Friday, December 30, 2011

होश की दुनिया का तमाशा

♦ अनुपमा

पिछले महीने निरमलिया की मौत हो गयी। भूखे-प्याासे आखिर कब तक वह मेहनत करती रहती? चिलचिलाती धूप में जंगल से लकड़ी काटना और फिर उसे बाज़ार में बेचना, उसकी दिनचर्या थी। इतनी कड़ी मेहनत के बाद भी निरमलिया अपने अर्धविक्षिउप्तम पति और पांच बच्चों का पेट कहां भर पाती थी। वह परिवार के अन्य सदस्योंे को तो कुछ खिला भी देती थी, पर खुद कई-कई दिनों तक भूखे रह जाती थी। आखिर यह सिलसिला कितने दिन चल सकता था… निरमलिया पलामू जिले के छतरपुर ब्लॉ क के सुशीगंज की रहनेवाली थी। दुर्भाग्यस यह है कि उसकी मौत, पलामू में भूख से हुई मौतों की फेहरिस्तर में भी शामिल नहीं हो पायी। क्यों कि ऐसा करते ही प्रसाशन के क्रिया-कलापों पर प्रश्न चिह्न लग जाता। जब हमने यह जानने की कोशिश की कि आखिर उसकी मौत कसे हुई है, तो ग्रामीणों ने बताया कि वह भूख से मरी है। उसके घर में अनाज का एक दाना भी नहीं था। परंतु उपायुक्त् डॉ अमिताभ कॉशल ने बताया कि मामले की जांच करायी गयी है और बीडीओ वहां गये थे। उनके अमुसार निरमलिया ने एक दिन पहले यानी की शनिवार 28 जून की रात को खाना खाया था। शव का पोस्ट मार्टम शायद घरवालों की इजाज़त न मिलने के कारण नहीं हो पाया हो। लेकिन यह हो भी जाता तो क्या् इसकी पुष्टि की जाती? शायद नहीं।
पलामू और सूखा का कुछ ऐसा मेल हो गया ह कि छुड़ाये नहीं छूट रहा। यह विडंबना ही है कि भूख से होनेवाली मौत के आगोश में समाने वाले 99 फीसदी लोग आदिवासी और दलित ही हैं। चाहे वह कोरबा जनजाति के हों, भूइंयां, बिरहोर या फिर अन्यआ। जब सरकार की 19 योजनाएं उनके उत्थायन के लिए चलायी जा रही हैं और सुखाड़ के नाम पर करोड़ों-अरबों रुपये खर्च किये जा चुके हैं… फिर यह मौतें क्यों ? निरमलिया की मौत का काला सच भी शायद कभी सामने न आ पाये। गढ़वा की लेप्सीर की मौत भी कुछ इसी तरह हुई थी और प्रशासन ने उसे भूख से हुई मौत मानने से ही इनकार कर दिया था। परंतु मीडिया और कुछ प्रबुद्धजनों की कोशिशों के बाद उन्हेंौ यह मानना पड़ा था कि उसकी मौत भूख से ही हुई है। निरमलिया की मौत सिर्फ एक कॉलम की खबर बन पायी और शायद इसीलिए उसे इंसाफ नहीं मिल सका।
पलामू में इस बार फिर सुखाड़ ने दस्त क दी है। तभी तो सुखाड़ से खौफजदा किसान इच्छास मृत्युी के लिए हस्ता क्षर अभियान चला रहे हैं। 5000 किसानों ने तो हस्तादक्षर भी कर दिये हैं और 30,000 और किसान अर्जी भर रहे हैं। यह जानकर आश्चहर्य होगा कि प्रदेश की 38 लाख हेक्टेकयर कृषि योग्य0 भूमि में से आज भी केवल 1.57 लाख हेक्टेहयर जमीन पर ही सिंचाई की सुविधा उपलब्धि है। सवाल है कि आखिर क्योंक? शायद इसलिए कि अब तक किसानों और खेती के मूल तकनीकों पर न तो यहां कोई काम हुआ है और न ही सरकार की कोई मंशा ही रही है। यदि मंशा होती तो यकीनन तस्वी र कुछ और होती और जमीनों पर जो दरार दिख रही हैं, वहां फसल लहलहा रही होती।
पलामू में घुसते ही आपको यह एहसास होने लगेगा कि कसी विकट और त्रासद जिन्द गी जीने को विवश है यहां की जनता। सुखाड़ की स्‍िथति जानने और वहां के लोगों की जीवन शैली जानने की उत्कशट इच्छाा लिये पिछले साल अपने एक साथी के साथ मनातू, लमटी, लेस्ली गंज व चेड़ाबारा गांव जाना हुआ था। इन गांवों के लोग इतने अनुभवी हैं कि धरती और आकाश को देख कर ही बता दें कि इस बार अकाल-सुखाड़ पड़ने वाला है या फिर बारिश और खेती की कोई गुंजाइश शेष है। चेड़ाबारा गांव के एक किसान सुकुल ने बताया कि सुखाड़ और गरीबी हमारी नियती ही बन गयी है। इससे बचने के लिए सरकार की तरफ से जो पहल होनी चाहिए, वह नहीं हो रही। गांव के लोगों ने कई बार यह निवेदन भी किया था कि शिवपुर में यदि डैम बन जाता तो अच्छा होता और अगर यह नहीं हो सकता तो गांव में 20 फुट (20 फीट के कुएं) कुआं ही बन जाता, तो कुछ हल निकल आता। कुछ ऐसी ही सोच कोल्हुाआ टोली और महुआ टोली के लोगों की भी थी। उनका मानना है कि इतने भर से ही कम से कम पीने और थोड़ी खेती के लिए कुछ पानी तो मिल ही जाता। अनाज के अभाव में यहां के लोग महुआ, गेठी (एक कसला कंदमूल) और चकवढ़ साग (जंगली पौधा) खाने को विवश हैं।
चैनपुर के लमटी गांव की स्‍िथति तो और भी भयावह है। दूरस्थस और दुर्गम रास्तोंड की वजह से न तो मीडियाकर्मी यहां पहुंच पाते हैं, न अधिकारी और न ही प्रबुद्धजन। जब हम इस गांव की स्‍िथति जानने पहुंचे तो पता चला कि कितनी लेप्सीथ और निरमलिया यहां हर साल दम तोड़ती रहती हैं परंतु उनकी मौत की गूंज किसी शून्यि में समा जाती है। वह खबर भी नहीं बन पाती। आदिम जनजाति कोरबा लोग यहां रहते हैं। सुखाड़ के दिनों में सिर्फ गेठी ही इनका भोजन होता है। गेठी की कड़वाहट को चूना लगाकर बहते पानी में रात भर बांस के जालीनुमा पात्र में डाल दिया जाए तो दूर किया जा सकता है। परंतु जहां न पानी है और न चूना के लिए पैसा तो फिर ये क्या करें? इसी गांव की धनुआ कोरबाइन ने बताया कि इसकी कड़वाहट को कम करने के लिए वो इसे काटकर 3-4 दिनों तक मिट्टी के घड़े में डालकर रेत में दबा देती हैं और तब खाती हैं। हमने देखा कि कड़वाहट कुछ कम तो हो जाती है परंतु ऐसा भी नहीं कि इसे खाया जा सके। पर पेट के लिए तो सब करना ही पड़ता है। जीने की जिद और जज्बेी को देखना हो तो एक बार लमटी जरूर देखें।
खैर… हम बात कर रहे थे पलामू और सुखाड़ की। बचपन में पलामू के बारे में हम कई-कई किस्सेे सुना करते थे। उन्हींक में से एक था मनातू स्टे़ट का किस्साम। मनातू स्टेजट में जबरन लोगों को बंधुआ बना कर मजदूरी करवायी जाती थी। मना करने या आनाकानी करने पर स्टे ट के महाराजा अपने पालतू चीता के पिंजरे में मजदूर को फेंकवा देते थे। इस डर से लोग उनके द्वारा किया जानेवाला अत्यााचार चुपचाप सह लेते थे या फिर मौत को गले लगा लेते थे। परंतु अब न स्टेदट रहा और न ही महाराज। फिर भी लोग तड़प रहे हैं, भूख और त्रासदी के पिंजरे से निकलने को छटपटा रहे हैं। लेकिन निकल भी नहीं पा रहे। वे न तो सुकून से जी पा रहे हैं और न ही मर पा रहे हैं। सवाल है कि मौत के मुंह में धकेलनेवाला वह शख्स कौन ह? सरकार, प्रशासन या फिर हम स्वमयं… पर इतना जरूर है कि यह पिंजरा इतना मजबूत ह कि पीढ़‍ियां दम तोड़ दे रही हैं पर उबर नहीं पा रहीं। आखिर क्योंक?
सवाल यह भी है कि जिस साल पलामू में सामान्यी वर्षा होती है, तो वह तकरीबन 1200 मिमी तक होती है। लेकिन जब कम वर्षा होती है तो भी यह करीबन 600 मिमी तक होती है। पी साईंनाथ ने लिखा है कि कम वर्षा होने के बाद यदि ऐसे अन्यय क्षेत्रों का तुलनात्म क अध्यंयन किया जाए तो यह स्पतष्टा होता है कि इससे कम वर्षा वाले क्षेत्र में भी ऐसी तबाही नहीं होती जितनी कि पलामू में। क्योंा? कहीं यह होश की दुनिया के लोगों के द्वारा खड़ा किया गया तमाशा तो नहीं? क्योंू नहीं वे इसका हल ढूंढ पा रहे हैं?
सचमुच यह बड़ा सवाल है और जवाब हम सब को मिलकर खोजना है।
31 JULY 2009

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