Thursday, August 1, 2013

उन्माद में बदलता आनंद का खेल


अनुपमा 

गोलबंदी कर बैठे हुए लोग सिटी बजाना तेज कर देते हैं. तालियों की गड़गड़ाहट शोर में बदलने लगती है. उसी हो-हल्ले में सुभाष अपने मुंह से तरह-तरह की आवाज निकालनी शुरू कर देता है. देखते ही देखते रोमांच का रंग उन्माद में बदलने लगता है. करीब 15-20 फीट की गोलाई वाले आकार में दो मुर्गों के बीच लड़ाई तेज हो जाती है. चाकुओं से बंधे पैर के साथ दोनों मुर्गे इतने खतरनाक तरीके से पैंतरे लेते हैं, दांव बदल-बदलकर इतनी चतुराई और बिजली-सी तेज़ी से एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं कि उस वक्त उनके रणक्षेत्र में जाने का साहस कोई भारी-भरकम शरीर वाला हट्ठा-कट्ठा व्यक्ति भी आसानी से नहीं कर सकता. युद्ध के करीब सातवें-आठवें मिनट में एक मुर्गा लहूलुहान होकर परास्त हो जाता है. उसके पेट में चाकू लगा है. उसे तुरंत उठाकर बाहर ले जाया जाता है, उसका इलाज शुरू हो जाता है. दूसरा मुर्गा, जो विजेता है, वह दर्शकों से घिरे गोलाकार मैदान में इस अंदाज में घुमाया जाता है, जैसे टीवी पर आनेवाले वर्ल्ड फाइट शो में एक मुक्केबाज दूसरे को परास्त कर अपनी भुजाओं और बाहों को दिखाता हुआ  घूमता है या फिर कुश्ती के अखाड़े में कोई पहलवान, दूसरे को चित्त करने के बाद छाती चौड़ी  कर खुले बदन खुद का बल प्रदर्शन करता है. और जब मुर्गों की जांबाजी खत्म हो जाती है, एक परास्त और दूसरा विजयी हो जाता है, उसके बाद पैसा बटोरने और बांटने का दूसरा खेल शुरू होता है. पांच मिनट के अंदर 20-30-40-50 हजार या फिर लाख-डेढ़ लाख तक बंटवारा या कलेक्शन हो जाता है. यह पैसा उन मुर्गों की जांबाजी पर खेल शुरू होने के पहले लगाये गये सट्टे का होता है. पैसे का खेल रफा-दफा होता है उसके तुरंत बाद फिर उसी मैदान में दो, दूसरे मुर्गे आमने-सामने हाजिर हो जाते हैं. फिर बोली लगनी शुरू हो जाती है. झारखंड की राजधानी रांची के प्रसिद्ध जगन्नापुर मंदिर के पास मुर्गों की जांबाजी के इस खेल को देखना रोमांचित या आनंदित कम और उन्माद का भाव ज्यादा पैदा करता है. लेकिन पीढि़यों से और पारंपरिक तौर पर झारखंड के आदिवासी इलाके में मनोरंजन के लिए बेहद लोकप्रिय रहे मुर्गा लड़ाई के इस खेल का वर्तमान स्वरूप ऐसा ही हो चुका है. कभी बिना चाकू के इस्तेमाल के, अहिंसक तरीके से मुर्गे को लड़वाकर आनंदित, रोमांचित होनेवाला आदिवासी समाज अपने ही इस खेल का तमाशबीन भर बनता जा रहा है और पैसे वाले लोग इसे सट्टे का खेल बनाने और परवान चढ़ाने में लगे हुए हैं. 
जगन्नाथपुर मंदिर के पास मुर्गे की जांबाजी का यह खेल देखने के बाद मन में दो सवाल उमड़ते हैं. पहला यह कि ये मुर्गे इतने खतरनाक खेल के लिए तैयार कैसे किये जाते होंगे, क्या इनकी कोई खास नस्ल होती है और दूसरा यह कि गरीबों के मनोरंजन का यह खेल पैसेवालों के शगल और सट्टे का खेल कैसे बन गया और बन ही गया है तो क्या मुर्गे की जांबाजी पर सट्टे का खेल बड़े कारोबार का रूप ले चुका है
हम पहले सवाल का जवाब भोला महली से पूछते हैं. भोला पहले रांची अवस्थित हैवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन लिमिटेड के कर्मी थे लेकिन 1962 से मुर्गेबाज भी हैं यानि मुर्गा लड़ाने का काम भी करते हैं. भोला बताते हैं, यह खेल झारखंड और दक्षिण भारत के इलाके में पीढ़ियों से मशहूर रहा है. दक्षिण में इसे कुडू पूंजू और राज पूंजू भी कहते हैं.यह खेल पहले दक्षिण में  चौबीसो घंटे चलता था लेकिन वहाँ मुर्गे के पैर में हथियार बांधने की जगह दूसरा तरीका अपनाया जाता था. चाकू की बजाए मुर्गे के पांव को ही धारदार बनाया जाता था. मुर्गे के पांव के पिछले वाले हिस्से (पंजों के ऊपर का हिस्सा) में सुअर की टट्टी और रीठे के छिलके को पिस कर उसे बांध दिया जाता था. यह पट्टी एक सप्ताह बाद खोली जाती थी लेकिन तब तक 24 घंटे उसपर पानी डालकर भिगोया जाता था. इस प्रक्रिया से वहाँ गाँठे कांटे की तरह बाहर निकल आती है. और इसी से एक मुर्गा, दूसरे मुर्गे पर वार कर घायल कर देता था. भोला बताते हैं कि जो भी व्यक्ति लड़ाने के उद्देश्य से अपने घरों में मुर्गा पालते हैं, वे उसे संतान की तरह पालते-पोसते हैं. मुर्गे को जरा भी चोट लगने पर खुद डॉक्टर की तरह इंजेक्शन देते हैं या उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं. मुर्गों को अंधेरे में रखकर उन्मादी बनाते हैं. उसे मुर्गियों से हमेशा दूर रखते हैं. यदि उनके पेट में कुछ परेशानी हुई या फिर पेट खराब हो तो पुदीन हरा देते हैं. मुर्गों को ताकतवर बनाने के लिए उनके खाने में सूखी मछली का घोल, किसमिस, मड़ुवा, उबला हुआ मक्का और समय-समय पर मल्टी विटामिन का इंजेक्शन भी देते हैं. बकौल भोला, मुर्गे के बारे में बस इतना जानिए वह ऊपरवाले की नियामत है और बहुत जांबाज प्राणी है. वह अपने मुर्गे को समय-समय पर लगी चोटों को दिखाते हुए कहते हैं कि अगर मुर्गा लड़ते-लड़ते घायल हो जाए, उसके शरीर का कोई हिस्सा फट कर बाहर आ जाए तो तुरंत उसकी सिलाई खुद से ही कर दीजिए, वह तुरंत फिर लड़ने को तैयार हो जाएगा. भोला एक और जानकारी देते हैं. कहते हैं कि सुनहले बालों वाले मुर्गे की लड़ाई में मांग ज्यादा होती है, क्योंकि वह ज्यादा मजबूत होता है और मुर्गा लड़वाने वाले लोग इसकी खरीदारी चटगांव और विजयनगरम से करवाते हैं. भोला कहते हैं, अब इन मुर्गों की कीमत मत पूछिएगा. लाख तक भी हो सकती है. 
भोला महली एक मुर्गे की कीमत जब लाख तक पहुंचाते हैं तो सुनकर बड़ी हैरत होती है कि आखिर एक मुर्गे के लिए इतनी बड़ी रकम कौन लगाता होगा और आखिर क्यों? इस जवाब को तलाशने के लिए हम जगन्नाथपुर मंदिर के बाद रांची के आसपास के इलाके में होनेवाले मुर्गे  की लड़ाई में अलग-अलग तय दिनों पर पहुंचते हैं. सोमवार और शुक्रवार को अनीटोला, बुधवार और गुरूवार को कटहल मोड़, शनिवार को रातू बगीचा... इन जगहों पर दूसरे कई तरह की नयी जानकारियां भी मिलती हैं. ओरमांझी के कुच्चू गांव के रहनेवाले मनराज बताते हैं कि  मुर्गे की लड़ाई में उसके पैरों में जो अंग्रेजी के यू आकार का हथियार देख रही हैं, उसे चाकू-तलवार नहीं उसे कत्थी कहा जाता है और उसे हर कोई भी नहीं बांध सकता. उसे बांधने की भी एक खास कला है और जो बांधना जानते हैं, उन्हें कातकीर कहा जाता है. एक कातकीर एक मुर्गे के पैर में कत्थी बांधने का तीन सौ रूपये लेता है और अगर वह मुर्गा जीत गया तो दो सौ रुपये ऊपर  से भी उसे मिल जाते हैं. मनराज कत्थी के प्रकार को भी बताते हैं. कहते हैं बांकी, बांकड़ी, सुल्फी, छुरिया चार तरह के हथियारों का इस्तेमाल मुर्गे के पांव में बांधने के लिए होता है, जिसमें बांकड़ी सबसे खतरनाक होती है. ये सब ठोस इस्पात के बने होते हैं, जिसे बनानेवाले कारीगर भी अलग होते हैं. अलग-अलग नामों वाले हथियारों का इस्तेमाल भी अलग-अलग मौके के हिसाब से किया जाता है. यानि खतरनाक तरीके से लड़ना है तो खतरनाक हथियार, सामान्य से लड़ना है तो सामान्य हथियार. मनराज नयी जानकारी देते हैं, जो पारंपरिक जानकारी के करीब होती है. इसी क्रम में यह जानकारी भी मिलती है कि सिर्फ रांची व इसके आसपास ही नहीं बल्कि पूरे झारखंड में मुर्गा लड़ाई का खेल होता है. कटहल मोड़ पर मुर्गा लड़ानेवाले विजय बताते हैं कि यह खेल पहले राजा-महाराजाओं के सौजन्य से लगनेवाले हाट-मेले में होता था, जहां गांव के आदिवासी लोग अपने-अपने मुर्गे को लेकर पहुंचते थे और फिर मनोरंजन के लिए ग्रामीण पसंद के मुर्गे पर कभी-कभार कुछ बोली भी लगा देते थे लेकिन अधिकांश बार बाजी सिर्फ मुर्गे की जीत हार पर ही लगती थी. यानि जो मुर्गा हार जाएगा, उस मुर्गे को जीतनेवाले मुर्गे का मालिक लेकर चला जाएगा. अब उसकी मर्जी पर है कि वह उस मुर्गे को पाले-पोसे या फिर खा जाए. 
मुर्गा लड़ाई में वर्षों से दिलचस्पी रखनेवाले विजय टेटे हमें कुछ मुर्गे की लड़ाई के आर्थिक समीकरण को समझाने की कोशिश करते हैं. बकौल विजय, गांव से तो मुर्गा पालनेवाले अब भी मुर्गा लड़ाई के दौरान अपने-अपने मुर्गे को लेकर आते हैं लेकिन मैदान में पहुंचने के पहले ही उस पर सट्टेबाजों का कब्जा हो जाता है. जिसके पास हाजरा मुर्गा (मुर्गे का एक प्रकार) होता है, उसके पीछे सट्टेबाज सबसे ज्यादा चलते हैं. टेटे कहते हैं, पहले हो सकता है कि सप्ताह में एक दिन यह खेल मनोरंजन के लिए होता होगा और घंटे-दो घंटे में सब समाप्त हो जाता होगा लेकिन अब तो सिर्फ रांची में ही हर रोज किसी न किसी इलाके में यह खेल होता है और एक-एक दिन में 40-50 लड़ाइयां हो जाती हैं. एक लड़ाई पर कम से कम 20-25 हजार से लेकर लाख-दो लाख तक की बोली चली जाती है. बकौल विजय, इन मुर्गों को पहले मैदान में उतारकर देख लिया जाता है, चोंच आपस में लड़ाकर भी देख लिया जाता है. फिर उन्हें मैदान में उतार दिया जाता है. जो मैदान देखते ही पीछे की ओर मुड़कर चलता है, उस दिन उसे या तो नहीं लड़ाया जाता या अगर लड़ता है तो उस पर बोलियां नहीं लगती. उसके पहले मुरगे को आपस में आमने-सामने कर भी देख लिया जाता है. यानि पूरी तैयारी और ठोक-बजाकर मुर्गेबाज सट्टोरियों को दिखा देते हैं, तब दांव लगने का खेल शुरू होता है. विजय कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि सिर्फ सट्टेबाज ही इसमें कमाई करते हैं. सट्टेबाज तो खैर लाखों में खेलते हैं लेकिन मुर्गा लड़ाई का यह खेल एक धंधे की तरह होता है. आप सोचिए कि एक बार हथियार बांधने वाला कम से कम 300 रुपये  लेता है. अगर उसने दिन भर में 20-30 के हथियार भी बांध दिये तो पांच-छह हजार तो उसकी जेब में आ ही जाते हैं. इसी तरह मुर्गा के डॉक्टर अलग होते हैं, जो मौके पर इलाज भी करते हैं. उनकी कमाई भी अलग होती है और गांव के जो लोग अपने घरों में मुर्गा पालते हैं, उनकी आमदनी भी अब इतनी होने लगी है कि वे घर बना लें, गाड़ी खरीद लें. कई मुर्गेबाज़ अब इस स्थिति में दिखते हैं. मुर्गे के खेल का समाजशास्त्र, राजनीतिशास़्त्र कम लोग समझाते हैं, उसके अर्थशास्त्र को समझानेवाले बहुतेरे मिलते हैं. हमें उसका एक अपराधशास्त्र भी दिखायी पड़ता है. प्रायः जहां अब मुर्गा लड़ाई का खेल होता हैं, वहां दारू के अड्डे भी चोरी-छुपे चलाये जाते हैं और मटका का खेल यानि लोकल लॉटरी (जुआ) भी जमकर होता है. इतनी जानकारियां लेने के बाद मशहूर पत्रकार पी साइंनाथ की किताब तीसरी फसल में भी मलकानगिरी में मुर्गे की लड़ाई पर लिखी एक रपट पढ़ने को मिलती है. साईंनाथ लिखते हैं- जब से हथियारों का इस्तेमाल मुर्गे के पैर में खेल के लिए होने लगा है, तब से यह परंपरागत खेल खतरनाक हो गया है और पहले जो खेल आनंद के लिए घंटों चलता था, वह चंद मिनटों में खत्म हो जाता है, क्योंकि इतनी ही देर में बिजली की तरह झपटकर एक दूसरे पर वार करनेवाले दो मुर्गों में से कोई एक घायल हो जाता है. साईंनाथ को पढ़ते हुए और कई जगहों पर मुर्गा लड़ाई देखने के बाद यह साफ हो जाता है कि हथियारों का चलन भी सट्टेबाजों ने ही बढ़ाया होगा, क्योंकि मुर्गे जब हथियार से लड़ेंगे तो खेल जल्द खत्म होगा. अगर एक खेल जल्द खत्म होगा तब तो दूसरे, तीसरे,चौथे... यानि एक दिन में 40-50 खेल की गुंजाइश बनेगी. और ये  फंडा तो आईने की तरह साफ है कि जितने ज्यादा खेल होंगे, जितनी ज्यादा लड़ाइयां, उतना ही ज्यादा पैसों का दांव.