Sunday, July 7, 2013

बालक की प्रेरणा से बह रही बड़े बदलाव की बयार



अनुपमा

झारखंड की राजधानी रांची से करीब 25 किलोमीटर दूर ओरमांझी प्रखंड के धुपाई गांव के रहनेवाले किसान बालक महतो अब सालों भर किसी बडे व्यवसायी या अन्य व्यस्ततम पेशेवर की तरह व्यस्त रहते हैं. उनसे हमारी मुलाकात उनके गांव में ही होती है. बालक विस्तार से अपनी किसानी कथा बताने के पहले अपने घर को दिखाते हैं जो पारंपरिकता और आधुनिकता के घालमेल से बना है और गांव के उस घर में जरूरत के हर जरूरी आधुनिक उपकरण दिखते हैं. बालक घर से लेकर खेतों तक किसानी के करिश्मे को दिखाते हैं. वह बताते हैं कि कैसे 16 एकड जमीन रहने के बावजूद कुछ साल पहले तक वे जिंदगी के तीन अहम फेज यानि भोजन, वस्त्र और आवास के फेरे में ही सालों भर लगे रह जाते थे और ठीक ढंग से उसकी भरपाई भी नहीं हो पाती थी  लेकिन अब उनके पांचों बच्चे रांची के हॉस्टल में रहकर मजे से पढाई कर रहे हैं और बालक महतो खुद नित नये ख्वाब बुनने की स्थिति में हैं. बालक कहते हैं कि इतने ही जमीन में अब सालाना 20-25 लाख रुपये का कारोबार हो जाता है और सब काट-कूट भी दिया तो पांच लाख तो बचत हो ही जाती है. इतने ही जमीन में बालक महतो खाने के लिए चावल-गेहूं तो उपजाते ही हैं, लेकिन कमाई के लिए ओल, अदरख, टमाटर, बैंगन, शिमला मिर्च, गोभी आदि जमकर पैदा करते हैं. उन्होंने खुद का ग्रीन हाउस भी बना रखा है, जहां वे नर्सरी संचालित करते हैं. गाय, बकरी, मुर्गी पालन के साथ-साथ पेशेवर तरीके से डेयरी के कारोबारी भी अब हो गये हैं. सागवान-शिशम जैसे कीमती वृक्षों को भी लगाये हुए हैं. पपीता की खेती भी करते हैं. फलदार पेंडों का बाग भी लगा चुके हैं. और इतने के बाद अब शीघ्र ही बीज उत्पादन केंद्र भी शुरू करनेवाले हैं.
बालक कहते हैं कि खेती की एक तकनीक ने किसानी और जीवन में इतने बदलाव, इतनी तेजी से कर दिये हैं. वह तकनीक है ड्रिफ्ट एरिगेशन यानि टपक सिंचाई का. यानि बूंद-बूंद सिंचाई की तकनीक, जिसके जरिये एक-एक बूंद पानी सीधे फसलों की जडों में समाता है और फसल का उत्पादन और उसकी गुणवत्ता, दोनों में करिश्माई ढंग से इजाफा करता है. बालक दिखाते हैं कि अब हम इसके जरिये सिर्फ पानी ही नहीं पहुंचाते बल्कि पानी के साथ ही खाद वगैरह भी पहुंचा देते हैं, जिससे पूरे खेत में खाद छिंटकर बर्बाद करने से मुक्ति मिल गयी है. खाद-पानी का खर्च भी कम हो गया है और आमदनी भी ज्यादा..! खेतीहर दुनिया में बूंद-बूंद वाली सिंचाई की इस तकनीक के करिश्मे को बालक के खेतों में और खेतों के जरिये घरों में पहुंची समृद्धि को देख साफ लगा है कि यदि यह सफल हुआ तो आनेवाले दिनों में कई किसान स्वरोजगार, उद्यमिता और खेती करे सो मरेकी बजाय खेती करे सो बढे का फॉरमूला अपनाकर नयी इबारतें लिखेंगे.
ऐसा भी नहीं कि यह बदलाव सिर्फ एक बालक के घर जाकर देखा जा सकता है. या यह भी नहीं कि सिर्फ एक तकनीक ने ही ये सारे बदलाव कर दिये. तकनीक तो सहारा भर बनी, असल बात रही बालक जैसे किसानों का नये विज्ञानी प्रयोग को आजमाने का साहस जुटाना, जिससे संभावनाओं के नये द्वार खुले और उसका असर यह हुआ है कि अब रांची के आसपास के कई किसान बालक महतो की राह पर चलते हुए उनकी तरह बन जाना चाहते हैं. रांची जिले के ही गांेदलीपोखर के रहनेवाले किसान दिनेश महतो तो और भी करिश्माई किसान बनते जा रहे हैं अब. मात्र डेढ एकड जमीन रखनेवाले किसान दिनेश ने इस तकनीक की वजह से अपनी इतनी-सी जमीन से ही सालाना डेढ-दो लाख तक की बचत करने लगे हैं. खेती के अर्थशास्त्र ने उनका परिवारशास्त्र और समाजशास्त्र बदला तो उनका उत्साह भी परवान चढा है. दिनेश कहते हैं, अब मैंने 15 एकड जमीन लीज पर लेकर खेती का पेशा शुरू किया है, जिसमें तरह-तरह की सब्जियों कीखेती करेंगे. खेती के तमाम प्रयोग करेंगे. दिनेश के इलाके के ही अनगडा के गोवर्धन मुंडा भी  डेढ एकड जमीन के साथ ही व्यस्ततम किसान हो गये हैं.
बालक, दिनेश या गोवर्धन की सफलता की कहानी सिर्फ बानगी भर है. जो झारखंड के भूगोल से परिचित हैं, वे जानते हैं कि इसकी पहचान कभी मूल रूप से खेतीहर राज्य के रूप में नहीं रही है. खान-खदान को लेकर ही यह ज्यादातर विख्यात और अब कुख्यात राज्य माना जाता रहा है. लेकिन धीरे-धीरे ही सही, इस राज्य के सुदूरवर्ती इलाके से लेकर राजधानी से सटे इलाके में खेती की दुनिया में एक खामोश क्रांति भी हो रही है. इसका नतीजा आनेवाले दिनों में व्यापक स्तर पर दिखेगा. यह भी संभव है कि खान-खनिज के लिए विख्यात और कुख्यात यह राज्य खेतीहर राज्य के रूप में भी अपनी पहचान बना ले.
जैसा कि कृषि वैज्ञानिक डॉ सुप्रिया सिंह कहती हैं, झारखंड में सिर्फ 20-22 प्रतिशत जमीन ही सिंचित हैं. 70 प्रतिशत से अधिक जमीन की सिंचाई बारिश पर ही निर्भर रहती है. ऐसे में टपक सिंचाई यहां के लिए वरदान साबित हो रहा है. ऐसा नहीं है कि टपक सिंचाई खेतीहर दुनिया में कोई बहुत नयी तकनीक है लेकिन झारखंड जैसे राज्य में अब जाकर यह किसानों की समझ में आना शुरू हुआ है. सरकार की ओर से जब इस पर 90 प्रतिशत तक सब्सिडी मिलनी शुरु हुई तो किसानों का आकर्षण अब इसमें धीरे-धीरे बढना शुरू हुआ है और अब नतीजे भी दिखने लगे हैं. यहां हम बताते चलें कि टपक सिंचाई के तहत पाईप पानी के स्नेत से पाईप वगैरह के जरिये खेतों में सीधे फसलों की जड तक पानी पहुंचाया जाता है, जहां बूंद-बूंद पानी सीधे जड में गिरता है और उसी से सिंचाई होती है. आधे एकड जमीन में टपक सिंचाई संयत्र लगाने का खर्च अनुमानतरू 30-36 हजार रुपये के बीच आता है, जिसमें सरकार 24,905 रुपये का सहयोग करती है. इस योजना के सफल होने की एक बडी वजह यह रही है कि इसके तहत किसानों को सब्सिडी की राशि सीधे उनके बैंक खाते में दे दी जाती है, जिससे बिचैलिया तंत्र पनप नहीं पा रहा है और दूसरी बड़ी वजह तो पहले ही बतायी कि बालक जैसे किसानों ने साहस दिखाया तो इस तकनीक को पनपने और पांव पसारकर किसानों की जिंदगी में बदलाव लाने का मौका मिला.
झारखंड जैसे बंजर, पहाडी, पठारी और रेनशैडो जोन में आनेवाले राज्य में खेती की इस तकनीक का आगामी दिनों में कितना जोर बढेगा, इसका अंदाजा इस राज्य में इस तकनीक के संयत्र बेचने और सेवा मुहैया कराने पहुंची कंपनियों की संख्या से भी लगाया जा सकता है. बकौल निदेशक एपी सिंह, फिलहाल झारखंड में 28 कंपनियां ड्रिफ एरिगेशन के क्षेत्र में निबंधित हो चुकी हैं, जिनमें पांच-छह कंपनियां सक्रिय हैं और तीन कंपनियों का काम तेजी से बडे दायरे तक फैल गया है. उन तीन कंपनियों में जैन, प्रीमियर अैर मेटाफर कंपनी के नाम शामिल हैं. जैन एरिगेशन से जुडे कृषि अभियंता ओपी गुप्ता कहते हैं कि हमने इस साल पूरे झारखंड में 100  हेक्टेयर जमीन में ड्रिफ एरिगेशन सिस्टम को लागू करवाया है. चालू वर्ष में127 हेक्टेयर का लक्ष्य रखा है. बकौल गुप्ता, हमेशा पानी की समस्या से जुझते रहनेवाले झारखंड के किसानों को बात समझ में आ गयी है कि यह एक ऐसी तकनीक है, जिससे वे बगैर कहीं हाथ फैलाये अपनी उद्यमिता के बुते सुखी जिंदगी गुजार सकते हैं.
हालांकि अभी यह तकनीक वहीं तेजी से पहुंच रहा है, जहां कुआं, तालाब आदि की सुविधा उपब्ध है और बिजली है. वहां के किसान आसानी से अपने खेत तक इस तकनीक के जरिये पानी पहुंचा पा रहे हैं और इसका पूरा लाभ उठा रहे हैं. कृषि वैज्ञानिक डॉ सुप्रिया सिंह कहती हंै कि अब किसानों को अगर इसका फायदा सच में समझ में आ गया है तो उन्हे ंएक दूसरे को सहयोग देने का रूख अपनाते हुए समझदारी से काम लेना होगा. झारखंड में सभी जगह कुआं खोद लेना इतना आसान नहीं है, इसलिए किसानों को चाहिए कि वे सामूहिक तौर पर खेतों में छोटे-छोटे जल संग्रहण केंद्र बनाये और उसे प्लास्टिक से कोटेड कर दे ताकि जो पानी आये, उसे जमीन सोख न सके और फिर उसी पानी को अपने खेतों तक पहुंचाकर इसका अधिक से अधिक लाभ उठाये. डॉ सुप्रिया सिंह की बातों को आगे बढाते हुए कृषि अभियंता डॉ आरके रूसिया कहते हैं कि यही तो खासियत इस तकनीक की है कि इसमें पानी की ज्यादा जरूरत नहीं पडती. यदि जल का संग्रहण कहीं कर लिया गया तो उसके एक-एक बूंद का उपयोग फायदे के लिए किया जा सकता है.
झारखंड जैसे राज्य में इस योजना की सफलता के पीछे एक बडी वजह यहां की जमीनों का बंजर, पथरीला होना और सिंचाई की सुविधा नहीं होना तो है ही, दूसरी बडी बात यह भी है कि अनेकानेक कंपनियों के आने से और सब्सिडी के कारण किसानों का झुकाव तेजी से इस ओर बढने से स्थानीय युवकों को इसमें रोजगार भी मिलने लगा है. कंपनियां जहां भी काम करवा रही हैं, वहां स्थानीय युवक ही  प्रशिक्षण प्राप्त इसे कर रहे हैं. इससे एक तो उन्हें काम के दौरान रोजगार मिल रहा है और उसके बाद के लिए भी वे एक हुनर में माहिर हो जा रहे हैं, इसलिए ग्रामीण युवकों का रुझान भी इस ओर ज्यादा दिख रहा है.


उर्मिला को जानते हैं, चामी को जानना चाहेंगे?



अनुपमा

उडीसा के बालासोर जिला के कोठापाडा गांव की रहनेवाली उर्मिला और झारखंड के सरायकेला के भुरसा गांव की रहनेवाली चामी मुरमू. इन दोनों में किसी का नाम सुना है आपने. संभव है, कुछ लोग जानते हों और बहुत हद तक उम्मीद है, बहुतेरे ने कभी इनका नाम न सुना हो. नाम जानते हो, तो भी, नहीं जानते हो, तो भी, हम आपको उनके बारे में थोड़ी-सी बात बताते हैं.
पहले उड़ीसा वाली उर्मिला की बात. उर्मिला की जगह दूसरी महिला होती तो न जाने क्या करती और समाज की उलाहना सुनकर खुद को संभाल भी पाती या नहीं, कहा नहीं जा सकता. उर्मिला के सामने भी दुखों का पहाड़ था, समाज-परिवार के ताना रोज-ब-रोज उन्हें तनाव की नई दुनिया में ले जा रहा था. ऐसे में करीब दो दशक पहले दुख के क्षणों में सुख की तलाश शुरू की. बाद में उसे ही जीवन का लक्ष्य बना लिया. पिछले दो दशक से वे हर साल, हर सुबह की शुरुआत एक पेड़ लगाने से करतीरही. अपने आसपास के करीब पांच दर्जन गांवों में एक लाख से ज्यादा पेड़ लगायी. उनके पति, जो पेशे से दर्जी का काम करते हैं, उन्होंने भी साथ देना शुरू किया. उर्मिला दो बेटियों की मां बनी, बाद में बेटियों ने भी इस अभियान को आगे बढ़ाना शुरू किया. पेड़ों के प्रति उर्मिला की निष्ठा और लगन ऐसी रही कि इलाका में उन्हें गाछा मांवृक्ष्य मांके नाम से बुलाया जाने लगा. उर्मिला सिर्फ पेड़ लगाती ही नहीं, बल्कि उसके बड़े होने तक उसकी सेवा भी करती है. वह हर सुबह नये पेड़ों को काजल व हल्दी लगाती हैं और उनकी बेटियां गांव की अन्य लड़कियों के साथ मिलकर रक्षाबंधन में राखी बांधती है. उर्मिला हर दिन कम से कम दस पेड़ लगाती रही. कभी-कभार यह संख्या सौ भी पार करती रही. उर्मिला ने लोगों को जागरूक करने के लिए पाला गायकनाम से एक लोकसंगीत दल बनाया. संगीत के जरिये पेड़ का महत्व समझाने लगी. लोग समझने लगे, उतनी सहजता और आत्मीयता के साथ, जितना कि कोई ग्लोबल वार्मिंग पर भाषण देने वाला विशेषज्ञ नहीं समझा पाता. लेकिन हम उर्मिला को नहीं जानते. उर्मिला जैसों को नहीं जान पाते.
जब उर्मिला को नहीं जानते तो चामी मुरमू को तो जानने का सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि वह तो झारखंड से हैं. झारखंड से तो खबरिया दुनिया का वास्ता वैसे भी खान-खनिज, लूट-पाट, माओवाद-राजनीति के दायरे से बाहर नहीं जाता. हम थोड़ा चामी के बारे में भी जान लेते हैं. चामी को भले ही मीडिया के जरिये पूरा देश क्या, पूरा झारखंड भी नहीं जानता लेकिन उनके इलाके का हर कोई अब उनके काम से जानता है. महज 42 वर्ष की उम्र में पहुुची हैं अभी चामी लेकिन इतनी ही उम्र में उन्होंने 25 लाख से अधिक पौधों को जिंदगी दी है उन्होंने, जिससे उनका इलाका तो हरा-भरा हो ही गया है, उनकी तरह न जाने कितनी महिलाएं उनकी राह पर चलने को तैयार हो गयी है. चामी बताती हैं कि 1990 के आसपास उन्हेांने घर की देहरी से बाहर कदम रखा.महिलाओं को संगठित कर एक संगठन बनाया. महिला होने के नाते तरह-तरह की बातें सुननी पड़ीं. लोग ताने देते रहे लेकिन वे अपने अभियान में लगी रही. खुद बीज से पौधे को तैयार की और फिर पौधे को आसपास के इलाके में लगाना शुरू की. फलदार-फूलदार, सभी प्रकार के पौधे. चामी ने तय किया कि इलाके के नौजवानों को जोड़ना है तो फिर उन्हें इस पेड़ लगाने में, उन्हें बचाने में, बढ़ाने में रोजगार का पाठ भी पढ़ाना होगा. उन्होंने वैसा ही किया. नौजवानों को जोड़कर उन्हें फलदार-फूलदार वृक्ष लगाने को प्रेरित की, ताकि इससे उनकी आमदन हो और इसी बहाने वे पर्यावरण का भला हो. चामी कहती हैं, मेरा एकमात्र और सबसे बड़ा मकसद तो सिर्फ यह था कि अंधाधुंध काटे जा रहे पेड़ों, उजाड़ै जा रहे जंगल में कोई जंगल को बढ़ाने वाला, पेड़ों को लगानेवाला भी तो हो. मैंने खुद इसकी कोशिश की और बाद में तो एक-एक कर लोग जुड़ते गये और कारवा ही बनता गया.चामी को कई पुरस्कार मिल चुके हैं लेकिन सच यह भी है कि चामी को खुद अपने झारखं डमें मान-सम्मान नहीं प्राप्त है, जिसकी दरकार है और जिसकी वह हकदार भी हैं.




बस में सिनेमा दिखाकर चलता है किसानी का पाठ




अनुपमा
वह दृश्य और नजारा बहुत खास होता है जब बस के अंदर नीचे दरी या बोरा बिछाकर किसान बहुत तन्मयता और एकाग्रता सिनेमा देखने में तल्लीन रहते है. और सिनेमा भी मार-धाड़-एक्शन से भरपूर या इश्क-मोहब्बत के फसानेवाले नहीं बल्कि भिंडी कैसे उपजाये, बैंगन को कैसे बचाये, मक्का की खेती के लिए कौन सी प्रणाली अपनाए..पशुपालन कैसे करें,  आदि. बस में किसानी के इस पाठ की पढ़ाई आप किसी रोज, किसी इलाके में देख सकते हैं. न कोई दिन तय होता है, न समय, न स्थान. बस, सिनेमा देखने और दिखानेवाले की आपसी समझदारी और सहूलियत पर यह तय हो जाता है.
इस नये किस्म के सिनेमाघर और सिनेमा के प्रयोग को करीब सात साल पहले शुरू किया था कुछ नौजवानों ने, जिसके प्रमुख सूत्रधार बने थे विजय भारत. हो सकता है शेख खैरूद्दीन जैसे निर्देशक के साथ रहने के कारण विजय भारत में इस तरीके का आइडिया विकसित हुआ हो या फिर कुछ माह तक नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा के कैंपस में जाकर रंगकर्म और अभिनय की दुनिया को करीब से देखने का असर हो. कारण जो भी हो लेकिन राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पूसा से कृषि विज्ञान में एमएससी की पढ़ाई पूरी करने के बाद विजय ने अपने साथियों के साथ मिलकर झारखंड के किसानों को खेती का पाठ पढ़ाने के लिए यही रास्ता अपनाया था. आरंभ में इस अभियान में विजय के साथ उनके आइटी प्रोफेसनल साथी अजय, बिरसा कृषि विश्वविद्यालय से पिछले वर्ष कृषिविज्ञान में पीएचडी प्राप्त करने वाले  सुशील कुमार सिंह समेत कुल 7 लोग जुड़े थे. पिछले सात सालों में इस टीम ने हजारों किसानों को सिनेमा के जरिये प्रशिक्षित किया है. एक फसल या एक विषय पर आधे घंटे की फिल्म होती है, इलाके के हिसाब से उसकी भाषा तय रहती है यानि एक ही फिल्म को नागपुरी, संथाली, मुंडारी, हिंदी आदि में बनाकर रख लिया जाता है और फिर जिस इलाके मंे बस पहुंचती है, सिनेमा चलता है, उसी भाषा में फिल्म दिखायी जाती है.
बकौल, विजय भारत मोबाइल एग्रीकल्चर स्कूल एंड सर्विसेज (मास) शुरू करने का खयाल एक गैर सरकारी संस्था की फिल्म को देखने के बाद आया. उसे देखने के बाद विजय ने भी झारखंड मंे पंचायत स्तर पर कृषि स्कूल खोलने का प्रस्ताव झारखंड में दिया. लेकिन बाद आगे बढ़ न सकी. विधानसभा में पहुंचने के साथ ही खत्म हो गयी. लेकिन एक जिद थी सो बैंक ऑफ इंडिया से 16 लाख रुपये लोन लेकर इस विशेष बस को तैयार कर मोबाइल स्कूल की शुरुआत की. इस अभियान को एक उद्यम का रूप दिया गया. विजय और अजय पहले इस उद्यम मंे पार्टनर बने, बाद में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के सुशील को भी जोड़ लिया गया था. फिरएक्सटेंशन एग्रीकल्चर असिस्टेंट की नियुक्ति हुई जो ग्रामीण इलाके में इस बारे में जानकारी देने में लगे रहे. जिन इलाकों में कम से कम 50 किसान तैयार हो जाते, वहां फिल्मों व विशेषज्ञों के साथ यह मोबाइल स्कूल बस पहुंच जाता. विजय के अनुसार इस फर्म को खड़ा करने में कम से कम 25 लाख रुपये लगे थे, बैंक को लोन भी रिटर्न करना था सो आरंभ मंे प्रति किसान 150 रुपये शुल्क लिया जाता था. जहां सरकार या किसी संस्था द्वारा इस शो को आयोजित किया जाता वहां किसानों से कोई पैसा नहीं लिया जाता. विजय कहते हैं आरंभ में तो महीने में 15 दिन ही मोबाइल स्कूल चल पाता था लेकिन धीरे-धीरे रिस्पांस मिलता गया, पास के बिहार में भी इस प्रयोग की सराहना हुई तो बस बढ़े और हौंसला भी बढ़ता गया.