Saturday, September 7, 2013

अनगढ़ इतिहास का देसी चितेरा



अपने एक मित्र से मनराखन राम किस्कू से जानकारी मिली थी. मित्र की सलाहियत थी कि एक बार मनराखन से जरूर मिलूं. कुछ माह पहले रांची के हरमू स्थित आवास पर उनसे मिलने गयी थी. करीब 65-70 साल के किस्कू सामने होते हैं. स्वभाव से बेहद सरल, सहज. विनम्रता से बैठने का इशारा करते हैं. अंदर कमरे से ध्वनी यंत्र लेकर आते हैं, कान में फिट करते हैं. फिर बातचीत शुरू हो जाती है. साधारण लहजे में. हिंदी में स्थानीय बोली की मिलाहट के साथ. अपने अंदाज मंे इतिहास के एक अनसुलझे, अनगढ़ अध्याय को सामने खोलते जाते हैं मनराखन. कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं करते. हर बात के आखिरी में तकियाकलाम की तरह यह जरूर जोड़ते हैं कि ऐसा लगता है, बाकि सच का है, ई तो इतिहासकार, जानकार लोग बतायेगा न!
मनराखन राम सच्चाई की पड़ताल करने के लिए बार-बार इतिहासकारों और जानकारों का हवाला देते हैं लेकिन सच यह है कि 15 साल तक अदम्य जीजीविषा के साथ जिन विषयों पर उन्होंने खुद अध्ययन किया है, जो तथ्य निकाले हैं, उसके पीछे जो तर्क हैं, उन्हें खुद एक इतिहासकार बनाता है. अनगढ़ और देसज चेतना से लैस खोजी इतिहासकार. भले ही उनका इतिहास बोध पारंपरिक इतिहास लेखन कला के खाके में फिट न बैठता हो. मनराखन ने गंभीर अध्ययन के बाद यह तथ्य सामने लाये हैं कि गौतम बुद्ध और आदिवासी समाज के बीच बहुत ही गहरा रिश्ता रहा है. और अगर उनके तथ्यों और तर्कों को सुनेंगे तो यह भी लगेगा कि आदिवासी समाज बुद्ध के सच्चे अनुयायी हैं और बुद्ध आदिवासी परंपरा के ही ज्ञानवान, विवेकी नायक थे.
मनराखन कहते हैं. मैंने तो मामूली सरकारी नौकरी में जिंदगी गुजार दी लेकिन किशोरावस्था से ही मन में कई सवाल चलते रहते थे. सोचता था कि फूलों का राजा तो गुलाब होता है. जंगल में चंपा-चमेली सी सुगंधित व खूबसूरत फूलों की भी कमी नहीं थी. फिर सबको छोड़कर आदिवासी समाज सखुआ फूलों से इतना मोह क्यों रखता है? क्यों सरहुल जैसे महत्वपूर्ण त्योहार में भी सखुआ ही प्रधान बन गया होगा? क्यों सखुआ ही सरना वृक्ष बना होगा, पेड़ तो और होंगे या अब भी होते हैं? मनराखन ने इन सवालों का पीछा करना शुरू किया और फिर इस एक सवाल के जवाब में कई सवालों का जवाब भी पाते गये. मनराखन कहते हैं, अब थोड़ी जिज्ञासा शांत हुई है लेकिन अब भी इतिहासकार इस ओर ध्यान नहीं देते, सो लगता है कि कहीं मैं अपने गलत-सलत अनुभव से कोई बेजां नतीजा तो नहीं निकाल रहा न!
बकौल मनराखन, आप इतिहास में जायें तो पायेंगे कि बुद्ध का जन्म सरना वृक्ष के शालकुंज में हुआ और उनका महापरिनिर्वाण भी सखुआ वृक्ष के नीचे ही. बौद्ध धर्म में जब महायान और हीनयान नाम से दो अलग-अलग धाराएं निकलीं तो हीनयान ने धम्मचक्र और वृक्ष को अपनाया. महायानी मूर्ति की पूजा करने लगे. मनराखन कहते हैं कि ऐसा लगता है आदिवासी हीनयानी राह पर चले. बौद्धकाल से पहले कभी भी कहीं आदिवासी जीवन में शाल वृक्ष की महत्ता की चर्चा नहीं मिलती. डीडी कौशांबी के इतिहास के किताबों का हवाला देते हुए मनराखन कहते हैं- कौशांबी ने साफ-साफ लिखा है कि  बुद्ध का गोत्र नहीं बल्कि टोटम था, जो शाल ही था. अब यह तो सब जानते हैं कि टोटम आदिवासी समाज में ही होता है. मनराखन फिर प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ राधाकुमुद मुखर्जी की किताब का हवाला भी देते हैं कि उन्होंने भी कहा है कि बुद्ध का कुल मूल कोल मुंडा ही था. एक और किताब डॉ रघुनाथ सिंह द्वारा लिखित बुद्ध कथा का हवाला देते हैं. डॉ रघुनाथ सिंह ने लिखा है कि बुद्ध की माता महामाया देवदह नामक राज के कोल राजा की पुत्री थी.
एक-एक कर ऐसी कई बातें सामने रखते हैं मनराखन और आखिरी में यह जरूर दुहराते रहते हैं कि मै। खुद कुछ नहीं कह रहा बल्कि मेरे मन मंे तो सिर्फ कुछ सवाल उठे थे जिनके जवाब की तलाश में ये सब तथ्य मिले. वे बताते हैं कि नौकरी के दौरान रांची,पटना, गया जहां-जहां भी उनका जाना होता रहा, वहां की लाइब्रेरियों में वे अपने सवाल के जवाब की तलाश में किताबें पलटते रहे. सामथ्र्य के अनुसार कुछ किताबें भी खरीदते रहे.
मनराखन खुद को कभी इतिहासकार नहीं मानेंगे लेकिन उनकी बातों पर इतिहास के अध्येताओं को ध्यान देने की जरूरत है. चलते-चलते आखिरी में वे एक सवाल पूछते हैं. कंकजोल प्रदेश को जानती हैं आप? वहां एक कंजंगला नामक आदिवासी महिला रहती थी, कभी सुनी हैं उनके बारे में? न में सिर हिलाने पर वे बताते हैं. कंकजोल प्रदेश आज के संथाल परगना इलाके को ही कहते थे. वहीं पर एक बार वर्षावास के दौरान कंजंगला और बुद्ध का आमना-सामना हुआ था. बुद्ध ने कंजंगला को महाविदुषी कहा था. कंजंगला ने उनके शिष्यों से बुद्ध के नियम पर सवाल उठाये थे. बद्ध खुद कंजंगला के पास पहुंचे थे श्ंाका समाधान करने और उसके बाद कंजगंला के सवालों की ताकत देखकर उन्होंने उन्हें महाविदुषी कहा था. कंजंगला के मन में तब बुद्ध के प्रति उठे सवालों आदिवासियों के बौद्ध धर्म से जुड़ाव की ओर संकेत देते हैं उस संकेत को छोड भी दे तो आदिवासी इलाके से बुद्ध के गहरे जुड़ाव के और संकेत तो मिलते ही रहे हैं. झारखंड में इटखोरी, गौतमधारा आदि उसके प्रमाण हैं. यह प्रमाण मिथ हो या हकीकत लेकिन गंवई चेतना से लैस अनगढ इतिहास के अध्येता मनराखन की बातों में तो दम है. उन्हें इतिहासकार न भी माने तो भी इतिहास का एक छोर तो वे थमा ही रहे हैं नयी व्याख्या के लिए, नये तरीके से समझ बढाने के लिए

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