Saturday, September 7, 2013

अनगढ़ इतिहास का देसी चितेरा



अपने एक मित्र से मनराखन राम किस्कू से जानकारी मिली थी. मित्र की सलाहियत थी कि एक बार मनराखन से जरूर मिलूं. कुछ माह पहले रांची के हरमू स्थित आवास पर उनसे मिलने गयी थी. करीब 65-70 साल के किस्कू सामने होते हैं. स्वभाव से बेहद सरल, सहज. विनम्रता से बैठने का इशारा करते हैं. अंदर कमरे से ध्वनी यंत्र लेकर आते हैं, कान में फिट करते हैं. फिर बातचीत शुरू हो जाती है. साधारण लहजे में. हिंदी में स्थानीय बोली की मिलाहट के साथ. अपने अंदाज मंे इतिहास के एक अनसुलझे, अनगढ़ अध्याय को सामने खोलते जाते हैं मनराखन. कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं करते. हर बात के आखिरी में तकियाकलाम की तरह यह जरूर जोड़ते हैं कि ऐसा लगता है, बाकि सच का है, ई तो इतिहासकार, जानकार लोग बतायेगा न!
मनराखन राम सच्चाई की पड़ताल करने के लिए बार-बार इतिहासकारों और जानकारों का हवाला देते हैं लेकिन सच यह है कि 15 साल तक अदम्य जीजीविषा के साथ जिन विषयों पर उन्होंने खुद अध्ययन किया है, जो तथ्य निकाले हैं, उसके पीछे जो तर्क हैं, उन्हें खुद एक इतिहासकार बनाता है. अनगढ़ और देसज चेतना से लैस खोजी इतिहासकार. भले ही उनका इतिहास बोध पारंपरिक इतिहास लेखन कला के खाके में फिट न बैठता हो. मनराखन ने गंभीर अध्ययन के बाद यह तथ्य सामने लाये हैं कि गौतम बुद्ध और आदिवासी समाज के बीच बहुत ही गहरा रिश्ता रहा है. और अगर उनके तथ्यों और तर्कों को सुनेंगे तो यह भी लगेगा कि आदिवासी समाज बुद्ध के सच्चे अनुयायी हैं और बुद्ध आदिवासी परंपरा के ही ज्ञानवान, विवेकी नायक थे.
मनराखन कहते हैं. मैंने तो मामूली सरकारी नौकरी में जिंदगी गुजार दी लेकिन किशोरावस्था से ही मन में कई सवाल चलते रहते थे. सोचता था कि फूलों का राजा तो गुलाब होता है. जंगल में चंपा-चमेली सी सुगंधित व खूबसूरत फूलों की भी कमी नहीं थी. फिर सबको छोड़कर आदिवासी समाज सखुआ फूलों से इतना मोह क्यों रखता है? क्यों सरहुल जैसे महत्वपूर्ण त्योहार में भी सखुआ ही प्रधान बन गया होगा? क्यों सखुआ ही सरना वृक्ष बना होगा, पेड़ तो और होंगे या अब भी होते हैं? मनराखन ने इन सवालों का पीछा करना शुरू किया और फिर इस एक सवाल के जवाब में कई सवालों का जवाब भी पाते गये. मनराखन कहते हैं, अब थोड़ी जिज्ञासा शांत हुई है लेकिन अब भी इतिहासकार इस ओर ध्यान नहीं देते, सो लगता है कि कहीं मैं अपने गलत-सलत अनुभव से कोई बेजां नतीजा तो नहीं निकाल रहा न!
बकौल मनराखन, आप इतिहास में जायें तो पायेंगे कि बुद्ध का जन्म सरना वृक्ष के शालकुंज में हुआ और उनका महापरिनिर्वाण भी सखुआ वृक्ष के नीचे ही. बौद्ध धर्म में जब महायान और हीनयान नाम से दो अलग-अलग धाराएं निकलीं तो हीनयान ने धम्मचक्र और वृक्ष को अपनाया. महायानी मूर्ति की पूजा करने लगे. मनराखन कहते हैं कि ऐसा लगता है आदिवासी हीनयानी राह पर चले. बौद्धकाल से पहले कभी भी कहीं आदिवासी जीवन में शाल वृक्ष की महत्ता की चर्चा नहीं मिलती. डीडी कौशांबी के इतिहास के किताबों का हवाला देते हुए मनराखन कहते हैं- कौशांबी ने साफ-साफ लिखा है कि  बुद्ध का गोत्र नहीं बल्कि टोटम था, जो शाल ही था. अब यह तो सब जानते हैं कि टोटम आदिवासी समाज में ही होता है. मनराखन फिर प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ राधाकुमुद मुखर्जी की किताब का हवाला भी देते हैं कि उन्होंने भी कहा है कि बुद्ध का कुल मूल कोल मुंडा ही था. एक और किताब डॉ रघुनाथ सिंह द्वारा लिखित बुद्ध कथा का हवाला देते हैं. डॉ रघुनाथ सिंह ने लिखा है कि बुद्ध की माता महामाया देवदह नामक राज के कोल राजा की पुत्री थी.
एक-एक कर ऐसी कई बातें सामने रखते हैं मनराखन और आखिरी में यह जरूर दुहराते रहते हैं कि मै। खुद कुछ नहीं कह रहा बल्कि मेरे मन मंे तो सिर्फ कुछ सवाल उठे थे जिनके जवाब की तलाश में ये सब तथ्य मिले. वे बताते हैं कि नौकरी के दौरान रांची,पटना, गया जहां-जहां भी उनका जाना होता रहा, वहां की लाइब्रेरियों में वे अपने सवाल के जवाब की तलाश में किताबें पलटते रहे. सामथ्र्य के अनुसार कुछ किताबें भी खरीदते रहे.
मनराखन खुद को कभी इतिहासकार नहीं मानेंगे लेकिन उनकी बातों पर इतिहास के अध्येताओं को ध्यान देने की जरूरत है. चलते-चलते आखिरी में वे एक सवाल पूछते हैं. कंकजोल प्रदेश को जानती हैं आप? वहां एक कंजंगला नामक आदिवासी महिला रहती थी, कभी सुनी हैं उनके बारे में? न में सिर हिलाने पर वे बताते हैं. कंकजोल प्रदेश आज के संथाल परगना इलाके को ही कहते थे. वहीं पर एक बार वर्षावास के दौरान कंजंगला और बुद्ध का आमना-सामना हुआ था. बुद्ध ने कंजंगला को महाविदुषी कहा था. कंजंगला ने उनके शिष्यों से बुद्ध के नियम पर सवाल उठाये थे. बद्ध खुद कंजंगला के पास पहुंचे थे श्ंाका समाधान करने और उसके बाद कंजगंला के सवालों की ताकत देखकर उन्होंने उन्हें महाविदुषी कहा था. कंजंगला के मन में तब बुद्ध के प्रति उठे सवालों आदिवासियों के बौद्ध धर्म से जुड़ाव की ओर संकेत देते हैं उस संकेत को छोड भी दे तो आदिवासी इलाके से बुद्ध के गहरे जुड़ाव के और संकेत तो मिलते ही रहे हैं. झारखंड में इटखोरी, गौतमधारा आदि उसके प्रमाण हैं. यह प्रमाण मिथ हो या हकीकत लेकिन गंवई चेतना से लैस अनगढ इतिहास के अध्येता मनराखन की बातों में तो दम है. उन्हें इतिहासकार न भी माने तो भी इतिहास का एक छोर तो वे थमा ही रहे हैं नयी व्याख्या के लिए, नये तरीके से समझ बढाने के लिए

गोपाल दा को जानते हैं आप!



पांकुड़ में कुछ लोगों ने बताया कि आप मलूटी जाये तो वहां एक मुखर्जी दा रहते थे, पता नहीं, अब वे हैं या नहीं. अगर होंगे तो उनसे जरूर मुलाकात कीजिएगा. वही मालूटी का इतिहास-भूगोल सबसे अच्छे से बतायेंगे. मलूटी का नाम तो शुरू से जानती थी लेकिन गोपाल मुखर्जी का नाम पहली बार सुन रही थी. पाकुड़ से मलूटी के लिए निकलते वक्त मन में उत्सुकता, जिज्ञासा के साथ चली. बेहद थका देनेवाली यात्रा होती है, सुनसान रास्ता अलग किस्म की उब पैदा करता है लेकिन झारखंड की आखिरी सीमा तक पहुंचने की बेताबी भी उतनी ही थी. मलूटी पहुंचकर देश के अनोखे और संभवतः टेरकोटा कला के इकलौते मंदिरों के गांव को देखना चाहते थे. एक छोटे से गांव में 72 अनोखे, अद्भुत और बेजोड़ कलाकृतियों वाले मंदिरों को देखने को बेताब था मन.
मलूटी पहुंचते ही हम भी मंदिरों की तलाश करने की बजाय गोपालदास मुखर्जी का ही पता-ठिकाना पहले पूछते हैं. वे घर पर ही होते हैं. एक झोपड़ीनुमा घर के बरामदे में. उम्र के 83वें साल में प्रवेश करने पर काया जर्जर होती जा रही है. जहां बैठे होते हैं, पास में एक लकड़ी का बक्सा रखा होता है, होम्योपैथी दवाओं के साथ. गोपाल दास मुखर्जी से मलूटी की चर्चा करते ही पहले निराशा के गहरे गर्त में समा जाते हैं. फिर तुरंत किसी नौजवान की तरह ऊर्जा से लैश हो जाते हैं. बच्चे की तरह बार-बार अपने कमरे में जाते हैं, फाइलों का ढेर उठाकर लाते हैं. एक-एक कर दिखाते हुए इतिहास-भूगोल से लेकर वर्तमान-अतीत तक के बारे में बताते है. कहते हैं- आप जिस गांव में है, वह मंदिरों का गांव है. मंदिरों का शहर तो मदुरै, काशी है लेकिन मंदिरों का गांव कहने पर हिंदुस्तान में यही एक अकेला गांव है, जिसे देश और राज्य में भले न जाना जाये लेकिन दुनिया भर में जरूर जाना जाता है. अतीत यह है कि विष्णुपुर के मल्ल राजाओं के युग में यह गांव महुलटी नामक छोटा-सा गांव हुआ करता था.17वीं सदी के अंत में इस गांव में आकर ननकर राज्य के राजाओं ने अपनी राजधानी बनायी. ननकर का मतलब करमुक्त राज्य से होता है. राजधानी बनने के 100 साल बाद तक उस वंश के राजाओं ने इस गांव में लगातार मंदिर बनवाये और यह संख्या 108 हो गयी. अधिकांश मंदिर शिव के थे, कुछ दूसरे-देवी देवताओं के भी लेकिन राजवंश का सूर्य अस्त हुआ तो  मंदिरों की भी दुर्दशा शुरू हो गई. लेकिन 300 घरों की इस बस्ती में अब भी 72 मंदिर मौजूद हैं, जो जर्जर होने के बावजूद जीवंतता से अपने अतीत की कहानी को बयां करते हैं.
गोपाल दास मुखर्जी से मलूटी मंदिरों के संदर्भ में बातचीत छेड़ने भर से उनका इस कदर उत्साहित होना, सहज और स्वाभाविक भी होता है. वे पिछले चार दशक से मंदिरों को ही तो जी रहे हैं एक जिद, जुनून के साथ विरासत को बचाने की जंग लड़ रहे हैं वे. उनकी ही कोशिशों का तो नतीजा रहा है कि आज कम से कम मंदिर के पास राज्य सरकार की ओर एक गेस्ट हाउस बन गया है, दुनिया के रिसर्चर पहुंचने लगे हैं. गोपाल दास इसके लिए वेबसाइट चलाते हैं, रोज चिट्ठी पत्री लिखते हैं, दुनिया भर से लोगों को मलूटी बुलाते हैं और जो संधान-अनुसंसधान और शोध के लिए आते हैं, इस उम्र में भी उनका गाइड बनकर उन्हें घूमाते हैं, उन्हें जरूरी तथ्य मुहैया कराते हैं. गोपाल दास मुखर्जी ने मलूटी पर एक पुस्तिका ही छपवा ली है, जिसे वे बहुत प्रेम से आने वालों को देते हैं और शुल्क के तौर पर सिर्फ यही कहते हैं कि संभव हो तो मंदिरों के इस अनुठे गांव के बारे में देश-दुनिया को बताइयेगा.
गोपाल दा से और भी ढेरों बातें होती हैं. हम मलूटी देखने गये थे, मलूटी की तरह ही गोपाल दा को जानने में भी रुचि जग जाती है. वे पेशे से मास्टर रहे हैं. मास्टरी के दौरान ही होम्योपैथी डॉक्टरी भी सीख लिया था, जिसका इस्तेमाल अब वे गांव-इलाके के लोगों के मुफ्त इलाज में करते हैं. मास्टर-डॉक्टर बनने के पहले वे फौजी थे. फौज से अपने गांव लौटने के बाद उन्होंने दो चीजें एक साथ शुरू की. एक मास्टरी और उसके साथ ही अपने गांव की विरासत को बचाने की जंग. वर्षों की जंग का परिणाम यह भले न रहा हो कि सरकारें मलूटी जैसे दुर्लभ प्राचीन व पुरास्थल को बचाने के लिए बेचैन हो गयी हों लेकिन एक बड़ा असर यह जरूर हुआ कि मलूटी दुनिया भर में ख्यात हो गया।  झारखंड और बंगाल के ठीक बोर्डर एरिया पर बसे इसे छोटे से गांव में तमाम दुस्सवारियों के बावजूद देश-दुनिया के लोग यहां पहुंचने लगे. इस विडंबना के साथ ही सेव हेरिटेज एंड इनवायरमेंट जैसी प्रतिष्ठित संस्था ने इसे दुनिया के 12 मोस्ट इंडेंजर्ड कल्चरल हेरिटेज की साइट में भी डाल दिया है. इस सूची में यह भारत की इकलौती विरासत है. मुखर्जी कहते हैं- दुर्भाग्य है इस स्थान का कि यह बिहार-झारखंड के हिस्से में है. मुखर्जी यह बात कहते हैं तो महज स्वयं बंगाली होने की वजह से नहीं. वे चंद कदमों की दूरी पर बसे बंगाल के वीरभूम में इसके न जाने की कसक को भी बयां नहीं करते. यह कसक इस वजह से कि 80 के दशक से आग्रह और अनुनय के बावजूद सरकारी तंत्रों से लड़ते-लड़ते निराश भी हो चुके हैं। और यह सच है कि अगर गोपाल दास मुखर्जी ने अपने गांव के विरासत को बचाने-सहेजने-संरक्षित कने का अभियान न छेड़ा होता तो मलूटी न तो दुनिया के फलक पर आया होता, न उसे लेकर राज्य की सरकार जगी होती.
मुखर्जी दा से बात करने के बाद हम गाव की गलियों मे मंदिरों को देखने निकलते हैं। एक-एक कर मंदिर सामने आते जाते हैं, कलाकृतियों की शैली मन मोहते जाती है और उपेक्षा का दंश झेलते मंदिर खुद सच बयान करते जाते हैं। इसी गांव में एक मौलीक्षा मां का मंदिर भी है, जहां इलाके के लोगों की भीड़ जुटती है, साल में दो-तीन बार बड़े आयोजन भी होते हैं. इस मंदिर के पास ही राज्य सरकार के पयर्टन विभाग ने एक गेस्ट हाउस भी बनाया है, जो बनने के बावजूद संचालक के अभाव में लंबे समय तक बंद पड़ा रहा, अब जाकर किसी तरह वहां सेवा शुरू की जा रही है. झारखंड के दुमका जिले के शिकारीपाड़ा प्रखंड में अवस्थित इस मंदिर गांव की गलियों में घूमते हुए कई नये अनुभवों से हम गुजरते हैं. मन में सवाल आते हैं कि क्या इसकी स्थिति ऐसी ही होती यदि ऐसी ही कोई विरासत दक्षिण के किसी राज्य में होती! यह भी सवाल कौंधता है कि जब हर साल इस गांव को देखने फ्रांस, इंगलैंड, अमेरिका आदि देशों से शोधार्थी और पर्यटक पहुंचते हैं, कोलकाता के शांतिनिकेतन से हर साल यहां काफी संख्या में लोग आते हैं, फिर झारखंड या इसके पहले बिहार की सरकार ने आध्यात्मिक,धार्मिक, पुरातात्विक व ऐतिहासिक पर्यटन की तमाम संभावनाओं से भरे इस स्थल को लेकर वह उत्साह या गंभीरता क्यूँ नहीं दिखाईं? अगर सोचा गया होता तो यह गांव अब तक देश का खास टूरिस्ट विलेज तो बन ही गया होता.
जवाब मिलता है, सीमावर्ती दूरस्थ क्षेत्र में बसे होने की कीमत भी चुका रहा है। अगर यह किसी शहरी क्षेत्र में होता तो सरकारें जरूर सक्रिय हुई होतीं. तब शायद वे भी इसको अपना ही मानते और इस पर गर्व करते, जो मंदिर को देश की सांस्कृतिक पहचान बताते नहीं अघाते और मंदिर-मंदिर खेलने की कला मे पारंगत भी हैं। इसकी उपेक्षा का आलम यह रहा कि 1980 तक तो मंदिरों के इस गांव पर सरकारों का कोई खास ध्यान ही नहीं गया, जबकि पास में बंगाल में अवस्थित तारापीठ नामक मंदिर तेजी से देश भर में ख्याति प्राप्त करता रहा. 1981 में गोपाल दास मुखर्जी ने केंद्र से इन मंदिरों को बचाने और विकसित करने के लिए संवाद स्थापित करना शुरू किया. केंद्र ने रुचि भी दिखायी लेकिन वर्ष 1983  में बिहार सरकार ने भी गजट पास कर दिया और यह राज्य की धरोहर बन गयी. तब संरक्षण की दिशा में थोड़ा काम शुरू हुआ. 1996 तक छिटपुट चलता रहा लेकिन उसके बाद बंद हो गया. फिर वर्ष 2000 में राज्य का बंटवारा हुआ और मलूटी झारखंड के हिस्से में आ गया. आरंभ के कुछ सालों तक झारखंड सरकार का तो इस ओर ध्यान ही नहीं गया लेकिन कोर्ट के एक आदेश के बाद राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को इसके संरक्षण का काम सौंपा. तीन साल तक काम भी चला, करीब 12 मंदिरों को जैसे-तैसे संरक्षित करने की खानापूर्ति भी हुई, फिर बंद. इस संदर्भ में जब राज्य सरकार के कला-संस्कृति विभाग में पुरातत्व के उपनिदेशक डॉ अमिताभ से बात होती है तो वे कहते हैं कि राज्य सरकार ने 2004-05 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को 40 लाख रुपये इसके संरक्षण के लिए दिये थे. संरक्षण का काम कितना बढ़ा है यह उसी विभाग के अधिकारी बतायेंगे. डॉ अमिताभ यह भी बताते हैं कि हमलोगों को पता है कि यह राज्य में इकलौता जीवंत (लीविंग) पुरातात्विक साइट है, जहां आज भी लोग देखने जाते हैं, पूजा-पाठ भी करते हैं इसलिए हमलोग इसके लिए तेजी से कोशिश कर रहे हैं. चार महीने पहले कोलकाता में हुई बैठक में यह तय हुआ और इसे विश्व धरोहरों की श्रेणी में शामिल करवाने का आवेदन भी किया गया है. संरक्षण का काम न होने बीच में छोड़ दिये जाने की बात जानने के लिए हम भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पुरातात्विक अधीक्षक एन जी निकोसे से बात करते हैं. बकौल निकोसे, ‘‘ राज्य सरकार से हमें 30 लाख रुपये दिये गये थे. हमने 20 लाख का काम कर दिया है. एक से लेकर 15 नंबर तक के मंदिर के संरक्षण का काम हुआ है, शेष दस लाख रुपये का काम भी मार्च के बाद होगा. चूंकि हमारे पास स्टाफ एक ही है, एक ही इंजीनियर है और यह सिविल डीपॉजिट वर्क है, इसलिए थोड़ा विलंब हुआ है. निकोसे पुरातत्वविद हैं. वे मंदिरों को संख्या के अनुसार बताते हैं कि कितने का काम हो गया है, कितने का बाकी है. वे पैसों की भाषा में भी समझाते हैं कि इतने का काम हुआ है, इतने का बाकी है. वे सिविल डीपॉजिट जैसे शब्दावलियों के जरिये भी समझाते हैं. वे अपने अनुसार सही ही समझाते हैं लेकिन सदियों पूर्व बने मलूटी के मंदिरों को शायद ही यह भाषाएं समझ में आये. वे मंदिर इतने वर्षों तक भी बिना किसी संरक्षण-संवर्धन के टिके हुए हैं तो यह उनकी अपनी मजबूती है. धंसते, गिरते हुए भी वे अपने अस्तित्व के साथ खड़े हैं और फिर खड़े होने की संभावनाओं को बचाये हुए हैं तो यह उनके निर्माण की ही खासियत है. लेकिन विरासत को बचाने की तकनीक ने साथ नहीं दिया तो मंदिर ज्यादा दिनों तक तकनीकि शब्दावलियों को सुनकर आश्वासन पर शायद टिक न पाएं. कुल 108 मंदिरों में से अब केवल 72 ही बचे हैं.
चलते-चलते गोपाल दास मुखर्जी कहते हैं. व्यक्तिगत तौर पर मेरा कोई स्वार्थ नहीं. इस उम्र में प्रसिद्धि या मलूटी के नाम पर कुछ पा लेने की आकांक्षा नहीं. अपनी माटी पर मलूटी है, माटी का मोह है, यह संवर जाये,आनेवाली पीढ़ियों का भला हो, बस इतना ही.

रंगमंच की संभ्रांत दुनिया में आदिवासी सवालों की दस्तक




 फेविकोल. यह नाम अब तक विज्ञापनों के जरिये अटूट और मजबूत जोड़ का अहसास न जाने कितने वर्षोें से कितने-कितने रूपों में कराता रहा है. फेविकोल नाम लेने से ऐसा ही कुछ अहसास भी होता है. लेकिन पिछले कुछ माह से फेविकोलनाम लेने से एक दूसरा अहसास भी होने लगा है. यह अहसासपन अभी एक छोटे दायरे में सिमटा हुआ है लेकिन दस्तक मजबूत है, फैलाव जारी है. फेविकोल का नाम अब एक नाटक की ओर भी इंगित करता है, जो पिछले कुछ माह से आदिवासियों की दुनिया में आत्मीय सरोकार बनाते हुए उन्हें आंदोलित कर रहा है, प्रेरित कर रहा है और अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाने का हौंसला भी दे रहा है. आदिवासियों की लड़ाई को एक धार, दिशा और मजबूती देने के लिए रंगकर्म को माध्यम बनाने का यह प्रयोग फेविकोलनाटक के जरिये झारखंड के एक नौजवान रंगकर्मी जीतराई हांसदा ने किया है. नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा से प्रशिक्षित रंगकर्मी जीतराई कहते हैं, ‘‘फेविकोल का विज्ञापन देखता था. एक वाक्य आता है- जोड़ टूटेगा नहीं. वहीं से नाटक के शीर्षक की प्रेरणा मिली और मैंने तय किया कि आदिवासियों का भी अपनी जमीन से जो जोड़ है, वह कभी नहीं टूटेगा, तब अपने नाटक का नाम फेविकोल ही रख दिया.’’
जीतराई कहते हैं, जब एनएसडी में पहुंचा, तभी तय किया कि यहां से निकलूंगा तो अपनी माटी, अपने लोगों के लिए सबसे पहले काम करूंगा या यूं कह सकते हैं कि उसी काम को करने के लिए संघर्ष कर एनएसडी तक पहुंचा भी. जीतराई सही ही कहते हैं. उनके नाटक फेविकोलको देखकर आदिवासी दुनिया का संघर्ष तो लोग समझ जाते हैं लेकिन इस नाटक को रचने और तैयार करनेवाले जीतराई ने इसके लिए कितना संघर्ष किया, इसे कम लोग ही जानते हैं और जीतराई अपने बारे में ज्यादा बताना भी तो नहीं चाहते.
जीतराई हांसदा झारखंड के कोल्हान इलाके से ताल्लुक रखते हैं. सरायकेला-खरसांवा के निकट मकबन बेड़ा गांव में मार्च 1975 में जनमे. पिता किसान थे, मां घरेलू महिला. आठवीं में पढ़ते थे, तभी मां-बाप का साथ छुट गया. 12 साल की उम्र में बुआ के साथ रहने आ गये. चार साल में बुआ भी चल बसी. जीतराई के सामने मुश्किलों का पहाड़ खड़ा हुआ. जीतराई बचपन से नाटक का शौक रखते थे लेकिन आगे जिंदगी ही मुश्किल हो गयी तो नाटक कहां से कर पाते लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. वे बताते हैं, किसी तरह हमने 1993 में मैट्रिक की परीक्षा पास की, फिर बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी कर ली लेकिन उसके बाद पढ़ना संभव नहीं था लेकिन मैं पढ़ना चाहता था. सात साल तक पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी. मजदूरी करने लगा लेकिन 2000 मंे फिर तय किया कि मजदूरी करते हुए ही पढूंगा. बकौल जीतराई, वे कुछ दिनों तक दिहाड़ी मजदूरी का काम किये, फिर वेल्डिंग करने लगे, फिर दर्जी का काम करने लगे और यह सब करते हुए उन्होंने सात साल बाद स्नातक की पढ़ाई भी शुरू कर दी थी और साथ में नाटक भी. छह साल में ग्रेजुएशन की परीक्षा पास कर सके. झारखंड के ही घाटशिला में रहकर पढ़ाई भी कर रहे थे, मजदूरी भी कर रहे थे और मौका मिलते ही नाटक भी कर रहे थे. अपनी फुआ के नाम पर उन्होंने जेबीन आर्टिस्ट एसोसिएशन आॅफ ट्राइबल्स नाम से गु्रप भी बना लिया और गांव के कलाकारों के साथ मिलकर होपोन मईयानि छोटी बहन जैसे नाटक भी आदिवासी भाषाओं में करते रहे. जीतराई बताते हैं कि 2007 में जमशेदपुर में उन्हें एक ड्रामा वर्कशोप में भाग लेने का मौका मिला तो वहां उन्हें रोहिन दास नामक प्रशिक्षक ने एनएसडी के बारे में बताया. जीतराई के पास न पैसे थे, न संसाधन लेकिन उनके सिर पर एनएसडी जाने का भूत सवार हुआ. 2008 में उन्होंने कोशिश की, नाकाम रहे, फिर अगले साल 2009 में उन्होंने दुबारा कोशिश की और इस बार सफल हो गये. बकौल जीतराई, एनएसडी गया तो तमाम तरह के प्रयोगों को देखता रहा और रंगकर्म की बारीकियों को समझता रहा लेकिन जेहन में हमेशा यही चलता रहा कि इन सबका प्रभावकारी इस्तेमाल अपने आदिवासी समाज के लिए किस हद तक और किस रूप में कर सकूंगा! दिन-रात की इसी सोच के परिणाम के तौर पर उनका नाटक फेविकोलसामने आया.
फेविकोल का रिस्पांस कैसा है, यह पूछने पर जीतराई कहते हैं कि आदिवासियों को तो स्वाभाविक तौर यह नाटक पसंद आ रहा है और इसे वे अपने सबसे करीब मान रहे हैं लेकिन दूसरे संघर्षशील साथी भी इसे बेहद पसंद कर रहे हैं. जीतराई कहते हैं कि मैंने बचपन से ही महसूसा है कि आदिवासी समाज को जमीन से बहुत मोह है. आप जानती होंगी कि आदिवासी जब अपने बच्चों का नाभी भी काटते हैं तो तीर से ही काटते हैं और फिर तीर से ही जमीन खोदकर उसमें गाड़ते हैं. यह परंपरा उनके जमीन से लगाव की वजह से ही सदियेां से चली आ रही है, लेकिन आज आदिवासियों को सबसे पहले अपनी जमीन से ही बेदखल किया जा रहा है तो हमेशा दुख होता है.
फेविकोल के बाद क्या अगला नाटक भी आदिवासी विषय पर ही होगा. जीतराई कहते हैं, आदिवासी विषय पर रंगकर्म के जरिये बहुत काम करना बाकी है, इसलिए फिलहाल मैं किसी दूसरे विषय के बारे में सोच भी नहीं सकता. आदिवासियों के बारे में बहुतेरे साहित्य लिखे गये, लिखे भी जा रहे हैं. उसका अपना महत्व है लेकिन साहित्य वे पढ़ नहीं पाते जबकि नाटक के जरिये वे सीधे संवाद स्थापित करते हैं और अपनी चुनौतियों को एक स्वर देने के लिए प्रेरित होते हैं, इसलिए मैं लगातार अपने लोगों के लिए नाटक करता रहूंगा. जीतराई बताते हैं कि फेविकोल के बाद एक साथ तीन नाटकों पर वे काम कर रहे हैं और तीनों आदिवासी विषयों पर ही है और दो-तीन माह के अंदर सभी का प्रदर्शन भी शुरू होगा. पहला नाटक -जोहार झारखंड है, जो संथाली और हिंदी में एक साथ तैयार हुआ है. इस नाटक के जरिये हम यह बतायेंगे कि बिहार से अलग होकर झारखंड नाम से एक राज्य तो बन गया लेकिन झारखंडियों को अपना हक पाने के लिए एक और लड़ाई लड़नी होगी. दूसरा नाटक बिलोर बिट्टी नाम से तैयार हुआ है, जिसके जरिये हम यह दिखायेंगे कि कैसे आदिवासी महिलाओं के साथ छल हो रहा है और जमीन हथियाने के लिए भोली-भाली आदिवासी महिलाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है. और इसी कड़ी में तीसरा नाटक निटबिटनाम से तैयार हो रहा है, जो आदिवासी समाज के पलायन पर होगा. जीतराई कहते हैं कि हम किसी एक खास वर्ग, जाति,समुदाय को निशाने पर नहीं लेना चाहते  िकवे आदिवासी का शोषण कर रहे हैं बल्कि कारपोरेट से लेकर माओवादी तक आदिवासियों का शोषण और इस्तेमाल ही तो करते हैं, हम अपने लोगों को अपने नाटकों के जरिये यही बताने की कोशिश करेंगे.
जीतराई अपने साथियों के साथ कभी जमशेदपुर में रहकर तो कभी दिल्ली जाकर आगामी तीन नाटकों की तैयारी में लगे हुए हैं और साथ ही फेविकोल का प्रदर्शन भी जारी रखे हुए हैं. उनके नाटकों के विषय इतने सख्त, मजबूत और चुनौती देनेवाले हैं कि मुख्यधारा की मीडिया उन्हें, उनके नाटकों को ज्यादा तरजीह देने को तैयार नहीं. यह आदतन हो रहा है या इरादतन, जीतराई इस पर कुछ नहीं कहते. वे बस हंसते हुए कहते हैं- हम मीडिया में प्रसिद्धी पाने के लिए नाटक कर भी नहीं रहे, अपने लोगों को जगाने के लिए कर रहे हैं, उन्हें एक आवाज देने के लिए, उनकी आवाज को एक धार देने के लिए कर रहे हैं, उसमें सफल हो रहे हैं, और क्या चाहिए...!

Friday, September 6, 2013

चुनौतियां अपार, जलवा बरकरार



गा, मकरध्वज दारोघा को अचानक से पंख लग गये हो. हम जिज्ञासा और सवालों के साथ छउ के इतिहास, वर्तमान और भविष्य पर कुछ जानने के लिए उनसे बात क्या छेड़ते हैं, किसी बच्चे जैसा उत्साह और उमंग लिये हमें तुरंत नृत्य ही दिखा देने को मचलने लगते हैं. अपने घर के उस एक छोटे से कमरे में, जहां हमारी मकरध्वज से मुलाकात होती है, उसी कमरे में कुर्सी पर बैठे-बैठे ही बैठे-बैठे बिना ताल के ताल बिठाने की कोशिश करने लगते हैं. बुदबुदाते हैं- ता- थइया, हे- रे-ता-थइया... उनके हाथ दैहिक भाषा में बात करने को उठने लगते हैं, पांवों में थिरकन साफ-साफ दिखती है. छोटा-सा कमरा भाव-भंगिमा दिखाने की इजाजत नहीं देता, वह उठते हैं, दे-दा, देने-दा... जैसा कुछ धुन गुनगुनाते हुए घर के अहाते के ही छोटे-से बगान में आने का इशारा कर आगे बढ़ जाते हैं. थोड़ी खुली जगह में आते ही एक बार फिर से नृत्य की भाव-भंगिमा दिखाते हैं. खुद को ही संतुष्ट नहीं कर पाते शायद. पड़ोस में रहनेवाली अपनी एक शिष्या भारती को बुलाते हैं. वह तलवार-ढाल लेकर आती है. फिर दोनों का प्रदर्शन शुरू होता है. मकरध्वज धुन गुनगुनाते हैं, दैहिक भाषा के साथ इशारा करते हैं, भारती उसका अनुसरण करती है. यह दृश्य देखते ही बनता है. गुरू-शिष्या उस छोटे खुले मैदान में ही करीब दस मिनट तक अभ्यास प्रदर्शन करते हैं.
लोक परंपरा और शास्त्रीयता के अद्भुत मेल वाले छउ नृत्य का यह अभ्यास प्रदर्शन हम मकरध्वज दारोघा के सरायकेला स्थित आवास पर देखते हैं. सरायकेला यानि छउ नृत्य की नगर. कहने के लिए और देखने में भी एक छोटा-सा कस्बानुमा शहर है लेकिन इस एक खास नृत्य की वजह इस छोटी-सी नगरी को देश-दुनिया भर में जाना जाता रहा है. 78 वर्षीय मकरध्वज दारोघा कुछ देर तक नृत्य दिखाने के बाद गहरी सांस लेते हुए कहते हैं. ‘‘ सच कहूं तो जैसे ही छउ नृत्य की बात होती है, नृत्य करने को मेरी नसें फड़फड़ाने लगती हैं. मैं इसके महत्व,इसकी ऐतिहासिकता, वर्तमान समय में इस नृत्य के महत्व को अधिक से अधिक लोगों को बताना चाहता हूं, इसलिए रहा न गया तो पूरे भाव-भंगिमा में आपको बताने-दिखाने की कोशिश की.’’
जिस मकरध्वज दारोघा से हम घंटों बातें करते हैं, जो अपनी शिष्या के साथ नृत्य कर हमें दिखाते हैं,वे कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं है. भारत सरकार ने तो उन्हें 2011 में पद्मश्री देकर सम्मानित किया लेकिन सरायकेला के इलाके में वे पिछले छह दशक से नृत्यगुरू के रूप में मशहूर हैं. आसपास के गांव-गांव की गलियांे में उन्हें मान-सम्मान प्राप्त है. आठ साल की उम्र में खुद इस विधा से जुड़ गये थे मकरध्वज और तब से लेकर आज तक छउ की दुनिया में ही रहते हैं. दिन-रात छउ को ही जीते हैं. उन्होंने कई पौराणिक आख्यानों पर नये तरीके से छउ नृत्य विकसित किये और निःशुल्क गांव-गांव घूम-घूमकर नौजवानों को प्रशिक्षित किया. मकरध्वज कहते हैं,‘‘ आखिरी समय तक यही करना चाहता हूं.’’
सरायकेला के इलाके में सुबह से शाम तक गुजारने पर छउ को लेकर दिवानगी, रोमांच का भाव गांव की गलियों से लेकर शहर के चौरस्ते तक इसी तरह दिखता है. मकरध्वज दारोघा तो खैर श्रेष्ठ नृत्य गुरू हैं लेकिन नयी पीढ़ी में भी कई नौजवान मिलते हैं, जो मकरध्वज की तरह बनना चाहते हैं, यह जानते हुए भी इस नृत्य में जिंदगी गुजार देने के बाद भी आखिरी मंे फकत मुफलिसी ही नसीब होने की नियति है. सरायकेला में घूमते हुए यह जानना भी बेहद दिलचस्प होता है कि उस छोटी सी नगरी की खास नृत्य छउ ने सिर्फ मकरध्वज दारोघा को पद्मश्री पाने के मुकाम तक नहीं पहुंचाया है बल्कि वहां के आधे दर्जन कलाकार पिछले दो दशक में एक नृत्य के जरिये पद्मश्री के हकदार बने हैं. राजा सुद्धेंद्र नारायण सिंह, केदार नाथ साहू, गोपाल दुबे, मंगला मोहंती, श्यामाचरण पति जैसे कई और नाम भी हैं अथवा हुए. सुद्धेंद्र नारायण सिंह और केदार नाथ साहू को छोड़ चार पद्मश्री प्राप्त कलाकार अभी जीवित हैं और अपने-अपने तरीके से सक्रिय भी.
फिलहाल छउ नगरी में और आसपास के इलाके में छउ की हालत अभी कैसी है, उस पर बात करने पहले थोड़ी बात इसी पर कर लेते हैं कि आखिर क्यों खास है यह नृत्य शैली और क्या है इसमें खास? क्यों गांव की गलियों से लेकर दुनिया भर में इसके प्रति दिवानगी समय-समय पर दिखते रही है? क्यों तेजी से बदलते इस समय में भी झारखंड के एक कोने में बसे कोल्हान इलाके में नये उम्र के युवक-युवतियों के बीच भी मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय माध्यम छउ ही बना हुआ है? यह जानकारी हम सरायकेला राजदरबार में पहुंचकर लेते हैं. जानकारी के लिए राजदरबार पहुंचने की ठोस वजह होती है. इलाके में यह सर्वमान्य धारणा है कि छउ को विकसित करने, प्रोत्साहित करने, संरक्षित करने और छउ नृत्य के साथ ही इसके कलाकारों को एक मुकाम तक पहुंचाने में सरायकेला राजघराने की भूमिका शुरू से महत्वपूर्ण रही है. सरायकेला राजघराना 19वीं सदी के आरंभ से ही श्री कला पीठनामक संस्था के जरिये छउ कलाकारों को प्रशिक्षित करने, प्रशिक्षण के बाद उनके लिए प्रदर्शन के लिए मंच देने, छउ को लेकर उत्साह बरकरार रखने के लिए प्रतियोगिता आदि आयोजित करने का काम करता रहा है. और इन सबसे बड़ी बात यह कि खुद राजपरिवार के लोग इस नृत्य से पूरे मनोयोग और दिवानगी के साथ जुड़कर कलाकार बनते रहे हैं. सरायकेला राजघराने का छउ से कितना गहरा रिश्ता रहा होगा, इसका अहसास राजमहल में पहुंचने पर भी होता है. दिवारों पर कई तसवीरें दिखती हैं, जिनमें अधिकांश छउ से ही संबंधित होती हैं. सामने दूसरी ओर दिवार पर एक कतार में मुखौटे सजे होते हैं, जो छउ नृत्य में इस्तेमाल किये जानेवाले होते हैं. राजमहल के अंदर वर्तमान राजकुमार प्रताप सिंह देव से मुलाकात होती है. वह छउ और सरायकेला से छउ के संपर्क सरोकार बताते हैं. कहते हैं, ‘‘ छउ-छावनी शब्द से बना है. यह सैनिकों का नृत्य रहा है, इसलिए इसमें ढाल, तलवार, युद्ध आदि दिखायी पड़ते हैं. 1205 से सरायकेला राजघराने का अस्तित्व है, तब से ही छउ से हमारे पुरखों का ताल्लुक रहा है, जो अब भी उसी तरह जिंदा है. सिंह कहते हैं, इतिहास के पन्ने को खंगालिएगा तो इसकी शुरुआत कलिंग युद्ध के बाद से  हुई थी लेकिन सरायकेला छउ का जो वर्तमान अधुनिक स्वरूप दिखता है उसकी शुरुआत करीब 1900 से मानी जा सकती है. सरायकेला राजघराने में दो लोग हुए, जिन्होंने इसे नये स्वरूप में ढाला. एक आदित्य प्रताप सिंह और दूसरे उनके छोटे भाई कुमार विजय प्रताप सिंह. दोनों ने समयानुसार इस नृत्य विधा में बदलाव किये और खुद परफॉर्म भी करते रहे. राजघराने का छउ से फिर से रिश्ता इस कदर जुड़ा कि विजय प्रताप सिंह ने अपने भतीजे यानि दिवंगत राजा आदित्य प्रताप सिंह के बेटे सुद्धेंद्र नारायण सिंह को छउ में पारंगत करने लगे और 1993 में वह समय आया, जब  सरायकेला छउ के लिए सुद्धेंद्र नारायण सिंह को भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया. उसके बाद तो सरायकेला छउ के कलाकारों को एक-एक कर पद्मश्री सम्मान मिलते रहे और दो दशक में यह संख्या आधे दर्जन तक पहुंच गयी.
प्रताप सिंहदेव कहते हैं, ‘‘ हमारे पुरखे को पद्मश्री सम्मान मिला, सरायकेला छउ नृत्य के और पांच महान नृत्य गुरुओं को भी वह सम्मान मिला लेकिन राजघराने की कोशिश सिर्फ इस सम्मान भर पा लेने की नहीं रही बल्कि तब से लेकर आज तक हम इस विधा को अपनी पहचान और परंपरा से जोड़कर देखते हैं और इसे संरक्षित, सवंर्द्धित और विकसित करने में यथासंभव पूरे मनोयोग से लगे हुए हैं.’’ उनकी बातें कुछ हद तक सच भी लगती है. सरायकेला राजघराने ने अपने जमाने में इस नृत्य विधा को गांधी, नेहरू, रविंद्र नाथ टैगोर, सरोजनी नायडू और आद में इंदिरा गांधी  समेत कई दिग्गजों के सामने प्रस्तुत किया और करवाया था, इसकी महता को समझाया था और फिर कोशिश कर गांव-गिरांव के कलाकारों को इस नृत्य का प्रदर्शन करने के लिए दुनिया के कई मुल्कों में भेजने में अपनी सकारात्मक भूमिका भी निभायी. ’’ प्रताप बताते हैं,‘‘ छउ नृत्य की तीन प्रणालियां है, सरायकेला, मयूरभंज और पुरूलिया, जिसमें सरायकेला नृत्यशैली को ही सभी छउ नृत्य शैली की जननी माना जाता है. इस शैली में मुखौटे का इस्तेमाल होता है. मुखौटे की दूसरी वजहें रही होंगी लेकिन मुझे तो इसका एक बड़ा मतलब यह भी समझ में आता है कि इसे लगा लेने के बाद सब एक समान हो जाते हैं. काले-गोरे, अमीर-गरीब, उंची-नीची जाति के लोग....सब.’’
हमारी अगली जिज्ञासा यह होती है कि आखिर इस नृत्य में क्या खास है, जो इतने वर्षों से, इतनी पीढ़ियों से बिना किसी लिखित व्याकरण, लिखित सिद्धांत के सिर्फ गुरू-शिष्य परंपरा के रास्ते चलकर न सिर्फ जिंदा है, बल्कि मजबूत स्थिति में भी है. मगरध्वज दारोघा बताते हैं. यह लोक और शास्त्रीय शैली के अद्भुत तरीके से मिलान वाली शैली है. इसमें पौराणिक प्रसंगों पर आधारित नृत्यों की एक लंबी श्रृंखला है. महाभारत के विविध प्रसंग,रामायण के विविध प्रसंग समेत मेघदूत,कुमारसंभव जैसी उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियों पर छउ नृत्य की प्रस्तुति बेहद लोकप्रिय हुई है. मकरध्वज दारोघा दुर्योधन उरूभंग, धुतिखेल, पारिजात हरण, कृष्ण लीला आदि के बारे में बताते हैं, जिसमें उन्होंने खुद कई प्रयोग किये हैं.
हालाकि छउ नृत्य के बारे मे जो परिभाषा या धारणा राजा प्रताप सिंह देव बताते हैं, वह इकलौती धारणा नहीं है। रांची मे रहने वाले संस्कृतिकर्मी, कलाकार और जनजातीय भाषा  विभाग के पूर्व प्राध्यापक गिरिधारी राम गौंझू कहते हैं यह सच है कि इस नृत्य का जुड़ाव युद्ध कलाओं से रहा है लेकिन सिर्फ छावनी से विकसित होने से इसका नाम छउ नहीं है बल्कि इसमें खास किस्म की छह मुद्राएं होती हैं, इसलिए इसे छउ कहते हैं. वे मुद्राएं क्रमशः चालन यानि चलना,धावन यानि दौड़ना, उछलन यानि उछलना, घुलटन यानि गुलाटी मारना, चक्रण यानि घूमना और थिरकन यानि थिरकना है. गौंझू कहते हैं, नृत्य से मनोरंजन होता है लेकिन इस नृत्य की खासियत यह है कि इसे करते करते आप युद्ध कला भी जानने लगते हैं. एक समय में इस नृत्य का प्रयोग जंगल में रहनेवाले खतरनाक जानवरों को डराने के लिए भी होता था. मुखौटे पहनकर खास तरीके से भाव-भंगिमा दिखाकर जंगली जानवरों को भगाया जाता था. गौंझू एक नयी व्याख्या करते हैं लेकिन हमारे पास दूसरे सवाल भी सामने होते हैं. छउ नृत्य में जिन लोकप्रिय प्रसंगों को बताया जाता है और जिसे दर्शक बार बार देखना चाहते हैं या वर्षों से जिन प्रसंगों को नृत्य के जरिये बार-बार दुहराया जाता रहा है, क्या उससे इस नृत्य में एकरसा भाव पैदा नहीं हो रहा? क्या नयी पीढ़ी उसी आकर्षण से पुराने प्रसंगों के साथ जुड़ रही है, जुड़ना चाहती है? इस सवाल का जवाब हमें सुशांत महापात्र देते हैं, जो छउ नृत्य के लिए मुखौटा बनाने के वरिष्ठ कलाकार हैं. सुशांत कहते हैं कि यह जरूर है कि पहले की तरह उत्साह और उमंग इस नृत्य को लेकर नयी पीढ़ी में नहीं दिखती लेकिन अब भी इस इलाके में छउ एक धर्म की तरह है. साथ ही मनोरंजन का सबसे महत्वपूर्ण साधन यही है. पहले राजा द्वारा नौ अखाड़ों का संचालन होता था, गांव-जवार के मुखिया आदि छउ नृत्य प्रतियोगिता का आयोजन करवाते थे लेकिन धीरे-धीरे सब पर ग्रहण लगा और छउ को लेकर सबसे बड़ा सालाना आयोजन चैत्र महोत्सव रह गया है, जो चैत माह से आसाढ़ तक चलता है. चैत्र महोत्सव में बाजी मार ले जाने के लिए इलाके के कलाकार सालों भर मेहनत करते हैं, क्योंकि उसमें जो बाजी मार ले गया, उसके नृत्य दल का नाम साल भर तक इलाके में गूंजता है. महापात्र कहते हैं, उस एक सालाना महोत्सव की वजह से अभी भी इलाके के गांव-गांव में छउ को लेकर एक आकर्षण है, नयी पीढ़ी में उत्साह है. उनके पास गांव से लोग हमेशा पहुंचते हैं और मुखौटों का ऑर्डर देते रहते हैं या हर-पार्वती, राधा कृष्ण, चंद्रप्रभा, हंस, नाविक, मयूर, अर्द्धनारिश्वर आदि के जो पॉपुलर मुखौटे बने रहते हैं, उसे ले जाते हैं. महापात्र कहते हैं कि आप इससे ही अंदाजा लगाइये ना कि सरायकेला एक पुराना बाजार है, अब तो जिला मुख्यालय भी हो गया, सिनेमा की देश-दुनिया में इतनी लहर है लेकिन यहां अब भी मनोरंजन के लिए एक एक वीडियो थियेटर मिलेगा. क्यों? क्योंकि गांव के लोगों को सिनेमा आदि से ज्यादा आनंद छउ करने में ही आता है.
महापात्रा से हमारा सवाल होता है कि क्या आप सिर्फ छउ के मुखौटे बनाकर आजीविका चला लेते हैं. वह कहते हैं कि काफी मेहनत से इसे बनाना पड़ता है, खर्च भी बढ़ गया है लेकिन ग्रामीणों के लिए हम बहुत ज्यादा दाम नहीं रख पाते. हां किसी सभा-समारोह आदि के लिए उपहार-सम्मान आदि देने के लिए यदि ऑर्डर आता है तो हम पूरी लागत और मेहनताना जरूर लेते हैं, उसी से कमाई होती है. गांव की गलियों में छउ जिंदा रहे और फलता-फूलता रहे, यह मेरी भी कामना है, इसलिए हमारी कोशिश होती है कि छउ कलाकारों को इस महंगी के युग में भी ज्यादा मुश्किलों का सामना न करना पड़े.
महापात्रा से भी बहुत देर तक बातें होती हैं. सरायकेला में घूमते हुए छउ की धमक को हम महसूसते हैं. गुरू मकरध्वज दारोघा के साथ उनकी शिष्या को ताल मिलाते हुए, ढाल-तलवार के साथ नृत्य करते देखने के बाद से ही यह सवाल भी घुमड़ते रहता है कि सैनिकों के इस ढाल-तलवार और जांबाजी वाले नृत्य से महिलाएं कैसे और कब से जुड़ीं और क्या नयी लड़कियां तेजी से इस नृत्य विधा को अपना रही हैं? इसका जवाब गुरू मकरध्वज दारोघा की शिष्या भारती देती है. भारती बताती हैं- महिलाओं का इस नृत्य में कब से प्रवेश शुरू हुआ, इसकी तथ्यगत जानकारी तो नहीं दे सकती लेकिन 30 के दशक में वाणी मजूमदार जैसी कलाकार छउ नृत्य करती थी, इसकी जानकारी है. वह कहती हैं कि सुनती रही हूं कि पहले छउ नृत्य महोत्सवों में महिलाओं के प्रदर्शन पर सवाल उठाये जाते थे लेकिन अब तो हर साल महिलाएं भाग लेती हैं और यह भी यह है कि छउ का जो इकलौता सरकारी संस्थान है,यदि वह ठीक से काम करे तो महिलाओं और लड़कियों की संख्या तो इतनी बढ़ जाएगी कि संभाले नहीं संभल सकेंगी.
भारती सरायकेला में अवस्थित जिस सरकारी छउ संस्थान की बात बताती हैं, हम उसे देखने पहुंचते हैं. वहां विजय नाथ साहू मिलते हैं. संस्थान में इंस्ट्रक्टर के पद पर कार्यरत हैं. वे छउ के मशहूर गुरू व नर्तक पद्मश्री स्व. केदार साहू के बेटे हैं. विजय कहते हैं कि इस संस्थान पर सरकार ध्यान ही नहीं दे रही, सब कुछ जुगाड़ तकनीक से चल रहा है. और क्या कहा जाए,वर्षों से वाद्य यंत्रों के वादक कलाकार व गुरू भी नहीं हैं. संस्थान परिसर में अंदर प्रवेश करने पर खुद-ब-,खुद भी उसकी स्थिति की कहानियां मालूम होने लगती है. बड़ा सा हॉस्टल दिखता है,जहां आसपास के इलाके से आनेवाले बच्चों को सप्ताह में दो दिनों तक रूकने का इंतजाम किये जाने का प्रावधान रहा है लेकिन छात्रावास की स्थिति बताती है कि यह सब एक जमाने में होता रहा होगा. संस्थान के निदेशक तपन पटनायक से बात होती है. वह कहते हैं, हम क्या करें, हमारे सामर्थ्य की एक सीमा है. दस साल से सरकार को चिट्ठी लिखते-लिखते थक चुके हैं. बिना स्टाफ कितना काम आगे बढ़े,फिर भी हमलोगों ने आसपास के गांवों में कंेद्र की गतिविधियों को जारी रखा है और फिलहाल 125 कलाकार केंद्र में 40 के करीब ग्रामीण केंद्रों पर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं. पटनायक कहते हैं, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इनमें तो 32 लड़कियां हैं, अभी और भी आने को तैयार है लेकिन हम आखिर उन्हें किस बुते ले, संसाधन और सुविधा है ही नहीं. विदेशी लोग भी आते हैं, बहुतेरे आना चाहते हैं लेकिन हमें कई बार मुंह मोड़ लेना पड़ता है. पटनायक आखिरी में कहते हैं- छउ को इस कदर अपने हाल पर छोड़ देना ठीक नहीं. यह नृत्य सिर्फ मनोरंजन का माध्यम भर नहीं है. यह एक आस्था का नृत्य है, यह एक जीवन धर्म है और इस इलाके में जब तक इसका प्रभाव है, इलाका कई तरह की विसंगतियों, भेदभाव और बुराइयों से बचा हुआ है. छउ खत्म हुआ तो यह इलाका भी तेजी से बदलाव के नाम पर बिगड़ाव के रास्ते चलने लगेगा...! पटनायक छउ के नाम पर बने सरकारी संस्थान की दशा-दुर्दशा बताते हैं. रांची में रहनेवाले झारखंड के चर्चित व वरिष्ठ लोककलाकार मुकुंद नायक कहते हैं कि शहरी क्षेत्र में एक-दो सरकारी संस्थानों के खड़ा होने से छउ ही नहीं, किसी भी लोक कला को बचा लेना, विकसित करना संभव नहीं. झारखंड की लोककलाओं का विकास गांवों के अखड़े में होता रहा है. अखड़े खत्म हो रहे हैं, उन्हें जीवित करना होगा, जीवंत बनाना होगा.