Saturday, June 25, 2011

जीवन के संघर्ष को देसज स्वर देनेवाला जमीनी फिल्मकार

अनुपमा

50 साल की उम्र में जब अमूमन लोग रिटारयमेंट की उम्र की ओर बढ़ रहे होते हैं और सुखद भविष्य के ताने-बाने बुनने में ही अपनी उर्जा लगा रहे होते हैं, उस उम्र मंे एक आदमी कैमरा का एबीसीडी जानना शुरू करता है. कैमरे की भाषा को समझने के साथ-साथ उसका प्रयोग शुरू करता है. इस उम्र में फिल्मकार बनने को सोचता है और आठ सालों में कैमरे और मानवीय संवेदना, सामाजिक सरोकार और संघर्ष के स्वरों का मेलजोल कराने में इतना माहिर हो जाता है कि अपनी उम्र के 58वंे साल में जब वह शख्स पहुंचता है और 58वें राष्ट्रीय पुरस्कार की घोषणा होती है तो उसकी दो फिल्मों को एक साथ रजत कमल श्रेणी में रख लिया जाता है. सोशल ऐक्टिविज्म करते-करते वीडियो ऐक्टिविज्म करनेवाले इस 58 वर्षीय शख्स का नाम है मेघनाथ, जिनकी दो फिल्में ‘ लोहा गरम है’ और ‘ एक रोपा धान’ को इस साल राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा की गयी है.
उनकी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा इस साल हुई है. लेकिन इसके काफी पहले उनकी फिल्मों की पहचान राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुकी है. दुनिया भर में इनकी या इनके फिल्मों की ख्याति को आंकना हो तो इसे 2003 में इनके द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘ विकास बंदूक की नाल से’ से समझा जा सकता है. मेघनाथ ने यह फिल्म तो बनायी थी हिंदी में लेकिन उस फिल्म की ताकत को समझनेवाले लोगों ने उसे अपनी भाषाओं में तेजी से ढाल लिया. इंग्लिश, फ्रेंच, स्पेनिश में उसे बनाया जा चुका है. दुनिया के 50 से अधिक विश्वविद्यालयों में उसका प्रदर्शन हो चुका है. विकास का एजेंडा सेट करने से पहले उस फिल्म को दिखाया जाता है. यूट्यूब पर जाये ंतो अब तक 5,26,000 से ज्यादा लोग उस एक फिल्म को देख चुके हैं. लेकिन यह सब मेघनाथ की बाहरी दुनिया है. रांची, जहां वे रहते हैं, उस छोटे-से शहर में उन्हें जानने-पहचाननेवालों की जमात कुछ ज्यादा नहीं. कुछ लोग हैं, जो उन्हें नाम के साथ-साथ उनके काम से भी परिचित हैं. कई ऐसे भी हैं, जिनके बीच उनकी पहचान खद्दड़ वाला हाफ कुरता पहनकर झकझक सफेद दाढ़ी-बाल लहराते हुए हीरो पुक बाइक पर शहर की सड़कों पर इधर-उधर घूमते रहनेवाले एक बुजुर्ग शख्स भर की है, जो आयोजनों में दर्शक दीर्घा में बैठा दिखता है, कभी नौजवानों-किशोरों के साथ बैठकर फिल्मों पर घंटों गप्पबाजियां करता रहता है या बच्चों को फिल्म पढ़ाने काॅलेज कैंपस जाते रहता है. लेकिन मेघनाथ जान-पहचान के इस दायरे को और ज्यादा बढ़ाना भी नहीं चाहते. रांची शहर के बाहरी हिस्से में एक छोटे से घर में कैद होकर अपने फिल्मकार साथी बिजू टोप्पो के साथ फिल्मो की दुनिया मे खोये रहना ही उन्हें ज्यादा भाता है. उस छोटे से मकान को लोग ‘ अखड़ा’ के नाम से जानते हैं और बिजू टोप्पो मेघनाथ के वह साथी हैं, जिनके साथ मेघनाथ ने फिल्मी यात्रा शुरू की, अब भी जारी है. इस साल मेघनाथ और बिजू, दोनों को संयुक्त रूप से राष्ट्रीय पुरस्कार मिलेगा. मेघनाथ कहते हैं- सब बिजू ही करता है, मैं तो उसके साथ रहता हूं. बिजू से पूछिए तो कहते हैं- सब दादा करते हैं, मैं तो उनके कहे अनुसार करता हूं. दोनों एक-दूसरे को क्रेडिट देते रहते हैं. बिजू अभी हाल ही में एक फिल्म बनाये हैं, जिसका नाम है सोना गही पिंजरा. अपने गांव-घर के सदस्यों को लेकर ही बिजू ने इस फिल्म का निर्माण कर दिया है. भागदौड़ की जिंदगी में मानव समाज कैसे पारिवारिक, सामूहिक और सांस्कृतिक परिवेश से मजबूरी में कटता जा रहा है,उसी विडंबना को बिजू ने इस फिल्म में दिखाया है. मेघनाथ और बिजू हमेशा एक साथ फिल्मों पर काम करते हैं, एक साथ फिल्में बनाते हैं लेकिन एक विषय पर दोनों की सोच में बड़ा फर्क है. मेघनाथ फीचर फिल्मों के निर्माण से तौबा करते नजर आते हैं तो बिजू कहते हैं- क्यों नहीं बनायेंगे फीचर फिल्म, जरूर बनायेंगे लेकिन वह अपने तरीके की फिल्म होगी. अपना विषय होगा, अपने लोग नायक-नायिका होंगे, परिवेश भी अपना होगा, लेकिन बनायेंगे तो जरूर. इस बात पर मेघनाथ हंसते हुए कहते हैं, जब बिजू बनायेगा तो समझिये मैं भी बनाउंगा.
मेघनाथ अपने बारे में बात करने से बचते हैं. वह कहते हैं, मैं बंबई का बंगाली हूं लेकिन मुझे झारखंडी कहलाना ज्यादा आत्मीय संतोष प्रदान करता है. मेघनाथ पिछले दो दशक से झारखं डमें रच-बस गये हैं. बंबई में पिताजी उद्योगपति थे. वहां से कोलकाता चले आये और संत जेवियर्स काॅलेज से पढ़ाई-लिखाई पूरी हुई. पढ़ाई के दौरान ही संत जेवियर्स काॅलेज के केमिस्ट्री विभाग के अध्यक्ष मशहूर समाजसेवी फादर जेराल्ड बेकर्स से मुलाकात हुई. मेघनाथ बताते हैं, बेकर्स से पहली मुलाकात 1971 के रिफ्यूजी कैंप में हुई, उनसे ही समाजसेवा की प्रेरणा मिली और फिर एमए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर झारख्ंाड के पलामू इलाके में चले आये. छोटे- छोटे चेक डैमों के निर्माण के लिए ग्रामीणों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर आंदोलन करने में लग गये. फिर कोयलकारो आंदोलन हुआ तो उसमें भी शरीक हुए और जब अलग राज्य निर्माण के लिए झारखंड आंदोलन चला तो उसमें भी भाग लिये. मेघनाथ से यह पूछने पर कि फिल्मों मंे अचानक कैसे टर्न हो गये, कहते हैं- अचानक कुछ नहीं हुआ. बचपन से ही फिल्मों के परिवेश से परिचित था. पलामू में काम करने के दौरान ही लगा कि फिल्मों से इनकी बातों को स्वर दिया जा सकता है. फिर मैंने किसी छात्र की तरह इसे सीखने का निर्णय लिया. 1988-89 में एक्टिविस्ट फिल्म वर्कशोप हुआ तो उसमें भाग लिया. फिर दिल्ली जाकर आनंद पटवर्धन के साथ रहा. उनसे बहुत कुछ सीखा. वहीं पर ‘ फ्राॅम बीहाइंड द बैरिकेट’ फिल्म को असिस्ट किया. बाद में पुणे में जाकर फिल्म एप्रेसिएशन कोर्स किया. एक छात्र की तरह सब सीखता रहा और फिर जब झारखंड लौटा तो बिजू, सुनील मिंज, जेवियर आदि मित्रों के साथ फिल्म बनाने में लग गया. साथी फिल्म बनाते रहे, उसमें मैं भी अपनी भूमिका का निर्वहन करता रहा. जनजीवन के संघर्ष को ही प्रमुख विषय बनाये जाने के सवाल पर मेघनाथ हंसते हुए कहते हैं- अनजाने में ही सही, बचपन में मैंने पहला संघर्ष और आंदोलन अपने पिताजी के खिलाफ ही किया था. पिताजी की बंबई में फैक्ट्री थी. मजदूर उनके खिलाफ अंादेोलनरत थे. मैं भी उनके आंदोलन में शामिल हो गया. बाद में जाना कि मैं अपने पिता के खिलाफ ही आंदोलन में चला गया था. फिर गंभीरता से मेघनाथ कहते हैं- संघर्ष को सामूहिक स्वर देना ही तो फिल्मों का काम है, फिल्में मनोरंजन का साधन नहीं है, यही तो समझाने की कोशिश करता हूं, नये लड़कों को. सौ में दस भी समझ जायेंगे तो समझूंगा कि फिल्मों को काॅलेजों में पढ़ाते रहने का मेरा मकसद सफल हो रहा है...


मशहूर फिल्म ऐक्टिविस्ट मेघनाथ से बातचीत

सिनेमा के सामाजिक प्रयोग की संभावनाएं अभी शेष हैं, उसी में संभावनाएं तलाश रहा हूं

1. आपकी दो फिल्मों को इस बार राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए चुना गया है. आपकी नजर में इन दोनों फिल्मों की खासियतें क्या हैं?
- सम्मान या पुरस्कार मिलना, न मिलना अलग बात है लेकिन हर फिल्म की अपनी खासियतें तो होती ही हैं. राष्ट्रीय पुरस्कार समारोह के लिए हमारी दो फिल्में ‘ एक रोपा धान’ और ‘ आयरन इज हाॅट’ का चयन हुआ है. एक संघर्ष की फिल्म है, दूसरे रचना की. आयरन इज हाॅट यानि लोहा गरम है में संघर्ष है, एक रोपा धान में रचना है. लोहा गरम है में हमने यह दिखाने की कोशिश की है कि स्पंज आयरन फैक्ट्रियां कैसे झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में लोगों की जिंदगानियां खत्म कर रही हैं. एक रोपा धान किसानों को प्रेरित करनेवाली फिल्म है.
2. आप खुद फिल्म बनाये. जिनके मसले को लेकर फिल्म बनाये, वही नहीं देख सके तो फिर डोक्यूमेंट्री फिल्में विशेषकर अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों का मकसद क्या है?
- यह सच है कि भारत में मुख्यधारा की सिनेमा की जो ताकत है, उसका जो चक्रव्यूह है, उसके सामने डोक्यूमेंट्री या अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों की कोई औकात नहीं. हमारे पास सबसे बड़ी चुनौती स्क्रीनिंग की है. लेकिन तकनीक के विकास से चीजें अब आसान हो रही हैं. अब आप उनके बीच, जिनके लिए, जिनके सवालों को लेकर या जिन्हें प्रेरित करने के लिए फिल्मों का निर्माण हो रहा है, फिल्में दिखा सकते हैं. रही बात मकसद की तो मेरा यह मानना है कि ऐसी फिल्मों का मकसद सिनेमा के सामाजिक व शैक्षणिक प्रयोग के आधार को मजबूत करना है. भारत में यह होना अभी बाकी है. सिनेमा मनोरंजन के लिए होता है, मनोरंजन का माध्यम है, ऐसा मानने वाले तो अधिकतर मिलेंगे ही. दक्षिण के राज्यों में एमजी रामचंद्रण, करूणानिधि, एनटी रामाराव जैसे लोग सिनेमा का राजनीतिक प्रयोग भी मजबूती से कर इस परंपरा को स्थापित कर चुके हैं लेकिन इस सशक्त विधा के सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षणिक प्रयोग का अध्याय शुरू होना अभी बाकी है.
3.पब्लिक रिस्पांस के आधार पर आपको अपनी किस फिल्म को बनाकर सबसे ज्यादा संतुष्टि मिली?
- हमें सबसे ज्यादा शुकून तो ‘ कोड़ा राजी’ बनाते हुए मिला. अपने इलाके के लोग कैसे चाय बगान में काम करने बंगाल व पूर्वोत्तर के हिस्से में पहुंचे और वहां पहुंचने पर किन मुश्किलों और चुनौतियों का सामना करते हुए अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं, यह करीब से देखने-समझने का मौका मिला. आज भी चाय बगान इलाके से मजदूर आते हैं और कोड़ा राजी की चर्चा करते हैं. अपनी बात रखते हैं ताकि बदलते संदर्भ और बढ़ती चुनौतियों पर उनके सवालों को लेकर दूसरी फिल्म भी बनायी जा सके. वैसे ‘ विकास बंदूक की नाल से’ फिल्म का अपना महत्व रहा. उस फिल्म को देखने के बाद उडि़सा के कोरापुट, पुरसिल आदि इलाके के ग्रामीणों ने कारपोरेट लुटेरों से बचने के लिए अपने-अपने गांव में गेट लगा दिये.चींटी लड़े पहाड़ से फिल्म का व्यापक स्तर पर पलामू के महुआडांड़, कोयलकारो आदि इलाके में प्रदर्शन हुआ. आयरन इज हाॅट और गांव छोड़ब नाही जैसी फिल्में जिंदल और मिततल जैसी कंपनियों से लड़ रहे आंदोलनकारियों को उर्जा प्रदान करती है.

4.आपकी फिल्मों की राजनीतिक धारा अमूमन वामपंथ की रही है. राजनीतिक रूप से वामपंथ का गढ़ ही अपने देश में ढह रहे हैं. फिर फिल्मों में वाम राजनीति का भविष्य कितना बचेगा?
- माक्र्सवादियों के साथ यही तो सबसे बड़ी विडंबना है िक वे सिर्फ संघर्ष-संघर्ष की रट लगाते रहते हैं. संघर्ष के साथ रचना भी हो, इसकी कोशिश ही नहीं हुई. मुझे इस मामले में गांधी का माॅडल सबसे ज्यादा पसंद है कि संघर्ष के साथ रचना करते रहो. बंगाल में माक्र्सवादी 34 साल से संघर्ष का ही पाठ पढ़ाते रह गये. और राजनीति के कचरे लोग रचनात्मक माॅडल खड़ा करते रहे. चाहे वह तमिलनाडु का हेल्थ सिस्टम में किया गया प्रयोग हो या छत्तीसगढ़ का पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम का नया स्वरूप. बंगाल ने 34 वर्षों में कौन सा ऐसा माॅडल दिया! मेरे मित्र शंकर गुहा नियोगी कहते रहे कि संघर्ष कर रहे हैं. काहे का ऐसा संघर्ष जिसमें रचना की गुंजाइश ही न हो. लेकिन इतनी शिकायतें और नाराजगी के बावजूद मैं चाहता हूं कि भारतीय राजनीति में वाम मजबूत हो. ममता बनर्जी के लोगों ने सिंगुर-नंदिग्राम आंदोलन के दौरान कई बार मेरी फिल्म ‘ गांव छोड़ब नाही’ फिल्म के उपयोग करने के लिए हमसे संपर्क किया लेकिन हमने मना कर दिया,क्योंकि हम वाम को नुकसान पहुंचाने वाले अभियान का हिस्सा नहीं बन सकते.
5.दर्जन भर से अधिक डोक्यूमेंट्री अथवा अल्टरनेटिव धारा की फिल्मों को बना लेने के बाद क्या भविष्य में फीचर फिल्म बनाने के बारे में भी सोचते हैं.
- ना, कतई नहीं. उस बारे में तो कभी सोचते ही नहीं. जो कर रहा हूं, यदि उसे ही अच्छे से कर सकंू तो यही मेरे लिए ज्यादा होगा. हां फीचर फिल्मों का विषय मेरे जेहन में है. कभी किसी निर्देशक के माध्यम से मेरा वह आइडिया जरूर सामने आयेगा लेकिन मैं खुद फीचर फिल्मों के निर्माण या निर्देश्ज्ञन के बारे में कभी नहीं सोचता. व्ही शांताराम को मकसद के रूप में गुरू की तरह मानता हूं. आदमी, दो आंखें बारह हाथ जैसी फिल्मों का निर्माण उन्होंने वर्षो पहले किया था. वैसी फिल्मों का निर्माण फिर कम ही हो सका. कुछ-कुछ वैसी फिल्मों की परिकल्पना जेहन में है, खैर, वह तो बाद की बात है.

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