Saturday, June 5, 2010

हौसला देता हेसालौंग


एक लड़की है सीमा. झारखंड या देश की अन्य हजारों-लाखों लड़कियों की तरह. बिल्कुल सामान्य-सी लड़की. दैनिक मजदूरी करने वाली हेसालौंग के दलित परिवार से है. झारखंड के हजारीबाग जिले में. दलितों व पिछड़ी जातियों का गांव. झारखंड के सैकड़ों गांवों की तरह. सीमा हेसालौंग गांव की ही है. सीमा की खास बात यह है कि वह दो बार मैट्रिक फेल हुई लेकिन धैर्य बनाये रखा, मेहनत जारी रखी और तीसरी बार में पास कर गयी. अब इंटर में पढ़ रही है. अपने गांव की पहली दलित लड़की बनी, जो मैट्रिक पास हुई.

इलाके में चर्चे हुए. और सीमा के गांव हेसालौंग की चर्चा सिर्फ इसलिए, योंकि वह गांव अन्य सामान्य गांवों से ज्यादा मुश्किलों में है. अगल-बगल में खुले स्पंज आयरन फैट्रियों ने गांव की जमीन को बंजर कर दिया है. पीने का पानी मयस्सर नहीं होता लोगों को तो एक-एक बालटी पानी के लिए या तो एक किलोमीटर दूर चलकर चुआं पर जाते हैं या इकलौते चापाकल पर गर्मी की रातों में आठ-आठ घंटे लाइन में लगे रहते हैं. सीमा से यह पूछने पर कि तुमने तो इतिहास रच दिया. वह तुरंत अपने घर के बगल में एक छोटे से भवन की ओर इशारा करते हुए कहती है. इतिहास मैं क्या रचती, मेहनत-मजदूरी से फुर्सत कहां है, सब उसने करवा दिया. उस भवन ने. सीमा जिस भवन की ओर इशारा किया, वही एक चीज इस गांव में है, जो तमाम मुश्किल हालातों, चुनौतियों व परेशानियों के बावजूद हेसालौंग को एक ऐसे गांव के रूप में स्थापित करता है, जिसकी मिसाल देश भर में कहीं दी जा सकती है.

वह जिस भवन की ओर इशारा की वह पंचायत का सामुदायिक भवन है, जिसके बाहर दीवार पर आड़े-तीरछे शब्दों में लिखा हुआ है- मुंशी प्रेमचंद पुस्तकालय. पुस्तकालय के नाम पर चंद किताबें, एक टेबल, जिस पर सजाने-संवारने के लिए फटी-पुरानी धोती बिछी हुई है और कुछ बोरे, जिस पर बैठकर पढ़ाई होती है. किताबों के नाम पर अधिकतर टैस्ट कि किताबें, प्रेमचंद का मानसरोवर, कुछ उपन्यास, कुछ साहित्यिक पत्रिकाएं और कुछेक बच्चों की किताबें. संसाधन भले ही कुछ न हो लेकिन इस लाइब्रेरी ने इलाके की तसवीर और तकदीर, दोनों बदल दी है.अभी झारखंड में मैट्रिक और इंटर की परीक्षा ली जा रही है. इस परीक्षा के पहले इस लाइब्रेरी में गांव के चंद युवाओं ने कई-कई बार प्रैटिस टेस्ट लेकर उनमें इतना आत्मविश्वास भर दिया है कि कोई सेेकंड डिविजन की बात नहीं करता. गांव के चंद पढ़े-लिखे नौजवान खुद से अध्ययन कर परीक्षा का मॉडल प्रश्न पत्र तैयार करते हैं. निर्धारित समय में टेस्ट लेते हैं और फिर परीक्षा परिणाम भी जारी करते हैं. पिछले पांच सालों से यही सिलसिला चल रहा है और अब नतीजा यह है कि इस एक गंवई लाइब्रेरी के टेस्ट में शामिल होने के लिए उस इलाके के परीक्षार्थी वाहन रिजर्व कर निर्धारित तिथि पर पहुंचते हैं. सरस्वती विद्या मंदिर और डीएवी जैसे स्कूलों के छात्र भी, जो उस इलाके का सबसे प्रतिष्ठित स्कूलों में है.

उसी लाइब्रेरी में मिली ममता, प्रभा, सीता, दीपिका जो इस बार इंटर की परीक्षा दे रही हैं. उनसे यह पूछने पर कि सामने परीक्षा है तो तनाव है कि नहीं. सबका जवाब प्राय: एक सा- काहे का टेंशन, साल भर यहां आकर पढ़ते हैं, जमकर टेस्ट देते हैं, तो टेंशन या? जिस दिन मैं वहां पहुंची, वहां कुछ लड़कियां डीबेट में भाग लेने आयी थी तो कुछेक को संगीत लास करना था. कुछ विज प्रतियोगिता में हिस्सा लेती, कुछेक को राइटिंग प्रतियोगिता में बाजी मारने की हड़बड़ी थी और शाम को सबको कराटे और स्पोकेन इंग्लिश लास जरूरी करना था. इतना सब कुछ उस एक छोटे से भवन में होता है. और एक खास बात यह कि यह लाइब्रेरी न तो किसी एनजीओ या ट्रस्ट का है और न ही किसी कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी की मेहरबानी की उपज. बस पांच साल पहले गांव के ही लालदीप, मनोज, कैलाश, मंतोष, नवीन, कृष्णा आदि चंद नौजवानों ने गांव में चंदा शुरू किया. 667 रुपये जमा हुए, 500 की किताबें आयी, 167 में मुंशी प्रेमचंद की जयंती मनी और लाइब्रेरी शुरू. अब उस गांव का सबसे बड़ा सालाना आयोजन मुंशी प्रेमचंद जयंती ही है और चंदा तीन हजार के करीब हो जाता है. और हां, यह जान लेना भी जरूरी है, यहां सारी गतिविधियां नि:शुल्क है. कोई शुल्क नहीं, बल्कि यदि कोई विद्यार्थी अपने घर किताब ले गया और समय पर वापस नहीं कर सका तो अगले दिन कपिल उसके घर पहुंचकर कहता है-कितबवा लौटा दो, दूसरे को भी चाहिए होगा...इस लाइब्रेरी की देखरेख अब कपिल ही करता है. कपिल इसी लाइब्रेरी के सौजन्य से मैट्रिक की परीक्षा तो पास कर गया लेकिन आर्थिक तंगी के कारण फिलहाल उसकी आगे की पढ़ाई बंद है.

उस लाइब्रेरी में चलने वाली इन गतिविधियों के संचालन के बारे में जानना भी दिलचस्प है. कैलाश खुद इंटर पास हैं. अंग्रेजी स्कूल में पढ़े हैं, अंग्रेजी बोल लेते हैं तो वे गांव के छात्र-छात्राओं को हर शाम अंग्रेजी बोलना सिखाते हैं. कृष्णा मनोविज्ञान से स्नातक कर शिक्षक बन गये हैं. दिनभर सरकारी स्कूल में पढ़ाकर आते हैं तो शाम को लाइब्रेरी में बैठकर खुद पढ़ते हैं ताकि मॉडल टेस्ट पेपर तैयार किया जा सके. कृष्णा के साथ पारा शिक्षक नवीन पांडेय, मंतोष कुमार होते हैं. उसी गांव के एक नौजवान अरविंद हैं जो कराटे में ब्लैक बेल्ट धारी हैं. अरविंद गांव के 45 लड़के-लड़कियों को कराटे सीखाते हैं. और इसकी बुनियाद रखनेवालों में प्रमुख लालदीप गोप, जो नागपुर में विज्ञान अनुसंधान सहायक हैं, जब घर आते हैं तो लगातार कैरियर काउंसेलिंग का दौर चलता है.

1 comment:

  1. अनुपमा,आपका ब्लॉग अभी-अभी देखा....रांची के डोमटोली के स्कूल का दर्द भी जाना...आपका ब्लॉग बहुत से ब्लोगों की भीड़ में सबसे सार्थक ब्लॉग लगा...आपके ब्लॉग के साथ आपके द्वारा किये जा रहे अन्य कार्यों की सफलता की कामना करता हूँ...आपका पता और कांटेक्ट नंबर चाहिए...ताकि हमसे भी जो कुछ बन पड़े वो करके खुद को आप जैसे लोगों के साथ जुदा हुआ महसूस कर सकें....आपका मेल एड्रेस भी अगर हो तो दें....हमें आपसे जुड़कर ख़ुशी महसूस होगी...!!
    http://baatpuraanihai.blogspot.com/
    bhootnath.r@gmail.com

    ReplyDelete

Note: Only a member of this blog may post a comment.