Thursday, February 25, 2010

“चाह कर भी वे मेरी बेटियों को मार नहीं पाएंगे”

मीतू खुराना। किसी कहानी या उपन्यास की काल्पनिक पात्र नहीं। पढ़ी-लिखी और देश की राजधानी में रहने वाली एक महिला का नाम। पेशे से पेडियाटि­शियन हैं। उनके पति डॉ कमल खुराना (आर्थोपेडिक सर्जन) रोहिणी में रहते हैं। पर आप सोच रहें होंगे, इसमें बताने जैसी क्‍या बात है? बात है। ध्यान से सुनिए। मीतू ने अपराध किया है। कानून की नज़र में नहीं। ससुराल वालों की नजर में। उन्होंने अपराध किया है बेटियों को जन्म देने का। उन्‍हें कोख में ही न मार डालने का। जन्म के बाद भी उनसे लगाव रखने का। इसकी वजह से उन्हें बार-बार घर से निकाला गया और आज वो अपने मायके में हैं। पति से अलगाव की हद तक अपनी नवजात बच्चियों की परवाह करने वाली नीतू वूमेन आफ सब्स्टांस हैं। सुनते हैं, उनकी कहानी, उन्हीं की जुबानी…

हर लड़की यह सोचती है कि उसकी शादी अच्छे घर में हो। पति उसे चाहनेवाला हो और एक सपनों का घर हो। जिसे वह सजाये-संवारे और एक खुशहाल परिवार बनाये। मैंने भी कुछ ऐसे ही ख्‍़वाब बुने थे। अभी-अभी तो उसे संजोना और बुनना शुरू ही किया था मैंने। पर कब सब कुछ बिखरना शुरू हुआ, पता ही नहीं चला। खैर… सीधी-सीधी बात बताती हूं। शादी नवंबर 2004 में डॉ कमल खुराना से हुई। कहने को तो अच्छा घर था, पर यहां आते ही मुझे दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाने लगा। मैं यह सब जुल्म चुपचाप सहती रही कि चलो कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। शादी के दो महीने बाद ही यानी जनवरी 2005 में मैं गर्भवती हो गयी। गर्भ के साथ ही मेरे सपने भी आकार ले रहे थे। छठवें सप्‍ताह में मेरा अल्‍ट्रासाउंड हुआ और यह पता लगा कि मेरे गर्भ में एक नहीं बल्कि दो-दो ज़‍िंदगियां पल रही हैं। मेरा उत्साह दुगना हो गया। मैं बहुत खुश थी। परंतु मेरी सास मुझ पर सेक्‍स डिटर्मिनेशन करवाने के लिए दबाव डालने लगीं। मैंने इसके लिए मना कर दिया। ऐसा करने पर मुझे तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाने लगा। इसमें मेरे पति की भूमिका भी कम नहीं थी। मेरा दाना-पानी बंद कर दिया गया और रोज़-रोज़ झगड़े होने लगे। मुझे जीवित रखने के लिए रात को मुझे एक बर्फी और एक गिलास पानी दिया जाता था। गर्भावस्था में ऐसी प्रताड़ना का दुख आप खुद समझ सकते हैं। इस मुश्किल घड़ी में भी मेरे मायके के लोग हमेशा मेरे साथ रहे। शायद इसी वजह से मैं आज जीवित भी हूं।

चलिए आगे का हाल बताती हूं। जब मैं गर्भ चयन के लिए प्रताड़ना के बाद भी राज़ी नहीं हुई तो इन लोगों ने एक तरकीब निकाली। यह जानते हुए कि मुझे अंडे से एलर्जी है, उन्होंने मुझे अंडेवाला केक खिलाया। मेरे बार-बार पूछने पर कि इसमें अंडा तो नहीं है, मुझसे कहा गया कि नहीं, यह अंडारहित केक है। केक खाते ही मेरी तबीयत बिगड़ने लगी। मुझमें एलर्जी के लक्षण नजर आने लगे। मझे पेट में दर्द, उल्टी व दस्त होने लगा। ऐसी हालत में मुझे रात भर अकेले ही छोड़ दिया गया। दूसरे दिन पति और सास मुझे अस्पताल ले गये। लेकिन वो अस्पताल नहीं था। वहां मेरा एंटी नेटल टेस्ट हुआ था। मुझे लेबर रूम में ले जाया गया। यहां पर गायनेकेलॉजिस्ट (स्त्री रोग विशेषज्ञ) ने मेरी जांच कर केयूबी (किडनी, यूरेटर, ब्लैडर) अल्‍ट्रासाउंड करने की सलाह दी। लेकिन वहां मौजूद रेडियोलॉजिस्ट ने सिर्फ मेरा फीटल अल्‍ट्रासाउंड किया और कहा कि अब आप जाइए। जब मैंने देखा और कहा कि गायनेकेलॉजिस्ट ने तो केयूबी अल्‍ट्रासाउंड के लिए कहा था, आपने किया नहीं, तो उसने कहा कि ठीक है आप लेट जाइए और उसके बाद उसने केयूबी किया।

इस घटना के बाद तो प्रताड़नाओं का दौर और भी बढ़ गया। मेरे पति व ससुराल वाले मुझे गर्भ गिराने (एमटीपी) के लिए ज़ोर देने लगे। मेरी सास ने तो मुझसे कई बार यह कहा कि यदि दोनों गर्भ नहीं गिरवा सकती, तो कम से कम एक को तो गर्भ में ही ख़त्म करवा लो। दबाव बनाने के लिए मेरा खाना-पीना बंद कर दिया गया। मेरे पति मुझसे अब दूरी बरतने लगे और एक दिन तो उन्होंने रात के 10 बजे मुझे यह कह कर घर से निकाल दिया कि जा अपने बाप के घर जा। जब मैंने उनसे आग्रह किया कि मुझे मेरा मोबाइल और अपने कार की चाभी ले लेने दीजिए, क्‍योंकि गर्भावस्था में मैं खड़ी नहीं रह पाऊंगी तो उन्होंने कहा कि इस घर की किसी चीज़ को हाथ लगाया तो थप्पड़ लगेगा… मेरे ससुर ने हस्तक्षेप किया और कहा कि इसे रात भर रहने दो, सुबह मैं इसके घर छोड़ दूंगा। उनके कहने पर मुझे रात भर रहने दिया गया। सास की दलील थी कि दो-दो लड़कियां घर के लिए बोझ बन जाएंगी, इसलिए मैं गर्भ गिरवा लूं। अगर दोनों को नहीं मार सकती तो कम से कम एक को तो ज़रूर ख़त्म करवा लूं। जब मैं इसके लिए राज़ी नहीं हुई तो उन्होंने मुझसे कहा कि ठीक है यदि जन्म देना ही है, तो दो, लेकिन एक को किसी और को दे दो।

आज भी मुझे वह भयानक रात याद है। तारीख थी 17 मई 2005… इतना गाली-गलौज और डांट के बाद मैं घबरा गयी थी और उस रात को ही मुझे ब्लीडिंग शुरू हो गयी। इतना खून बहने लगा कि एबॉर्शन का ख़तरा मंडराने लगा। खुद तो मदद करने की बात छोड़िए, चिकित्सकीय सहायता के लिए मेरे पिता को भी मुझे बुलाने की इजाज़त नहीं दी गयी। मैंने किसी तरह तड़पते-कराहते रात गुज़ारी और सुबह किसी तरह फोन कर पापा को बुला पायी। पापा के काफी देर तक मनुहार के बाद मेरे पति मुझे नर्सिंग होम ले जाने को तैयार हो गये। लेकिन खीज इतनी कि गाड़ी को सरसराती रफ्तार से रोहिणी से जनकपुरी तक ले आये। उस बीच मेरी जो दुर्गति हुई होगी, उसकी कल्पना आप खुद भी कर सकते हैं।

इन तीन घटनाओं और बार-बार गर्भपात करवाने की ज़ोर-जबरदस्ती के बाद मेरे पिता ने मुझे अपने पास बुला लिया। मेरी पूरी ऊर्जा बस इसी में लगी हुई थी कि मुझे अपने गर्भ में पल रही जुड़वां बेटियों को जन्म देना है। परंतु जुड़वां बच्चियों की वजह से मेरे ससुरालवालों ने टेस्ट करवाने और अस्पताल ले जाने की ज़हमत कभी नहीं उठायी। ऐसे समय में मेरी मां हर पल मेरे साथ थीं। इतने पर भी मेरे पति को बरदाश्त नहीं हुआ। वह अक्‍सर मेरे घर आकर भी मुझसे लड़ाई किया करते थे। चूंकि मैंने गर्भपात नहीं करवाया, इसलिए मेरे पति ने तो डीएनए टेस्ट तक की मांग कर दी ताकि यह पता लगाया जा सके कि पिता कौन है? ऐसा इसलिए कि मेरी सास को किसी साधु ने बताया था कि उनके बेटे को सिर्फ एक पुत्रधन की प्राप्ति होगी। मुझे उनकी ऐसी सोच से बहुत गहरा आघात लगा। मैंने अपनी सास को कई बार समझाया कि बेटा और बेटी के लिए मां नहीं बल्कि पिता जिम्मेवार होता है, तो उनकी प्रतिक्रिया यह थी कि इसके लिए जिम्मेवार मैं हूं क्‍योंकि मैंने अबॉर्शन के लिए मना कर दिया। खैर… यह सब चलता रहा और तनावों के बीच मैंने समय से पहले ही यानी 11 अगस्त 2005 को प्री-टर्म बेबी को जन्म दिया। मेरी बेटियां ज़‍िंदगी से जूझ रही थीं। जन्म के नौ दिनों बाद भी मेरे ससुराल से उन्हें देखने के लिए कोई नहीं आया। दसवें दिन नेरी ननद, मेरी सास और ससुर मुझसे मिलने आये। मेरी एक चाची ने मेरी ननद से खुश होते हुए कहा कि बुआ बनने पर बधाई हो। लेकिन खुश होने के बजाय मेरी ननद ने कहा कि भगवान बचाये, दुबारा हमें यह दिन न देखना पड़े। बात आयी-गयी हो गयी। अब दुखी होने का मौसम लगता है गया? मेरी सास बहुत खुश थीं कि बेटियां सातवें महीने में हुई हैं, इसलिए इनका बचना मुश्किल है। मेरी छोटी बिटिया को तो एक महीने तक अस्पताल में ही रखना पड़ा। पर मैं खुश हूं कि अब वे दोनों स्वस्थ हैं और अब तो स्कूल जाने लगी हैं। अस्पताल का खर्च भी अच्छा-खासा था पर मेरे ससुराल के लोगों ने एक फूटी कौड़ी तक नहीं दी। ऐसी मुश्किल घड़ी मे मेरे पापा हमेशा मेरे साथ रहे और अस्पताल का सारा खर्च उन्होंने ही वहन किया। यदि पापा जीवन के इस कठिन मोड़ पर या यूं कहें कि हर विपत्ति की घड़ी में मेरे साथ न होते तो न जाने मेरा और मेरी बच्चियों का क्‍या हश्र हुआ होता?

चूंकि शादी के बाद ससुराल ही लड़की का अपना घर होता है। यह सोचकर मैंने भी प्रताड़नाओं के बावजूद कई बार ससुराल वापस जाने की कोशिश की। हालांकि वहां उनके शब्दबाण मुझे छलनी कर जाते थे। मैं खुद यह सब बरदाश्त कर सकती थी, लेकिन मेरी बच्चियों को वहां कोई नहीं पूछता था। मेरी और मेरी बच्चियों के लिए वहां लेस मात्र भी प्यार नहीं था। अब तो मुझे इस बात का भी एहसास हो गया कि मैं और मेरी बच्चियों की ज़‍िंदगी यहां ख़तरे में है। मेरी सास ने मेरी चार माह की बच्‍ची को सीढ़ियों से धकेल दिया और कहा कि एक्‍सीडेंटली ऐसा हो गया। पर यकीन मानिए मेरी खुशकिस्मती थी कि मैं समय पर आ गयी और बच्‍ची के कैरी कॉट को थाम लिया।

आखिर कब तक मैं उन्हें मौत के मुंह में धकेले रखती? मेरी बच्चियों के लिए किसी के भी मन में कोई प्यार और संवेदना नहीं थी। दादा-दादी और बुआ सब उनकी अवहेलना करते थे। इसके बावजूद मैंने तीन सालों तक लगातार यह कोशिश की मेरी ससुराल के लोग इन्हें अपना लें और बच्चियों को एक स्थायी घर और प्रेम का वातावरण मिले। पर ऐसा हो न सका। आप सोच रहे होंगे कि आखिर मैं इतने दिनों तक यह सब क्‍यों सहती रही? मैंने इनके ख़‍िलाफ़ कोई शिक़ायत क्‍यों नहीं दर्ज करवायी? पर ऐसा नहीं है। मैंने गर्भावस्था के दौरान सेक्‍स डिटर्मिनेशन टेस्ट करवाने के लिए और गर्भपात पर जोर दिये जाने के ख़‍िलाफ़ पुलिस में शिक़ायत दर्ज करवायी थी। साथ ही थाने में यह गुहार भी लगायी थी कि उनके ख़‍िलाफ़ कोई एक्‍शन न लिया जाए। चूंकि मैं सोचती थी कि बच्चियों के जन्म के बाद शायद उन लोगों के मन में बच्‍चों के प्रति प्रेम उमड़ आएगा। लेकिन कुछ नहीं हुआ।

अति तो तब हो गयी, जब मार्च 2008 में मेरे पति ने आधी रात को मुझे घर से बेदखल कर दिया और मुझसे कहा कि तुम आपसी सहमति से तलाक ले लो। ऐसा इसलिए ताकि वह दूसरी शादी कर सकें और उससे बेटा पैदा कर सकें। मुझे इस बात का अंदेशा पहले से ही था कि वो ऐसा कर सकते हैं। इसलिए मैंने इस बार के प्रवास में जबरन कराये गये अल्‍ट्रासाउंड के काग़ज़ात और अन्य अस्पताल के काग़ज़ात, जो कि मेरे पति के कब्जे में रहते थे, वो सब ले लिये। अब मैंने इनके ख़‍िलाफ़ शिक़ायत दर्ज करायी है ताकि मेरे आंसुओं का हिसाब मिले न मिले, मेरी बच्चियों को एक सुखद जीवन मिल सके। तमाम तरह की कोशिशों और समझौतों से थकने के बाद 10 अप्रैल, 2008 को मैंने वूमेन कमिशन, स्वास्थ्य मंत्रालय व कई स्वयंसेवी संगठनों में अपनी शिक़ायत दर्ज करवायी।

9 मई, 2008 को मैने पीएनडीटी सेल में भी शिक़ायतनामा दर्ज करवाया। पिछले साल छह जून को मुझे आरटीआई के आवेदन के आलोक में जवाब आया कि मानिटरिंग कमिटी व डिस्ट्रिक्‍ट एप्रोप्रिएट अथॉरिटी (उत्तर पश्चिम दिल्ली) ने तीन जून को अस्पताल पर रेड किया और पाया कि फार्म-एफ नहीं भरा गया है। (और यह सच भी है)। चूंकि इसका भरा जाना जरूरी होता है। कानून में दर्ज है – (“Person conducting ultrasonography on a pregnant woman shall keep complete record thereof in the clinic/centre in Form-F and any deficiency or inaccuracy found therein shall amount to contravention of provisions of section-5 or section-6 of the Act, unless contrary is proved by the persons conducting such ultrasonography”)

सेक्‍शन पांच व छह के अनुसार गर्भवती स्त्री की अल्‍ट्रासोनोग्राफी की सहमति ली जानी व गर्भ में पल रहे बच्चे के सेक्‍स के बारे में जानकारी किसी को न देने की बात कही गयी है। गर्भवती स्त्री को इससे होनेवाले साइड इफेक्‍ट व बाद के प्रभावों की जानकारी देना व उसकी सहमति अनिवार्य है। पर मेरे केस में ऐसा नहीं हुआ। जबरन ऐसा करवाना कानूनन अपराध है। इसके बावजूद अब तक अस्पताल पर कोई भी कारर्वाई नहीं की गयी है। जब मेरे मामले को मीडिया ने हाइलाइट किया, तो मेरे पास डिस्ट्रिक्‍ट एप्रोप्रिएट अथॉरिटी का एक खत आया कि मैं उनके समक्ष जाकर अपनी बात रखूं। मैं अपने एक मित्र के साथ वहां जाकर सीडीएमओ से मिली और पूछा कि इस केस में मेरे बयान का क्‍या महत्व है, तो मुझे समझाया गया कि कानून को व्यापक करने की ज़रूरत है। मुझे बहुत इंपल्सिव तरीके से इस मामले में कोई काम नहीं करना चाहिए, जिसकी कीमत मुझे बाद में अदा करनी पड़े। मुझसे यह भी कहा गया कि मैं अपने पति से बात करूं और उनकी बात मान लूं। अगर उनकी मांग एक बेटे की है, तो मैं उसे पूरा कर सकती हूं। मैं बार-बार गर्भवती हो सकती हूं और जब बेटा हो तो उसे जन्म दे सकती हूं। मुझे तो यह समझाने की भी चेष्‍टा की गयी कि अल्‍ट्रासाउंड मशीन डायग्नोसिस के लिए कितना ज़रूरी है और अगर उसे सील कर दिया गया तो कुछ लोग उसकी सुविधा का लाभ लेने से वंचित रह जाएंगे। अंत में मुझसे कहा गया कि मैं अपने पति से समझौता कर लूं ताकि डॉक्‍टरों को परेशान न होना पड़े। मैंने जब उपर्युक्त सवालों के सीडीएमओ द्वारा पूछे जाने को लेकर केंद्र व राज्य के पीएनडीटी विभाग से यह पूछा कि मुझसे इस तरह की बातें सीडीएमओ ने क्‍यों कहीं, क्‍या औरतें सिर्फ बच्‍चा जनने की मशीन हैं, जब तक कि बेटा पैदा न करे – पर मुझे दोनों में से कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिला।

अंत में मैंने एक प्राइवेट केस पीसी-पीएनडीटी एक्‍ट के तहत नवंबर 2008 में दर्ज करवाया। जनवरी 2009 में एप्रोप्रिएट अथॉरिटी ने भी जयपुर गोल्डन हॉस्पिटल के ख़‍िलाफ़ केस फाइल किया है। लेकिन दोनों ही मामले अभी तक लंबित हैं। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की डॉ किरण वालिया ने मेरे केस को री-ओपन करवाया था। उन्होंने यह भी देखा कि सीडीएमओ जो मेरे केस को देख रहे थे, वह बदल गये हैं। उनके सहयोग के लिए मैं उनकी आभारी हूं। पर अफ़सोस के साथ मुझे कहना पड़ रहा है कि मैं चौतरफा मार झेल रही हूं। हर अथॉरिटी चाहे वह पुलिस हो, ज्युडिसियरी या अस्पताल – जहां मैं काम करती हूं – की ओर से केस वापस लेने का दबाव पड़ रहा है। इस प्रताड़ना और धमकियों की वजह से मुझे अपनी नौकरी तक छोड़नी पड़ी। यकीन मानिए, यहां तक कि हाईकोर्ट के जज ने भी मुझे अपने पति से रीकौंसाइल की सलाह दे डाली। जब मैंने पूछा कि रीकौंसाइल से क्‍या आशय है आपका? तो उन्होंने कहा कि मुझे अपने पति के साथ रहना चाहिए। इस पर मैंने उनसे कहा कि – चाहे मैं और मेरी बेटियों को जान से ही हाथ धोना क्‍यों न पड़े, इस पर जज साहब ने कहा कि यदि मैं अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती हूं तो कम से कम मैं उन्हें आपसी सहमति से तलाक दे दूं। इस बात के जवाब में मैंने सिर्फ इतना ही कहा कि मैं ऐसा तभी करूंगी, जब हिंदू विवाह अधिनियम में यह बदलाव हो जाए कि वह व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक दे सकता है यदि वह बेटा पैदा करके न दे।

मैं जिस गलती की सजा भुगत रही हूं – वह ये कि मेरे गर्भ में बेटियां आयीं और मैंने गर्भपात करवाने से मना कर दिया। मेरा कई ऐसे लोगों से सामना हुआ है और उनका मानना है कि मेरे पति और ससुराल के लोगों का यह सोचना कि एक बेटा चाहिए, जायज़ है। हर परिवार की ऐसी मंशा होती है। मेरे एक सहकर्मी डॉक्‍टर का मानना है कि दूसरे या उसके बाद के गर्भधारण के लिए सेक्‍स डिटर्मिनेशन व मादा भ्रूण हत्या को कानूनन जायज़ बना देना चाहिए। मेरे कई डॉक्‍टर साथी, जिनकी शादी हो गयी है और उनकी एक बेटी है, बेटा नहीं, उनका मानना है कि सेक्‍स डिटर्मिनेशन व मादा भ्रूण हत्या के लिए वे तैयार हैं क्‍योंकि उनके ससुराल वालों को एक बेटा चाहिए। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि जो कदम मैंने उठाया है, वो ऐसा नहीं करेंगे। क्‍योंकि वो बच्चे के लिए एक स्थायी घर व पिता चाहते हैं।

कई ग़रीब मरीज़ मेरे पास ऐसे आते हैं, जो बेटों की चाह में कई-कई बेटियां जनमा चुके हैं। कई बार मुझे ऐसा लगता है कि क्‍या हमारा समाज औरतों को सिर्फ बेटा पैदा करने की मशीन समझता है? मेरी जैसी स्त्रियां, जो ऐसा नहीं सोचतीं कि महिलाएं जन्मजात पुरुषों से अलग हैं और बेटियों का गर्भपात करने से मना कर देती हैं, वे समाज की नज़र में अपराधी हैं। उन्हें पागल समझा जाता है। आज भी कई लोगों की मेरे पति व ससुरालवालों के प्रति सहानुभूति है। लेकिन मैं आपसे ही पूछना चाहती हूं क्‍या एक सृजनशील स्त्री अपने गर्भ में पल रहे बच्चे को सिर्फ इसलिए मार दे कि वह मादा है? क्‍या मानवता या ममत्व के नाते ऐसा करना अपराध है? शायद अपराध तब होता, जब मैं अपनी बच्चियों को कोख में ही मार डालती या जन्म के बाद उन्हें मार डालती या किसी और को दे देती। लेकिन एक मां होने के नाते मैं ऐसा सोच भी कैसे सकती थी? ज़रा आप भी सोचिए। क्‍या मुझे इसकी सज़ा मिलनी चाहिए? शायद नहीं? यदि मुझे मिली तब भी कोई बात नहीं परंतु मेरी बेटियों को भी इसकी सज़ा मिल रही है, जो मुझे क़तई बरदाश्त नहीं। मैं उन्हें उनका हक़ दिलवा कर रहूंगी। मैं इस लड़ाई में अकेली हूं, पर यक़ीन मानिए, यह लड़ाई मेरे अकेले की नहीं है। इससे अन्य महिलाओं को भी न्याय मिल पाएगा। जो मेरी तरह आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं, वो कैसे इतनी बड़ी लड़ाई लड़ कर न्याय हासिल कर पाएंगी। मैं चाहती हूं कि मेरी तरह फिर किसी महिला को घर से न निकाला जाए और उनकी बेटियों को उनका पूरा अधिकार मिले।

यह कहानी भेजने के क्रम में मुझे ख़बर मिली है कि कोर्ट ने अस्पताल को सम्मन जारी कर दिया है और डॉ मीतू को बयान के लिए बुलाया गया है। केस की तारीख 1 दिसंबर है। लेकिन डॉ कमल खुराना अब एक नयी चाल चल रहे हैं और अपने बचाव के लिए वे बेटियों को कस्टडी में लेना चाहते हैं। यह सोचनेवाली बात है कि चार साल के बाद आचानक उनका बेटियों के प्रति प्रेम कैसे उमड़ पड़ा, जिन्हें वे गर्भ में और पैदा होने के बाद भी मार डालना चाहते थे, पैसे देकर केस वापस लेने का दबाव बना रहे थे, तलाक की बात कर रहे थे? कहीं ये उन मासूम जानों को मार डालने की साज़‍िश तो नहीं है?

न बना चोर तू मर्ज़ी से न बना मैं सिपाही!

सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए जैसे ही एक खबर पर नजर गयी, आंखें वहीं टिक गयीं और दिमाग़ में कई विचार एक साथ टकराने लगे। वैचारिक द्वंद्व अब भी जारी है। खबर थी – सब्जी चुरा रहे थे तीन पुलिसकर्मी, हुई धुनाई। झारखंड की राजधानी रांची में बरियातू बिजली आफिस के पास एक सब्जी दुकान से सब्जी चोरी करते हुए तीन सिपाहियों को दुकान की संचालिका प्रभा देवी व उसके पति ने रंगे हाथों पकड़ा और उनकी जम कर धुनाई की। तीनों सिपाही वहां टीओपी में कार्यरत हैं। स्थानीय लोगों की प्रतिक्रिया यह थी कि चोरों को पकड़नेवाले ही चोर हो गये हैं, तो इससे चोरी को और भी प्रश्रय मिलेगा। परंतु हमारी चिंता और परेशानी की वजह कुछ और है।

पुलिस कहने को तो जनता की सेवक है पर पुलिस को देखते ही लोग खौफजदा हो जाते हैं। डरते हैं कि वे वसूली न करें। ऐसे में यह घटना और भी अचंभित करती है। मसलन तीनों ही पुलिसवालों के हाथ में डंडा था। वे अन्य पुलिसकर्मियों की तरह रौब दिखाकर सब्जी व अन्य चीजों की उगाही कर सकते थे। फिर रात के अंधेरे में चोरी की ज़रूरत क्‍यों पड़ गयी? क्‍या उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी? आखिर उनकी क्‍या मजबूरी रही होगी? क्‍या उनका परिवार इतना बड़ा है कि तनख्वाह से काम नहीं चल पाता या उन्हें समय से तनख्वाह नहीं मिलती? मेरी उन पुलिसकर्मियों से कोई सहानुभूति नहीं है और न सब्जी बेचनेवाली से ही कोई हमदर्दी है, परंतु यह प्रश्न बेचैन ज़रूर कर रहा है। चोरी किसी भी व्यक्ति के लिए अंतिम विकल्प होता है। लोग भीख मांग लेते हैं, मगर चोरी को पाप समझते हैं। फिर किस मजबूरी ने उन्हें ऐसा करने को बाध्य किया।

घटना 23 अक्‍टूबर की रात की है। जिस दिन सारा शहर और गांव अस्ताचलगामी सूर्य की उपासना कर रहा था। चोर उचक्‍के भी इस दिन चोरी करने से कतराते हैं। ठीक इसी दिन झारखंड में आगामी विधानसभा चुनावों की घोषणा भी हुई थी। यानी नये सरकार के आने का बिगुल फूंका जा रहा था। तो क्‍या यह प्रशासन की कमजोरी है कि उसके कर्मचारी अवैधानिक कार्य में लिप्‍त हैं? या फिर नेता खुद तो मालामाल हुए जा रहे हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा में लगे लोगों की सुध लेने की भी फुर्सत नहीं है। उनके घरों की मजबूरी जानने की ज़हमत जब ये नहीं उठा सकते, तो जनता की क्‍या खाक फिकर करेंगे। पिछले दिनों फ्रांसिस इंदवार को नक्‍सलियों ने अगवा कर मार डाला। तब जाकर राजनीतिक दलों के लोगों की आंख खुली। भाजपा के नेताओं ने सहानुभूति दिखाते हुए उनके परिवारवालों को एक लाख रुपये का चेक दिया और राहुल गांधी ने सांत्वना देते हुए कहा कि मेरे पिताजी भी शहीद हुए थे और फ्रांसिस इंदवार भी शहीद हुए हैं। हालांकि फ्रांसिस के घरवाले इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उनकी शहादत के बाद उनकी पत्नी को नौकरी और मुआवजा तत्काल मिल गया। परंतु शहादत से पहले उनका परिवार फाकाकशी में जीने को मजबूर था। छह महीने से उसे तनख्वाह तक नहीं मिली थी। उस वक्त क्‍यों नहीं उसकी ओर ध्यान गया।

जिस राज्य के अधिकांश विधायक करोड़पति हैं, रोज़ उनके नये-नये ठिकानों और संपत्तियों का ब्योरा सामने आ रहा हो, जिस देश के आधे से अधिक सांसद करोड़पति हों और बिना हवाई जहाज़ के एक कदम भी चल नहीं सकते, उन्हें जनता की क्‍यों फिकर होगी? उनके लिए तो कर्मचारी और गरीब जनता कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं। झारखंड राज्य प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण और संपन्न राज्य है, पर जनता उतनी ही गरीब। उन्हें दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं है। राज्य के हालात कुछ ऐसे हैं कि राजधानी रांची से चंद किलोमीटर की दूरी पर विगत तीन माह पहले मांडर और कांके के इलाकों में भूखी जनता ने सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली के अनाजों के गोदामों को ही लूट लिया। आर्थिक मुफलिसी में कोई भी व्यक्ति गलत राह पकड़ सकता है।

तीनों पुलिसकर्मी कोई सांगठनिक अपराध नहीं कर रहे थे। लूट, बलात्कार या ऐसे किसी कुकृत्य में भी नहीं शामिल थे। सब्जी की चोरी कर रहे थे। पर क्‍यों? यह प्रश्न बार-बार हंट कर रहा है। मन को उद्विग्न कर रहा है। उनके बचाव में लिखना मेरा मक़सद नहीं है। क्‍योंकि कोई भी अपराध, अपराध है। किसने किया और क्‍यों इससे वह कम नहीं हो जाता। चोरी तो चोरी है। लेकिन सिर्फ न्यूज को रोमांटिक तरीके से पढ़ने, जी भरकर गाली दे लेने व चार दिनों बाद भूल जाने से कुछ नहीं होगा। कोई ठोस और कारगर उपाय जरूरी है। इस पर जरा आप भी सोचिए।

सरकार चाहे तो सबका पेट भर सकती है। खाद्य सब्सिडी दे सकती है और खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था को सुनिश्चित कर सकती है। लेकिन सरकार सिर्फ कार्पोरेट जगत को ही रियायत देने पर आमादा है और आम जनता अपने जीने के मूलभूत अधिकारों के लिए रोज़-रोज़ जूझ रही है। क्‍या बेरोज़गार और क्‍या नौकरीपेशा। जब पूरी दुनिया ही खाद्य संकट के दौर से गुज़र रही है, ऐसे में यह सोचने की ज़रूरत है कि क्‍या कारें और कंप्यूटर के सस्ते होने से करोड़ों भूखे लोगों का पेट भर पाएगा। देश की करोड़ों आबादी आज भी एक वक्‍त भूखे पेट सोने को अभिशप्त है। योजना आयोग के अनुसार बीपीएल परिवारों की संख्या पहले 6.52 करोड़ थी, जो अब घटकर 5.91 करोड़ हो गयी है। विश्व बैंक देश के 42 फीसदी लोगों को ही गरीबी रेखा से नीचे मानता है, जबकि अर्जुन सेनगुप्‍ता 77 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा से नीचे मानते हैं। ऐसे में जो भी योजनाएं बनती हैं, वह 42 फीसदी को ध्यान में रख कर बनती हैं और उसका लाभ भी उन तक नहीं पहुंच पाता है। एक शायर ने खूब कहा है – कोई भी शय अच्छी नहीं लगती, पेट जब तक भरा नहीं होता। गांधी जी ने भी कहा था – गरीबों के लिए रोटी ही अध्यात्म है। भूख से पीड़ित उन लाखों-करोड़ों लोगों पर किसी और चीज का प्रभाव नहीं पड़ सकता। कोई दूसरी बात उनके हृदय को छू भी नहीं सकती, लेकिन जब आप उनके पास रोटी लेकर जाएंगे तो वे आपको ही भगवान की तरह पूजेंगे। रोटी के सिवा उन्हें कुछ और सूझ ही नहीं सकता। सच भी है, पहले पेट की आग हो ठंढ़ी, तभी कुछ भी सही और ग़लत दिखता है।

न बना चोर तू मर्ज़ी से न बना मैं सिपाही!

सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए जैसे ही एक खबर पर नजर गयी, आंखें वहीं टिक गयीं और दिमाग़ में कई विचार एक साथ टकराने लगे। वैचारिक द्वंद्व अब भी जारी है। खबर थी – सब्जी चुरा रहे थे तीन पुलिसकर्मी, हुई धुनाई। झारखंड की राजधानी रांची में बरियातू बिजली आफिस के पास एक सब्जी दुकान से सब्जी चोरी करते हुए तीन सिपाहियों को दुकान की संचालिका प्रभा देवी व उसके पति ने रंगे हाथों पकड़ा और उनकी जम कर धुनाई की। तीनों सिपाही वहां टीओपी में कार्यरत हैं। स्थानीय लोगों की प्रतिक्रिया यह थी कि चोरों को पकड़नेवाले ही चोर हो गये हैं, तो इससे चोरी को और भी प्रश्रय मिलेगा। परंतु हमारी चिंता और परेशानी की वजह कुछ और है।

पुलिस कहने को तो जनता की सेवक है पर पुलिस को देखते ही लोग खौफजदा हो जाते हैं। डरते हैं कि वे वसूली न करें। ऐसे में यह घटना और भी अचंभित करती है। मसलन तीनों ही पुलिसवालों के हाथ में डंडा था। वे अन्य पुलिसकर्मियों की तरह रौब दिखाकर सब्जी व अन्य चीजों की उगाही कर सकते थे। फिर रात के अंधेरे में चोरी की ज़रूरत क्‍यों पड़ गयी? क्‍या उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी? आखिर उनकी क्‍या मजबूरी रही होगी? क्‍या उनका परिवार इतना बड़ा है कि तनख्वाह से काम नहीं चल पाता या उन्हें समय से तनख्वाह नहीं मिलती? मेरी उन पुलिसकर्मियों से कोई सहानुभूति नहीं है और न सब्जी बेचनेवाली से ही कोई हमदर्दी है, परंतु यह प्रश्न बेचैन ज़रूर कर रहा है। चोरी किसी भी व्यक्ति के लिए अंतिम विकल्प होता है। लोग भीख मांग लेते हैं, मगर चोरी को पाप समझते हैं। फिर किस मजबूरी ने उन्हें ऐसा करने को बाध्य किया।

घटना 23 अक्‍टूबर की रात की है। जिस दिन सारा शहर और गांव अस्ताचलगामी सूर्य की उपासना कर रहा था। चोर उचक्‍के भी इस दिन चोरी करने से कतराते हैं। ठीक इसी दिन झारखंड में आगामी विधानसभा चुनावों की घोषणा भी हुई थी। यानी नये सरकार के आने का बिगुल फूंका जा रहा था। तो क्‍या यह प्रशासन की कमजोरी है कि उसके कर्मचारी अवैधानिक कार्य में लिप्‍त हैं? या फिर नेता खुद तो मालामाल हुए जा रहे हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा में लगे लोगों की सुध लेने की भी फुर्सत नहीं है। उनके घरों की मजबूरी जानने की ज़हमत जब ये नहीं उठा सकते, तो जनता की क्‍या खाक फिकर करेंगे। पिछले दिनों फ्रांसिस इंदवार को नक्‍सलियों ने अगवा कर मार डाला। तब जाकर राजनीतिक दलों के लोगों की आंख खुली। भाजपा के नेताओं ने सहानुभूति दिखाते हुए उनके परिवारवालों को एक लाख रुपये का चेक दिया और राहुल गांधी ने सांत्वना देते हुए कहा कि मेरे पिताजी भी शहीद हुए थे और फ्रांसिस इंदवार भी शहीद हुए हैं। हालांकि फ्रांसिस के घरवाले इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उनकी शहादत के बाद उनकी पत्नी को नौकरी और मुआवजा तत्काल मिल गया। परंतु शहादत से पहले उनका परिवार फाकाकशी में जीने को मजबूर था। छह महीने से उसे तनख्वाह तक नहीं मिली थी। उस वक्त क्‍यों नहीं उसकी ओर ध्यान गया।

जिस राज्य के अधिकांश विधायक करोड़पति हैं, रोज़ उनके नये-नये ठिकानों और संपत्तियों का ब्योरा सामने आ रहा हो, जिस देश के आधे से अधिक सांसद करोड़पति हों और बिना हवाई जहाज़ के एक कदम भी चल नहीं सकते, उन्हें जनता की क्‍यों फिकर होगी? उनके लिए तो कर्मचारी और गरीब जनता कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं। झारखंड राज्य प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण और संपन्न राज्य है, पर जनता उतनी ही गरीब। उन्हें दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं है। राज्य के हालात कुछ ऐसे हैं कि राजधानी रांची से चंद किलोमीटर की दूरी पर विगत तीन माह पहले मांडर और कांके के इलाकों में भूखी जनता ने सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली के अनाजों के गोदामों को ही लूट लिया। आर्थिक मुफलिसी में कोई भी व्यक्ति गलत राह पकड़ सकता है।

तीनों पुलिसकर्मी कोई सांगठनिक अपराध नहीं कर रहे थे। लूट, बलात्कार या ऐसे किसी कुकृत्य में भी नहीं शामिल थे। सब्जी की चोरी कर रहे थे। पर क्‍यों? यह प्रश्न बार-बार हंट कर रहा है। मन को उद्विग्न कर रहा है। उनके बचाव में लिखना मेरा मक़सद नहीं है। क्‍योंकि कोई भी अपराध, अपराध है। किसने किया और क्‍यों इससे वह कम नहीं हो जाता। चोरी तो चोरी है। लेकिन सिर्फ न्यूज को रोमांटिक तरीके से पढ़ने, जी भरकर गाली दे लेने व चार दिनों बाद भूल जाने से कुछ नहीं होगा। कोई ठोस और कारगर उपाय जरूरी है। इस पर जरा आप भी सोचिए।

सरकार चाहे तो सबका पेट भर सकती है। खाद्य सब्सिडी दे सकती है और खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था को सुनिश्चित कर सकती है। लेकिन सरकार सिर्फ कार्पोरेट जगत को ही रियायत देने पर आमादा है और आम जनता अपने जीने के मूलभूत अधिकारों के लिए रोज़-रोज़ जूझ रही है। क्‍या बेरोज़गार और क्‍या नौकरीपेशा। जब पूरी दुनिया ही खाद्य संकट के दौर से गुज़र रही है, ऐसे में यह सोचने की ज़रूरत है कि क्‍या कारें और कंप्यूटर के सस्ते होने से करोड़ों भूखे लोगों का पेट भर पाएगा। देश की करोड़ों आबादी आज भी एक वक्‍त भूखे पेट सोने को अभिशप्त है। योजना आयोग के अनुसार बीपीएल परिवारों की संख्या पहले 6.52 करोड़ थी, जो अब घटकर 5.91 करोड़ हो गयी है। विश्व बैंक देश के 42 फीसदी लोगों को ही गरीबी रेखा से नीचे मानता है, जबकि अर्जुन सेनगुप्‍ता 77 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा से नीचे मानते हैं। ऐसे में जो भी योजनाएं बनती हैं, वह 42 फीसदी को ध्यान में रख कर बनती हैं और उसका लाभ भी उन तक नहीं पहुंच पाता है। एक शायर ने खूब कहा है – कोई भी शय अच्छी नहीं लगती, पेट जब तक भरा नहीं होता। गांधी जी ने भी कहा था – गरीबों के लिए रोटी ही अध्यात्म है। भूख से पीड़ित उन लाखों-करोड़ों लोगों पर किसी और चीज का प्रभाव नहीं पड़ सकता। कोई दूसरी बात उनके हृदय को छू भी नहीं सकती, लेकिन जब आप उनके पास रोटी लेकर जाएंगे तो वे आपको ही भगवान की तरह पूजेंगे। रोटी के सिवा उन्हें कुछ और सूझ ही नहीं सकता। सच भी है, पहले पेट की आग हो ठंढ़ी, तभी कुछ भी सही और ग़लत दिखता है।

होश की दुनिया का तमाशा

पिछले महीने निरमलिया की मौत हो गयी। भूखे-प्‍यासे आखिर कब तक वह मेहनत करती रहती? चिलचिलाती धूप में जंगल से लकड़ी काटना और फिर उसे बाज़ार में बेचना, उसकी दिनचर्या थी। इतनी कड़ी मेहनत के बाद भी निरमलिया अपने अर्धविक्ष‍िप्‍त पति और पांच बच्‍चों का पेट कहां भर पाती थी। वह परिवार के अन्‍य सदस्‍यों को तो कुछ खिला भी देती थी, पर खुद कई-कई दिनों तक भूखे रह जाती थी। आखिर यह सिलसिला कितने दिन चल सकता था… निरमलिया पलामू जिले के छतरपुर ब्‍लॉक के सुशीगंज की रहनेवाली थी। दुर्भाग्‍य यह है कि उसकी मौत, पलामू में भूख से हुई मौतों की फेहरिस्‍त में भी शामिल नहीं हो पायी। क्‍योंकि ऐसा करते ही प्रसाशन के क्रिया-कलापों पर प्रश्‍नचिह्न लग जाता। जब हमने यह जानने की कोशिश की कि आखिर उसकी मौत कसे हुई है, तो ग्रामीणों ने बताया कि वह भूख से मरी है। उसके घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। परंतु उपायुक्‍त डॉ अमिताभ कॉशल ने बताया कि मामले की जांच करायी गयी है और बीडीओ वहां गये थे। उनके अमुसार निरमलिया ने एक दिन पहले यानी की शनिवार 28 जून की रात को खाना खाया था। शव का पोस्‍टमार्टम शायद घरवालों की इजाज़त न मिलने के कारण नहीं हो पाया हो। लेकिन यह हो भी जाता तो क्‍या इसकी पुष्टि की जाती? शायद नहीं।

पलामू और सूखा का कुछ ऐसा मेल हो गया ह कि छुड़ाये नहीं छूट रहा। यह विडंबना ही है कि भूख से होनेवाली मौत के आगोश में समाने वाले 99 फीसदी लोग आदिवासी और दलित ही हैं। चाहे वह कोरबा जनजाति के हों, भूइंयां, बिरहोर या फिर अन्‍य। जब सरकार की 19 योजनाएं उनके उत्‍थान के लिए चलायी जा रही हैं और सुखाड़ के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपये खर्च किये जा चुके हैं… फिर यह मौतें क्‍यों? निरमलिया की मौत का काला सच भी शायद कभी सामने न आ पाये। गढ़वा की लेप्‍सी की मौत भी कुछ इसी तरह हुई थी और प्रशासन ने उसे भूख से हुई मौत मानने से ही इनकार कर दिया था। परंतु मीडिया और कुछ प्रबुद्धजनों की कोशिशों के बाद उन्‍हें यह मानना पड़ा था कि उसकी मौत भूख से ही हुई है। निरमलिया की मौत सिर्फ एक कॉलम की खबर बन पायी और शायद इसीलिए उसे इंसाफ नहीं मिल सका।
पलामू में इस बार फिर सुखाड़ ने दस्‍तक दी है। तभी तो सुखाड़ से खौफजदा किसान इच्‍छा मृत्‍यु के लिए हस्‍ताक्षर अभियान चला रहे हैं। 5000 किसानों ने तो हस्‍ताक्षर भी कर दिये हैं और 30,000 और किसान अर्जी भर रहे हैं। यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि प्रदेश की 38 लाख हेक्‍टेयर कृषि योग्‍य भूमि में से आज भी केवल 1.57 लाख हेक्‍टेयर जमीन पर ही सिंचाई की सुविधा उपलब्‍ध है। सवाल है कि आखिर क्‍यों? शायद इसलिए कि अब तक किसानों और खेती के मूल तकनीकों पर न तो यहां कोई काम हुआ है और न ही सरकार की कोई मंशा ही रही है। यदि मंशा होती तो यकीनन तस्‍वीर कुछ और होती और जमीनों पर जो दरार दिख रही हैं, वहां फसल लहलहा रही होती।
पलामू में घुसते ही आपको यह एहसास होने लगेगा कि कसी विकट और त्रासद जिन्‍दगी जीने को विवश है यहां की जनता। सुखाड़ की स्‍िथति जानने और वहां के लोगों की जीवन शैली जानने की उत्‍कट इच्‍छा लिये पिछले साल अपने एक साथी के साथ मनातू, लमटी, लेस्‍लीगंज व चेड़ाबारा गांव जाना हुआ था। इन गांवों के लोग इतने अनुभवी हैं कि धरती और आकाश को देख कर ही बता दें कि इस बार अकाल-सुखाड़ पड़ने वाला है या फिर बारिश और खेती की कोई गुंजाइश शेष है। चेड़ाबारा गांव के एक किसान सुकुल ने बताया कि सुखाड़ और गरीबी हमारी नियती ही बन गयी है। इससे बचने के लिए सरकार की तरफ से जो पहल होनी चाहिए, वह नहीं हो रही। गांव के लोगों ने कई बार यह निवेदन भी किया था कि शिवपुर में यदि डैम बन जाता तो अच्‍छा होता और अगर यह नहीं हो सकता तो गांव में 20 फुट (20 फीट के कुएं) कुआं ही बन जाता, तो कुछ हल निकल आता। कुछ ऐसी ही सोच कोल्‍हुआ टोली और महुआ टोली के लोगों की भी थी। उनका मानना है कि इतने भर से ही कम से कम पीने और थोड़ी खेती के लिए कुछ पानी तो मिल ही जाता। अनाज के अभाव में यहां के लोग महुआ, गेठी (एक कसला कंदमूल) और चकवढ़ साग (जंगली पौधा) खाने को विवश हैं।

चैनपुर के लमटी गांव की स्‍िथति तो और भी भयावह है। दूरस्‍थ और दुर्गम रास्‍तों की वजह से न तो मीडियाकर्मी यहां पहुंच पाते हैं, न अधिकारी और न ही प्रबुद्धजन। जब हम इस गांव की स्‍िथति जानने पहुंचे तो पता चला कि कितनी लेप्‍सी और निरमलिया यहां हर साल दम तोड़ती रहती हैं परंतु उनकी मौत की गूंज किसी शून्‍य में समा जाती है। वह खबर भी नहीं बन पाती। आदिम जनजाति कोरबा लोग यहां रहते हैं। सुखाड़ के दिनों में सिर्फ गेठी ही इनका भोजन होता है। गेठी की कड़वाहट को चूना लगाकर बहते पानी में रात भर बांस के जालीनुमा पात्र में डाल दिया जाए तो दूर किया जा सकता है। परंतु जहां न पानी है और न चूना के लिए पैसा तो फिर ये क्‍या करें? इसी गांव की धनुआ कोरबाइन ने बताया कि इसकी कड़वाहट को कम करने के लिए वो इसे काटकर 3-4 दिनों तक मिट्टी के घड़े में डालकर रेत में दबा देती हैं और तब खाती हैं। हमने देखा कि कड़वाहट कुछ कम तो हो जाती है परंतु ऐसा भी नहीं कि इसे खाया जा सके। पर पेट के लिए तो सब करना ही पड़ता है। जीने की जिद और जज्‍बे को देखना हो तो एक बार लमटी जरूर देखें।
खैर… हम बात कर रहे थे पलामू और सुखाड़ की। बचपन में पलामू के बारे में हम कई-कई किस्‍से सुना करते थे। उन्‍हीं में से एक था मनातू स्‍टेट का किस्‍सा। मनातू स्‍टेट में जबरन लोगों को बंधुआ बना कर मजदूरी करवायी जाती थी। मना करने या आनाकानी करने पर स्‍टेट के महाराजा अपने पालतू चीता के पिंजरे में मजदूर को फेंकवा देते थे। इस डर से लोग उनके द्वारा किया जानेवाला अत्‍याचार चुपचाप सह लेते थे या फिर मौत को गले लगा लेते थे। परंतु अब न स्‍टेट रहा और न ही महाराज। फिर भी लोग तड़प रहे हैं, भूख और त्रासदी के पिंजरे से निकलने को छटपटा रहे हैं। लेकिन निकल भी नहीं पा रहे। वे न तो सुकून से जी पा रहे हैं और न ही मर पा रहे हैं। सवाल है कि मौत के मुंह में धकेलनेवाला वह शख्‍स कौन ह? सरकार, प्रशासन या फिर हम स्‍वयं… पर इतना जरूर है कि यह पिंजरा इतना मजबूत ह कि पीढ़‍ियां दम तोड़ दे रही हैं पर उबर नहीं पा रहीं। आखिर क्‍यों?
सवाल यह भी है कि जिस साल पलामू में सामान्‍य वर्षा होती है, तो वह तकरीबन 1200 मिमी तक होती है। लेकिन जब कम वर्षा होती है तो भी यह करीबन 600 मिमी तक होती है। पी साईंनाथ ने लिखा है कि कम वर्षा होने के बाद यदि ऐसे अन्‍य क्षेत्रों का तुलनात्‍मक अध्‍ययन किया जाए तो यह स्‍पष्‍ट होता है कि इससे कम वर्षा वाले क्षेत्र में भी ऐसी तबाही नहीं होती जितनी कि पलामू में। क्‍यों? कहीं यह होश की दुनिया के लोगों के द्वारा खड़ा किया गया तमाशा तो नहीं? क्‍यों नहीं वे इसका हल ढूंढ पा रहे हैं?

सचमुच यह बड़ा सवाल है और जवाब हम सब को मिलकर खोजना है।