Friday, December 30, 2011

छोटी-छोटी रेखाओं ने बदल दी परंपरा!

♦ अनुपमा

झारखंड की राजधानी रांची से निकलकर पुरुलिया जाने के रास्ते में झालदा ब्लॉक पड़ता है। झारखंड से बिलकुल सटा हुआ। जिला है पुरुलिया। इसी ब्लॉक में एक सुदूरवर्ती गांव है बोड़ारोला। पुरुलिया जिले के अन्य गांवों की तरह ही यह गांव भी है। घोर गरीबी, अशिक्षा की जकड़नवाला गांव। बीड़ी मजदूरों का गांव।

इसी गांव में मुलाकात हुई थी रेखा कालिंदी से। 14 साल की रेखा कालिंदी समुदाय से आती है। दो साल पहले रेखा ने उस गांव में क्रांति का जो बीज बोया, आज उसकी फसल उस पूरे निर्जन इलाके में काटी जा रही है। हुआ यह था कि रेखा की शादी उसके निर्धन पिता ने 12 साल की उम्र में ही तय करने को सोची। इसकी भनक रेखा को भी लगी। 12 साल की रेखा सामने आ गयी और बोली ऐसा नहीं हो सकता। अभी वह शादी नहीं करेगी। कालिंदी समुदाय की परंपरा के खिलाफ उठाया गया यह कदम था। रेखा को डांट फटकार मिली लेकिन वह नहीं मानी। उसने न कह दिया, तो उसका मतलब न ही हुआ। रेखा की घरवाले तो फिर भी जबरिया उसकी शादी करने पर तुले ही हुए थे लेकिन उसने मोबाइल फोन से पुरुलिया के लेबर कमिश्नर तक यह बात पहुंचा दी और फिर उसकी शादी रुक गयी।

रेखा को देखते ही यह सवाल जेहन में उठा कि क्या होता यदि रेखा की शादी हो ही गयी होती! आखिर उस समुदाय मे और इलाके में पीढ़ियों से ऐसा ही होता रहा है। रेखा की बड़ी बहन की शादी भी तो उसी उम्र में हो गयी थी। तीन साल में उसने चार बच्चों को भी जन्म दे दिया था लेकिन एक भी बच्चे को बचा नहीं सकी थी। रेखा कहती हैं, अपनी दीदी को देखकर ही तो मैं सिहर गयी थी और तय भी कर चुकी थी कि मेरी बारी आएगी तो ऐसा नहीं होने दूंगी। सबसे गौर करनेवाली बात यह है कि ऐसा रेखा ने सिर्फ अपने साथ नहीं किया। अपने साथ हमेशा परछाईं की तरह रहनेवाली चचेरी बहन बुधुमनी की शादी भी रेखा ने रुकवायी और फिर उसके बाद एक-एक कर अपने ही घर-परिवार की 21 लड़कियों की शादी 18 की उम्र के बाद ही करवाने के लिए रेखा ने सबको मानसिक तौर पर तैयार किया। साथ ही यह शादी रोको अभियान को पढ़ाई से भी जोड़ा। रेखा के घर की सभी लड़कियां, जो दिन भर घर में बीड़ी बनाने के कारोबार में लगी रहती थीं या वही करना उनकी नियति थी, वे स्कूल जाने लगीं और रेखा के यहां के लड़कियों की नियति यह नहीं रही कि जो जितनी तेजी से बीड़ी बनाएगा, उसकी शादी उतनी ही अच्छी होगी और उतनी ही जल्दी भी।

रेखा के इस अभियान की धमक घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर गांव के पुष्पा, सोना जैसी कई लड़कियों को प्रभाव में ले चुकी तो फिर बीड़ी छोड़ो, शादी तोड़ो अभियान का असर आसपास के गांवों में भी तेजी से होने लगा। बोड़ारोला के पास ही कुम्हारपाड़ा, कर्मकार पाड़ा के बाद झालदा, कोटशिला से पुरुलिया तक इस अभियान का क्रमशः असर हुआ। बहुत बड़े स्तर पर न सही तो बहुत छोटा दायरा भी नहीं रहा। दायरा इस मायने में भी बड़ा रहा कि इससे बीड़ी को ही जिंदगी की कसौटी मान लेने का मिथ टूटा, लड़कियों का पढ़ाई से वास्ता जुड़ा और अब कई घर में कई ऐसी लड़कियां मिलती हैं, जो स्कूल के वक्त स्कूल जरूर जाती हैं। अच्छी शादी के लिए बीड़ी पर दिन-रात हाथ नहीं फेरतीं। असर का एक नमूना तो रेखा कालिंदी के घर काफी देर बैठने के बाद विदा लेते हुए साफ दिखा।

विदा होते समय रेखा कहती है, दीदी, मैं टीचर बनना चाहती हूं। फिर धीरे से शरमाती हुई बुधनी भी दोहराती है, दीदी मैं भी टीचर ही बनना चाहती हूं। फिर एक के बाद एक पुष्पा, सोना आदि की तेज आवाज आती है, मैं भी, मैं भी…

बीड़ी के साथ जिंदगी गुजारने की नियति के साथ पैदा हुई बोड़ारोला की कई लड़कियां टीचर बनना चाहती हैं। रेखा कालिंदी के पिता कहते हैं, हम भी कोई शौक से थोड़े ही बचपन में ब्याहते थे इन्‍हें या बीड़ी में लगा देते थे, हमारी भी मजबूरी समझिए … लेकिन अब रेखा ने जो रेखा खींची है, वही हमारे परिवार की नयी परंपरा होगी।

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