Wednesday, November 3, 2010

भूखे-सूखे छतरपुर में टीबी की छतरी




♦ अनुपमा

यूं तो पलामू ही झारखंड का अभिशप्त इलाका है, उसमें भी उसका छतरपुर इलाका विचित्र विडंबनाओं से भरा हुआ है। उसे झारखंड का विदर्भ भी कहा जाता है। पिछले साल जब सुखाड़ और उससे उपजी भुखमरी के कारण वहां के 13,400 किसानों ने हस्ताक्षर कर सामूहिक रूप से इच्छामृत्यु का संकल्प लिया था, तो अचानक से यह इलाका सुर्खियों में आ गया था। हर साल यहां भूख से लोग मरते हैं। इतना ही नहीं, यहां लोग जान-पहचान वाली बीमारी से भी हमेशा मौत के आगोश में समाते रहते हैं, कहीं कोई चर्चा नहीं होती। छतरपुर के लुतियाहीटोला में पहुंचने पर ऐसी ही परिस्थितियों से हमारा सामना हुआ, जहां रोजमर्रा की जिंदगी में बेमौत मर जाना किसी को हैरत में नहीं डालता।

लुतियाहीटोला एक छोटा-सा गांव है। वहां करीब 100-200 मीटर की दूरी पर नौ क्रशर मशीनें लगी हुई हैं। बच्चों और महिलाओं की फौज दिन-रात वहां काम में लगी हुई रहती हैं। पत्थरों की पिसाई से निकले डस्ट उनकी जिंदगी को मौत की तरफ ले जाते हैं। पुरुष वहां काम न कर, बिहार के करवंदियों में पहाड़ों से पत्थर तोड़ने चले जाते हैं। करवंदिया क्रशरों के लिए मशहूर जगह है। जब करवंदिया से काम कर मर्द लौटते हैं, तो हाथ में थोड़ी सी रकम होती है और साथ में बड़ी बीमारी। एड्स जैसी बीमारी। कई बार तो इन्हें पता ही नहीं चलता बीमारी का, कुछेक को जब तक पता चलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है या पता चलने पर भी समाज के डर से छुपा कर रखा जाता है।

लुतियाहीटोला के बगल में ही एक गांव है बरडीहा। वहां हमारी मुलाकात कई लोगों से होती है। बताया जाता है कि अभी हाल ही में सूरजदेव एड्स से मर गया है। एड्स का पता चलने से पहले वह टीबी की खुराक खा चुका था। उसी गांव का गोपी भी है। गोपी भी हमेशा खांसता रहता था। सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता उसे जबर्दस्‍ती अस्‍पताल ले गयी, तो पता चला कि गोपी को टीबी है। टीबी का इलाज चला। ठीक नहीं हुआ तो सुनीता चंदा कर उसे जिला मुख्यालय डालटनगंज ले गयी। इलाज के लिए। वहां पता चला कि गोपी को एड्स है। फिलहाल गोपी टीबी सेनेटोरियम में भरती है। सूरजदेव की पत्नी कुंती की कहानी भी गोपी की तरह ही है। कुंती भी टीबी की दवा खाती रही। ठीक नहीं हुआ, प्राइवेट अस्पताल में गयी तो पता चला कि उसे भी एड्स है। इन दो गांवों की कहानी ऐसी ही है। या तो अधिकांश लोगों को टीबी है या एड्स।

यूं भी यहां जिस माहौल में लोग रहते हैं, टीबी की संभावना हमेशा बनी रहती है। प्रदूषण, डस्ट और कुपोषण के कारण टीबी का खतरा बढ़ा ही रहता है और वैसे में मजबूरी में क्रशर पर काम करते रहना जानलेवा साबित होता है। टीबी की मरीज मीना और महेश हमें क्रशर प्लांट में काम करते हुए ही मिले। वे कहते हैं कि हमें भी मालूम है कि टीबी है तो हमें यहां काम नहीं करना चाहिए लेकिन करें तो क्या करें!

छतरपुर के एक हिस्से के कई गांव ऐसी ही विडंबनाओं में घिरे हुए हैं। वह तो भला है कि सुनीता या उमेश जैसे सामाजिक कार्यकर्ता उनके बीच होते हैं। सुनीता या उमेश इस इलाके में घूम-घूमकर लोगों को डॉट् प्रोवाइड करवाते हैं। इलाज के लिए चंदा कर भी उनकी जांच करवाते हैं। लोगों को जागरूक करते हैं। जैसा कि परमेश्वर भुइयां बताते हैं – मेरा शरीर लगातार कमजोर होता जा रहा था। इलाज के लिए पैसा नहीं था… तब जाकर सुनीता जी और उमेश जी से मुलाकात हुई। इन लोगों ने न सिर्फ इलाज करवाया बल्कि घर लाकर दवा भी दे गये। कारू राम, सोनवा देवी भी ऐसी ही बात बताती हैं।

आगे बढ़ने पर एक गांव मिलता है हुटुकदाग। यहां मिलते हैं निरंजन मिस्त्री। जर्जर काया, सूखे होठ, निस्‍तेज आंखों वाले निरंजन हुटुकदाग में अपनी पत्नी के घर यानी ससुराल में रह रहे हैं। पिछले आठ माह से वे वहीं हैं। शादी के बाद इनकी तबीयत खराब हुई तो लोगों ने कहा कि जादू-टोना कर दिया गया है। कई माह तक झाड़-फूंक करवाने में ही लगे रहे। उमेश कहते हैं – काफी समझाने-बुझाने के बाद जांच के लिए तैयार हुए। जांच के बाद पता चला कि इन्हें टीबी है। तब जाकर इलाज शुरू हो सका। खैरादोहर, बरमनवा, तुकतुका, चेराई, डागरा, चुरुआ जैसे गांवों में भी हालात ऐसे ही हैं।

डॉट प्रोवाइडर मुनेश्वर सिंह बताते हैं कि प्राइवेट प्रैक्टिशनर डॉक्टर और झोलाछाप ओझा यह जानते हुए भी कि लोगों को टीबी की दवाएं मुफ्त में मिल जाती हैं, वहां तक नहीं पहुंचने देते। ग्रामीण जागरूकता के अभाव में इसे अपनी नियति मान बैठते हैं। फिजिशियन डॉक्टर मुकेश कुमार कहते हैं कि सरकार दवाई तो मुफ्त में दे रही है लेकिन जिन्हें इन दवाइयों की जरूरत है, उन्हें इसके बारे में अच्छे से मालूम ही नहीं है। जागरूकता अभियान को और तेज किये जाने की जरूरत है। उन गांवों में, जहां टीबी मरीजों की संख्या ज्यादा है, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर दवा उपलब्ध किये जाने की जरूरत है। डॉट प्रोवाइडर जहां नहीं हैं, वहां इसके लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

हालांकि दूसरी ओर स्टेट टीबी ऑफिसर राकेश दयाल कहते हैं – लोगों में जागरूकता आयी है। अस्पताल में मरीजों की संख्या बढ़ रही है। लोग सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए आने लगे हैं। यह अच्छा संकेत है। बेहतर परिणाम के लिए पारा मेडिकल और डॉक्टरों की ट्रेनिंग भी करायी जा रही है। सब ठीक रहा तो शीध्र ही अत्याधुनिक सुविधा भी झारखंड में उपलब्ध हो जाएगी। लेकिन डॉक्टर आइबी प्रसाद कहते हैं कि गरीबी का इस बीमारी से सीधा वास्ता है। यह तो बढ़ेगा ही। जरूरी है कि लोगों को बताया जाए कि जब आपको टीबी हो तो मुंह पर कपड़ा रखकर दूसरों से बात करे। और तमाम उपायों के बीच छतरपुर की सुनीता और उमेश जैसे लोगों की जरूरत हर इलाके में हैं। तभी इससे मुकाबला संभव है।

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