जीतराई कहते हैं,
जब एनएसडी में
पहुंचा, तभी तय किया कि
यहां से निकलूंगा तो अपनी माटी, अपने लोगों के लिए सबसे पहले काम करूंगा या यूं कह सकते हैं कि उसी काम
को करने के लिए संघर्ष कर एनएसडी तक पहुंचा भी. जीतराई सही ही कहते हैं. उनके नाटक
‘फेविकोल’ को देखकर आदिवासी
दुनिया का संघर्ष तो लोग समझ जाते हैं लेकिन इस नाटक को रचने और तैयार करनेवाले
जीतराई ने इसके लिए कितना संघर्ष किया, इसे कम लोग ही जानते हैं और जीतराई अपने बारे में ज्यादा बताना भी तो
नहीं चाहते.
जीतराई हांसदा झारखंड के कोल्हान इलाके से ताल्लुक रखते हैं.
सरायकेला-खरसांवा के निकट मकबन बेड़ा गांव में मार्च 1975 में जनमे. पिता
किसान थे, मां घरेलू महिला.
आठवीं में पढ़ते थे, तभी मां-बाप का साथ
छुट गया. 12 साल की उम्र में
बुआ के साथ रहने आ गये. चार साल में बुआ भी चल बसी. जीतराई के सामने मुश्किलों का
पहाड़ खड़ा हुआ. जीतराई बचपन से नाटक का शौक रखते थे लेकिन आगे जिंदगी ही मुश्किल
हो गयी तो नाटक कहां से कर पाते लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. वे बताते हैं, किसी तरह हमने 1993 में मैट्रिक की
परीक्षा पास की, फिर बारहवीं तक की
पढ़ाई पूरी कर ली लेकिन उसके बाद पढ़ना संभव नहीं था लेकिन मैं पढ़ना चाहता था.
सात साल तक पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी. मजदूरी करने लगा लेकिन 2000 मंे फिर तय किया
कि मजदूरी करते हुए ही पढूंगा. बकौल जीतराई, वे कुछ दिनों तक दिहाड़ी मजदूरी का काम किये, फिर वेल्डिंग करने
लगे, फिर दर्जी का काम
करने लगे और यह सब करते हुए उन्होंने सात साल बाद स्नातक की पढ़ाई भी शुरू कर दी
थी और साथ में नाटक भी. छह साल में ग्रेजुएशन की परीक्षा पास कर सके. झारखंड के ही
घाटशिला में रहकर पढ़ाई भी कर रहे थे, मजदूरी भी कर रहे थे और मौका मिलते ही नाटक भी कर रहे थे. अपनी फुआ के
नाम पर उन्होंने जेबीन आर्टिस्ट एसोसिएशन आॅफ ट्राइबल्स नाम से गु्रप भी बना लिया
और गांव के कलाकारों के साथ मिलकर ‘ होपोन मई’ यानि छोटी बहन जैसे
नाटक भी आदिवासी भाषाओं में करते रहे. जीतराई बताते हैं कि 2007 में जमशेदपुर में
उन्हें एक ड्रामा वर्कशोप में भाग लेने का मौका मिला तो वहां उन्हें रोहिन दास
नामक प्रशिक्षक ने एनएसडी के बारे में बताया. जीतराई के पास न पैसे थे, न संसाधन लेकिन
उनके सिर पर एनएसडी जाने का भूत सवार हुआ. 2008 में उन्होंने कोशिश की, नाकाम रहे, फिर अगले साल 2009 में उन्होंने
दुबारा कोशिश की और इस बार सफल हो गये. बकौल जीतराई, एनएसडी गया तो तमाम तरह के प्रयोगों को देखता रहा
और रंगकर्म की बारीकियों को समझता रहा लेकिन जेहन में हमेशा यही चलता रहा कि इन
सबका प्रभावकारी इस्तेमाल अपने आदिवासी समाज के लिए किस हद तक और किस रूप में कर
सकूंगा! दिन-रात की इसी सोच के परिणाम के तौर पर उनका नाटक ‘फेविकोल’ सामने आया.
फेविकोल का रिस्पांस कैसा है, यह पूछने पर जीतराई कहते हैं कि आदिवासियों को तो स्वाभाविक तौर यह नाटक
पसंद आ रहा है और इसे वे अपने सबसे करीब मान रहे हैं लेकिन दूसरे संघर्षशील साथी
भी इसे बेहद पसंद कर रहे हैं. जीतराई कहते हैं कि मैंने बचपन से ही महसूसा है कि
आदिवासी समाज को जमीन से बहुत मोह है. आप जानती होंगी कि आदिवासी जब अपने बच्चों
का नाभी भी काटते हैं तो तीर से ही काटते हैं और फिर तीर से ही जमीन खोदकर उसमें
गाड़ते हैं. यह परंपरा उनके जमीन से लगाव की वजह से ही सदियेां से चली आ रही है, लेकिन आज
आदिवासियों को सबसे पहले अपनी जमीन से ही बेदखल किया जा रहा है तो हमेशा दुख होता
है.
फेविकोल के बाद क्या अगला नाटक भी आदिवासी विषय पर ही होगा. जीतराई कहते
हैं, आदिवासी विषय पर
रंगकर्म के जरिये बहुत काम करना बाकी है, इसलिए फिलहाल मैं किसी दूसरे विषय के बारे में सोच भी नहीं सकता.
आदिवासियों के बारे में बहुतेरे साहित्य लिखे गये, लिखे भी जा रहे हैं. उसका अपना महत्व है लेकिन
साहित्य वे पढ़ नहीं पाते जबकि नाटक के जरिये वे सीधे संवाद स्थापित करते हैं और
अपनी चुनौतियों को एक स्वर देने के लिए प्रेरित होते हैं, इसलिए मैं लगातार
अपने लोगों के लिए नाटक करता रहूंगा. जीतराई बताते हैं कि फेविकोल के बाद एक साथ
तीन नाटकों पर वे काम कर रहे हैं और तीनों आदिवासी विषयों पर ही है और दो-तीन माह
के अंदर सभी का प्रदर्शन भी शुरू होगा. पहला नाटक -जोहार झारखंड है, जो संथाली और हिंदी
में एक साथ तैयार हुआ है. इस नाटक के जरिये हम यह बतायेंगे कि बिहार से अलग होकर
झारखंड नाम से एक राज्य तो बन गया लेकिन झारखंडियों को अपना हक पाने के लिए एक और
लड़ाई लड़नी होगी. दूसरा नाटक बिलोर बिट्टी नाम से तैयार हुआ है, जिसके जरिये हम यह
दिखायेंगे कि कैसे आदिवासी महिलाओं के साथ छल हो रहा है और जमीन हथियाने के लिए
भोली-भाली आदिवासी महिलाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है. और इसी कड़ी में तीसरा
नाटक ‘ निटबिट’ नाम से तैयार हो
रहा है, जो आदिवासी समाज के
पलायन पर होगा. जीतराई कहते हैं कि हम किसी एक खास वर्ग, जाति,समुदाय को निशाने
पर नहीं लेना चाहते िकवे आदिवासी का शोषण
कर रहे हैं बल्कि कारपोरेट से लेकर माओवादी तक आदिवासियों का शोषण और इस्तेमाल ही
तो करते हैं, हम अपने लोगों को
अपने नाटकों के जरिये यही बताने की कोशिश करेंगे.
जीतराई अपने साथियों के साथ कभी जमशेदपुर में रहकर तो कभी दिल्ली जाकर
आगामी तीन नाटकों की तैयारी में लगे हुए हैं और साथ ही फेविकोल का प्रदर्शन भी
जारी रखे हुए हैं. उनके नाटकों के विषय इतने सख्त, मजबूत और चुनौती देनेवाले हैं कि मुख्यधारा की
मीडिया उन्हें, उनके नाटकों को
ज्यादा तरजीह देने को तैयार नहीं. यह आदतन हो रहा है या इरादतन, जीतराई इस पर कुछ
नहीं कहते. वे बस हंसते हुए कहते हैं- हम मीडिया में प्रसिद्धी पाने के लिए नाटक
कर भी नहीं रहे, अपने लोगों को
जगाने के लिए कर रहे हैं,
उन्हें एक आवाज
देने के लिए, उनकी आवाज को एक
धार देने के लिए कर रहे हैं, उसमें सफल हो रहे हैं, और क्या चाहिए...!
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