Tuesday, January 25, 2011

गांव में सरकार बनी, राज्य में उम्मीद जगी


झारखंड में पंचायत चुनाव सपना था, अब चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने और परिणाम आने के बाद वह हकीकत में बदल गया है. गांव-गांव में सरकार बनने की प्रक्रिया जारी है. राज्य निर्माण के बाद पहली बार हुए पंचायत चुनाव ने राज्य के विकास के लिए एक नयी आधारशिला तो तैयार की ही है, राज्य की मेनस्ट्रीम पोलिटिक्स को भी प्रभावित करने लगा है. आधी आबादी ने पहली बार इतनी जोरदार दस्तक दी है, पढ़े-लिखे नौजवानों ने अपने कैरियर का मोह छोड़ गांव की राजनीति को पसंद किया है, कई माओवादी भी लोकतंत्र की राह पकड़ इस गांव-गिरांव की सरकार में शामिल हो रहे हैं. उम्मीद की जा रही है कि इन सभी बातों का असर राजनीतिक और आर्थिक विकास के मोरचे पर जड़वत हो चुके झारखंड पर निकट भविष्य में देखने को मिलेगा. कैसा होगा असर, क्या है उम्मीदें, एक रिपोर्टः-



अनुपमा
28 दिसंबर को जाॅनी उरांव की खुशी देखते ही बन रही थी. रांची से सटे बेड़ो के एक किसान परिवार की 18 वर्षीया बेटी जाॅनी रांची वीमेंस काॅलेज में स्नातक पार्ट वन की छात्रा हैं और उस दिन उनकी यह खुशी अपने काॅलेज में टाॅपर बनने की नहीं बल्कि मुखिया चुने जाने की थी. इतनी छोटी उम्र में जाॅनी मुखिया बनी तो हैरत भरी निगाहों से उन्हें लोग देख रहे थे लेकिन जाॅनी जब बातचीत शुरू करती हैं तो झारखंड के कई नेताओं से ज्यादा स्पष्ट उच्चारण के साथ अपनी उम्र से बहुत आगे की गंभीरता दिखाती हैं. जाॅनी कहती हैं,‘‘ कुछ साथियों ने सलाह दी थी कि अगर समाज को बदलने की इतनी इच्छा रखती हो तो चुनाव क्यों नहीं लड़ जाती और मैं साथियों की सलाह से चुनाव लड़ गयी. सिर्फ ट्रायल मारने या शौक पूरा करने के लिए नहीं बल्कि चुनाव चल रहा था तो मैं चुनाव प्रचार से लौटने के बाद रोज ही पंचायत के अधिकार, मुखिया के अधिकार और जिम्मेवारियों का अध्ययन भी करती थी ताकि अगर जीत जाउं तो क्या-क्या करूंगी, कैसे-कैसे करूंगी. जाॅनी कहती हैं कि जीतने से पहले ही मैं शिक्षा को बढ़ावा देने, बुनियादी समस्याओं को दूर करने का खाका तैयार कर चुकी हूं.’’ सच में जिस आत्मविश्वास से 18 साल की जाॅनी उरांव अपनी बातों को बता रही थी, वैसा आत्मविश्वास 20-30 साल से राजनीति-राजनीति का खेल खेलने वाले झारखंड के कई नेताओं मंे भी देखने को नहीं मिलता. जिस दिन रांची में जाॅनी से बात हो रही थी, उसी दिन जमशेदपुर में एमबीए की एक छात्रा सविता टुडू भी उसी आत्मविश्वास से लवरेज मीडिया से मुखातिब हो रही थी. घसियाडीह की रहनेवाली सविता भी मुखिया चुनी गयीं. वह कहती हैं कि अब मुझे पंचायत प्रबंधन में ही अपनी सारी उर्जा को लगाना है, नौकरी के बारे में तो सोचूंगी भी नहीं.
32 साल बाद और राज्य बनने के बाद पहली बार तमाम पेंच को पार करते हुए पंचायत चुनाव के आये नतीजे ने राज्य के अलग-अलग हिस्से में जाॅनी, सविता की तरह भारी संख्या में आत्मविश्वासी युवा वर्ग को लोकतंत्र की असली राजनीति में उभरने का मौका दिया है.. अधिकतर वैसे हैं, जो ठेठ ग्रामीण परिवेश से आते हैं, कई ऐसे हैं जो कैरियर के तमाम मोह को छोड़ बदलाव की छअपटाहट लिए चुनावी मैदान में उतरे थे और इन सबके बीच अब तक मेनस्ट्रीम पेालिटिक्स के लिए उपेक्षित समुदाय से भी इन ग्रासरूट नेताओं का उदय हुआ है. अर्थशास्त्री और इंस्टीट्यूट आॅफ ह्ूमैन डेवलपमेंट के झारखंड चैप्टर के प्रमुख प्रो हरिश्वर दयाल कहते हैं, झारखंड की राजनीति में यह नया उभार तमाम तरह के सवालों के बीच उम्मीद की किरण दिखा रहा है. प्रो दयाल कहते हैं कि इस पहली बार के पंचायत चुनाव में अलग-अलग हिस्से में अच्छी-खासी संख्या में माओवादी संगठन से जुड़े लोगों का भी चुनावी मैदान में उतरने की खबर आयी थी. बहुत बड़ा नहीं तो छोटे स्तर पर ही सही, माओवादियों की मेनस्ट्रीमिंग होने से भविष्य में बेहतरी की उम्मीद कर सकते हैं. राज्य महिला आयोग की सदस्य व वरिष्ठ पत्रकार वासवी इसे अलग नजरिये से देखती हैं. वह कहती हैं कि यह झारखंड बनने के बाद की सबसे बड़ी सामाजिक क्रांति है, जिसके जरिये देहरी तक सीमित रहनेवाली गांव-घर की महिलाएं भी अब समाज और सत्ता के मेनस्ट्रीम में दस्तक दे रही हैं. घर में नमक-तेल का बजट बनानेवाली महिलाएं गांव-पंचायत के विकास के लिए बजट बनायेंगी.बेशक उन्हें शुरुआती दौर में कई किस्म के परेशानियों का सामना करना पड़ेगा लेकिन कुल सीटों के मुकाबले लगभग 60 प्रतिशत सीटों पर कब्जा जमानेवाली आधी आबादी झारखंड की राजनीति को एक नयी दिशा में ले जायेंगी, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए.
यह सच भी है. झारखंड के राजनीतिक दल भी इस बदलाव की ताकत को समझ रहे हैं और उन्हें भी इस बात का अहसास है कि निकट भविष्य में मुख्यधारा की राजनीति पर इसका असर पड़ेगा. राज्य में भले ही पंचायत चुनाव पार्टी के आधार पर नहीं हुआ लेकिन राजनीतिक दलों ने चुनाव के वक्त जिस तरह की रुचि दिखायी, उससे कुछ और संकेत भी मिलते हैं. झारख्ंांड के आगामी विधानसभा और आम चुनावों में भी इसका असर दिखेगा क्योंकि राजनीतिक दलों को यह बात अब समझ में आने लगी है कि धीरे- धीरे ही सही, गांव मंे रहनेवाले नौजवानों और वर्तमान पीढ़ी को गांव में सरकार का एक नया रूप देखने को मिलेगा. और फिर इस आधार पर वे बड़े नेताओं से भी अपने लिए बड़ी उम्मीदें रखेंगे. पंचायत चुनाव का झारखंड की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा, यह अभी से दिखने भी लगा है. कांग्रेस और भाजपा, दोनों राष्ट्रीय दलों के नेता अपनी डफली पर अपना राग गाने के अलावा पंचायत चुनाव के जरिये पहली बार गांव-गांव में सरकार बनानेवाले प्रतिनिधियों को अपने पाले में करने की जुगत में लग गये हैं. यह अकारण नहीं था कि 12 जनवरी को भाजपा और कांग्रेस, दोनों दलों के वरिष्ठ नेता इस संबंध में बयान देते नजर आयें. केंद्रीय मंत्री सह रांची के सांसद सुबोधकांत 12 जनवरी को राजधानी से सटे पिस्का-नगड़ी के इलाके में नवनिर्वाचित पंचायत समिति के सदस्यों, मुखिया व पार्षदों को सम्मानित करने पहुंचे तो उन्होंने इस बात पर बार-बार जोर दिया कि आज यह गांव की सरकार का सपना कांग्रेस और सोनिया गांधी की इच्छाशक्ति के कारण ही संभव हो सका है. दूसरी ओर उसी दिन राजधानी रांची के पास ही रातू इलाके में रांची के पूर्व सांसद व भाजपा नेता रामटहल चैधरी भी ऐसे ही आयोजन में भाग लेने पहुंचे और उन्होंने भी अपनी सभा में इस बात को बार-बार दुहराया कि आज पंचायत चुनाव के जरिये झारखंड नयी पारी करने को तैयार है तो यह भाजपा के कारण ही संभव हो सका है. इन दो बड़े राष्ट्रीय दलों के अलावा झारखंडी नामधारी पार्टियां तो चुनाव के समय से ही खुलकर उम्मीदवारों का समर्थन और उम्मीदवारों को अपने पक्ष में करने के अभियान में लगी हुई थीं.
पंचायत चुनाव को लेकर शुरू से ही सवाल-दर-सवाल उठानेवाले लोग अब भी यह मान रहे हैं कि इस पंचायत चुनाव के हो जाने से पिछले दस सालों से राजनीतिक और आर्थिक विकास के मोरचे पर जड़वत झारखंड में कोई बड़ी तब्दीली नहीं होने वाली. झारखंड में अब भी एक बड़ा वर्ग यही मान रहा है कि पंचायत चुनाव हो जाने से भी कुछ नहीं होगा बल्कि भ्रष्टाचार और लूट का विकेंद्रीकरण होगा लेकिन झारखंड के पूर्व डीजीपी और सलाहकार रह चुके आरआर प्रसाद जैसे लोग स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि, पहले फेज में हो सकता है कि ऐसा स्वरूप बनता हुए दिखे लेकिन चीजें तेजी से पटरी पर भी आयेंगी. ऐसे वाद-विवाद तो चलते रहेंगे लेकिन अब यह तय हो गया है कि झारखंड को पंचायत चुनाव नहीं होने की वजह से हर साल जो लगभग 500 करोड़ रुपये की केंद्रीय राशि का नुकसान सहना पड़ रहा था, अब वह नहीं होगा.
राज्य में 4423 पंचायतों में कुल 32,260 गांव आते हैं. इनमें से कई गांव ऐसे हैं जो आज भी विकास क्या बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हुए गांव हैं. कई इलाके ऐसे हैं, जो पिछड़ेपन के मामले में देश भर में चुनिंदा इलाकों में आते हैं तो कई ऐसे आदिवासी समुदाय वाले पंचायत हैं, जहां से उस समुदाय के बड़े नेता के अब तक राजनीति में नहीं होने की वजह से कोई अधिकारी, मंत्री, जनप्रतिनिधि वगैरह उन तक पहुंचना भी मुनासिब नहीं समझते थे. अब पंचायत चुनाव के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि मजबूरी में ही सही, उन इलाकों को भी थोड़ी राहत तो मिलेगी ही. यह बताया जा रहा है कि शीघ्र ही बैकवर्ड रिजन ग्रांट फंड, इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान आदि के तहत हर पंचायत को औसतन 2.73 करोड़ रुपये मिलेंगे, जिसे मुखिया के माध्यम से इंदिरा आवास, ग्रामीण सड़कों के निर्माण, पंचायत भवन निर्माण, नाली निर्माण, वनरोपण, चेक डेम निर्माण, आंगनबाड़ी केंद्रों के संचालन, ख्ेाल मैदानों के विकास आदि पर खर्च किया जाएगा. जाहिर सी बात है, झारखंड में पिछले दस सालों में यह भी तो ठीक से नहीं ही हो सका है, इसलिए गांव में बनी पहली सरकार से पहले फेज में इस बदलाव की उम्मीद तो है ही.

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