Tuesday, January 25, 2011

गांव में सरकार बनी, राज्य में उम्मीद जगी


झारखंड में पंचायत चुनाव सपना था, अब चुनाव प्रक्रिया संपन्न होने और परिणाम आने के बाद वह हकीकत में बदल गया है. गांव-गांव में सरकार बनने की प्रक्रिया जारी है. राज्य निर्माण के बाद पहली बार हुए पंचायत चुनाव ने राज्य के विकास के लिए एक नयी आधारशिला तो तैयार की ही है, राज्य की मेनस्ट्रीम पोलिटिक्स को भी प्रभावित करने लगा है. आधी आबादी ने पहली बार इतनी जोरदार दस्तक दी है, पढ़े-लिखे नौजवानों ने अपने कैरियर का मोह छोड़ गांव की राजनीति को पसंद किया है, कई माओवादी भी लोकतंत्र की राह पकड़ इस गांव-गिरांव की सरकार में शामिल हो रहे हैं. उम्मीद की जा रही है कि इन सभी बातों का असर राजनीतिक और आर्थिक विकास के मोरचे पर जड़वत हो चुके झारखंड पर निकट भविष्य में देखने को मिलेगा. कैसा होगा असर, क्या है उम्मीदें, एक रिपोर्टः-



अनुपमा
28 दिसंबर को जाॅनी उरांव की खुशी देखते ही बन रही थी. रांची से सटे बेड़ो के एक किसान परिवार की 18 वर्षीया बेटी जाॅनी रांची वीमेंस काॅलेज में स्नातक पार्ट वन की छात्रा हैं और उस दिन उनकी यह खुशी अपने काॅलेज में टाॅपर बनने की नहीं बल्कि मुखिया चुने जाने की थी. इतनी छोटी उम्र में जाॅनी मुखिया बनी तो हैरत भरी निगाहों से उन्हें लोग देख रहे थे लेकिन जाॅनी जब बातचीत शुरू करती हैं तो झारखंड के कई नेताओं से ज्यादा स्पष्ट उच्चारण के साथ अपनी उम्र से बहुत आगे की गंभीरता दिखाती हैं. जाॅनी कहती हैं,‘‘ कुछ साथियों ने सलाह दी थी कि अगर समाज को बदलने की इतनी इच्छा रखती हो तो चुनाव क्यों नहीं लड़ जाती और मैं साथियों की सलाह से चुनाव लड़ गयी. सिर्फ ट्रायल मारने या शौक पूरा करने के लिए नहीं बल्कि चुनाव चल रहा था तो मैं चुनाव प्रचार से लौटने के बाद रोज ही पंचायत के अधिकार, मुखिया के अधिकार और जिम्मेवारियों का अध्ययन भी करती थी ताकि अगर जीत जाउं तो क्या-क्या करूंगी, कैसे-कैसे करूंगी. जाॅनी कहती हैं कि जीतने से पहले ही मैं शिक्षा को बढ़ावा देने, बुनियादी समस्याओं को दूर करने का खाका तैयार कर चुकी हूं.’’ सच में जिस आत्मविश्वास से 18 साल की जाॅनी उरांव अपनी बातों को बता रही थी, वैसा आत्मविश्वास 20-30 साल से राजनीति-राजनीति का खेल खेलने वाले झारखंड के कई नेताओं मंे भी देखने को नहीं मिलता. जिस दिन रांची में जाॅनी से बात हो रही थी, उसी दिन जमशेदपुर में एमबीए की एक छात्रा सविता टुडू भी उसी आत्मविश्वास से लवरेज मीडिया से मुखातिब हो रही थी. घसियाडीह की रहनेवाली सविता भी मुखिया चुनी गयीं. वह कहती हैं कि अब मुझे पंचायत प्रबंधन में ही अपनी सारी उर्जा को लगाना है, नौकरी के बारे में तो सोचूंगी भी नहीं.
32 साल बाद और राज्य बनने के बाद पहली बार तमाम पेंच को पार करते हुए पंचायत चुनाव के आये नतीजे ने राज्य के अलग-अलग हिस्से में जाॅनी, सविता की तरह भारी संख्या में आत्मविश्वासी युवा वर्ग को लोकतंत्र की असली राजनीति में उभरने का मौका दिया है.. अधिकतर वैसे हैं, जो ठेठ ग्रामीण परिवेश से आते हैं, कई ऐसे हैं जो कैरियर के तमाम मोह को छोड़ बदलाव की छअपटाहट लिए चुनावी मैदान में उतरे थे और इन सबके बीच अब तक मेनस्ट्रीम पेालिटिक्स के लिए उपेक्षित समुदाय से भी इन ग्रासरूट नेताओं का उदय हुआ है. अर्थशास्त्री और इंस्टीट्यूट आॅफ ह्ूमैन डेवलपमेंट के झारखंड चैप्टर के प्रमुख प्रो हरिश्वर दयाल कहते हैं, झारखंड की राजनीति में यह नया उभार तमाम तरह के सवालों के बीच उम्मीद की किरण दिखा रहा है. प्रो दयाल कहते हैं कि इस पहली बार के पंचायत चुनाव में अलग-अलग हिस्से में अच्छी-खासी संख्या में माओवादी संगठन से जुड़े लोगों का भी चुनावी मैदान में उतरने की खबर आयी थी. बहुत बड़ा नहीं तो छोटे स्तर पर ही सही, माओवादियों की मेनस्ट्रीमिंग होने से भविष्य में बेहतरी की उम्मीद कर सकते हैं. राज्य महिला आयोग की सदस्य व वरिष्ठ पत्रकार वासवी इसे अलग नजरिये से देखती हैं. वह कहती हैं कि यह झारखंड बनने के बाद की सबसे बड़ी सामाजिक क्रांति है, जिसके जरिये देहरी तक सीमित रहनेवाली गांव-घर की महिलाएं भी अब समाज और सत्ता के मेनस्ट्रीम में दस्तक दे रही हैं. घर में नमक-तेल का बजट बनानेवाली महिलाएं गांव-पंचायत के विकास के लिए बजट बनायेंगी.बेशक उन्हें शुरुआती दौर में कई किस्म के परेशानियों का सामना करना पड़ेगा लेकिन कुल सीटों के मुकाबले लगभग 60 प्रतिशत सीटों पर कब्जा जमानेवाली आधी आबादी झारखंड की राजनीति को एक नयी दिशा में ले जायेंगी, इसकी उम्मीद की जानी चाहिए.
यह सच भी है. झारखंड के राजनीतिक दल भी इस बदलाव की ताकत को समझ रहे हैं और उन्हें भी इस बात का अहसास है कि निकट भविष्य में मुख्यधारा की राजनीति पर इसका असर पड़ेगा. राज्य में भले ही पंचायत चुनाव पार्टी के आधार पर नहीं हुआ लेकिन राजनीतिक दलों ने चुनाव के वक्त जिस तरह की रुचि दिखायी, उससे कुछ और संकेत भी मिलते हैं. झारख्ंांड के आगामी विधानसभा और आम चुनावों में भी इसका असर दिखेगा क्योंकि राजनीतिक दलों को यह बात अब समझ में आने लगी है कि धीरे- धीरे ही सही, गांव मंे रहनेवाले नौजवानों और वर्तमान पीढ़ी को गांव में सरकार का एक नया रूप देखने को मिलेगा. और फिर इस आधार पर वे बड़े नेताओं से भी अपने लिए बड़ी उम्मीदें रखेंगे. पंचायत चुनाव का झारखंड की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा, यह अभी से दिखने भी लगा है. कांग्रेस और भाजपा, दोनों राष्ट्रीय दलों के नेता अपनी डफली पर अपना राग गाने के अलावा पंचायत चुनाव के जरिये पहली बार गांव-गांव में सरकार बनानेवाले प्रतिनिधियों को अपने पाले में करने की जुगत में लग गये हैं. यह अकारण नहीं था कि 12 जनवरी को भाजपा और कांग्रेस, दोनों दलों के वरिष्ठ नेता इस संबंध में बयान देते नजर आयें. केंद्रीय मंत्री सह रांची के सांसद सुबोधकांत 12 जनवरी को राजधानी से सटे पिस्का-नगड़ी के इलाके में नवनिर्वाचित पंचायत समिति के सदस्यों, मुखिया व पार्षदों को सम्मानित करने पहुंचे तो उन्होंने इस बात पर बार-बार जोर दिया कि आज यह गांव की सरकार का सपना कांग्रेस और सोनिया गांधी की इच्छाशक्ति के कारण ही संभव हो सका है. दूसरी ओर उसी दिन राजधानी रांची के पास ही रातू इलाके में रांची के पूर्व सांसद व भाजपा नेता रामटहल चैधरी भी ऐसे ही आयोजन में भाग लेने पहुंचे और उन्होंने भी अपनी सभा में इस बात को बार-बार दुहराया कि आज पंचायत चुनाव के जरिये झारखंड नयी पारी करने को तैयार है तो यह भाजपा के कारण ही संभव हो सका है. इन दो बड़े राष्ट्रीय दलों के अलावा झारखंडी नामधारी पार्टियां तो चुनाव के समय से ही खुलकर उम्मीदवारों का समर्थन और उम्मीदवारों को अपने पक्ष में करने के अभियान में लगी हुई थीं.
पंचायत चुनाव को लेकर शुरू से ही सवाल-दर-सवाल उठानेवाले लोग अब भी यह मान रहे हैं कि इस पंचायत चुनाव के हो जाने से पिछले दस सालों से राजनीतिक और आर्थिक विकास के मोरचे पर जड़वत झारखंड में कोई बड़ी तब्दीली नहीं होने वाली. झारखंड में अब भी एक बड़ा वर्ग यही मान रहा है कि पंचायत चुनाव हो जाने से भी कुछ नहीं होगा बल्कि भ्रष्टाचार और लूट का विकेंद्रीकरण होगा लेकिन झारखंड के पूर्व डीजीपी और सलाहकार रह चुके आरआर प्रसाद जैसे लोग स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि, पहले फेज में हो सकता है कि ऐसा स्वरूप बनता हुए दिखे लेकिन चीजें तेजी से पटरी पर भी आयेंगी. ऐसे वाद-विवाद तो चलते रहेंगे लेकिन अब यह तय हो गया है कि झारखंड को पंचायत चुनाव नहीं होने की वजह से हर साल जो लगभग 500 करोड़ रुपये की केंद्रीय राशि का नुकसान सहना पड़ रहा था, अब वह नहीं होगा.
राज्य में 4423 पंचायतों में कुल 32,260 गांव आते हैं. इनमें से कई गांव ऐसे हैं जो आज भी विकास क्या बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हुए गांव हैं. कई इलाके ऐसे हैं, जो पिछड़ेपन के मामले में देश भर में चुनिंदा इलाकों में आते हैं तो कई ऐसे आदिवासी समुदाय वाले पंचायत हैं, जहां से उस समुदाय के बड़े नेता के अब तक राजनीति में नहीं होने की वजह से कोई अधिकारी, मंत्री, जनप्रतिनिधि वगैरह उन तक पहुंचना भी मुनासिब नहीं समझते थे. अब पंचायत चुनाव के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि मजबूरी में ही सही, उन इलाकों को भी थोड़ी राहत तो मिलेगी ही. यह बताया जा रहा है कि शीघ्र ही बैकवर्ड रिजन ग्रांट फंड, इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान आदि के तहत हर पंचायत को औसतन 2.73 करोड़ रुपये मिलेंगे, जिसे मुखिया के माध्यम से इंदिरा आवास, ग्रामीण सड़कों के निर्माण, पंचायत भवन निर्माण, नाली निर्माण, वनरोपण, चेक डेम निर्माण, आंगनबाड़ी केंद्रों के संचालन, ख्ेाल मैदानों के विकास आदि पर खर्च किया जाएगा. जाहिर सी बात है, झारखंड में पिछले दस सालों में यह भी तो ठीक से नहीं ही हो सका है, इसलिए गांव में बनी पहली सरकार से पहले फेज में इस बदलाव की उम्मीद तो है ही.

Monday, January 24, 2011

दूसरा दंतेवाड़ा


यह दंडकारण्य का वह दंतेवाड़ा तो नहीं, जहां के एक बड़े हिस्से में माओवादियों द्वारा पीपुल्स गवर्नमेंट का राज चलता है लेकिन एशिया का सबसे बड़ा साल जंगल सारंडा पिछले दस सालों में जिस मुहाने पर पहुंच चुका है, वहां उसे दूसरा दंतेवाड़ा ही कहा जा सकता है. 80 हजार हेक्टेयर में फैला यह विशालकाय क्षेत्र कभी अपनी खूबसूरती के लिए जाना जाता था अब यह माओवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ होने की वजह से चरचे में आता है या फिर अवैध खनन के कारण. सितंबर माह के आखिरी दिनों में सारंडा फिर से गरमाहट में था. तीन दिनों तक करीबन चार हजार पुलिस बलों ने सारंडा के एक हिस्से में एंटी नक्सल आॅपरेशन चलाया. हासिल क्या हुआ, नहीं कहा जा सकता लेकिन सारंडा का सन्नाटा गोलियों से कुछ देर के लिए टूटा और फिर उसी सन्नाटे के आगोश में समा गया. सारंडा के जंगल से लौटकर वहां के हालात पर पेश है एक रिपोर्ट



बहादुर सिंह मुंडा एक-एक कर बातों को समझाते हैं. जब हम सारंडा के इलाके में प्रवेश करेंगे तो गाड़ी का हाॅर्न कुछ अंतराल पर लगातार बजते रहना चाहिए. गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम दुरुस्त रखना होगा. तेज आवाज में गीत-संगीत बजते रहना चाहिए, वह कानफाड़ू ही क्यों न हो. और हां, गाड़ी की खिड़कियों के शीशे बंद करने की बिल्कुल जरूरत नहीं, खुले रहने चाहिए. यह सब इसलिए ताकि हर सौ कदम पर किसी न किसी रूप में मौजूद माओवादी कार्यकताओं को यह कतई न लगे कि कोई पुलिसवाला जा रहा है, जिसकी गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम नहीं होता या उसने खिड़कियों को बंद रखा है या हाॅर्न बजाये बिना चुपके से निकलना चाह रहा हो. क्योंकि ऐसे संदेह होने पर इस बात की भी गुंजाइश बनती है कि औसतन हरेक किलोमीटर की दूरी पर बिछे लैंडमाईंस, केन बम की चपेट में आप आ जायें.
बहादुर के इन हिदायतों से सिहरन पैदा हो रही थी. रोंगटे खड़े हो रहे थे लेकिन यात्रा में खुद बहादुर साथ में चल रहे थे, इसलिए भय थोड़ा कम था. सब समझ लेने के बाद हम छोटानागरा इलाके के लिए निकलते हैं. छोटानागरा कभी धार्मिक पर्यटक स्थल के रूप में मशहूर था, बताया जाता है कि कभी यहां उड़िसा के क्योंझर राज ने मानव निर्मित खालों से दो नगाड़े बनवाये थे, जो अब आस्था के केंद्र के तौर पर विराजमान हैं. लेकिन अब छोटानागरा की नयी पहचान है. इस रूप कि वहीं से वह रास्ता शुरू होता है, जहां खून, बारूद, विस्फोट, वर्चस्व की भाषा ही अब मुख्यधारा की भाषा है. यानी माओवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ का इलाका. कटे हुए रोड डरा रहे थे. कटे हुए रोड का एक सीधा मतलब होता है कि यहां लैंडमाइंस की आशंका है.
डर के इस माहौल में स्वभाव से संकोची- शर्मिले बहादुर खामोशी को तोड़ते हुए पहला सवाल करते हैं. आपलोग पत्रकार हैं तो यह एक बात मालूम होगा कि हमारे पुरखों ने जंगल-पहाड़ों की दुर्गमता से लड़ाई लड़ अपने रहने के लिए, अपनी खेती बारी के लिए जगह तैयार की. जानवरों की खोह में इंसानों के आने-जाने के अवसर उपलब्ध करायें लेकिन जब इसके एवज में वर्षों से पानी-बिजली की मांग करते रहे तो कोई सुनने को तैयार नहीं. बहाने लाख बने लेकिन हमारे ही गांव के बगल में जब कंपनियां आती है तो उनके लिए दस दिनों के अंदर ही बिजली-पानी-सड़क आदि का इंतजाम हो जाता है. ऐसा क्यों?
बहादुर अपनी बात जारी रखना चाहते हैं. अगला सवाल होता है- आप यह बतायें कि यदि कोई ग्रामीण एक शाम का खाना माओवादियों को मजबूरी मंे खिला देता है तो उसे नक्सली मददगार घोषित करते हुए मारा-पीटा जाता है, जेल भेजा जाता है लेकिन उद्योगपति, व्यवसायी, कारोबारी वर्षों से लाखों-करोड़ों की लेवी देते हैं, वे नक्सली मददगार क्यों नहीं घोषित होते. शर्मिले-संकोची बहादुर सिंह का स्वर मुखर होता है. अगला सवाल फिर- आपने कभी सोचा है कि नक्सलियों और पुलिसवालों को, दोनों को ही सारंडा से इतना मोह क्यों है?
हम भी इसी सवाल का जवाब तलाशने गये थे कि आखिर एशिया के सबसे बड़े साल जंगल में ही इतनी रुचि क्यों जबकि नक्सलियों का सारंडा से कोई कम खौफ झारखंड के और भी दूसरे इलाके में नहीं है. चतरा जिले में में तो माओवादियों ने प्रतापपुर के 40 से अधिक गांवों की जिंदगी को चार माह तक नाकेबंदी कर कैद कर रखा था लेकिन वहां कोई बड़ा आॅपरेशन नहीं चला. पलामू के भी गांवों में साल के आरंभिक माह में ही कई गांवों की जिंदगी माओवादी फरमान के कारण रूकी रही. लातेहार इलाके में जहां कई प्रखंड ऐसे हैं, जहां एक-एक पत्ता माओवादियों की मर्जी से ही खड़कता है. गुमला के इलाके में जहां पाट और पहाड़ी क्षेत्रों के बीच नक्सली संगठन अपना राज चलाते हैं लेकिन वहां कोई बड़ा आॅपरेशन होता नहीं दिखता. रांची से सटे बुंडू-तमाड़ के इलाके में तो विधायक रमेश सिंह की हत्या, इंसपेक्टर फ्रांसिस इंदवार की हत्या हुई, कई-कई बड़े लूट कांड हुए, माओवादी नेता कुंदन पाहन की इजाजत के बगैर इलाके के गांवों में कुछ नहीं होता तो वहां कोई इतना बड़ा आॅपरेशन कभी क्यों नहीं चलाया गया जबकि कुछ माह पूर्व वहां के 40 गांवों के ढाई हजार ग्रामीणों ने पुलिस को यह भरोसा दिलाया था कि यदि आरपार की लड़ाई लड़नी है, इलाके से नक्सलियों को खदेड़ना है तो दो-तीन माह तक सघन अभियान चलायें, हम साथ देंगे. लेकिन वैसा कुछ नहीं हो सका. तो फिर सारंडा में ही इतनी रुचि क्यों?
दरअसल, सारंडा के नाम पर जो गरमाहट पिछले दिनों हुई उससे फिर कई सवाल खड़े होते हैं. 24 से 27 सितंबर के बीच करीबन तीन से चार हजार पुलिसबलों ने सारंडा एरिया के थोलकोबाद, मनोहरपुर, छोटानागरा, जराईकेला, दीघा, भालूलता, बिमलागढ़, राउरकेला, किरीबुरू के रास्ते इलाके को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की. दीघा, तिरिलपोसी जैसे गांवों में तीन दिनों तक जिंदगी ठहरी रही. कोबरा पुलिस के नेतृत्व में पहुंचे पुलिसबलों की इतनी संख्या के बावजूद माओवादियों ने 25 सितंबर को सात लैंडमाइंस विस्फोट कर दो जवानों को उड़ा दिया. कोबरा का भी एक जवान शहीद हुआ. कोबरा बटालियन के असिस्टेंट कमांडेंट नितेश कुमार घायल हो गये. इसके एवज में पुलिसवालो की ओर से द्वंद्व भरे बयान सामने आने लगे. कभी कहा गया कि दर्जन भर माओवादी मार दिये गये हैं, आधे दर्जन से अधिक कैंप ध्वस्त कर दिये गये हैं. फिर कभी कहा गया कि चार माओवादी मारे गये हैं. अचानक से आॅपरेशन को रोक दिया गया और सारे पुलिसवाले बीहड़़ से वापस आ गये तो एक लाश को दिखाया गया कि एक माओवादी की लाश हमारे हाथ लग सकी है, बाकि के लाश माओवादी उठा ले गये. लेकिन इस बात का खंडन करते हुए माओवादी प्रवक्ता समरजी का कहना है कि इस मुठभेड़ से उनके संगठन को कोई नुकसान नहीं हुआ. न ही कोई कैंप ध्वस्त हुआ, न ही कोई मारा गया, पुलिस गलत बयानी कर रही है. इस बाबत पूछे जाने पर चाईबासा जिला के एसपी अरुण कुमार कुछ भी बताने से इंकार करते हैं. वह कहते हैं िकइस संबंध में राज्य के वरीय पुलिस पदाधिकारी ही कुछ बता सकते हैं. वरीय पुलिस पदाधिकारियों में डीजीपी नेयाज अहमद कहते हैं कि हमने सफलता पायी है, अब फिर नये सिरे से बड़े स्तर पर आॅपरेशन की शुरुआत होगी. माओवादी प्रवक्ता समरजी या पुलिस पदाधिकारियों की बात को परे कर दे ंतो इलाके में अधिकांश लोग यह मानने को तैयार नहीं कि करीबन 72 घंटे तक इलाके को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग आदि करने के बाद पुलिस ने कुछ हासिल किया. सिवाय इसके कि इलाका अशांत रहा. जैसा कि छोटानागरा में मिले प्रमोद सिंकू कहते हैं- पुलिस या तो आरपार की लड़ाई लड़े या हमें माओवादियों के भरोसे छोड़ दे. हमलोग तो दोनों के बीच पीस कर बर्बाद हो रहे हैं. न इधर के रहे हैं, न उधर के. यहां की नयी पीढ़ी दहशत और हिंसा के बीच पैदा हो रही है. उससे भविष्य में एक सभ्य, जिम्मेवार भारतीय नागरिक बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती है.
सिंकू सच ही कहते हैं. सारंडा हमेशा से ही शिकारगाह बना रहा है. पहले यह सरायकेला इस्टेट का शिकारगाह हुआ करता था, अब बड़ी कंपनियों, दलालों, माओवादियों के लिए शिकारगाह है. इतिहास में जाये ंतो 19 दिसंबर 2001 को पुलिस ने इस इलाके में नक्सली ईश्वर महतो को मार गिराया था, जिसके बाद नक्सलियों ने एक का बदला सौ से लेने की बात कही थी. सौ तो नहीं लेकिन आधिकारिक तौर पर अब तक 70 का आंकड़ा सारंडा के इलाके में पहुंच चुका है. सुरक्षाबलों के लिए कब्रगाह बन चुके सारंडा में 19 दिसंबर 2002 को नक्सलियों ने बिटकलसोय में बम विस्फोट कर 12 पुलिसकर्मियों को मार गिराया था. ग्रामीण भी मारे गये थे और करीब 34 महत्वपूर्ण हथियार लूट लिये गये थे. उसके दो साल बाद ही बलिवा कांड हुआ, जिसमें करीब तीस पुलिसकर्मी शहीद हो गये. दो साल बाद 2006 में फिर नक्सलियों ने एक बड़े कांड को अंजाम दिया, जिसमें 12 पुलिसवालें शहीद हुए. पुलिसवालों की शहादत, गोली-बारूदों की आवाज ने शांत सारंडा को अशांत इलाके में तब्दील कर दिया गया.
प्रसिद्ध पर्यटन स्थल को खुंखार व जानलेवा जंगल में बदलने में सबसे बड़ी भूमिका नक्सलियों की रही और उतनी ही भूमिका राजनीति की भी. इसी इलाके से मधुकोड़ा जैसे नेता मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे लेकिन उन्हेांने खान-खदानों का जो खेल किया, सबने देखा. वर्तमान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा भी सारंडा के पड़ोस के ही हैं. दूसरी ओर नक्सलियों का ट्रेंड देखें तो पता चलेगा कि वह किसी एक इलाके में बहुत दिनों तक डेरा नहीं डाले रखते लेकिन सारंडा एक ऐसी जगह है, जहां से नक्सली किसी भी कीमत पर नहीं जाना चाहते. सबसे बड़ा कारण है वहां से मिलनेवाली मोटी लेवी की रकम. खुफिया विभाग ने दो साल पहले पुलिस मुख्यालय को जो जानकारी दी थी, उसके अनुसार पश्चिमी सिंहभूम से ही सबसे ज्यादा लेवी की वसूली माओवादी करते हैं. एक आंकड़े के अनुसार यह रकम चार करोड़ 46 लाख 30 हजार रुपये सालाना है. हालांकि जानकार बताते हैं कि खुफिया विभाग की यह जानकारी सही नहीं बल्कि इस इलाके से लगभग एक करोड़ रुपये प्रतिमाह की लेवी दी जाती है. मनोहरपुर में मिले सामाजिक कार्यकर्ता और मानकी-मुंडा समिति के सलाहकार डाहंगा बताते हैं कि यह सब धीरे-धीरे हुआ. पहले यहां के लोग बहुत शांत थे, अब भी शांत हैं. लेकिन जब से खनन कंपनियों के साथ दलालों का आना शुरू हुआ, तब से पूरी व्यवस्था ही बदल गयी. यहां के नौजवानों को माओवादी संगठन यह फरेबियत दिखाने लगे कि यदि थोड़ी कोशिश करो तो पैसे की भरमार है. उसी पैसे के फेरे में नौजवान इसमें जुड़ते चले गये और अब तो जो हालात है, सामने है.
सारंडा के जंगलों में घूमते हुए रास्ते में आपको हाथियों के समूह, टेढ़े-मेढ़े रास्ते मिलेंगे, चारों ओर पहाड़ियां ही पहाड़ियां, तो लगता है कि सात सौ पहाड़ियों के इलाके में हैं लेकिन लगभग 80 हजार हेक्टेयर के क्षेत्रफल में फैले एशिया के सबसे बड़े जंगल में जितने किस्म के संकट हैं, उससे भयभित होना स्वाभाविक है. कई जगहों पर सड़क को ही खलिहान बने देखना साफ बताता है िकइस रास्ते कभी-कभार ही कोई आता-जाता होगा. कई जगहों पर उड़े सड़क बताते हैं कि यहां कभी विस्फोट हुआ है. अंदर के गांव जाने के रास्ते में पेंड़ पर स्थायी तौर पर लगे नक्सली पोस्टर बताते हैं कि यहां पोस्टर को हटानेवाला कोई नहीं. इन सबके बीच एक स्कूल में फुटबाॅल मैच खेलती लड़कियों को देख भय के आलम में रोमांच का अनुभव होता है. सारंडा तबाही और बर्बादी के उस मुहाने पर पहुंच चुका है जहां से वापस आने की उम्मीदें नहीं दिखती. माओवादियों के बारे में या पुलिसवालों के बारे में बच्चे तक कुछ नहीं बताना चाहते. लेकिन निराशा के गहरे गर्त में भी कहीं-कहीं टिमटिमाती उम्मीदें दिखती हैं. जैसा कि मनोहरपुर में मिले हितेंद्र कहते हैं- नक्सली कोई क्रांति न हीं कर रहे न ही उन्हें बदलाव आदि से कोई लेना-देना रह गया है. उनका मुख्य काम पैसे की उगाही है. जब वाकई उन्हें बदलाव से मतलब होता तो सारंडा का ही एक हिस्सा है बंदगांव का इलाका. जहां जंगल माफियाओं ने पिछले दस वर्षों से तबाही मचा रखी है. बच्चों से जंगल कटवाते हैं. ग्रामीणों का घर जला देते हैं. महिलाओं से दुष्कर्म करते हैं लेकिन कहां कभी किसी माओवादी नेता उन माफियाओं को सजा देने सामने आया. हितेंद्र आगे बताते हैं कि इसी सारंडा को ठेकेदारों ने लूटा, कहां माओवादी ठेकेदारों को मारते हैं. उन्हें तो सिर्फ पुलिसवालों से दुश्मनी है लेकिन यह भूल जाते हैं कि पुलिसवाले भी अपनी नौकरी करते हैं. हितेंद्र हमें माओवादियों और ठेकेदारों-बिचैलियों के रिश्ते को समझने के लिए गोइलकेरा जाने के लिए कहते हैं. रास्ते में बहादुर मुंडा बताते हैं कि इतना ही नहीं एक और खेल भी चलता है. ठेकेदारों और माओवादियों की दोस्ती इतनी गहरी होती है कि आप विश्वास नहीं कर सकते. ठेकेदार किसी पुल-पुलिया का निर्माण करवा रहे होते हैं तो माओवादियों से सेटिंग कर वे बीच में ही उसे उड़वा देते हैं. फायदा यह होता है कि ठेकेदार सरकारी फाइलों में यह दिखा देते हैं कि हमने तो 90 प्रतिशत कार्य पूरा करवा लिया था, माओवादी उड़ा दिये तो हम क्या करें. पेमेंट 90 प्रतिशत कार्य के आधार पर होता है, कार्य दस प्रतिशत ही हुआ रहता है. दिखावे के लिए या फिर जनता को जोड़े रखने के लिए नक्सलियों ने किरीबुरू के इलाके में किसानों को पंपिंग सेट वगैरह भी दिये हैं, जिससे वे खेती करते हैं.
मनोहरपुर से वापसी में हम गोइलकेरा में रूकते हैं. गोइलकेरा की एक चाय दुकान पर मिले वंशीधर समीकरण और सांठगांव को समझाते हैं. वह कहते हैं- आप यह सोच सकते हैं कि इतने घनघोर जंगल में पुलिस की इतनी मुस्तैदी के बीच माओवादियों को खाद्य सामग्री किस तरह पहुंचती होगी. उनके पास अत्याधुनिक चीजें कैसे पहुंच जाती है. उनके पास सारे लैटेस्ट इलेक्ट्राॅनिक इक्विपमेंट कैसे रहते हैं. कभी इस खेल में खुद शामिल रह चुके वंशीधर कहते हैं- माओवादियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कई चैनल बने हुए हैं. सबसे बड़े चैनल ठेकेदार हैं जो निर्माण कार्य के लिए ले जायी जा रही सामग्री के बीच या मजदूरों को खिलाने-पिलाने के नाम पर सारी खाद्य सामग्री माओवादियों तक पहुंचा देते हैं. बाकी बची कसर रेल से पूरी की जाती है. सारंडा के इलाके में रेलगाड़ियों का परिचालन माओवादियों के इशारे पर ही होता है. वह जहां चाहते हैं गाड़ियां रूकती है, फिर उसमें सामग्री लोड की जाती है और निर्धारित पड़ाव पर उसकी डिलिवरी कर दी जाती है. रेल ड्राइवर या गार्ड कुछ नहीं कह पाते क्योंकि उन्हें पता है कि झारखंड से होकर 1500 किलोमीटर की रेल लाइन गुजरती है, जिसमें करीब 1300 किलोमीटर की यात्रा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से ही होती है. 292 रेलवे स्टेशनों में 168 उनके निशाने पर हैं.
खैर! इन सारी बातों के साथ बहादुर सिंह मुंडा के सवाल सारंडा यात्रा में बढ़ते जा रहे थे. बहादुर बताते हैं कि अभी तो कम भयावह है लेकिन कुछ वर्षों बाद यहां सिर्फ और सिर्फ खून की नदियां ही बहनी है. पुलिस हथियारों के बल पर नक्सलियों से पार पाना चाहती है, जो संभव नहीं. गांववालों को भरोसे में लेना होगा. विकास करना होगा. जब हम किरीबुरू के इलाके मंेज ा रहे होते हैं तो बीच में कहीं रूककर बहादुर किसी के घर से कागज का एक टुकड़ा लाते हैं. उसे बांचते हुए कहते हैं- आपको मालूम न कि यहां एक चीड़िया माइंस है, जहां एशिया की सर्वश्रेष्ठ कोटी के अयस्क मौजूद हैं. दुनिया में ऐसा उत्कृष्ट कोटी का लोहा सिर्फ अमेरिका में ही पाया जाता है. वह बताते हैं कि सारंडा खनन से खोखला हुआ है. 80 हजार हेक्टेयर वाले इलाके में फिलहाल 14022 हेक्टेयर माइनिंग से प्रभावित इलाका है. नये माइंस के लिए 37814 हेक्टेयर में प्रस्ताव मिला है. दोनों को मिला दे ंतो यह खेत्रफल 51836 हेक्टेयर पहुंचता है. इस तरह मात्र 28 164 हेक्टेयर इलाका ही वैसा बचेगा, जिसमें जंगल भी बचे रहेंगे, इंसानों को भी रहना होगा और जानवरों को भी.
गोइलकेरा से चक्रधरपुर आने के क्रम में कई-कई सवाल सामने होते हैं. हम चाईबासा जाते हैं जहां प्रसिद्ध प्राध्यापक प्रो अशोक सेन से मुलाकात होती है. प्रो सेन कहते हैं कि यह अभिशप्त इलाका है. अंग्रेजों के जमाने में यहां उनका जुल्म था, अब नये शासकों का जुल्म है. प्रो सेन कहते हैं कि पुलिस बार-बार तमाशा क्यों करती है. यदि कोई अभियान चलाना है तो गंभीरता से चलाओ या नहीं चलाओ. यह क्या है कि चलायें, इलाका मानसिक तौर पर तैयार हुआ तो बीच में रोक दिये. वह बताते हैं कि आप इसी से समझ सकते हैं कि चाईबासा कोल्हान का एक प्रमुख स्थान है. यहां से जमशेदपुर के बीच अंग्रेजों के जमाने में भी एक ही सवारी गाड़ी चलती थी, अब भी एक ही चलती रही. अभी हाल में आंदोलन के बाद एक और गाड़ी का ठहराव हुआ है. अंग्रेजों ने इसे मालगाड़ी के लिए बनाया था, अब के शासक भी इंसानों की बजाय माल को ही ज्यादा तरजीह देते हैं. विकास ही नहीं हुआ तो क्या होगा, विनाश तो तय है, चाहे जिस रूप में है. लेकिन मध्यप्रदेश कैडर केे पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और वर्तमान में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के नक्सल मैनेजमेंट डिविजन के सदस्य डीएम जाॅन मित्रा कहते हैं कि माओवादियों को दमन से तो खत्म नहीं ही किया जा सकता लेकिन विकास से भी वे खत्म नहीं होंगे.राजनीतिक सक्रियता जरूरी है और असामनता की लकीर जो वर्षोें से खिंची गयी है, उसे धीरे-धीरे पाटना होगा. छल और फरेब सार्वजनिक संस्थानों ने भी किया है, उसे सुधारना होगा लेकिन लौंग टर्म प्लानिंग के तहत काम करना होगा.
सारंडा की खाक छानने के बाद हम चक्रधरपुर पहुंच चुके थे. वहां बहादुर सिंह मुंडा विदा लेते हैं. कहते हैं- सेवा समाप्त. अब यह भूलकर जायें कि हम और आप कभी मिले भी हैं. चक्रमधर में रात आठ बज गये थे. बहादुर समझाते हैं- आगे टैबोघाटी में भी वही फाॅर्मूला अनाइयेगा. वह भी सारंडा का ही हिस्सा है. तेज म्यूजिक, तेज और रूक-रूक कर लगातार हाॅर्न बजाना, खिड़कियों के शीशे को खोले रखना... टैबोघाटी यानी बंदगांव से टैबो थाना तक का वह इलाका, जो चाईबासा, चक्रधरपुर, सारंडा इलाके में जाने की मुख्य सड़क है. इन दोनों थाना क्षेत्रों के बीच करीब 30 किलोमीटर की यात्रा करनी होती है, जहां कोई मोबाइल काम नहीं करता. जो टावर लगाया जाता है,उड़ा दिया जाता है. रोड की हालत यह है कि आप 60 की स्पीड में भी नहीं चल सकते. बंदगांव की बंद गलियां और टैबो की टफ घाटी फिर से रांेगटे ख़ड़े करते हैं. भय के इस माहौल से निकलते यानी टैबोघाटी पार करते ही एक बार बहादुर सिंह मुंडा का फोन आता है- कहां पहुंचे? फिर बहादुर कहते हैं कि आप असल सारंडा तो जा ही नहीं सके, जिसके लिए यह कभी मशहूर रहा है. आप न तो कायदे से छोटानगरा का मंदिर देख सके, न दक्षिण कोयल नदी में सुवर्ण कणों को, न थोलकोबाद, जहां ज्वालामुखी फटने के अवशेष हैं, न टायबो जलप्रपात देखने गयें, जहां 116 प्रकार के प्रजाति के पौधे मौजूद हैं. फिर बहादुर कहते हैं, कोई बात नहीं- समीज आश्रम तो देख लिये न, जो शंकराचार्य द्वारा स्थापित है और जहां पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव भी आ चुके हैं. कम से कम आपने मनोहरपुर से सूर्यास्त होते तो देख लिया न, जिसे देखने के लिए दस साल पहले तक सैकड़ों की संख्या में उड़िसा, बंगाल, बिहार के पर्यटक पहुंचते थे.

Monday, January 17, 2011

नींद न परे राती एहो दैया, झुरत पलंग वैसी मने मन...

घासी की थांती पर फेरे हाथ

जिस तरह भारतवर्ष में हिंदी का महत्व है, कुछ वैसा ही महत्व झारखं डमें नागपुरी का है. 1859-1926 के कालखंड मंे रहने वाले झारखं डमें नागपुरी के एक महान कवि घासीराम ने कई ऐसी रचनाएं की, जो आज भी झारखंड के हर गांवों के अखरे में सुनाये जाते हैं. गाये जाते हैं. उनकी तुलना विद्यापति से की जाती है. घासीराम का रचना संसार बड़ा था, उन पर हुए शोधकार्य भी विस्तृत हैं लेकिन विडंबना यह है कि उनके परिजनों ने जिस एक स्मृति को संजोकर रखा है, वह भी अब आखिरी पड़ाव में है. घासीराम के परिजनों की पीड़ा क्या है, पढ़िए एक रिपोर्टः-


अनुपमा


घायल बिहरबान, थिर न रहत प्राण
निसु दिने रे दैया
दहत मदन तन छने-छन.
सिहरी उठति छाती
नींद न परे राती
एहो दैया, झुरत पलंग वैसी मने मन...
रांची से करीब 50 किलोमीटर की दूरी तय कर हम करकट गांव पहुंचे थे. रामेश्वर राम के दरवाजे पर हाजिर थे. लगभग आधे घंटे की प्रतिक्षा के बाद किसी तरह घिसटकर, पैरों और हाथों के बल चलकर घर की देहरी तक पहुंचते हंै रामेश्वर. लगभग पंद्रह मिनट तक शांत रहते है रामेश्वर राम और उसके बाद स्थूल पड़े लकवाग्रस्त शरीर की पूरी उर्जा समेट कर इस गीत को जब सुनाते हैं तो कुछ देर के लिए वहल अलग ही दुनिया रचाते-बसाते हैं. हम उनकी शारीरिक अस्वस्थता को देख उनसे विनम्र निवेदन करते हैं कि बस, दादा अब रहने दीजिए, आपने एक सुना दिया न! रामेश्वर बिना कुछ बोले दूसरे गीत को गाना शुरू कर देते हैं. दूसरे गीत को खत्म कर लेेने के बाद कहते हैं- जानते हंै आपने गीत सुनने की फरमाईश किससे की है! हुलास राम के बेटे से. फिर रामेश्वर कहते हैं- आपको मालूम कि हुलास कौन थे- घासीराम के बेटे. फिर रामेश्वर का सवाल होता है, आपको यह पता है कि घासीराम कौन थे! एक वाक्य बोलने में भी काफी परेशानियों से गुजरनेवाले रामेश्वर राम उस वक्त सवालों का अंतहीन सिलसिला शुरू करने जा रहे थे कि बीच में ही जबान लड़खड़ाने लगा. कुछ देर दम लेने के बाद एक वाक्य बोलते हैं- हम एक गीत नहीं गा सकते.थे जब भी गायेंगे जोड़ा ही गायेंगे, इसलिए आपने मना किया तो भी नहीं माना. और जब गीत गाना शुरू कर देंगे तो चाहे कुछ भी हो जाये, उसे आधे में नहीं छोड़ेंगे, पूरा कर के ही दम लेंगे.
रामेश्वर राम की आधी-अधूरी रह गयी बातों को देवकी किस अंदाज में पूरा करती हैं, उसकी बात करने से पहले यह जानते चलें कि घासीराम कौन थे? घासीराम झारखंड के जनमानस मंे बसे ऐसे कवि-गीतकार हैं, जिनके गीतो के बोल शायद ही छोटानागपुर का कोई गांव ऐसा हो, जहां सुनायी न पड़ते हो. घासीराम वह कवि थे, जिनकी किताब ‘नागपुरी फाग शत्तक‘ 1911 में ही मुंबई से प्रकाशित होकर आयी थी और झारखंड के गांव-गांव तक पहुंच गयी थी. घासीराम वह रचनाकार हैं, जिन्होंने दुर्गा सप्शति को नागपुरी गीतों-कविताओं में ढाल कर एक पुस्तक ही तैयार कर दी थी. जिन्होंने चंडीपुराण का नागपुरी गीतमय अनुवाद कर दिया था. घासीराम का रचना संसार यहीं खत्म नहीं होता, जब उनके किताबों का छपने का प्रबंध नहीं हुआ तो उन्होंने काॅपियों में ही किताब की शक्ल में लिखना शुरू किया और चंडीपुराण, रामजन्म, कृष्ण का जीवन, चैंतिसा, सुदामाचरित, उषा हरण, नागवंशावली जैसी पुस्तकों को रचा जो अप्रकाशित रह गये.
रामेश्वर राम की पत्नी और घासीराम की पौ़त्रवधु देवकी देवी कहती हैं- घासीराम सिर्फ इतने भर नहीं थे, उनके बारे में यह कहावत मशहूर है कि एक ढेला को हवा में उछालो और वह जब तक वापस जमीन पर आकर गिरेगा, उतने देर में घासीराम एक गीत की रचना कर देते थे. लेकिन इन सबके बीच विडंबना यह है कि झारखंड के इतने बडे़ रचनाकार की स्मृतियां अब उनके गांव में भी उस तरह नहीं बची हुई है. उनके नाम पर कहीं कोई एक सांस्कृतिक प्रतिमान तक खड़ा हो सका. करकट गांव में उस खपरैल मंदिर को दिखाते हुए रामेश्वर राम के बेटै देंवेंद्र कहते हैं- यह ीवह मंदिर है, जहां घासीराम रोज बैठा करते थे, रचना करते थे. हमने अपनी औकात के हिसाब से सारे पुराने घरों को तोड़ परिवारों के बंटवारे के हिसाब से नये घर बना लिये लेकिन यह मंदिर वैसे ही रहने दे रहे हैं. इस उम्मीद के साथ कि कभी न कभी तो कोई आयेगा, जो यह पूछेगा कि क्या घासीराम की कोई स्मृति यहां बची है तो यह मंदिर दिखा सकेंगे. बाकि के सारी थांति पर तो बड़े विद्वानों ने हाथ की सफाई कर दी. इसका आशय पूछने पर देवेंद्र कहते हैं कि कुछ साल पहले तक यहां तरह-तरह के बौद्धिक जमात के लोग आते थे. घासीराम के बारे में दो-चार बातें बताते थे. स्मारक, लाइब्रेरी आदि बनाने-बनवाने आदि की बातें कहते थे और दर्जनों की संख्या में उपलब्ध घासीराम जी की पांडुलिपियों में एकाध लेकर जाते थे. कुछेक इस आश्वासन के साथ भी कि इसे किताब की शक्ल में छपवा देंगे. लेकिन वे बौद्धिक फिर वापस नहीं आते थे, हर बार कोई नया ही चेहरा सामने होता था, नये अंदाज में और ऐसे ही नये-नये चेहरों ने एक-एक कर सारी पांडुलिपियां तक अपने पास रख ली, यहां तक कि उनकी कुछ प्रकाशित किताबें थीं, वह भी ले गये. बौद्धिक जमात की इस चैर्यकला पर कोई कुछ नहीं बोलता. हालांकि रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा विभाग के प्रमुख डाॅ गिरिधारी राम गौंझू कहते हैं- यह जिसने भी किया अच्छा नहीं किया लेकिन हम यह भी नहीं कह सकते कि घासीराम आज हाशिये पर चले गये हैं या उपेक्षित रहे हैं. गौंझू कहते हैं कि उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को आधार बनाकर कई-कई शोध हुए हैं. डाॅ श्रवण कुमार गोस्वामी, डाॅ बीपी केशरी, डाॅ गोविंद साहू, कविवर नहन जैसे विद्वानों ने गहनता से अध्ययन किया है. उससे लोगों को वाकिफ कराने का काम किया है. लेखक व नागपुरी गीतों की दुनिया पर गहराई से काम करनेवाले नागपुरी संस्थान के प्रमुख प्रो बीपी केशरी कहते हैं-घासीराम की तुलना नागपुरी में विद्यापति से की जाती है, जिन्होंने कई-कई उत्कृष्ट रचनाओं से नागपुरी गीत व कविता संसार को समृद्ध किया. यह सच भी है कि घासीराम पर कई-कई महत्वपूर्ण शोध कार्य हुए हैं लेकिन इससे उनके परिजनों की टीस कम नहीं होती. जैसा कि देवेंद्र कहते हैं- हमें क्या मिला! हम किसी पैसे की मांग नहीं कर रहे. हम लालची नहीं हैं लेकिन यह उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि उनकी स्मृति में कुछ तो हो जाये. देवेंद्र कहते हैं कि घासीराम के परिजनों ने उनकी विरासत को अपने स्तर से हर संभव संजोकर रखने की कोशिश की है. घासीराम के बेटे हुलास राम एक बड़े कवि हुए. उन्होंने शिव वंदना, फगुआ आदि पुस्तकों की रचना की. खुद बहुत बढ़ियां गाते भी थे. हुलास राम के बेटे यानि मेरे पिता रामेश्वर राम, जब तक स्वस्थ रहे, तब तक हर रोज सुबह-शाम घासीराम के गीतों को गाकर रियाज करते थे, कंठस्थ कर लिये हैं उनके गीतों को. और अब मैं, यानी घासीराम के परिवार की चैथी पीढ़ी भी उनके गीतों को गाने की कोशिश करता हूं लेकिन मेरे पास तो उनके गीत तक नहीं बचे हैं. जो ले गये हैं, यदि वे मेहरबानी कर लौटा दे ंतो हम उस विरासत को संभालकर रख सकेंगे, हमें भी सहेजने की कला आती है. इतना सब कहने के बाद देवेंद्र घर में जाते हैं. चिथड़े हो चुके कुछ काॅपियों को लाते हैं और उसमें से एक गीत अलाप लेकर गुनगुनाते हैं. एक को खत्म करने के बाद तुरंत दूसरे गीत को भी पूरा करते हैं. जोड़ा गीत परंपरा का निर्वाह करते हुए. चलते समय वह कहते हैं- हमारे परिवार वालों को अब भी घासीराम के कई गीत कंठस्थ है, आपलोग उसे प्रकाशित करवा सकते हैं. हम गीतों को उपलब्ध करवा सकते हैं, अपनी स्मृति के आधार पर. इतने छल के बावजूद घासीराम के परिजनों की उम्मीदें नहीं टूटी, यह गौर करनेवाली बात है.