लगा, मकरध्वज दारोघा को
अचानक से पंख लग गये हो. हम जिज्ञासा और सवालों के साथ छउ के
इतिहास, वर्तमान और भविष्य
पर कुछ जानने के लिए उनसे बात क्या छेड़ते हैं, किसी बच्चे जैसा उत्साह और उमंग लिये हमें तुरंत नृत्य ही दिखा देने को
मचलने लगते हैं. अपने घर के उस एक छोटे से कमरे में, जहां हमारी मकरध्वज से मुलाकात होती है, उसी कमरे में
कुर्सी पर बैठे-बैठे ही बैठे-बैठे बिना ताल के ताल बिठाने की कोशिश करने लगते हैं.
बुदबुदाते हैं- ता- थइया,
हे- रे-ता-थइया... उनके
हाथ दैहिक भाषा में बात करने को उठने लगते हैं, पांवों में थिरकन साफ-साफ दिखती है. छोटा-सा कमरा भाव-भंगिमा दिखाने की
इजाजत नहीं देता, वह उठते हैं, दे-दा, देने-दा... जैसा
कुछ धुन गुनगुनाते हुए घर के अहाते के ही छोटे-से बगान में आने का इशारा कर आगे बढ़
जाते हैं. थोड़ी खुली जगह में आते ही एक बार फिर से नृत्य की भाव-भंगिमा दिखाते
हैं. खुद को ही संतुष्ट नहीं कर पाते शायद. पड़ोस में रहनेवाली अपनी एक शिष्या
भारती को बुलाते हैं. वह तलवार-ढाल लेकर आती है. फिर दोनों का प्रदर्शन शुरू होता
है. मकरध्वज धुन गुनगुनाते हैं, दैहिक भाषा के साथ इशारा करते हैं, भारती उसका अनुसरण करती है. यह दृश्य देखते ही बनता है. गुरू-शिष्या उस
छोटे खुले मैदान में ही करीब दस मिनट तक अभ्यास प्रदर्शन करते हैं.
लोक परंपरा और शास्त्रीयता के अद्भुत मेल वाले छउ नृत्य का यह अभ्यास
प्रदर्शन हम मकरध्वज दारोघा के सरायकेला स्थित आवास पर देखते हैं. सरायकेला यानि
छउ नृत्य की नगर. कहने के लिए और देखने में भी एक छोटा-सा कस्बानुमा शहर है लेकिन
इस एक खास नृत्य की वजह इस छोटी-सी नगरी को देश-दुनिया भर में जाना जाता रहा है.
78 वर्षीय मकरध्वज दारोघा कुछ देर तक नृत्य दिखाने के बाद गहरी सांस लेते हुए कहते
हैं. ‘‘ सच कहूं तो जैसे ही
छउ नृत्य की बात होती है,
नृत्य करने को मेरी
नसें फड़फड़ाने लगती हैं. मैं इसके महत्व,इसकी ऐतिहासिकता,
वर्तमान समय में इस
नृत्य के महत्व को अधिक से अधिक लोगों को बताना चाहता हूं, इसलिए रहा न गया तो
पूरे भाव-भंगिमा में आपको बताने-दिखाने की कोशिश की.’’
जिस मकरध्वज दारोघा से हम घंटों बातें करते हैं, जो अपनी शिष्या के
साथ नृत्य कर हमें दिखाते हैं,वे कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं है. भारत सरकार ने तो उन्हें 2011 में
पद्मश्री देकर सम्मानित किया लेकिन सरायकेला के इलाके में वे पिछले छह दशक से
नृत्यगुरू के रूप में मशहूर हैं. आसपास के गांव-गांव की गलियांे में उन्हें
मान-सम्मान प्राप्त है. आठ साल की उम्र में खुद इस विधा से जुड़ गये थे मकरध्वज और
तब से लेकर आज तक छउ की दुनिया में ही रहते हैं. दिन-रात छउ को ही जीते हैं.
उन्होंने कई पौराणिक आख्यानों पर नये तरीके से छउ नृत्य विकसित किये और निःशुल्क
गांव-गांव घूम-घूमकर नौजवानों को प्रशिक्षित किया. मकरध्वज कहते हैं,‘‘ आखिरी समय तक यही
करना चाहता हूं.’’
सरायकेला के इलाके में सुबह से शाम तक गुजारने पर छउ को लेकर दिवानगी, रोमांच का भाव गांव
की गलियों से लेकर शहर के चौरस्ते तक इसी तरह दिखता है. मकरध्वज दारोघा तो खैर
श्रेष्ठ नृत्य गुरू हैं लेकिन नयी पीढ़ी में भी कई नौजवान मिलते हैं, जो मकरध्वज की तरह
बनना चाहते हैं, यह जानते हुए भी इस
नृत्य में जिंदगी गुजार देने के बाद भी आखिरी मंे फकत मुफलिसी ही नसीब होने की
नियति है. सरायकेला में घूमते हुए यह जानना भी बेहद दिलचस्प होता है कि उस छोटी सी
नगरी की खास नृत्य छउ ने सिर्फ मकरध्वज दारोघा को पद्मश्री पाने के मुकाम तक नहीं
पहुंचाया है बल्कि वहां के आधे दर्जन कलाकार पिछले दो दशक में एक नृत्य के जरिये
पद्मश्री के हकदार बने हैं. राजा सुद्धेंद्र नारायण सिंह, केदार नाथ साहू, गोपाल दुबे, मंगला मोहंती, श्यामाचरण पति जैसे
कई और नाम भी हैं अथवा हुए. सुद्धेंद्र नारायण सिंह और केदार नाथ साहू को छोड़ चार
पद्मश्री प्राप्त कलाकार अभी जीवित हैं और अपने-अपने तरीके से सक्रिय भी.
फिलहाल छउ नगरी में और आसपास के इलाके में छउ की हालत अभी कैसी है, उस पर बात करने
पहले थोड़ी बात इसी पर कर लेते हैं कि आखिर क्यों खास है यह नृत्य शैली और क्या है
इसमें खास? क्यों गांव की
गलियों से लेकर दुनिया भर में इसके प्रति दिवानगी समय-समय पर दिखते रही है? क्यों तेजी से
बदलते इस समय में भी झारखंड के एक कोने में बसे कोल्हान इलाके में नये उम्र के
युवक-युवतियों के बीच भी मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय माध्यम छउ ही बना हुआ है? यह जानकारी हम
सरायकेला राजदरबार में पहुंचकर लेते हैं. जानकारी के लिए राजदरबार पहुंचने की ठोस
वजह होती है. इलाके में यह सर्वमान्य धारणा है कि छउ को विकसित करने, प्रोत्साहित करने, संरक्षित करने और
छउ नृत्य के साथ ही इसके कलाकारों को एक मुकाम तक पहुंचाने में सरायकेला राजघराने
की भूमिका शुरू से महत्वपूर्ण रही है. सरायकेला राजघराना 19वीं सदी के आरंभ से ही ‘श्री कला पीठ’ नामक संस्था के
जरिये छउ कलाकारों को प्रशिक्षित करने, प्रशिक्षण के बाद उनके लिए प्रदर्शन के लिए मंच देने, छउ को लेकर उत्साह
बरकरार रखने के लिए प्रतियोगिता आदि आयोजित करने का काम करता रहा है. और इन सबसे
बड़ी बात यह कि खुद राजपरिवार के लोग इस नृत्य से पूरे मनोयोग और दिवानगी के साथ
जुड़कर कलाकार बनते रहे हैं. सरायकेला राजघराने का छउ से कितना गहरा रिश्ता रहा
होगा, इसका अहसास राजमहल
में पहुंचने पर भी होता है. दिवारों पर कई तसवीरें दिखती हैं, जिनमें अधिकांश छउ
से ही संबंधित होती हैं. सामने दूसरी ओर दिवार पर एक कतार में मुखौटे सजे होते हैं, जो छउ नृत्य में
इस्तेमाल किये जानेवाले होते हैं. राजमहल के अंदर वर्तमान राजकुमार प्रताप सिंह
देव से मुलाकात होती है. वह छउ और सरायकेला से छउ के संपर्क सरोकार बताते हैं.
कहते हैं, ‘‘ छउ-छावनी शब्द से
बना है. यह सैनिकों का नृत्य रहा है, इसलिए इसमें ढाल,
तलवार, युद्ध आदि दिखायी
पड़ते हैं. 1205 से सरायकेला राजघराने का अस्तित्व है, तब से ही छउ से
हमारे पुरखों का ताल्लुक रहा है, जो अब भी उसी तरह जिंदा है. सिंह कहते हैं, इतिहास के पन्ने को खंगालिएगा तो इसकी शुरुआत
कलिंग युद्ध के बाद से हुई थी लेकिन
सरायकेला छउ का जो वर्तमान अधुनिक स्वरूप दिखता है उसकी शुरुआत करीब 1900 से मानी
जा सकती है. सरायकेला राजघराने में दो लोग हुए, जिन्होंने इसे नये स्वरूप में ढाला. एक आदित्य प्रताप सिंह और दूसरे उनके
छोटे भाई कुमार विजय प्रताप सिंह. दोनों ने समयानुसार इस नृत्य विधा में बदलाव
किये और खुद परफॉर्म भी करते रहे. राजघराने का छउ से फिर से रिश्ता इस कदर जुड़ा कि
विजय प्रताप सिंह ने अपने भतीजे यानि दिवंगत राजा आदित्य प्रताप सिंह के बेटे
सुद्धेंद्र नारायण सिंह को छउ में पारंगत करने लगे और 1993 में वह समय आया, जब सरायकेला छउ के लिए सुद्धेंद्र नारायण सिंह को
भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया. उसके बाद तो सरायकेला छउ के कलाकारों को
एक-एक कर पद्मश्री सम्मान मिलते रहे और दो दशक में यह संख्या आधे दर्जन तक पहुंच
गयी.
प्रताप सिंहदेव कहते हैं, ‘‘ हमारे पुरखे को पद्मश्री सम्मान मिला, सरायकेला छउ नृत्य के और पांच महान नृत्य गुरुओं को भी वह सम्मान मिला
लेकिन राजघराने की कोशिश सिर्फ इस सम्मान भर पा लेने की नहीं रही बल्कि तब से लेकर
आज तक हम इस विधा को अपनी पहचान और परंपरा से जोड़कर देखते हैं और इसे संरक्षित, सवंर्द्धित और
विकसित करने में यथासंभव पूरे मनोयोग से लगे हुए हैं.’’ उनकी बातें कुछ हद
तक सच भी लगती है. सरायकेला राजघराने ने अपने जमाने में इस नृत्य विधा को गांधी, नेहरू, रविंद्र नाथ टैगोर, सरोजनी नायडू और आद
में इंदिरा गांधी समेत कई दिग्गजों के
सामने प्रस्तुत किया और करवाया था, इसकी महता को समझाया था और फिर कोशिश कर गांव-गिरांव के कलाकारों को इस
नृत्य का प्रदर्शन करने के लिए दुनिया के कई मुल्कों में भेजने में अपनी सकारात्मक
भूमिका भी निभायी. ’’ प्रताप बताते हैं,‘‘ छउ नृत्य की तीन
प्रणालियां है, सरायकेला, मयूरभंज और
पुरूलिया, जिसमें सरायकेला
नृत्यशैली को ही सभी छउ नृत्य शैली की जननी माना जाता है. इस शैली में मुखौटे का
इस्तेमाल होता है. मुखौटे की दूसरी वजहें रही होंगी लेकिन मुझे तो इसका एक बड़ा
मतलब यह भी समझ में आता है कि इसे लगा लेने के बाद सब एक समान हो जाते हैं.
काले-गोरे, अमीर-गरीब, उंची-नीची जाति के
लोग....सब.’’
हमारी अगली जिज्ञासा यह होती है कि आखिर इस नृत्य में क्या खास है, जो इतने वर्षों से, इतनी पीढ़ियों से
बिना किसी लिखित व्याकरण,
लिखित सिद्धांत के
सिर्फ गुरू-शिष्य परंपरा के रास्ते चलकर न सिर्फ जिंदा है, बल्कि मजबूत स्थिति
में भी है. मगरध्वज दारोघा बताते हैं. यह लोक और शास्त्रीय शैली के अद्भुत तरीके
से मिलान वाली शैली है. इसमें पौराणिक प्रसंगों पर आधारित नृत्यों की एक लंबी
श्रृंखला है. महाभारत के विविध प्रसंग,रामायण के विविध प्रसंग समेत मेघदूत,कुमारसंभव जैसी उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियों पर छउ नृत्य की प्रस्तुति
बेहद लोकप्रिय हुई है. मकरध्वज दारोघा दुर्योधन उरूभंग, धुतिखेल, पारिजात हरण, कृष्ण लीला आदि के
बारे में बताते हैं, जिसमें उन्होंने
खुद कई प्रयोग किये हैं.
हालाकि छउ नृत्य के बारे मे जो परिभाषा या धारणा
राजा प्रताप सिंह देव बताते हैं, वह इकलौती धारणा नहीं है।
रांची मे रहने वाले संस्कृतिकर्मी, कलाकार और जनजातीय
भाषा विभाग के पूर्व प्राध्यापक गिरिधारी
राम गौंझू कहते हैं यह सच है कि इस नृत्य का जुड़ाव युद्ध कलाओं से रहा है लेकिन
सिर्फ छावनी से विकसित होने से इसका नाम छउ नहीं है बल्कि इसमें खास किस्म की छह
मुद्राएं होती हैं, इसलिए इसे छउ कहते हैं. वे मुद्राएं
क्रमशः चालन यानि चलना,धावन यानि दौड़ना, उछलन यानि उछलना, घुलटन यानि गुलाटी मारना, चक्रण यानि घूमना और थिरकन यानि थिरकना है. गौंझू कहते हैं, नृत्य से मनोरंजन होता है लेकिन इस नृत्य की खासियत यह है कि इसे करते
करते आप युद्ध कला भी जानने लगते हैं. एक समय में इस नृत्य का प्रयोग जंगल में
रहनेवाले खतरनाक जानवरों को डराने के लिए भी होता था. मुखौटे पहनकर खास तरीके से
भाव-भंगिमा दिखाकर जंगली जानवरों को भगाया जाता था. गौंझू एक नयी व्याख्या करते
हैं लेकिन हमारे पास दूसरे सवाल भी सामने होते हैं. छउ नृत्य में जिन
लोकप्रिय प्रसंगों को बताया जाता है और जिसे दर्शक बार बार देखना चाहते हैं या
वर्षों से जिन प्रसंगों को नृत्य के जरिये बार-बार दुहराया जाता रहा है, क्या उससे इस नृत्य
में एकरसा भाव पैदा नहीं हो रहा? क्या नयी पीढ़ी उसी आकर्षण से पुराने प्रसंगों के साथ जुड़ रही है, जुड़ना चाहती है? इस सवाल का जवाब
हमें सुशांत महापात्र देते हैं, जो छउ नृत्य के लिए मुखौटा बनाने के वरिष्ठ कलाकार हैं. सुशांत कहते हैं
कि यह जरूर है कि पहले की तरह उत्साह और उमंग इस नृत्य को लेकर नयी पीढ़ी में नहीं
दिखती लेकिन अब भी इस इलाके में छउ एक धर्म की तरह है. साथ ही मनोरंजन का सबसे
महत्वपूर्ण साधन यही है. पहले राजा द्वारा नौ अखाड़ों का संचालन होता था, गांव-जवार के
मुखिया आदि छउ नृत्य प्रतियोगिता का आयोजन करवाते थे लेकिन धीरे-धीरे सब पर ग्रहण
लगा और छउ को लेकर सबसे बड़ा सालाना आयोजन चैत्र महोत्सव रह गया है, जो चैत माह से आसाढ़
तक चलता है. चैत्र महोत्सव में बाजी मार ले जाने के लिए इलाके के कलाकार सालों भर
मेहनत करते हैं, क्योंकि उसमें जो
बाजी मार ले गया, उसके नृत्य दल का
नाम साल भर तक इलाके में गूंजता है. महापात्र कहते हैं, उस एक सालाना
महोत्सव की वजह से अभी भी इलाके के गांव-गांव में छउ को लेकर एक आकर्षण है, नयी पीढ़ी में
उत्साह है. उनके पास गांव से लोग हमेशा पहुंचते हैं और मुखौटों का ऑर्डर देते रहते
हैं या हर-पार्वती, राधा कृष्ण, चंद्रप्रभा, हंस, नाविक, मयूर, अर्द्धनारिश्वर आदि
के जो पॉपुलर मुखौटे बने रहते हैं, उसे ले जाते हैं. महापात्र कहते हैं कि आप इससे ही अंदाजा लगाइये ना कि
सरायकेला एक पुराना बाजार है, अब तो जिला मुख्यालय भी हो गया, सिनेमा की देश-दुनिया में इतनी लहर है लेकिन यहां अब भी मनोरंजन के लिए
एक एक वीडियो थियेटर मिलेगा. क्यों? क्योंकि गांव के लोगों को सिनेमा आदि से ज्यादा आनंद छउ करने में ही आता
है.
महापात्रा से हमारा सवाल होता है कि क्या आप सिर्फ छउ के मुखौटे बनाकर
आजीविका चला लेते हैं. वह कहते हैं कि काफी मेहनत से इसे बनाना पड़ता है, खर्च भी बढ़ गया है
लेकिन ग्रामीणों के लिए हम बहुत ज्यादा दाम नहीं रख पाते. हां किसी सभा-समारोह आदि
के लिए उपहार-सम्मान आदि देने के लिए यदि ऑर्डर आता है तो हम पूरी लागत और
मेहनताना जरूर लेते हैं, उसी से कमाई होती
है. गांव की गलियों में छउ जिंदा रहे और फलता-फूलता रहे, यह मेरी भी कामना
है, इसलिए हमारी कोशिश
होती है कि छउ कलाकारों को इस महंगी के युग में भी ज्यादा मुश्किलों का सामना न
करना पड़े.
महापात्रा से भी बहुत देर तक बातें होती हैं. सरायकेला में घूमते हुए छउ
की धमक को हम महसूसते हैं. गुरू मकरध्वज दारोघा के साथ उनकी शिष्या को ताल मिलाते
हुए, ढाल-तलवार के साथ
नृत्य करते देखने के बाद से ही यह सवाल भी घुमड़ते रहता है कि सैनिकों के इस
ढाल-तलवार और जांबाजी वाले नृत्य से महिलाएं कैसे और कब से जुड़ीं और क्या नयी
लड़कियां तेजी से इस नृत्य विधा को अपना रही हैं? इसका जवाब गुरू मकरध्वज दारोघा की शिष्या भारती
देती है. भारती बताती हैं- महिलाओं का इस नृत्य में कब से प्रवेश शुरू हुआ, इसकी तथ्यगत
जानकारी तो नहीं दे सकती लेकिन 30 के दशक में वाणी मजूमदार जैसी कलाकार छउ नृत्य
करती थी, इसकी जानकारी है.
वह कहती हैं कि सुनती रही हूं कि पहले छउ नृत्य महोत्सवों में महिलाओं के प्रदर्शन
पर सवाल उठाये जाते थे लेकिन अब तो हर साल महिलाएं भाग लेती हैं और यह भी यह है कि
छउ का जो इकलौता सरकारी संस्थान है,यदि वह ठीक से काम करे तो महिलाओं और लड़कियों की संख्या तो इतनी बढ़ जाएगी
कि संभाले नहीं संभल सकेंगी.
भारती सरायकेला में अवस्थित जिस सरकारी छउ संस्थान की बात बताती हैं, हम उसे देखने
पहुंचते हैं. वहां विजय नाथ साहू मिलते हैं. संस्थान में इंस्ट्रक्टर के पद पर
कार्यरत हैं. वे छउ के मशहूर गुरू व नर्तक पद्मश्री स्व. केदार साहू के बेटे हैं.
विजय कहते हैं कि इस संस्थान पर सरकार ध्यान ही नहीं दे रही, सब कुछ जुगाड़ तकनीक
से चल रहा है. और क्या कहा जाए,वर्षों से वाद्य यंत्रों के वादक कलाकार व गुरू भी नहीं हैं. संस्थान
परिसर में अंदर प्रवेश करने पर खुद-ब-,खुद भी उसकी स्थिति की कहानियां मालूम होने लगती है. बड़ा सा हॉस्टल दिखता
है,जहां आसपास के
इलाके से आनेवाले बच्चों को सप्ताह में दो दिनों तक रूकने का इंतजाम किये जाने का
प्रावधान रहा है लेकिन छात्रावास की स्थिति बताती है कि यह सब एक जमाने में होता
रहा होगा. संस्थान के निदेशक तपन पटनायक से बात होती है. वह कहते हैं, हम क्या करें, हमारे सामर्थ्य की
एक सीमा है. दस साल से सरकार को चिट्ठी लिखते-लिखते थक चुके हैं. बिना स्टाफ कितना
काम आगे बढ़े,फिर भी हमलोगों ने
आसपास के गांवों में कंेद्र की गतिविधियों को जारी रखा है और फिलहाल 125 कलाकार
केंद्र में 40 के करीब ग्रामीण केंद्रों पर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं. पटनायक
कहते हैं, आपको जानकर आश्चर्य
होगा कि इनमें तो 32 लड़कियां हैं, अभी और भी आने को तैयार है लेकिन हम आखिर उन्हें किस बुते ले, संसाधन और सुविधा
है ही नहीं. विदेशी लोग भी आते हैं, बहुतेरे आना चाहते हैं लेकिन हमें कई बार मुंह मोड़ लेना पड़ता है. पटनायक
आखिरी में कहते हैं- छउ को इस कदर अपने हाल पर छोड़ देना ठीक नहीं. यह नृत्य सिर्फ
मनोरंजन का माध्यम भर नहीं है. यह एक आस्था का नृत्य है, यह एक जीवन धर्म है
और इस इलाके में जब तक इसका प्रभाव है, इलाका कई तरह की विसंगतियों, भेदभाव और बुराइयों से बचा हुआ है. छउ खत्म हुआ तो यह इलाका भी तेजी से
बदलाव के नाम पर बिगड़ाव के रास्ते चलने लगेगा...! पटनायक छउ के नाम पर बने सरकारी
संस्थान की दशा-दुर्दशा बताते हैं. रांची में रहनेवाले झारखंड के चर्चित व वरिष्ठ
लोककलाकार मुकुंद नायक कहते हैं कि शहरी क्षेत्र में एक-दो सरकारी संस्थानों के
खड़ा होने से छउ ही नहीं, किसी भी लोक कला को
बचा लेना, विकसित करना संभव
नहीं. झारखंड की लोककलाओं का विकास गांवों के अखड़े में होता रहा है. अखड़े खत्म हो
रहे हैं, उन्हें जीवित करना
होगा, जीवंत बनाना होगा.
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