Thursday, February 25, 2010

न बना चोर तू मर्ज़ी से न बना मैं सिपाही!

सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हुए जैसे ही एक खबर पर नजर गयी, आंखें वहीं टिक गयीं और दिमाग़ में कई विचार एक साथ टकराने लगे। वैचारिक द्वंद्व अब भी जारी है। खबर थी – सब्जी चुरा रहे थे तीन पुलिसकर्मी, हुई धुनाई। झारखंड की राजधानी रांची में बरियातू बिजली आफिस के पास एक सब्जी दुकान से सब्जी चोरी करते हुए तीन सिपाहियों को दुकान की संचालिका प्रभा देवी व उसके पति ने रंगे हाथों पकड़ा और उनकी जम कर धुनाई की। तीनों सिपाही वहां टीओपी में कार्यरत हैं। स्थानीय लोगों की प्रतिक्रिया यह थी कि चोरों को पकड़नेवाले ही चोर हो गये हैं, तो इससे चोरी को और भी प्रश्रय मिलेगा। परंतु हमारी चिंता और परेशानी की वजह कुछ और है।

पुलिस कहने को तो जनता की सेवक है पर पुलिस को देखते ही लोग खौफजदा हो जाते हैं। डरते हैं कि वे वसूली न करें। ऐसे में यह घटना और भी अचंभित करती है। मसलन तीनों ही पुलिसवालों के हाथ में डंडा था। वे अन्य पुलिसकर्मियों की तरह रौब दिखाकर सब्जी व अन्य चीजों की उगाही कर सकते थे। फिर रात के अंधेरे में चोरी की ज़रूरत क्‍यों पड़ गयी? क्‍या उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी? आखिर उनकी क्‍या मजबूरी रही होगी? क्‍या उनका परिवार इतना बड़ा है कि तनख्वाह से काम नहीं चल पाता या उन्हें समय से तनख्वाह नहीं मिलती? मेरी उन पुलिसकर्मियों से कोई सहानुभूति नहीं है और न सब्जी बेचनेवाली से ही कोई हमदर्दी है, परंतु यह प्रश्न बेचैन ज़रूर कर रहा है। चोरी किसी भी व्यक्ति के लिए अंतिम विकल्प होता है। लोग भीख मांग लेते हैं, मगर चोरी को पाप समझते हैं। फिर किस मजबूरी ने उन्हें ऐसा करने को बाध्य किया।

घटना 23 अक्‍टूबर की रात की है। जिस दिन सारा शहर और गांव अस्ताचलगामी सूर्य की उपासना कर रहा था। चोर उचक्‍के भी इस दिन चोरी करने से कतराते हैं। ठीक इसी दिन झारखंड में आगामी विधानसभा चुनावों की घोषणा भी हुई थी। यानी नये सरकार के आने का बिगुल फूंका जा रहा था। तो क्‍या यह प्रशासन की कमजोरी है कि उसके कर्मचारी अवैधानिक कार्य में लिप्‍त हैं? या फिर नेता खुद तो मालामाल हुए जा रहे हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा में लगे लोगों की सुध लेने की भी फुर्सत नहीं है। उनके घरों की मजबूरी जानने की ज़हमत जब ये नहीं उठा सकते, तो जनता की क्‍या खाक फिकर करेंगे। पिछले दिनों फ्रांसिस इंदवार को नक्‍सलियों ने अगवा कर मार डाला। तब जाकर राजनीतिक दलों के लोगों की आंख खुली। भाजपा के नेताओं ने सहानुभूति दिखाते हुए उनके परिवारवालों को एक लाख रुपये का चेक दिया और राहुल गांधी ने सांत्वना देते हुए कहा कि मेरे पिताजी भी शहीद हुए थे और फ्रांसिस इंदवार भी शहीद हुए हैं। हालांकि फ्रांसिस के घरवाले इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उनकी शहादत के बाद उनकी पत्नी को नौकरी और मुआवजा तत्काल मिल गया। परंतु शहादत से पहले उनका परिवार फाकाकशी में जीने को मजबूर था। छह महीने से उसे तनख्वाह तक नहीं मिली थी। उस वक्त क्‍यों नहीं उसकी ओर ध्यान गया।

जिस राज्य के अधिकांश विधायक करोड़पति हैं, रोज़ उनके नये-नये ठिकानों और संपत्तियों का ब्योरा सामने आ रहा हो, जिस देश के आधे से अधिक सांसद करोड़पति हों और बिना हवाई जहाज़ के एक कदम भी चल नहीं सकते, उन्हें जनता की क्‍यों फिकर होगी? उनके लिए तो कर्मचारी और गरीब जनता कीड़े-मकोड़ों की तरह हैं। झारखंड राज्य प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण और संपन्न राज्य है, पर जनता उतनी ही गरीब। उन्हें दो जून की रोटी तक मयस्सर नहीं है। राज्य के हालात कुछ ऐसे हैं कि राजधानी रांची से चंद किलोमीटर की दूरी पर विगत तीन माह पहले मांडर और कांके के इलाकों में भूखी जनता ने सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली के अनाजों के गोदामों को ही लूट लिया। आर्थिक मुफलिसी में कोई भी व्यक्ति गलत राह पकड़ सकता है।

तीनों पुलिसकर्मी कोई सांगठनिक अपराध नहीं कर रहे थे। लूट, बलात्कार या ऐसे किसी कुकृत्य में भी नहीं शामिल थे। सब्जी की चोरी कर रहे थे। पर क्‍यों? यह प्रश्न बार-बार हंट कर रहा है। मन को उद्विग्न कर रहा है। उनके बचाव में लिखना मेरा मक़सद नहीं है। क्‍योंकि कोई भी अपराध, अपराध है। किसने किया और क्‍यों इससे वह कम नहीं हो जाता। चोरी तो चोरी है। लेकिन सिर्फ न्यूज को रोमांटिक तरीके से पढ़ने, जी भरकर गाली दे लेने व चार दिनों बाद भूल जाने से कुछ नहीं होगा। कोई ठोस और कारगर उपाय जरूरी है। इस पर जरा आप भी सोचिए।

सरकार चाहे तो सबका पेट भर सकती है। खाद्य सब्सिडी दे सकती है और खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था को सुनिश्चित कर सकती है। लेकिन सरकार सिर्फ कार्पोरेट जगत को ही रियायत देने पर आमादा है और आम जनता अपने जीने के मूलभूत अधिकारों के लिए रोज़-रोज़ जूझ रही है। क्‍या बेरोज़गार और क्‍या नौकरीपेशा। जब पूरी दुनिया ही खाद्य संकट के दौर से गुज़र रही है, ऐसे में यह सोचने की ज़रूरत है कि क्‍या कारें और कंप्यूटर के सस्ते होने से करोड़ों भूखे लोगों का पेट भर पाएगा। देश की करोड़ों आबादी आज भी एक वक्‍त भूखे पेट सोने को अभिशप्त है। योजना आयोग के अनुसार बीपीएल परिवारों की संख्या पहले 6.52 करोड़ थी, जो अब घटकर 5.91 करोड़ हो गयी है। विश्व बैंक देश के 42 फीसदी लोगों को ही गरीबी रेखा से नीचे मानता है, जबकि अर्जुन सेनगुप्‍ता 77 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा से नीचे मानते हैं। ऐसे में जो भी योजनाएं बनती हैं, वह 42 फीसदी को ध्यान में रख कर बनती हैं और उसका लाभ भी उन तक नहीं पहुंच पाता है। एक शायर ने खूब कहा है – कोई भी शय अच्छी नहीं लगती, पेट जब तक भरा नहीं होता। गांधी जी ने भी कहा था – गरीबों के लिए रोटी ही अध्यात्म है। भूख से पीड़ित उन लाखों-करोड़ों लोगों पर किसी और चीज का प्रभाव नहीं पड़ सकता। कोई दूसरी बात उनके हृदय को छू भी नहीं सकती, लेकिन जब आप उनके पास रोटी लेकर जाएंगे तो वे आपको ही भगवान की तरह पूजेंगे। रोटी के सिवा उन्हें कुछ और सूझ ही नहीं सकता। सच भी है, पहले पेट की आग हो ठंढ़ी, तभी कुछ भी सही और ग़लत दिखता है।

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