नहीं पा रहीं। आखिर क्‍यों?
सवाल यह भी है कि जिस साल पलामू में सामान्‍य वर्षा होती है, तो वह तकरीबन 1200 मिमी तक होती है। लेकिन जब कम वर्षा होती है तो भी यह करीबन 600 मिमी तक होती है। पी साईंनाथ ने लिखा है कि कम वर्षा होने के बाद यदि ऐसे अन्‍य क्षेत्रों का तुलनात्‍मक अध्‍ययन किया जाए तो यह स्‍पष्‍ट होता है कि इससे कम वर्षा वाले क्षेत्र में भी ऐसी तबाही नहीं होती जितनी कि पलामू में। क्‍यों? कहीं यह होश की दुनिया के लोगों के द्वारा खड़ा किया गया तमाशा तो नहीं? क्‍यों नहीं वे इसका हल ढूंढ पा रहे हैं?

सचमुच यह बड़ा सवाल है और जवाब हम सब को मिलकर खोजना है।