Wednesday, November 3, 2010

नापो को नापो तो जानें


♦ अनुपमा

यह असम का माजुली गांव नहीं है, जिसका अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है और मिटता जा रहा है तो उस मिटते हुए गांव को, दांव पर लगी जिंदगियों को देखने हजारों सैलानी देश के कोने-कोने से पहुंचते हैं। यह एक झारखंडी गांव है, जिसका अस्तित्व दांव पर लगा हुआ है, जिंदगियां तिल-तिल मौत के आगोश में समा रही हैं लेकिन इस गुमनाम गांव को देखने-सुनने कोई नहीं आता। गांव का नाम है नापो। हजारीबाग जिले में पड़ता है। उसी हजारीबाग जिले में, जो मिथ और लोकमानस में हजार बागों के इलाके के रूप में मशहूर रहा है। अब इसकी नयी पहचान है। बाग की जगह यहां जानलेवा धुआं उगलती हुई चिमनियां दिखती हैं और इन चिमनियों ने हजारीबाग को राज्य में सबसे ज्यादा स्पंज आयरन फैक्ट्री वाले जिले के रूप पहचान दिलायी है।

इस जिले में करीबन 35 स्पंज आयरन फैक्ट्रियां हैं। इन्हीं में से दो फैक्ट्रियों के बीच नापो गांव पड़ता है। हेसालौंग पंचायत में। 40 घरों की बसावट और आबादी करीब 200, सारे हरिजन। अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी की हालत झारखंड के अन्य दर्जनों विवश गांव की तरह ही। बड़ा फर्क यह है कि यह गांव हर रोज, पल-पल काल के गाल में समा रहा है। औसत तौर पर देखें तो हर घर में टीबी के मरीज मिलेंगे।

गांव में पहुंचते ही सबसे पहला सामना होता है मैनवा देवी से। अपढ़ मैनवा के पास सवालों का ढेर है। वह पूछती हैं कि क्या देखने आये हैं यहां। देख लीजिए काली घास, काले पेड़, मरे हुए लोग, मुरझायी हुई जवानी, बीमार बचपन, बंजर जमीन, अंधकारमय भविष्य। मैनवा को टीबी है। वह डेढ़ साल से प्राइवेट डॉक्टरों से इलाज करवा रही हैं। पैसे का अभाव होता है तो इलाज छोड़ देती है। सरकार के डॉट्स प्रोग्राम की कोई जानकारी मैनवा को नहीं है। मैनवा से बातचीत के क्रम में ही वहां तिलवा देवी, दीना भुइयां, कमल भुइयां, किता भुइयां, सावित्री देवी, कुंती देवी, लछवा देवी, गोहरी देवी आदि की भीड़ जुटती है। यह संख्या देखते ही देखते 25 की हो जाती है। सब के सब टीबी मरीज। किसी ने आज तक सरकारी प्रोग्राम यानी डॉट्स, आरएनटीसीपी या एमडीआर के बारे नहीं जाना-सुना। न कभी कोई समझानेवाला आया, सरकारी दवा देने आया। ये वैसे मरीज हैं, जो खाने-पीने से थोड़ा पैसा बचा तो जान बचाने की ललक में टीबी की थोड़ी दवाई खरीद लाते हैं। थोड़ा ठीक महसूस हुआ तो फिर टीबी हब में काम करने निकल पड़ते हैं।

किता भुइयां कहते हैं, हमारी मजबूरी है कि हम चाहे मर जाएं, मिट जाएं, ज्यादा दिनों तक घर में नहीं रह सकते। हमें बच्चों का पेट भरने के लिए, खुद का पेट भरने के लिए कमाने जाना ही होगा। पहले तो खेती भी एक सहारा था लेकिन 2003-2004 के बाद से अनाज देनेवाले खेत, बंजर होकर बीमारियां ही देते हैं। इन 25 टीबी मरीजों में से मात्र दो ही ऐसे मिलें, जो यह मानते हैं कि सरकार दवाई तो देती है लेकिन उनका सवाल है कि यहां से सरकारी अस्पताल दस किलोमीटर की दूरी पर है। हम वहां हर खुराक लेने नहीं जा सकते। आवाजाही की परेशानियां, पैसे की किल्लत सबसे बड़ी समस्या है।

दरअसल इस गांव में 2003-04 के बाद से भविष्य पर ग्रहण लगना शुरू हुआ। उन वर्षों में दो स्पंज आयरन फैक्ट्रियां इस गांव के दोनों ओर महज डेढ़ किलोमीटर के फासले पर लगी जबकि सरकारी कायदे-कानून के अनुसार कम से कम दो फैक्ट्रियों के बीच पांच किलोमीटर की दूरी होनी चाहिए। फिर क्या था, धीरे-धीरे उपजाऊ जमीन भी लोगों को दाने-दाने के लिए तड़पाने लगा। स्पंज आयरन फैक्ट्रियों से निकलने वाले धुएं, डस्ट खेत में पड़कर उसे बंजर बनाने लगे। लोगों ने खेती-बारी का काम-काज छोड़कर कोयले के अवैध कारोबार में कदम रखा। कारोबार नहीं, मजदूरी में। अहले सुबह ही यहां के लोग कई-कई किलोमीटर की यात्रा तय कर कोयला निकालते हैं और फिर इन्हीं फैक्ट्रियों तक कोयले को पहुंचाते हैं। एक बोरे में लगभग 180-200 किलो कोयला लाते हैं, और इस हाड़तोड़ काम के एवज में कीमत मिलती है 80 रुपये।

इसी गांव में मिले दशरथ अपनी पीड़ादायी कहानी को इस तरह बयां करते हैं, ‘मेरे पिता चौधरी भुइयां ने सारी जमीन बेच दी। कोई विकल्प नहीं।’ वहीं की मंजू देवी कहती हैं, पति की मौत हो गयी। छह बच्चे हैं, जमीन से कुछ होता नहीं, मुझे खुद टीबी है लेकिन मेरे पास मजदूरी के अलावा कोई विकल्प नहीं। जिस रोज टीबी की परेशानी की वजह से काम नहीं कर पाती, उस रोज बच्चों को भी भूखे पेट सोना पड़ता है।

जानकारों के अनुसार गरीबी और प्रदूषण, दोनों ने ही इस गांव को टीबी गांव के रूप में स्थापित किया है। इस गांव में इतने टीबी मरीज होने के बावजूद डॉट्स प्रोवाइडर का नहीं होना आश्चर्यचकित करता है। मजबूरी में ग्रामीणों को झोला छाप डॉक्टरों पर निर्भर रहना पड़ता है। कभी किसी गैर सरकारी संस्थानों ने भी नापो की सुध नहीं ली। गांव में कुछेक के पास लाल कार्ड है तो कुछेक के घर बिजली भी पहुंच गयी है लेकिन बिजली बिल भरने को पैसा नहीं, सो…! बांधनी कहती हैं कि यहां सिर्फ 25 लोगों ने स्वीकार किया कि टीबी है जबकि सच यह है कि यहां सबको खांसी है और यदि जांच हो तो हर घर में टीबी निकले। डॉ अरुण कहते हैं – यह हो सकता है क्योंकि टीबी के मरीजों के साथ रहने से इसका खतरा वैसे ही बढ़ा रहता है। टीबी का एक बड़ा कारण कुपोषण, गरीबी और भुखमरी तो है ही। हेसालौंग के रहनेवाले मानवाधिकार कार्यकर्ता कृष्णा कहते हैं – इस गांव के लोगों से तो जीने का भी अधिकार छीन लिया गया है।

यह कहानी सिर्फ नापो की नहीं है। झारखंड में कई-कई नापो हैं। स्वास्थ्य विभाग के यक्ष्मा नियंत्रण कार्यालय संभाग के अनुसार झारखंड में हर 35वें मिनट एक व्यक्ति की मौत टीबी से होती है। जबकि आश्चर्यजनक भी है कि झारखंड देश का एक ऐसा राज्य है, जहां सबसे अधिक एमडीआर के मामले सामने आये हैं। पूर्व जिला यक्ष्मा पदाधिकारी डॉ प्रसाद कहते हैं – राज्य में करीब 45 हजार मरीज ऐसे हैं, जिनका इलाज जिला यक्ष्मा नियंत्रण केंद्र में हो रहा है। सरकार अपने स्तर से हर संभव सुविधा उपलब्ध कराती है। लेकिन नापो को देखने, समझने के बाद स्पष्ट होता है कि डॉ प्रसाद की बात सैद्धांतिक तौर पर तो सही है, व्यावहारिक तौर पर यह हजम होनेवाली बात नहीं।

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