Monday, December 31, 2012

प्रेमलता! तुम्हारी प्रेमा कैसी है डीयर?


13 नवंबर 2008, 11.40 पीएम

 अनजान नंबर से फोन आता रहा. मन उखड़ा हुआ था. रीसिव नहीं की. मैसेज आया- प्रेमलता हूं, सोनभद्र वाली. मैसेज देखते ही फोन मिलाना शुरू की, नंबर ऑफ आने लगा. प्रेमलता की यादें ताजा हो गयी. इंटर में बनारस में हम साथ पढ़े थे. मैं या मेरी जैसी कई लड़कियां ऑटो से सफर तय कर पहुंचती थी या घर के लोग स्कूटर के पीछे बैठाकर पहुंचा दिये करते थे. वह भीड़ का सामना करते हुए, रास्ते में आनेवाली बाधाओं को पार करते हुए पांच किलोमीटर की दूरी तय कर साइकिल से आती थी. वह बताती कि साल भर में चार-पांच बार सामूहिक रूप से नाचने-गाने का धार्मिक आयोजन उसके यहां होता है, जिसमें वह खूब नाचती-गाती है और लोग खूब प्रशंसा करते हैं. प्रेमलता घर से रोज रोटी-आंचार लेकर आती थी, खाने से पहले रोज पूछती सबसे- कोई खायेगा क्या? पराठा, पुड़ी और न जाने क्या-क्या आइटम बदलकर लानेवाले भला उसकी रोटी क्यों लेते? हम कॉलेज से हड़बड़ी में जल्दी घर पहुंचने के लिए निकलते, वह इत्मीनान से घंटे-आधे घंटे गप्पे लड़ाकर निकलती. फिल्मी पोस्टरों को देखते जाती, सर्कस-मीना बाजार और डिज्नीलैंड के पोस्टर भी देखती और अगले दिन सुनाती कि कौन सी नयी फिल्म शहर में आयी है, किस हॉल में लगी है आदि-आदि.

 14 नवंबर 2008, 11 पीएम

आज फिर प्रेमलता फोन की. मैं रास्ते में थी, ऑटो की घरघराहट में उससे बात नहीं कर पाती और हाय-हैल्लो करके फोन रखना नहीं चाहती थी, सोची कि ऑटो से उतर जाउं तो बात करूंगी. एक मैसेज डाल दी कि, अभी फोन करती हूं डीयर, बस थोड़ी देर में. ऑटो से उतरकर फोन मिलाई, फिर स्वीच ऑफ. प्रेमलता पर गुस्सा आया कि यह फोन कर के तुरंत ऑफ क्यों कर ले रही है! मैं उससे बात करना चाहती थी. उसके जिंदगी के तजुर्बे को सुनने को बेताब थी कि अब करीब 35 की हो गयी होगी तो इतने सालों में कितनी बदल गयी है! उस वक्त हम जैसी लड़कियां पढ़ाई कर रही थी. वह दिन भर दूसरे की नकल करती, भोजपुरी गाना सुनाती, दैहिक भाषा के इस्तेमाल से कहानियां सुनाती. मैं कहती कि फेल हो जाओगी! वह कहती- तो क्या होगा? आज पास होंगे, कल फिर पढ़ाई करेंगे, तब कहीं नौकरी मिलेगी, फिर घर-बार बसेगा, जिंदगी को जीने के लिए इतना लंबा इंतजार नहीं कर सकती. तब प्रेमलता गलत और नासमझ लगती थी, अब लगता है कि नहीं जिंदगी जीने को लेकर उसकी धारणा भी ही सही थी. हम तो पढ़ाई-लिखाई में उलझे रह गये, इस तसल्ली के साथ कि आगे कुछ कर लेंगे तो जिंदगी जीयेंगे अपने तरीके से, अभी तो बहुत समय बाकी है. प्रेमलता को फोन मिलाती रही और सोची कि उसको कहूंगी कि तुम्हारा तरीका ठीक था, जिंदगी रोज जीने की चीज होती है, कैलकुलेट कर इसे संभावनाओं पर नहीं छोड़ा जा सकता. सुनहरे भविष्य के सहारे वर्तमान को नहीं खोया जा सकता.

15 नवंबर, 2008, 10.30 पीएम 

आज मैं बेहद खुश हूं, क्योंकि आज प्रेमलता से बात हो गयी. मन बहुत दुखी भी है, क्योंकि आज प्रेमलता से जी भर के बातें हुई. वह जब इंटर में दाखिला ही ली थी, तभी कहती थी वह कि ‘‘मैंने अपने बाबा को बोल दिया है कि किसी नटकिया से या गाने-बजानेवाले से ही शादी करना मेरी. मैं उससे कहती थी कि तुम अभी से ही शादी का सोचती हो और घर में यह सब बताती भी हो. वह कहती कि सोचेंगे क्यों नहीं, नहीं सोचेंगे तो भी तो होगा ही. तो क्यों नहीं जो होना तय है, उसके बारे में सोचा भी जाये और घर में पहले से बतायेंगे नही ंतो फिर क्या पता, बाबा किस खूंटे में बांध दे! प्रेमलता कहती थी कि एक ही तो ख्वाब है जिंदगी में कि जब बड़ी हो जाउं तो खुलकर नाचूं, खुलकर गाउं, हजारों की भीड़ में ऐक्टिंग करूं. यह तो तभी संभव होगा न, जब मेरा होनेवाला ‘वो’ भी उन चीजों को समझता हो. उसकी कद्र करता हो. प्रेमलता से आज फोन पर बात हुई तो वह बताने लगी कि उसके बाबा ने उसकी शादी गानेवाले-बजानेवाले-नाटक करनेवाले से तो नहीं की लेकिन वह ऐसा लड़का था, जिसने इन चीजों में रुचि जतायी थी. उसने आश्वस्त किया था बाबा को कि उसके पास पैसा है, वह प्रेमलता को आगे बढ़ाने के लिए आगे सीडी-कैसेट का व्यवसाय भी खड़ा करेगा. उसने बाबा को भरोसा दिलाया कि उसकी बदौलत प्रेमलता और प्रेमलता के बदौलत वह, दोनों ही खूब तरक्की करेंगे. प्रेमलता को भी लगा कि यह भी ठीक ही है. प्रेमलता आज बतायी कि शुरू में तो सब ठीक चलता रहा और उसका पति प्रेमलता के अभिनय का, नाच का, आवाज का दिवाना बना रहा. प्रेमलता पहले की तरह मंचीय गायन करने जाती रही. पहले से भी स्थानीय संगीत के दो अलबम आ चुके थे, पति ने भी अलबम निकलवाये लेकिन प्रेमलता को लोकप्रियता की जो ताकत सार्वजनिक आयोजनों में भाग लेने से मिल रही थी, हजारों की भीड़ से मिलनेवाली ताली से मिल रही थी, उसका पति उससे चीढ़ने लगा. प्रेमलता के गानों में, नाचने में पति को टुच्चेपन का बोध होने लगा. बाजारू-सी लगने लगी वह. प्रेमलता के पास किसी प्रशंसक के भी फोन आते, चिट्ठी आते तो पति झल्ला जाता कि वह क्यों फोन कर रहा है, क्यों तुम्हारी तारीफ कर रहा है. प्रेमलता के पुराने साथी अगर फोन करते तो उसके पति का गुस्सा और बढ़ता जाता. प्रेमलता ने अपने पुराने म्यूजिक अलबमो के कवर को सजाकर रखा था, पति ने उसे जला दिया कि इस अलबम पर तुम रोज किसी और के साथ गलबहियों किये हुए हंसते हुए दिखती हो, मेरा मन जल जाता है. प्रेमलता समझौता करती रही, समझाने की कोशिश करती रही. अपने साथियों को फोन करने से मना कर दी, प्रशंसकों और शुभचिंतकों को ऐसा करने से रोकने का एक ही तरीका था कि प्रेमलता कमरे में कैद हो जाये. सार्वजनिक जीवन से, अपने बचपन के प्रेम गीत-संगीत-नृत्य को छोड़ एक सामान्य औरत भर बनकर रह जाए. प्रेमलता बतायी कि इसीलिए उसका फोन अब अक्सर ऑफ रहता है,क्योंकि वह किसी से बात नहीं करना चाहती. बात करते-करते प्रेमलता मुझसे ही पूछ बैठी कि बताओ न क्या करूं? सोच रही हूं कि एक बच्ची को गोद लेकर एक अलग दुनिया बसा लूं. खुद भी नाचूं-गाउं और बच्ची को भी वैसी ही बनाउं. कोई देखने-सुननेवाला न हो तो भी हम दोनों मां-बेटी आपस में नाचे-गाये. और आगे चलकर मेरी बच्ची, मेरे सपने को पूरा करे. उसे एकल अभिनय में पारंगत करना चाहती हूं ताकि भविष्य मे ंमेरी बच्ची एकल अभिनय से समूह को तो बांधकर रखे लेकिन उसे आगे बढ़ने में किसी मदद की दरकार न हो. प्रेमलता मुझसे सवालिया लहजे में अचानक ही सलाह मांग दी थी, मैं दुविधा में पड़ गयी. लेकिन बिना समय लिये सलाह दे दी कि- प्रेमलता, खुलकर जिंदगी जीते आयी हो, अब क्यों मारोगी खुद को. जैसे चाहती हो, वैसे जीयो. यह उम्र भी जीने की ही है. हर उम्र जीने की होती है.

 13 मार्च 2009, 07पीएम

आज सुबह ही प्रेमलता फोन की. थोड़ी देर इधर-उधर की बात की और फिर एक गहरी और लंबी सांस लेते हुए बोली कि ‘‘ मैं अपनी जिंदगी की राह पर निकल चुकी हूं.एक बिटिया भी देख आयी हूं, जिसकी मां बननेवाली हूं.’’ मैं पूछी कि कितने साल की बेटी ला रही हो घर! प्रेमलता बोली-‘‘ छह साल की.’’ मैंने समझाया कि थोड़ी और छोटी लाती तो अपने तरीके से ढालने में ज्यादा सुविधा और सहूलियत होती. प्रेमलता का जवाब था- ’’किसी के हिसाब से ढलने के लिए उम्र मायने नहीं रखता. किसी को प्यार करने के लिए भी कोई खास उम्र निर्धारित नहीं की गयी है और न ही इसकी परंपरा रही है. किसी को आत्मीय बनाने के लिए भी उम्र की सीमा नहीं होती. सब कुछ भरोसे पर चलता है. अगर ऐसा नहीं होता तो होश संभालते ही शादी की जाती सबकी ताकि एक-दूसरे को शुरू से ही समझें, जाने और प्यार करने की आदत भी डाल लें.उम्र और समय से ज्यादा दूसरी चीजों का महत्व होता है. देखना इस उम्र में भी बिटिया लाकर मैं उसे दूसरी प्रेमलता बनाउंगी. वह बनेगी क्योंकि मैं कभी उससे झूठ नहीं बोलूंगी तो वह भी क्यों झूठ बोलेगी. उसे संस्कार और सरोकार तो बताउंगी लेकिन परंपराओं के बेजा बोझ से उसकी आकांक्षाओं का दमन नहीं करूंगी. बताओ, भला क्यों नहीं प्यार करेगी मुझे! ’’ प्रेमलता लगातार बोलती गयी, मैं जवाब नहीं दे सकी.

29 जनवरी 2012, 12 एएम

आज सुबह से मन बहुत परेशान रहा. एक रिश्तेदार सुबह-सुबह ही घर पहुंचे. बिन मांगे सलाहों की बारिश करते रहे. मेरे पेशे पर टिप्पणी करते रहे. प्रकारांतर से यह साबित करने में लगे रहे कि अगर बड़ी संभावना न हो, बड़ा पद न हो तो महिलाओं को भागदौड़ और सार्वजनिक जीवन में ऐसी धींगामुश्ती वाले काम नहीं करने चाहिए. मुझे समझाते रहे कि घर-परिवार-दुनियादारी मंे ज्यादा मन लगाना चाहिए, वही काम आता है, बाकि सब क्षणिक है. वह उपदेश देकर गये तो मन को ठीक करने के लिए मैं प्रेमलता को फोन मिलायी. पूछी कि बिटिया कैसी है? बोली- बिल्कुल सही, उसका नाम प्रेमा रख दी हूं. अब तो करीब दस साल की होने को आयी है. मैं पूछी कि क्या चल रहा है जिंदगी में. बोली कि सरपट दौड़ा रही हूं जिंदगी को? मैं पूछी- मुश्किल नहीं आयी. प्रेमलता बोली कि मुश्किल किसकी जिंदगी में नहीं है. सब परेशान रहते हैं, बस हैरान करनेवाली बात यह होती है कि जो सबसे ज्यादा दुखी हैं, वे सबसे ज्यादा सुखी दिखते हैं. प्रेमलता बतायी कि जब वह छह साल की बिटिया को लेकर नयी जिंदगी की शुरुआत की तो लोगों ने जिंदगी पर बेचारगी दिखानी शुरू की, मैंने परहेज करना शुरू किया क्योंकि मैं अपनी बेटी प्रेमा पर दया, कृपा और अनुकंपा की परछाईं भी नहीं पड़ने देना चाहती. प्रेमलता बतायी कि वह अपनी बेटी प्रेमा को स्कूल नहीं जाने दी. एक तो पैसे का अभाव और दूसरा अच्छे स्कूल में नहीं भेजने, ज्यादा सुविधा नहीं देने से बेटी के हिनता का शिकार होने का खतरा. प्रेमलता बतायी िकवह घर पर ही उसे पढ़ाती है. रैपिडेक्स से अंग्रेजी का अभ्यास करवाती है. साइकिल चलाना सीखा दी. दुकान पर खरीदारी करने में ट्रेड की. हारमोनियम बजाने का प्रशिक्षण दिलवाती है और खुद भी उसके साथ ही तबला सीखने जाती है ताकि घर आकर प्रेमा हारमोनियम पर गाये तो उसकी मां तबला पर संगत करे. रात के रियाज़ से पड़ोसियों को परेशानी होने लगी, लोग कहने लगे कि गवइया-बजवइया-पतुरिया आ गयी मोहल्ले में, रात को भी जीना मोहाल कर दिया है. प्रेमलता बतायी कि उसने रूटिन बदल दिया. अब वह दिन में अपनी बेटी को गाने का रियाज करवाती है, रात में उसे किस्सा सुनाती है, सुबह प्रेमा उस पर वह अभिनय का रिहर्सल करती है. प्रेमलता बोली, हर हफ्ते उसे फिल्म भी दिखाती हूं, ताकि वह जान सके कि सिनेमा क्या चीज होती है. कैसे नाचा जाता है, कैसे अभिनय किया जाता है. प्रेमलता लगातार बोले जा रही थी. मैं पूछी कि और वह तुम्हारा पति, वह क्या कर रहा है? प्रेमलता हंसते हुए बोली- अब उसके बारे में मैं बताने के फेरे में लगी रहती और उधर उर्जा लगायी रहती तो अपनी प्रेमा के बारे में इतनी बातें कैसे बता पाती. मेरे पास दो ही रास्ते थे. या तो अपनी पूरी आकांक्षा और अरमानों को मार उसके साथ रहती या तो प्रेमा को अपने साथ रखकर उसके जरिये अपने ख्वाबों को पूरा करने की कोशिश करती. वही कर रही हूं. प्रेमा अब तैयार है, बस! कुछ दिनों बाद, मां-बेटी दोनों एक साथ कार्यक्रमों में जायेंगे. एक साथ नाचेंगे. एक साथ गायेंगे. वह गायेगी तो मैं नाचूंगी, मैं गाउंगी तो वह नाचेगी... एक ही बार जिंदगी मिलती है, क्यों बर्बाद करती इसे...प्रेमा से कुछ और पूछना चाहती थी मैं, तब तक उसका फोन कट चुका था. फोन कटने के पहले वह यह जरूर बता दी कि देखो बैटरी खत्म हो रही है, फोन ऑफ होने की गुंजाइश है. प्रेमलता का आखिरी वाक्य था- अब पहले की तरह किसी तनाव में, किसी के गुस्साने के डर से फोन ऑफ नहीं कर रही हूं, बैटरी की वजह से बंद हो रही है. जब जी में आये, तब फोन करना, जी भर कर बतियाउंगी...!

Tuesday, December 18, 2012

जा रही हो, चली जाओगी, थोड़ी देर और बैठो ना...!

अनुपमा कल, जब से यह सूचना मिली है कि शिवकुमार ओझा नहीं रहे, तब से मन बेचैन, परेशान तो है ही, एक अपराध बोध से ग्रस्त भी. वे करीब 98 साल की उम्र में गुजरे. अपनी जिंदगी पूरी जी ली उन्होने. इस उम्र में किसी भी दिन दुनिया को अलविदा कह सकते थे, यह लगभग तय-सा था, लेकिन उनके जाने के बाद लग रहा है कि वे थोड़ी जल्दी चले गये, काश! कुछ दिन और रूक जाते. करीब डेढ़ माह पहले उनका सुबह-सुबह फोन आया था. जानता हूं बेटा की मीडिया में काम करती हो इसलिए समयाभाव रहता होगा, तभी तो मिलने नहीं आ रही हो. लेकिन मुझे लगता है कि मीडियावाले अधिकांश बार काम के बोझ का बहाना बनाकर भी मिलने-जुलने के दायित्वों से छुट्टी पा लेना चाहते हैं. यह कहने के बाद उनका वही पुराना एक संक्षिप्त वाक्य- आओगी नहीं, आओ ना...! पूर्वनिर्धारित कार्य होने के कारण थोड़ी जल्दबाज़ी थी लेकिन फिर भी आनन-फानन में उनके पास पहुंच ही गयी. नहा-धोकर बारामदे में कुर्सी-टेबल पर बैठ कर धूप में नाश्ता कर रहे थे. एक रोटी लेकर नाश्ते में बैठे थे. मुझे जल्दी मची थी, मैं चाहती थी कि वे जल्दी से जल्दी रोटी खत्म कर दें तो मैं भी यहां से निकल जाउं. मैं निकल जाने की हड़बड़ी में थी पर शिष्टाचार वश छोड़ कर नहीं जा प रही थी. और वे रोटी छोड़ बातों में रमते जा रहे थे. दवाइयां दिखाते हुए कह रहे थे कि अब लगता है कि बुढ़ापा आ गया, खाने से ज्यादा दवाइयां दे रहे हैं मुझे घरवाले. उनका शरीर सूजा हुआ था, अच्छे से बोल नहीं पा रहे थे लेकिन बिंदास बने रहने की जिद थी कि वे अपनी बीमारियों से, उम्र से भी लड़कर रोटी खाते-खाते ठहाके लगाने की कोशिश कर रहे थे. उनका नाश्ता खत्म हुआ, निकलने लगी तो उन्होंने वही पुराना वाक्य दुहराया, जिसे सुनने के बाद कितनी भी हड़बड़ी में निकलने को नहीं सोच पाती थी. उन्होंने कहा- जाओगी, चली ही जाओगी, जा ही रही हो, थोड़ी देर और रूको ना, सिर्फ थोड़ी देर और...! उस दिन पहली दफा मैं उनके थोड़ी देर और रूकने के आग्रह को नहीं मान सकी और यह वादा कर विदा हो चली कि कल पक्का आउंगी तो ढेर सारी बातें करूंगी आपके साथ. चलते-चलते पास बुलाकर उन्होंने वही आशीर्वाद दुहराया- स्वस्थ रहो, सुखी रहो, संपन्न रहो...! लेकिन वह कल नहीं आया, मालूम हुआ कि वे इंतजार करते रहे आने का... मन अपराध बोध से भरा हुआ है कि जब मैं नहीं जा सकती थी कि क्यों कह दी थी कि कल आउंगी तो ढेर सारी बातें करूंगी. जब कह ही दी थी तो डेढ़ माह में दो घंटे क्यों नहीं निकाल कर जा पायी उनके पास! ओझाजी के बारे में करीब चार साल पहले जानी थी. वर्तमान में तहलका में सहयोगी निरालाजी तब प्रभात खबर के साथ ही थे. उन्होंने प्रभात खबर में एक पूरे पन्ने में उनके बारे में, उनके साक्षात्कार और जीवन के पन्नों और उनके काम आदि को प्रकाशित कर उनसे रू-ब-रू करवाया था. निरालाजी से ही उनका फोन नंबर प्राप्त कर उनसे मिलने गयी थी. यही सोचकर कि मैं भी लिखूंगी इनके व्यक्तित्व, कृतित्व पर. उनका जीवन प्रभावित करनेवाला था. आजादी की लड़ाई में स्कूली जीवन में ही उनका जेल जाना, फिर बाद में भी जेल जीवन गुजारना, जेल से निकलने के बाद गांधीजी के रहते ही उन पर द कूली बैरिस्टर, देवदर्शन आदि किताबें लिखना प्रेरित किया था. राइडिंग द स्टोर्म भी उनकी चर्चित कृति थी. जब बहार आयी, मैं अकेली, प्रीत की रीत निराली, प्यासा पंछी, मधु के छींटे आदि शीर्षक से करीब आठ उपन्यासों के भी रचनाकार थे वे. उनसे पहली बार मिलने गयी तो यही सोचकर गयी कि एक इंटरव्यू करूंगी, एक प्रोफाइल स्टोरी उनपर करना चाहती थी. इस उम्र में भी कैसे वे इतने सक्रिय रहते हैं, लिखना-पढ़ना जारी रख हुए हैं लेकिन उनसे पहली ही बार हुई मुलाकात में उन पर अपनी पत्रकारिता विधा दिखाने की तैयारी बस धरी कि धरी ही रह गयी और न तो कभी उनका इंटरव्यू जैसा कुछ की और न उन पर कुछ और ही लिख सकी. पहली ही मुलाकात के बाद चलते हुए उन्होंने कह दिया था- तुम्हें अनुपमा नहीं कहूंगा, बड़ा नाम है यह, सिर्फ अनु कहूंगा. साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि तुम इसे जबर्दस्ती ही मानो लेकिन आज से तुम मेरी बेटी हुई. तुम्हें कोई जरूरत तो किसी और को नहीं कहना, मुझे इशारा भर करना, मैं सक्षम हूं अपनी बेटी की जरूरतों को पूरा करने में. उसके बाद कई बार सोची लेकिन हर बार उन्होंने कहा कि अच्छा अगली बार आना तो तुम पत्रकार बनकर आना तब मैं तुम्हें बताउंगा लेकिन वह अगली बार कभी नहीं आया. जाते ही मैं उनकी बेटी होती थी और वे एक ऐसे अनुभवी और खुले दिमाग वाले अभिभावक जो अपने बच्चे को अपनी जिंदगी की हर पहेली को बता देना चाहते थे. हर बात पर कहते, कभी जिंदगी को शर्तों पर नहीं जीना, अपनी पसंद से जिंदगी जीना...! उनकी बातें ही खत्म नहीं होती थीं तो मैं उनका इंटरव्यू कब करती! देश-दुनिया-समाज-राजनीति-फिल्म-प्यार सब पर वे घंटों बातें करते और उसमें खुद को रखकर उसका आकलन करते. बहुत ही निरपेक्ष भाव से. आत्ममुग्धता का शिकार होते हुए उन्हे कभी नहीं देखी, ना ही उनकी कभी चाहत रही कि उनके बारे में अधिक से अधिक लोगों को बताया जाए कि वे भी आजादी के एक सिपाही थे. जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानी पेंशन आदि लेना कभी पसंद नहीं किया और एक महत्वपूर्ण लेखक हैं, जिन्होंने कई किताबें लिखी. वे गांधीजी के साथ गुजारे हुए अपने समय को हमेशा बताते थे. किस्से के अंदाज में बताते कि कैसे वह दिल्ली में हर दिन गांधी जी की प्रार्थना में शामिल होने के लिए साइकिल से जाते थे और एक बार तो ऐसा हुआ कि घनघोर बारिश में सिर्फ गांधीजी, उनके दो सहयोगियों के अलावा सिर्फ वही अकेले बाहरी प्रार्थना सभा में पहुंचे. गांधीजी ने तब चंदा मांगा, इन्होंने एक अन्नी दी और गांधी जी का हाथ ज़ोर से दबाया. गांधीजी ने कहा कि जो है वही दो, लेकिन देशसेवा में अपना योगदान जरूर दो.... हर बात-मुलाकात में ऐसे ही कई किस्से सुनाते थे. अपने प्रेम के किस्से भी सुनाया करते थे. भोजपुरी में कहावतों का जुबानी संग्रह था उनके पास, हर बात में उसका इस्तेमाल करते. हर सुबह दस बजे तक नहा-धोकर एक दम से ऑफिसियल ड्रेस यानि चमकदार सफ़ेद शर्ट पहनकर अपने स्टडी रूम में बैठते और चार घंटे तक कुछ न कुछ लिखते-पढ़ते थे. यह उनका रोज का रूटीन था और फिर शाम को पहले माले से नीचे उतरकर घंटों टहलते. उम्र के 98वें साल में भी. हर रविवार की दोपहर को उनका एक घंटे का समय एक खास प्रायोजन के लिए भी तय था, जिसमें वे किसी किस्म की बाधा पसंद नहीं करते थे और न ही वह कभी उसे मिस करते थे. हर रविवार को दोपहर एक बजे से दो बजे तक वे अपनी बहन से फोन पर बात करते थे. इस उम्र में भाई-बहन को बात करते हुए देखना और फिर दुख-सुख से ज्यादा ठहाका लगाकर हंसने की प्रक्रिया दुर्लभतम थी? ऐसी ही कई दुर्लभ आदतें थीं उनकी. डेढ़ माह पहले जब वादा करके आयी थी कि आपसे अगली बार मिलने आउंगी तो बहुत देर बैठूंगी. गयी तो नहीं मिलने लेकिन सोची थी कि इस बार उनका एक इंटरव्यू कर ही लूंगी और फिर और भी कुछ जानकर उनके बारे में कुछ लिखूंगी. वह इंटरव्यू तो नहीं कर सकी, उनके पास पत्रकार रूप में एक बार भी नहीं जा सकी लेकिन उनसे टुकड़े-टुकड़े में हुई बातों का इतना संग्रह है कि एक मोटी किताब बन जाये लेकिन लिख नहीं पाउंगी. क्योंकि अभी इतना ही लिख रही हूं तो बार-बार लग रहा है कि वे कंप्यूटर स्क्रीन से झांकते और हंसते हुए कह रहे हैं कि अभी नहीं जाना, कुछ देर रूकना, एक गाना भी सुनाउंगा और कुछ खिलाना भी बाकी है तुम्हें...!

Saturday, January 14, 2012

सपनों को सच करने में एक सवाल नजरिये का भी है !

♦ अनुपमा

पिछले साल की बात है। 28 दिवंबर की। उस रोज कितनी खुश थी जॉनी उरांव। खुशी का कारण भी कोई छोटा नहीं था। रांची से सटे बेड़ो के एक किसान परिवार की 18 वर्षीया बिटिया जॉनी ने रांची वीमेंस कॉलेज में स्नातक पार्ट वन की छात्रा रहते हुए देश में रिकार्ड कायम किया। अपने कॉलेज में टॉपर वगैरह बनकर नहीं, बल्कि मुखिया के रूप में चुने जाने के कारण। जॉनी देश में सबसे कम उम्र की मुखिया बनीं। वह खुश थी और उसका खुश होना और हम जैसों को हैरत में पड़ना स्वाभाविक ही था। जॉनी से उस रोज जो बातचीत हुई थी, वह अब भी डायरी के पन्ने में मौजूद है।

उसने झारखंड के कई नेताओं से ज्यादा स्पष्ट उच्चारण के साथ अपनी उम्र से बहुत आगे की गंभीरता दिखाते हुए कहा था, ‘कुछ साथियों ने सलाह दी थी कि जब राजनीति में ही रुचि है, तो चुनाव क्यों नहीं लड़ जाती! मैं साथियों की सलाह से चुनाव लड़ गयी। सिर्फ ट्रायल मारने या शौक पूरा करने के लिए नहीं बल्कि गंभीरता के साथ। चुनाव चल रहा था, तो मैं चुनाव प्रचार से लौटने के बाद रोज ही पंचायत के अधिकार, मुखिया के अधिकार और जिम्मेवारियों का अध्ययन भी करती थी ताकि अगर जीत जाऊं, तो क्या-क्या करूंगी, कैसे-कैसे करूंगी।’

सच में जिस आत्मवशि्वास से 18 साल की जॉनी उरांव अपनी बातों को बता रही थी, वैसा आत्मवशि्वास 20-30 साल से राजनीति-राजनीति का खेल खेलने वाले झारखंड के कई नेताओं में भी देखने को नहीं मिलता। जॉनी की तरह ही जमशेदपुर में एमबीए की एक छात्रा सविता टुडू भी आत्मवशि्वास से लबरेज दिखी थीं। घसियाडीह की रहनेवाली सविता भी मुखिया चुनी गयी थी। सविता ने कहा था कि अब मुझे पंचायत प्रबंधन में ही अपनी सारी ऊर्जा को लगाना है, नौकरी के प्रबंधन के बारे में सोचूंगी भी नहीं। जमशेदपुर के पास से ही एक सबर महिला भी चुनी गयी थी। उसका नाम है ममता सबर। ऐसे कई नाम हैं।

झारखंड में पंचायत चुनाव सपना था। वह पिछले साल हकीकत में बदला। गांव-गांव में सरकार बनी। रांची में बैठनेवाली राज्य की सरकारें साल-दर-साल निराशा के गहरे गर्त में समानेवाला माहौल बनाती रहीं तो उम्मीद की किरणें इस गंवई सरकार पर ही टिकी। जॉनी, ममता और सविता जैसों पर ज्यादा। आधी आबादी की इतनी जोरदार दस्तक पहली बार सुनाई पड़ी थी। 50 प्रतशित का आरक्षण था, लगभग 58 प्रतशित पर जीत हासिल की महिलाओं ने। संख्या के हिसाब से करीब 29 हजार के आसपास महिलाएं। 32 साल बाद और राज्य बनने के बाद पहली बार तमाम पेंच को पार करते हुए पंचायत चुनाव के आये नतीजे ने राज्य के अलग-अलग हिस्से में जॉनी, सविता, ममता की तरह भारी संख्या में आत्मवशि्वासी युवा वर्ग को लोकतंत्र की असली राजनीति में उभरने का मौका दिया। अधिकतर वैसे, जो ठेठ ग्रामीण परिवेश से हैं, कई ऐसे भी जो कैरियर के तमाम मोह को छोड़ बदलाव की छटपटाहट लिये चुनावी मैदान में उतरे थे। इन सबके बीच अब तक मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स के लिए उपेक्षित समुदाय से भी नेताओं का उदय हुआ। एक नजरिये से देखें, तो यह झारखंड बनने के बाद की सबसे बड़ी सामाजिक-राजनीतिक क्रांति हुई।

अब पंचायत चुनाव के एक बरस गुजर गये हैं। झारखंड की राजनीति का मर्सिया गान करनेवाले एक समूह द्वारा पंचायत चुनाव से निकले प्रतिनिधियों की राजनीति का मर्सिया गान भी किया जाने लगा है। पॉपुलर तरीके से लेकिन घटिया अंदाज में। निराशावादी रवैये के साथ। कई ऐसे साथी मिलते हैं, जो कहते हैं कि कहां हुआ कुछ बदलाव! वे बातें ऐसे करते हैं, जैसे बदलाव कोई जादुई छड़ी से निकलनेवाला चमत्कार हो। उन्हें कौन बताये कि 100 सालों के बिहार में जब सब कुछ पटरी पर नहीं आ सका है, तीन-तीन बार पंचायती चुनाव होने के बाद बिहार में जब पंचायती राज व्यवस्था नहीं सुधर सकी है, तो झारखंड से चमत्कार की उम्मीद एक ही बार में क्यों की जा रही है। फिर उसे एक राग की तरह गाये जाने की इतनी अकुलाहट क्यों है?

एक बड़ा सवाल यह भी कि क्या जिस तरह बिहार में महिला प्रतिनिधियों को आइकॉन की तरह बनाकर पेश किया, बिहार की तर्ज पर ही चुनावी राजनीति ने उसे अपनी एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर ब्रांडिंग की! वैसा झारखंड में हुआ या होता दिख रहा है? क्या सरकार, शासन व समाज की ओर से जॉनी, सविता टुडू को उम्मीदों की नायिका बनाने की कोशिश हुई? समाज ने क्या कभी नेताओं-अधिकारियों या मंत्रियों की तरह ही इन नये नेताओं को मान दिया? हौसलाअफजाई की?

राज्य में 4423 पंचायतों में कुल 32,260 गांव आते हैं। इनमें से कई गांव ऐसे हैं, जो आज भी विकास क्या, बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हुए गांव हैं। कई इलाके ऐसे हैं, जो पिछड़ेपन के मामले में देश भर में चुनिंदा इलाकों में से हैं। सुदूर इलाके में कई ऐसे आदिवासी समुदाय वाले पंचायत हैं, जो हाशिये पर रहे हैं। जहां से उस समुदाय के बड़े नेता के अब तक राजनीति में नहीं होने की वजह से कोई अधिकारी, मंत्री, जनप्रतिनिधि वगैरह उन तक पहुंचना भी मुनासिब नहीं समझते थे। अब पंचायत चुनाव के बाद मजबूरी में ही सही, उन इलाकों को भी थोड़ी राहत तो मिल ही रही है। जाहिर सी बात है कि आज अगर पंचायत चुनाव के बाद उन बाशिंदों को छोटी सरकार का सपना साकारा होता दिखा है, तो कल वे बड़ी सरकार में भी अपनी आकांक्षाओं को साकार होता देखना चाहेंगे। पंचायत चुनाव के जरिये नेताओं ने कम से कम उन्हें हाशिये से हस्तक्षेप करने की ताकत दी है। वह कई रूपों में इसका असर आनेवाले कल में दिखेगा। और फिर यह कम है क्या कि झारखंड को पंचायत चुनाव नहीं होने की वजह से हर साल जो लगभग 500 करोड़ रुपये की केंद्रीय राशि का नुकसान सहना पड़ रहा था, अब वह नहीं होगा।

सवाल नजरिये का है…!

(झारखंड सरकार के मीडिया फेलोशिप के तहत लिखा गया लेख

सत्ता मिलने के बाद भी सरलता नहीं गयी आमोलिना की


♦ अनुपमा

स्थानीय बोली की मिलावट के साथ फटाफट-धड़ाधड़ हिंदी में बोलती हैं आमोलिना सारम। उनके चेहरे पर उपजा भाव उनके आत्मविश्वास को दिखाता है। कुछ करने की बेचैनी और जिज्ञासा जनता के प्रति उनकी निष्ठा को। वह और मुखिया की तरह चमचमाती बोलेरो के आगे मुखिया लिखवा कर सड़कों पर धूल उड़ाती नहीं चलती। पैदल उन्हें गांव-गांव घूमते हर रोज देखा जा सकता है। आमोलिना के बारे में जो बातें पहले से जानकारी दी गयी थी, उनसे और उनके बारे में लोगों से बातचीत होने पर एक नयी धारणा बनती है। हमें बताया गया था कि आमोलिना सारम वह महिला है, जिन्हें चुनाव लड़ने के पहले पेंच-दर-पेंच का सामना करना पड़ा था। पेंच इतने फंसाये गये थे कि उन्हें मानसिक तौर पर तोड़ देने की पूरी कोशिश की गयी थी। और जब तमाम पेंचों से निकल कर वह पंचायत की मुखिया बनीं, तो टूटने के बजाय मजबूती से एक मिसाल के रूप में सामने आयीं।

आमोलिना आदिवासी ईसाई हैं। उनके पति युनूस अंसारी मुसलमान। आमोलिना झारखंड में होनेवाले पहले पंचायत चुनाव में उतरने का मन पहले से ही बना चुकी थीं लेकिन जब उन्‍होंने इस दिशा में पहला कदम ही बढाया, तो उनके कुछ प्रतिद्वंद्वियों ने नामांकन से पहले जातिगत पेंच फंसा दिया। आमोलिना जिस पंचायत से जीती हैं, वह लोहरदगा जिले के किस्को प्रखंड का नवाडीह पंचायत है। यहीं से वो मुखिया चुनी गयी हैं। यह सीट अनुसूचित जनजाति व महिला आरक्षित सीट थी। निर्वाचन आयोग में जब लोगों ने शिकायत की, तो पहले उन्हें नामांकन करने से ही रोक दिया गया। फिर उन्होंने डीसी व एसडीओ को ज्ञापन दिया और कहा कि आखिर मेरी जाति क्या है, यह आपलोग ही तय कर दीजिए। मैं आखिर कैसे जिंदगी जीऊंगी। मेरे पास कोई तो जाति होनी चाहिए। आखिर एक मुसलमान से शादी करना गुनाह है क्या? बाद में उन्हें कहा गया कि चूंकि आपने आदिवासी समाज में जन्म लिया है और यह मातृसत्तात्मक समाज है, इसलिए आपकी पहचान आदिवासी के रूप में ही है। सर्टिफिकेट मिलने के बाद उन्होंने नामांकन किया। घर-घर जाकर लोगों से वोट मांगने के बजाय आमोलिना ने यह बताना शुरू किया कि वोट कैसे डालते हैं। खुद के चुनने या नहीं चुनने का निर्णय मतदाताओं पर ही छोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि जिले में आमोलिना ने रिकार्ड मत हासिल किया। उन्हें मुखिया पद के लिए 10 वोट मिले। उनकी प्रतिद्वंद्वी राजमुनी उरांव को 600 के करीब मत मिले।

आमोलिना कहती हैं, अब वह सब पुरानी बातें हुईं। मैं जानती थी कि मैंने खुद को समाज में, समाज के लिए खपाया है तो मुझे जीतने से कोई नहीं रोक सकता। अब जाति का पेंच फंसानेवालों का क्या किया जा सकता है? वह कहती हैं कि अब मैं पीछे मुड़कर नहीं देखती न देखना चाहती। मेरी चिंता यह है कि मेरे पास फंड नहीं है और काम इतना पड़ा है कि पूछिए मत। लोगों के पास उम्मीदों का सैलाब है और मेरे पास चुटकी भर संसाधन। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। सिर्फ चुनाव कराने से नहीं होगा।

ऐसा नहीं कि आमोलिना सिर्फ यह सब बोलकर किसी सामान्य नेता की तरह लंबी-लंबी बातें करने और दूसरे पर दोष थोप अपनी नाकामियों को छुपा लेने की कला दिखा रही होती हैं बल्कि वह अहले सुबह से देर रात तक समस्या और समाधान की तरकीबों की दुनिया में रहती और जीती भी हैं। वह घर-घर और दफ्तर-दफ्तर जाकर समस्याएं सुनती हैं। यथासंभव दूर करवाने की कोशिश करती हैं। उनके आंख खोलने से पहले ही उनके घर पर आनेवालों का तांता लगना शुरू हो जाता है। हर सुबह आमोलिना के मिट्टी वाले छोटे खपरैल घर में जनता दरबार की तरह मजमा लगता है। वह बड़े धैर्य से एक-एक कर लोगों की समस्याएं सुनती हैं।

आमोलिना कहती हैं, मुझसे अपने दायरे में जितना संभव होता है, उतना करने की कोशिश कर रही हूं लेकिन मुझे पता है कि बदलाव की कोशिशें पंचायत स्तर से ही कामयाब होगी और बिगड़ाव की गुंजाइश भी सबसे ज्यादा यहीं रहती है। वह कहती हैं कि मैं बचपन से ही आर्थिक और सामाजिक संघर्ष करती आयी हूं, आगे भी करती रहूंगी। लोग चुनाव जीतते ही गाड़ी और बॉडीगार्ड खोजने लगते हैं, पर मैं किसी से नहीं डरती और न कोई सुविधा खोजती हूं। मैं सिर्फ और सिर्फ काम में भरोसा करती हूं और इसीलिए मीलों पैदल ही निकल पड़ती हूं।

आमोलिना पहले नवा विहान में पढ़ाती थी। टीसीडीएस नाम की संस्था भी चलाती थी। लेकिन अब सिर्फ जनता के बीच समय देती हूं और जिन उम्मीदों के लिए चुनी गयी हूं, उसी पर ध्यान केंद्रित करती हूं। अब हमने कार्यकारी समिति का समूह भी बनाया है और और हर महीने की पांच तारीख को ग्रामसभा में बैठक होती है। यहीं तय होता है कि आगे क्‍या करना है। चुनाव के छह महीने बाद तक तो कोई पावर ही नहीं था लेकिन अब हमने अपने पंचायत के सभी वृद्धों को, विधवाओं और विकलांगों को चिन्हित कर उनके पेंशन की व्यवस्था करवा दी है। इसमें उन्हें 400 रुपये प्रति माह अब मिलेंगे तो थोड़ी सुविधा होगी उन्हें। केंद्र से 22 इंदिरा आवास बनवाने के लिए राशि देने की बात है, तो हमने ग्रामसभा से चयनित करवा कर लिस्ट भेज दी है। अब उनके लिए आवास आवंटित करवाऊंगी। आपदा प्रबंधन से दो लाख मिले थे, जिससे हमने चापानल, कुआं मरम्मती करवायी है। टीआरडीएस का जो फंड 4 लाख 84 हजार आया था, उससे पंचायत का समान खरीदा है। कुर्सी, टेबल, दरी, कंप्यूटर, आलमीरा आदि।

आमोलिना जो कहती हैं, वह कोरी बात भी नहीं होती। इस बार की बारिश में झारखंड में मनरेगा के तहत बने कुएं करीब-करीब भरभरा गये।

लेकिन उनके यहां बत्तीसों कुएं एक इंच भी नहीं धंसे। आमोलिना ने चार तालाबों से मनरेगा के तहत मिट्टी निकलवाने का काम करवाया। वह कहती हैं कि मैं मानती हूं कि मनरेगा सिर्फ टाइम पास रोजगार योजना नहीं बल्कि यह सृजन का भी बड़ा जरिया है। वही कोशिश कर रही हूं। अगर कुछ और फंड आये, तो मैं अपने पंचायत को आदर्श पंचायत के रूप में स्थापित कर दूंगी। यह वादा नहीं, दावा है।

नवाडीह पंचायत में नीनी, नवाडीह, नारी, दुरहुल सरना टोली आदि गांव हैं। इस पंचायत में साझा संस्कृति-धर्म वाले बाशिंदे हैं। उरांव, मुलमान, ईसाई, सरना, हिंदू सब हैं। इलाके में 4000 वोटर हैं। आबादी करीब 10,000 है। परिवार लगभग 2000 हैं। हालांकि नवाडीह में स्कूलों की संख्या तो आठ है लेकिन सड़कों के अभाव में बच्‍चों को कीचड़ से ही गुजर कर जाना पड़ता है। प्रखंड मुख्यालय जाना हो तो नदी-नाले पार करने पड़ते हैं। नवाडीह के एक स्कूल को जमीन नहीं मिलने के कारण दिक्कत हो रही है। साढ़े तीन लाख रुपये आये थे लेकिन लौट गये। यदि जमीन मिल जाती तो कक्षाएं, चापानल, शौचालय आदि बन पाता। मैं कोशिश करूंगी कि वह करवा दूं। जनता दबाव बनाती है, पर मेरे हाथ बंधे होने के कारण मैं कुछ नहीं कर पाती, जितना मुझे करना चाहिए। हम सवाल करते हैं, तो घर कैसे संभालती हैं? जवाब मिलता है थोड़ा उसके साथ भी समझौता करना पड़ता है। लेकिन इतनी व्यस्तता के बावजूद मैं घर का सारा काम करती हूं और आधा घंटा समय बच्चों को पढ़ाने में जरूर लगाती हूं। मैं गरीब परिवार से रही हूं। बचपन से ही संघर्ष किया है, परेशानियां झेली हैं।

आमोलिना की छोटी-छोटी मुश्किलें हैं लेकिन वह बड़े अभियान की तैयारी में भी लगी हुई हैं। उसने पाखर माइंस में मजदूरों की बहाली करवाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया हैं। वह कहती हैं, यहां हिंडालको 60 वर्षों से खनन कर रहा है। लेकिन किसी को काम पर नहीं रखा। हम चाहते हैं कि जो पत्तल, दातुन और लकड़ी बेचते हैं, उन्हें नौकरी मिले। जो आदिवासी लड़कियां भट्ठे में काम करती हैं या बेच दी जाती हैं, उनके लिए भी कुछ हो…

(झारखंड सरकार के मीडिया फेलोशिप के तहत लिखा गया लेख)