Monday, January 17, 2011

नींद न परे राती एहो दैया, झुरत पलंग वैसी मने मन...

घासी की थांती पर फेरे हाथ

जिस तरह भारतवर्ष में हिंदी का महत्व है, कुछ वैसा ही महत्व झारखं डमें नागपुरी का है. 1859-1926 के कालखंड मंे रहने वाले झारखं डमें नागपुरी के एक महान कवि घासीराम ने कई ऐसी रचनाएं की, जो आज भी झारखंड के हर गांवों के अखरे में सुनाये जाते हैं. गाये जाते हैं. उनकी तुलना विद्यापति से की जाती है. घासीराम का रचना संसार बड़ा था, उन पर हुए शोधकार्य भी विस्तृत हैं लेकिन विडंबना यह है कि उनके परिजनों ने जिस एक स्मृति को संजोकर रखा है, वह भी अब आखिरी पड़ाव में है. घासीराम के परिजनों की पीड़ा क्या है, पढ़िए एक रिपोर्टः-


अनुपमा


घायल बिहरबान, थिर न रहत प्राण
निसु दिने रे दैया
दहत मदन तन छने-छन.
सिहरी उठति छाती
नींद न परे राती
एहो दैया, झुरत पलंग वैसी मने मन...
रांची से करीब 50 किलोमीटर की दूरी तय कर हम करकट गांव पहुंचे थे. रामेश्वर राम के दरवाजे पर हाजिर थे. लगभग आधे घंटे की प्रतिक्षा के बाद किसी तरह घिसटकर, पैरों और हाथों के बल चलकर घर की देहरी तक पहुंचते हंै रामेश्वर. लगभग पंद्रह मिनट तक शांत रहते है रामेश्वर राम और उसके बाद स्थूल पड़े लकवाग्रस्त शरीर की पूरी उर्जा समेट कर इस गीत को जब सुनाते हैं तो कुछ देर के लिए वहल अलग ही दुनिया रचाते-बसाते हैं. हम उनकी शारीरिक अस्वस्थता को देख उनसे विनम्र निवेदन करते हैं कि बस, दादा अब रहने दीजिए, आपने एक सुना दिया न! रामेश्वर बिना कुछ बोले दूसरे गीत को गाना शुरू कर देते हैं. दूसरे गीत को खत्म कर लेेने के बाद कहते हैं- जानते हंै आपने गीत सुनने की फरमाईश किससे की है! हुलास राम के बेटे से. फिर रामेश्वर कहते हैं- आपको मालूम कि हुलास कौन थे- घासीराम के बेटे. फिर रामेश्वर का सवाल होता है, आपको यह पता है कि घासीराम कौन थे! एक वाक्य बोलने में भी काफी परेशानियों से गुजरनेवाले रामेश्वर राम उस वक्त सवालों का अंतहीन सिलसिला शुरू करने जा रहे थे कि बीच में ही जबान लड़खड़ाने लगा. कुछ देर दम लेने के बाद एक वाक्य बोलते हैं- हम एक गीत नहीं गा सकते.थे जब भी गायेंगे जोड़ा ही गायेंगे, इसलिए आपने मना किया तो भी नहीं माना. और जब गीत गाना शुरू कर देंगे तो चाहे कुछ भी हो जाये, उसे आधे में नहीं छोड़ेंगे, पूरा कर के ही दम लेंगे.
रामेश्वर राम की आधी-अधूरी रह गयी बातों को देवकी किस अंदाज में पूरा करती हैं, उसकी बात करने से पहले यह जानते चलें कि घासीराम कौन थे? घासीराम झारखंड के जनमानस मंे बसे ऐसे कवि-गीतकार हैं, जिनके गीतो के बोल शायद ही छोटानागपुर का कोई गांव ऐसा हो, जहां सुनायी न पड़ते हो. घासीराम वह कवि थे, जिनकी किताब ‘नागपुरी फाग शत्तक‘ 1911 में ही मुंबई से प्रकाशित होकर आयी थी और झारखंड के गांव-गांव तक पहुंच गयी थी. घासीराम वह रचनाकार हैं, जिन्होंने दुर्गा सप्शति को नागपुरी गीतों-कविताओं में ढाल कर एक पुस्तक ही तैयार कर दी थी. जिन्होंने चंडीपुराण का नागपुरी गीतमय अनुवाद कर दिया था. घासीराम का रचना संसार यहीं खत्म नहीं होता, जब उनके किताबों का छपने का प्रबंध नहीं हुआ तो उन्होंने काॅपियों में ही किताब की शक्ल में लिखना शुरू किया और चंडीपुराण, रामजन्म, कृष्ण का जीवन, चैंतिसा, सुदामाचरित, उषा हरण, नागवंशावली जैसी पुस्तकों को रचा जो अप्रकाशित रह गये.
रामेश्वर राम की पत्नी और घासीराम की पौ़त्रवधु देवकी देवी कहती हैं- घासीराम सिर्फ इतने भर नहीं थे, उनके बारे में यह कहावत मशहूर है कि एक ढेला को हवा में उछालो और वह जब तक वापस जमीन पर आकर गिरेगा, उतने देर में घासीराम एक गीत की रचना कर देते थे. लेकिन इन सबके बीच विडंबना यह है कि झारखंड के इतने बडे़ रचनाकार की स्मृतियां अब उनके गांव में भी उस तरह नहीं बची हुई है. उनके नाम पर कहीं कोई एक सांस्कृतिक प्रतिमान तक खड़ा हो सका. करकट गांव में उस खपरैल मंदिर को दिखाते हुए रामेश्वर राम के बेटै देंवेंद्र कहते हैं- यह ीवह मंदिर है, जहां घासीराम रोज बैठा करते थे, रचना करते थे. हमने अपनी औकात के हिसाब से सारे पुराने घरों को तोड़ परिवारों के बंटवारे के हिसाब से नये घर बना लिये लेकिन यह मंदिर वैसे ही रहने दे रहे हैं. इस उम्मीद के साथ कि कभी न कभी तो कोई आयेगा, जो यह पूछेगा कि क्या घासीराम की कोई स्मृति यहां बची है तो यह मंदिर दिखा सकेंगे. बाकि के सारी थांति पर तो बड़े विद्वानों ने हाथ की सफाई कर दी. इसका आशय पूछने पर देवेंद्र कहते हैं कि कुछ साल पहले तक यहां तरह-तरह के बौद्धिक जमात के लोग आते थे. घासीराम के बारे में दो-चार बातें बताते थे. स्मारक, लाइब्रेरी आदि बनाने-बनवाने आदि की बातें कहते थे और दर्जनों की संख्या में उपलब्ध घासीराम जी की पांडुलिपियों में एकाध लेकर जाते थे. कुछेक इस आश्वासन के साथ भी कि इसे किताब की शक्ल में छपवा देंगे. लेकिन वे बौद्धिक फिर वापस नहीं आते थे, हर बार कोई नया ही चेहरा सामने होता था, नये अंदाज में और ऐसे ही नये-नये चेहरों ने एक-एक कर सारी पांडुलिपियां तक अपने पास रख ली, यहां तक कि उनकी कुछ प्रकाशित किताबें थीं, वह भी ले गये. बौद्धिक जमात की इस चैर्यकला पर कोई कुछ नहीं बोलता. हालांकि रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा विभाग के प्रमुख डाॅ गिरिधारी राम गौंझू कहते हैं- यह जिसने भी किया अच्छा नहीं किया लेकिन हम यह भी नहीं कह सकते कि घासीराम आज हाशिये पर चले गये हैं या उपेक्षित रहे हैं. गौंझू कहते हैं कि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को आधार बनाकर कई-कई शोध हुए हैं. डाॅ श्रवण कुमार गोस्वामी, डाॅ बीपी केशरी, डाॅ गोविंद साहू, कविवर नहन जैसे विद्वानों ने गहनता से अध्ययन किया है. उससे लोगों को वाकिफ कराने का काम किया है. लेखक व नागपुरी गीतों की दुनिया पर गहराई से काम करनेवाले नागपुरी संस्थान के प्रमुख प्रो बीपी केशरी कहते हैं-घासीराम की तुलना नागपुरी में विद्यापति से की जाती है, जिन्होंने कई-कई उत्कृष्ट रचनाओं से नागपुरी गीत व कविता संसार को समृद्ध किया. यह सच भी है कि घासीराम पर कई-कई महत्वपूर्ण शोध कार्य हुए हैं लेकिन इससे उनके परिजनों की टीस कम नहीं होती. जैसा कि देवेंद्र कहते हैं- हमें क्या मिला! हम किसी पैसे की मांग नहीं कर रहे. हम लालची नहीं हैं लेकिन यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि उनकी स्मृति में कुछ तो हो जाये. देवेंद्र कहते हैं कि घासीराम के परिजनों ने उनकी विरासत को अपने स्तर से हर संभव संजोकर रखने की कोशिश की है. घासीराम के बेटे हुलास राम एक बड़े कवि हुए. उन्होंने शिव वंदना, फगुआ आदि पुस्तकों की रचना की. खुद बहुत बढ़ियां गाते भी थे. हुलास राम के बेटे यानि मेरे पिता रामेश्वर राम, जब तक स्वस्थ रहे, तब तक हर रोज सुबह-शाम घासीराम के गीतों को गाकर रियाज करते थे, कंठस्थ कर लिये हैं उनके गीतों को. और अब मैं, यानी घासीराम के परिवार की चैथी पीढ़ी भी उनके गीतों को गाने की कोशिश करता हूं लेकिन मेरे पास तो उनके गीत तक नहीं बचे हैं. जो ले गये हैं, यदि वे मेहरबानी कर लौटा दे ंतो हम उस विरासत को संभालकर रख सकेंगे, हमें भी सहेजने की कला आती है. इतना सब कहने के बाद देवेंद्र घर में जाते हैं. चिथड़े हो चुके कुछ काॅपियों को लाते हैं और उसमें से एक गीत अलाप लेकर गुनगुनाते हैं. एक को खत्म करने के बाद तुरंत दूसरे गीत को भी पूरा करते हैं. जोड़ा गीत परंपरा का निर्वाह करते हुए. चलते समय वह कहते हैं- हमारे परिवार वालों को अब भी घासीराम के कई गीत कंठस्थ है, आपलोग उसे प्रकाशित करवा सकते हैं. हम गीतों को उपलब्ध करवा सकते हैं, अपनी स्मृति के आधार पर. इतने छल के बावजूद घासीराम के परिजनों की उम्मीदें नहीं टूटी, यह गौर करनेवाली बात है.

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