Saturday, September 7, 2013

गोपाल दा को जानते हैं आप!



पांकुड़ में कुछ लोगों ने बताया कि आप मलूटी जाये तो वहां एक मुखर्जी दा रहते थे, पता नहीं, अब वे हैं या नहीं. अगर होंगे तो उनसे जरूर मुलाकात कीजिएगा. वही मालूटी का इतिहास-भूगोल सबसे अच्छे से बतायेंगे. मलूटी का नाम तो शुरू से जानती थी लेकिन गोपाल मुखर्जी का नाम पहली बार सुन रही थी. पाकुड़ से मलूटी के लिए निकलते वक्त मन में उत्सुकता, जिज्ञासा के साथ चली. बेहद थका देनेवाली यात्रा होती है, सुनसान रास्ता अलग किस्म की उब पैदा करता है लेकिन झारखंड की आखिरी सीमा तक पहुंचने की बेताबी भी उतनी ही थी. मलूटी पहुंचकर देश के अनोखे और संभवतः टेरकोटा कला के इकलौते मंदिरों के गांव को देखना चाहते थे. एक छोटे से गांव में 72 अनोखे, अद्भुत और बेजोड़ कलाकृतियों वाले मंदिरों को देखने को बेताब था मन.
मलूटी पहुंचते ही हम भी मंदिरों की तलाश करने की बजाय गोपालदास मुखर्जी का ही पता-ठिकाना पहले पूछते हैं. वे घर पर ही होते हैं. एक झोपड़ीनुमा घर के बरामदे में. उम्र के 83वें साल में प्रवेश करने पर काया जर्जर होती जा रही है. जहां बैठे होते हैं, पास में एक लकड़ी का बक्सा रखा होता है, होम्योपैथी दवाओं के साथ. गोपाल दास मुखर्जी से मलूटी की चर्चा करते ही पहले निराशा के गहरे गर्त में समा जाते हैं. फिर तुरंत किसी नौजवान की तरह ऊर्जा से लैश हो जाते हैं. बच्चे की तरह बार-बार अपने कमरे में जाते हैं, फाइलों का ढेर उठाकर लाते हैं. एक-एक कर दिखाते हुए इतिहास-भूगोल से लेकर वर्तमान-अतीत तक के बारे में बताते है. कहते हैं- आप जिस गांव में है, वह मंदिरों का गांव है. मंदिरों का शहर तो मदुरै, काशी है लेकिन मंदिरों का गांव कहने पर हिंदुस्तान में यही एक अकेला गांव है, जिसे देश और राज्य में भले न जाना जाये लेकिन दुनिया भर में जरूर जाना जाता है. अतीत यह है कि विष्णुपुर के मल्ल राजाओं के युग में यह गांव महुलटी नामक छोटा-सा गांव हुआ करता था.17वीं सदी के अंत में इस गांव में आकर ननकर राज्य के राजाओं ने अपनी राजधानी बनायी. ननकर का मतलब करमुक्त राज्य से होता है. राजधानी बनने के 100 साल बाद तक उस वंश के राजाओं ने इस गांव में लगातार मंदिर बनवाये और यह संख्या 108 हो गयी. अधिकांश मंदिर शिव के थे, कुछ दूसरे-देवी देवताओं के भी लेकिन राजवंश का सूर्य अस्त हुआ तो  मंदिरों की भी दुर्दशा शुरू हो गई. लेकिन 300 घरों की इस बस्ती में अब भी 72 मंदिर मौजूद हैं, जो जर्जर होने के बावजूद जीवंतता से अपने अतीत की कहानी को बयां करते हैं.
गोपाल दास मुखर्जी से मलूटी मंदिरों के संदर्भ में बातचीत छेड़ने भर से उनका इस कदर उत्साहित होना, सहज और स्वाभाविक भी होता है. वे पिछले चार दशक से मंदिरों को ही तो जी रहे हैं एक जिद, जुनून के साथ विरासत को बचाने की जंग लड़ रहे हैं वे. उनकी ही कोशिशों का तो नतीजा रहा है कि आज कम से कम मंदिर के पास राज्य सरकार की ओर एक गेस्ट हाउस बन गया है, दुनिया के रिसर्चर पहुंचने लगे हैं. गोपाल दास इसके लिए वेबसाइट चलाते हैं, रोज चिट्ठी पत्री लिखते हैं, दुनिया भर से लोगों को मलूटी बुलाते हैं और जो संधान-अनुसंसधान और शोध के लिए आते हैं, इस उम्र में भी उनका गाइड बनकर उन्हें घूमाते हैं, उन्हें जरूरी तथ्य मुहैया कराते हैं. गोपाल दास मुखर्जी ने मलूटी पर एक पुस्तिका ही छपवा ली है, जिसे वे बहुत प्रेम से आने वालों को देते हैं और शुल्क के तौर पर सिर्फ यही कहते हैं कि संभव हो तो मंदिरों के इस अनुठे गांव के बारे में देश-दुनिया को बताइयेगा.
गोपाल दा से और भी ढेरों बातें होती हैं. हम मलूटी देखने गये थे, मलूटी की तरह ही गोपाल दा को जानने में भी रुचि जग जाती है. वे पेशे से मास्टर रहे हैं. मास्टरी के दौरान ही होम्योपैथी डॉक्टरी भी सीख लिया था, जिसका इस्तेमाल अब वे गांव-इलाके के लोगों के मुफ्त इलाज में करते हैं. मास्टर-डॉक्टर बनने के पहले वे फौजी थे. फौज से अपने गांव लौटने के बाद उन्होंने दो चीजें एक साथ शुरू की. एक मास्टरी और उसके साथ ही अपने गांव की विरासत को बचाने की जंग. वर्षों की जंग का परिणाम यह भले न रहा हो कि सरकारें मलूटी जैसे दुर्लभ प्राचीन व पुरास्थल को बचाने के लिए बेचैन हो गयी हों लेकिन एक बड़ा असर यह जरूर हुआ कि मलूटी दुनिया भर में ख्यात हो गया।  झारखंड और बंगाल के ठीक बोर्डर एरिया पर बसे इसे छोटे से गांव में तमाम दुस्सवारियों के बावजूद देश-दुनिया के लोग यहां पहुंचने लगे. इस विडंबना के साथ ही सेव हेरिटेज एंड इनवायरमेंट जैसी प्रतिष्ठित संस्था ने इसे दुनिया के 12 मोस्ट इंडेंजर्ड कल्चरल हेरिटेज की साइट में भी डाल दिया है. इस सूची में यह भारत की इकलौती विरासत है. मुखर्जी कहते हैं- दुर्भाग्य है इस स्थान का कि यह बिहार-झारखंड के हिस्से में है. मुखर्जी यह बात कहते हैं तो महज स्वयं बंगाली होने की वजह से नहीं. वे चंद कदमों की दूरी पर बसे बंगाल के वीरभूम में इसके न जाने की कसक को भी बयां नहीं करते. यह कसक इस वजह से कि 80 के दशक से आग्रह और अनुनय के बावजूद सरकारी तंत्रों से लड़ते-लड़ते निराश भी हो चुके हैं। और यह सच है कि अगर गोपाल दास मुखर्जी ने अपने गांव के विरासत को बचाने-सहेजने-संरक्षित कने का अभियान न छेड़ा होता तो मलूटी न तो दुनिया के फलक पर आया होता, न उसे लेकर राज्य की सरकार जगी होती.
मुखर्जी दा से बात करने के बाद हम गाव की गलियों मे मंदिरों को देखने निकलते हैं। एक-एक कर मंदिर सामने आते जाते हैं, कलाकृतियों की शैली मन मोहते जाती है और उपेक्षा का दंश झेलते मंदिर खुद सच बयान करते जाते हैं। इसी गांव में एक मौलीक्षा मां का मंदिर भी है, जहां इलाके के लोगों की भीड़ जुटती है, साल में दो-तीन बार बड़े आयोजन भी होते हैं. इस मंदिर के पास ही राज्य सरकार के पयर्टन विभाग ने एक गेस्ट हाउस भी बनाया है, जो बनने के बावजूद संचालक के अभाव में लंबे समय तक बंद पड़ा रहा, अब जाकर किसी तरह वहां सेवा शुरू की जा रही है. झारखंड के दुमका जिले के शिकारीपाड़ा प्रखंड में अवस्थित इस मंदिर गांव की गलियों में घूमते हुए कई नये अनुभवों से हम गुजरते हैं. मन में सवाल आते हैं कि क्या इसकी स्थिति ऐसी ही होती यदि ऐसी ही कोई विरासत दक्षिण के किसी राज्य में होती! यह भी सवाल कौंधता है कि जब हर साल इस गांव को देखने फ्रांस, इंगलैंड, अमेरिका आदि देशों से शोधार्थी और पर्यटक पहुंचते हैं, कोलकाता के शांतिनिकेतन से हर साल यहां काफी संख्या में लोग आते हैं, फिर झारखंड या इसके पहले बिहार की सरकार ने आध्यात्मिक,धार्मिक, पुरातात्विक व ऐतिहासिक पर्यटन की तमाम संभावनाओं से भरे इस स्थल को लेकर वह उत्साह या गंभीरता क्यूँ नहीं दिखाईं? अगर सोचा गया होता तो यह गांव अब तक देश का खास टूरिस्ट विलेज तो बन ही गया होता.
जवाब मिलता है, सीमावर्ती दूरस्थ क्षेत्र में बसे होने की कीमत भी चुका रहा है। अगर यह किसी शहरी क्षेत्र में होता तो सरकारें जरूर सक्रिय हुई होतीं. तब शायद वे भी इसको अपना ही मानते और इस पर गर्व करते, जो मंदिर को देश की सांस्कृतिक पहचान बताते नहीं अघाते और मंदिर-मंदिर खेलने की कला मे पारंगत भी हैं। इसकी उपेक्षा का आलम यह रहा कि 1980 तक तो मंदिरों के इस गांव पर सरकारों का कोई खास ध्यान ही नहीं गया, जबकि पास में बंगाल में अवस्थित तारापीठ नामक मंदिर तेजी से देश भर में ख्याति प्राप्त करता रहा. 1981 में गोपाल दास मुखर्जी ने केंद्र से इन मंदिरों को बचाने और विकसित करने के लिए संवाद स्थापित करना शुरू किया. केंद्र ने रुचि भी दिखायी लेकिन वर्ष 1983  में बिहार सरकार ने भी गजट पास कर दिया और यह राज्य की धरोहर बन गयी. तब संरक्षण की दिशा में थोड़ा काम शुरू हुआ. 1996 तक छिटपुट चलता रहा लेकिन उसके बाद बंद हो गया. फिर वर्ष 2000 में राज्य का बंटवारा हुआ और मलूटी झारखंड के हिस्से में आ गया. आरंभ के कुछ सालों तक झारखंड सरकार का तो इस ओर ध्यान ही नहीं गया लेकिन कोर्ट के एक आदेश के बाद राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को इसके संरक्षण का काम सौंपा. तीन साल तक काम भी चला, करीब 12 मंदिरों को जैसे-तैसे संरक्षित करने की खानापूर्ति भी हुई, फिर बंद. इस संदर्भ में जब राज्य सरकार के कला-संस्कृति विभाग में पुरातत्व के उपनिदेशक डॉ अमिताभ से बात होती है तो वे कहते हैं कि राज्य सरकार ने 2004-05 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को 40 लाख रुपये इसके संरक्षण के लिए दिये थे. संरक्षण का काम कितना बढ़ा है यह उसी विभाग के अधिकारी बतायेंगे. डॉ अमिताभ यह भी बताते हैं कि हमलोगों को पता है कि यह राज्य में इकलौता जीवंत (लीविंग) पुरातात्विक साइट है, जहां आज भी लोग देखने जाते हैं, पूजा-पाठ भी करते हैं इसलिए हमलोग इसके लिए तेजी से कोशिश कर रहे हैं. चार महीने पहले कोलकाता में हुई बैठक में यह तय हुआ और इसे विश्व धरोहरों की श्रेणी में शामिल करवाने का आवेदन भी किया गया है. संरक्षण का काम न होने बीच में छोड़ दिये जाने की बात जानने के लिए हम भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पुरातात्विक अधीक्षक एन जी निकोसे से बात करते हैं. बकौल निकोसे, ‘‘ राज्य सरकार से हमें 30 लाख रुपये दिये गये थे. हमने 20 लाख का काम कर दिया है. एक से लेकर 15 नंबर तक के मंदिर के संरक्षण का काम हुआ है, शेष दस लाख रुपये का काम भी मार्च के बाद होगा. चूंकि हमारे पास स्टाफ एक ही है, एक ही इंजीनियर है और यह सिविल डीपॉजिट वर्क है, इसलिए थोड़ा विलंब हुआ है. निकोसे पुरातत्वविद हैं. वे मंदिरों को संख्या के अनुसार बताते हैं कि कितने का काम हो गया है, कितने का बाकी है. वे पैसों की भाषा में भी समझाते हैं कि इतने का काम हुआ है, इतने का बाकी है. वे सिविल डीपॉजिट जैसे शब्दावलियों के जरिये भी समझाते हैं. वे अपने अनुसार सही ही समझाते हैं लेकिन सदियों पूर्व बने मलूटी के मंदिरों को शायद ही यह भाषाएं समझ में आये. वे मंदिर इतने वर्षों तक भी बिना किसी संरक्षण-संवर्धन के टिके हुए हैं तो यह उनकी अपनी मजबूती है. धंसते, गिरते हुए भी वे अपने अस्तित्व के साथ खड़े हैं और फिर खड़े होने की संभावनाओं को बचाये हुए हैं तो यह उनके निर्माण की ही खासियत है. लेकिन विरासत को बचाने की तकनीक ने साथ नहीं दिया तो मंदिर ज्यादा दिनों तक तकनीकि शब्दावलियों को सुनकर आश्वासन पर शायद टिक न पाएं. कुल 108 मंदिरों में से अब केवल 72 ही बचे हैं.
चलते-चलते गोपाल दास मुखर्जी कहते हैं. व्यक्तिगत तौर पर मेरा कोई स्वार्थ नहीं. इस उम्र में प्रसिद्धि या मलूटी के नाम पर कुछ पा लेने की आकांक्षा नहीं. अपनी माटी पर मलूटी है, माटी का मोह है, यह संवर जाये,आनेवाली पीढ़ियों का भला हो, बस इतना ही.

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