
अनुपमा
कला जगत की कलाबाजियों से उनका दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं। न बाजार के दांव-पेंच से ज्यादा वास्ता है। शायद इसीलिए रेशमा दत्ता का नाम आज फाइन आर्ट्स की दुनिया में एक अनचीन्हा नाम है। पर इनकी सधी हुई उंगलियां मिट्टी में जान फूंक देती हैं। झारखंड के घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र में रेशमा अकेले दम पर जो काम कर रही हैं, वह कलाबाजियों और बाजार से बहुत आगे की चीज है। 60 घरेलू महिलाओं को कलाकार बनाकर, आत्मनिर्भर बनाकर खामोश क्रांति कर रहीं रेशमा का सूत्र वाक्य है – आप अपना काम करो, जहां हो, वहीं कुछ सार्थक करो, देश-दुनिया बदलने के चक्कर में अपने गांव-मोहल्ले में भी काम करने का अवसर क्यों गंवाना
रेशमा की कहानी
दोपहर के एक बजे का समय है। झारखंड की राजधानी रांची से करीब 50 किलोमीटर की दूरी तय कर हम बुंडू पहुंचे हैं। वहां हमने एक युवक से पूछा – रेशमा दत्ता जी का घर किधर है? थोड़ी देर सोचकर वह पूछता है – कौन रेशमा दत्ता?
अच्छा वो रेशमा दीदी। जो मिट्टी वाला काम करती हैं। इस तरह रेशमा के घर पहुंचने से पहले ही यह पता चल जाता है कि यहां के बड़े-बूढ़े-नौजवान, सब उसे मिट्टी वाली दीदी के नाम से ही जानते हैं।
इसके बाद हमें रेशमा के घर तक पहुंचा दिया जाता है। घर के नाम पर हमारा सामना सबसे पहले एक बेडौल पुराने फाटक और ढही हुई चाहरदीवारी से होता है। देखकर मन में एक शंका भी होती है कि यह किसी कलाकार का आशियाना तो नहीं लगता! लेकिन अंदर घुसते ही बाहर से वीरान दिखनेवाला यह खंडहर कला की जन्नत-सा लगने लगता है। बड़े से बाग में जगह-जगह लगी हुईं टेराकोटा की कलाकृतियां, पत्थर की मूर्तियां, मोटरसाइकिल के टूटे हुए सायलेंसर, रिंग और अन्य चीजों से बनी मानव आकृति, तरह-तरह के फूल-फल, बगल में एक बड़ा तालाब और उन सबके बीच एक छोटा सा घर। उस घर के बाहर की दीवारों पर टेराकोटा की नक्काशी, बरामदे में रखी हुई मिट्टी की मूर्तियां। घर और कैंपस का हर कोना कला का परिचय देता हुआ दिखता है। कहीं टेराकोटा, डोकरा, एपलिक तो कहीं सीरामिक की कलाकृतियां चारों ओर करीने से सजी हुई हैं।
यकीनन, कैंपस में पहुंचते ही हम यह भूल जाते हैं कि हम उस बुंडू में हैं, जो पिछले कई वर्षों से गुंडागर्दी, अपराध और नक्सली गतिविधियों के कारण दहशत का पर्याय बन गया है। पिछले कुछ वर्षों में यहां ऐसी घटनाएं घटी हैं, जिसे सोचकर ही सिहरन पैदा हो जाती है। मसलन, दो वर्ष पूर्व एक स्कूल के कार्यक्रम में जदयू विधायक रमेश सिंह मुंडा को सरेआम गोलियों से भून दिया जाना, कुछ माह पूर्व इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदवार को अगवा कर मौत के घाट उतार दिया जाना आदि। यह दो घटनाएं तो राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रही। लूट-अपराध की छोटी-छोटी कई घटनाएं तो रोज ही घटती हैं। बुंडू की पहचान भी अब इन्हीं घटनाओं से जोड़कर होती है। लेकिन रेशमा के कैंपस में ये सारे सवाल, सारे खौफ धरे के धरे रह जाते हैं। वहां पहुंचते ही एक गोरी-सी आम दिखने वाली लड़की, मिट्टियों के ढ़ेर के बीच सामने होती है। जींस और बांह तक चढ़ाये हुए स्वेटर में। मैं यह पूछने की बजाय कि क्या आप रेशमा हैं, सीधे यही पूछ देती हूं – मिट्टी से इतना लगाव…!
रेशमा भी बिना औपचारिक हुए तुरंत बोलती हैं – तो मिट्टी के बिना जीवन भी कहां है? मैं तो मिट्टी में ही जीती हूं, मिट्टी के साथ ही जीना चाहती हूं। यह मिट्टी बहुत कुछ दे सकती है, सब कुछ दे सकती है।
अदभुत तरीके का व्यक्ितत्व देख रेशमा के बारे में अधिक से अधिक जल्दी से जल्दी जान लेने की इच्छा है लेकिन वह बताना शुरू करती हैं – कि अभी उनके साथ 60 महिलाएं काम कर रही हैं। सब यहीं की हैं। आसपास के गांव की। बिल्कुल घरेलू महिलाएं। यहां आने से पहले कोई कलाकार नहीं थीं। 25 वर्ष की पोलियोग्रस्त देवंती से लेकर 80 साल की मीनू तक। ऐसा भी नहीं कि यहां आनेवाली महिलाएं कुम्हार के घर से ताल्लुक रखती हों और कुछ जन्मजात हुनर उनके पास हो। लेकिन एक महीने की ट्रेनिंग के बाद वे सब अपने आप में स्वतंत्र कलाकार हैं। रेशमा के वर्कशाप में हमारी मुलाकात रूबी से होती है जो एक सधे हुए प्रोफेशनल कलाकार की तरह हमसे बात करती हैं और कहती हैं – अब हम कहीं भी एग्जिविशन लगा सकते हैं, अकेले जा सकते हैं, ऑर्डर लेकर माल सप्लाई कर सकते हैं। वैसे आत्मविश्वास से लबरेज पुष्पा, सुधा और बाकी अन्य भी हैं। घर की देहरी तक यह आत्मविश्वास का आना, रेशमा के त्याग और उन सबमें अपने को खपा देने का ही परिणाम है।
शांति निकेतन से फाइन आर्ट्रस में बैचलर की डिग्री, महाराजा सेगीराव से मास्टर की डिग्री व जापान से फेलोशिप करने के बाद रेशमा लौटकर सीधे अपने गांव बुंडू पहुंची थीं। इन उम्दा जगहों पर प्रशिक्षण लेने के बाद रेशमा के सामने कई विकल्प थे। वह कहीं भी जा सकती थीं। घर की आर्थिक हालत भी ऐसी थी कि इन्हें कहीं बाहर रहकर अपना काम करने में आर्थिक परेशानी नहीं आती लेकिन रेशमा ने अपने काम के लिए चुना तो अपने दादा की उस पुरानी लाह फैक्ट्री के खंडहर मकान को, जो एक तरीके से भूत बंगला ही हो चुका था। रेशमा ने वहां अपने दो साथियों शुचि स्मितो व बहादुर के साथ काम करना शुरू किया। शुरू में गांव की दस महिलाओं के साथ पास के ही खेत से मिट्टी लाकर काम शुरू किया और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक सेल्फ हेल्प ग्रुप बनाया – आधार। आधार आज कॉपरेटिव के रूप में काम कर रहा है।
रेशमा शुरुआती दिनों को याद कर रूआंसी हो जाती हैं और कहती हैं कि उस वक्त सिर्फ बैठकर रोने का मन करता था। चारों ओर विरानगी ही विरानगी। काम करो तो उसका कोई रिस्पांस नहीं। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। आर्थिक तंगी और काम को तवज्जो न मिलने के कारण दो साथी वापस चले गये। पर रेशमा अकेले डटी रही।
मेहनत धीरे-धीरे रंग लायी। महिलाओं की संख्या 10 से 20, 20 से 40 हुई, जो अब 60 है। यह वही महिलाएं हैं, जिनकी सीमा घर की देहरी के अंदर सिर्फ चूल्हा-चौका तक थी। लेकिन अब ये अहमदाबाद, रांची, दिल्ली जाकर एग्जिविशन लगाती हैं। खास यह कि इनमें से अधिकांश अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की महिलाएं हैं। ये महिलाएं दिन के 11 बजे तक अपने घर का सारा काम निपटाकर यहां पहुंचती हैं और शाम पांच बजे तक फिर घर वापस चली जाती हैं। इनमें से कई तो दो से ढाई हजार रुपये मासिक वेतन पर काम करती हैं और कुछ को काम के आधार पर पैसा मिलता है। खास बात यह कि यहां काम करने वाली एक महिला अंधी भी हैं। रेशमा ने इन महिलाओं के काम को झारक्राफ्ट (झारखंड राज्य का आर्ट एंड कल्चर शो रूम) से जोड़ दिया है, वहीं के ऑर्डर पर ये माल तैयार कर पहुंचाती हैं।
रांची झारक्राफ्ट के शो रूम में पहुंचिए तो बुंडू वाला टेराकोटा एक ब्रांड की तरह स्थापित हो चुका है। अब सिरामिक और डोकरा आर्ट का काम भी महिलाएं करने लगी हैं। रेशमा डोकरा और टेराकोटा का फ्यूजन कर नया प्रयोग कर रही हैं। रेशमा चाहती हैं कि ये महिलाएं इसे खुद चलाएं और खुद इसे आगे बढ़ाएं। वे इससे होनेवाले लाभ को उसके विकास में लगाती हैं और खुद के खर्चे के लिए इंटेरियर डेकोरेशन का काम करती हैं। अभी हाल ही में इन्होंने नेशनल मेटलर्जिकल लेबोरेटरी व जमशेदपुर में सिद्धगोरा सूर्य मंदिर के इंटीरियर डेकोरेशन का काम किया है। रेशमा जिन महिलाओं के साथ काम करती हैं। उनमें से कुछ के घर के सदस्य नक्सल संगठन से भी जुड़े रहे हैं। एक युवा कारीगर तो स्वयं ही यह काम करने आता था। पर रेशमा का इन सबसे कोई वास्ता नहीं, वह सिर्फ कला को जानती हैं।
बातचीत के दौरान रेशमा अपने वर्कशॉप को दिखाने ले जाती हैं, जहां बांकुड़ा (पश्चिम बंगाल) के डोकरा कलाकार काम में लगे हैं। उनमें से एक बोरेन कुंभकार कहता है – दीदी के साथ काम करने का अपना मजा है। कभी कोई टेंशन नहीं…। बस हरदम कुछ नया और अनोखा करने को मिलता है। घर के कैंपस से सटे पास के तालाब को देखकर बरबस पूछ लिया – क्या इसमें मछली पालन करवाती हैं? कलाकार मन विचलित हो उठता है और रेशमा कहती हैं। मैं ऐसा कोई काम नहीं कर सकती। मारने का काम मुझसे नहीं होगा। ये परती जमीन को देखिए। अगली बार आएंगी तो आपको किसान रेशमा दिखेगी। मैं पूरे देश का तो कुछ नहीं कर सकती पर इन 60 महिलाओं के लिए तो कुछ जरूर करूंगी। मेरा सपना है कि एक ऐसा स्कूल खोलूं जहां बस्ते का बोझ न हो। सिर्फ मस्ती हो और कला हो। यानी एक ऐसा शांति निकेतन जहां कई रेशमा जन्म ले और कला को पूरी पहचान मिले। यदि ऐसा हुआ तो काफी हद तक नक्सल समस्या का भी समाधान हो जाएगा और बच्चों को सही दिशा मिल जाएगी।
पर्सनल इंटरव्यू
शांति निकेतन, बड़ौदा आर्ट कॉलेज, जापान की यात्रा के बाद वापस गांव? अवसर तो बहुत थे आपके पास, फिर यहीं क्यों?
मुझे लगता है कि मैं बिजनेस नहीं कर सकती। कुछ काम होना चाहिए। और काम करने के लिए मुझे अपनी मिट्टी से बेहतर कोई जगह नहीं लगी। यूं ही एक दिन सोची कि चलते हैं अपने गांव और फिर आयी तो कहीं जाने को सोचती भी नहीं।
आप जहां काम कर रही हैं, वह नक्सलियों का गढ़ माना जाता है, क्या आपको कभी किसी किस्म की परेशानी हुई?
मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई। मैं तो इस बारे में सोचती भी नहीं। मेरे साथ तो काम करने वाला लड़का खुद ही बताता था कि वह नक्सली गिरोह में शामिल है। मुझे उससे क्या लेना-देना। फिर गांव के सारे लोग भी कहते हैं – दीदी आप जो काम कर रही हैं, उससे किसी को क्या परेशानी होगी, सब तो खुश रहते हैं।
कला के बाजार में कला और कलाकारों की बोलियां करोड़ों में लगती हैं। आपकी इच्छा नहीं होती उस रेस में शामिल होने की?
(जोर से हंसते हुए) सड़ी, मुझे तो पता भी नहीं रहता कि कहां क्या हो रहा है। मैं जानना भी नहीं चाहती। इस खंडहर को कला मंदिर बनाने में ही इतनी व्यस्त रहती हूं कि कुछ जानने की फुर्सत भी तो नहीं मिलती। मेरे पास कोई फोन भी तो नहीं आता। कभी-कभी तो दो-तीन दिनों तक एक रिंग भी नहीं…
जब वापस अपने गांव लौटीं तो शुरुआती दिनों में कितनी मुश्किलें हुईं। संघर्ष के उन दिनों को कैसे याद करती हैं?
विरासत में यह एक खंडहर मिला था लेकिन साथ में परिवार वालों का सपोर्ट था। लेकिन उन दिनों मैं सोच भी नहीं पाती थी कि यहां कुछ हो पाएगा। कभी-कभी रोने लगती थी अकेले। कोई संसाधन नहीं। सिर्फ अपने गांव के खेत की मिट्टी और यहां आनेवाली महिलाओं पर भरोसा रहता था। बस, उन्हीं दोनों ने मनोबल को टूटने नहीं दिया।
सबसे ज्यादा खुशी कब मिलती है?
जब अपने साथी कलाकारों में से किसी को यह कहते हुए सुनती हूं कि मेरा घर-परिवार तो अच्छे से चल रहा है। जब कोई यह कहती है कि मैंने तो अपने बड़े का दाखिला यहां करवा दिया। बस उनकी खुशी से मैं सबसे ज्यादा खुश होती हूं।
आपका ड्रीम प्रोजेक्ट क्या है?
ड्रीम प्रोजेक्ट तो नहीं कह सकती लेकिन दो काम तो करने की सोच रखी है। एक की शुरुआत अभी करनेवाली हूं। अब इस साल से खेती करने जा रही हूं। मैंने पानी के लिए बोरिंग डलवा दी है। अब पास के खेत में खेती होगी। धान गेहूं आलू आदि की। और भविष्य में एक स्कूल खोलने की इच्छा है। उस स्कूल में पढ़ाई के नाम पर भारी बस्ता नहीं होगा। जीवन की मस्ती के साथ पढ़ाई। और हां… शुल्क नहीं। एक पैसा भी नहीं।
अचानक खेती का खयाल कैसे आया?
अचानक नहीं। मेरे साथ करने वाली महिलाएं कहा करती हैं कि वे खेती भी कर सकती हैं। फिर मैं सोचती हूं कि यहां से इतनी कमाई तो होती नहीं कि वे घर की गृहस्थी भी चला लें। अब खुद से खेती करेंगी तो कम से कम चावल, गेहूं, सब्जी के झंझट से तो मुक्त रहेंगी न। और फिर मैं सच कहूं, खेती से ज्यादा क्रिएटिव और जरूरी काम मुझे कुछ नहीं लगता। शायद इसलिए भी…
और अपने जीवन का ड्रीम प्रोजेक्ट? मतलब शादी करने का खयाल…!
अरे नहीं नहीं। शादी करने का खयाल भी नहीं आता अब तो। अब कोई पूछता भी नहीं इस बारे में। मैं खुश हूं। जीवन का ड्रीम प्रोजेक्ट दिखाऊंगी न। अगली बार आइएगा – किसान रेशमा मिलेगी। फिर कभी बाद में आइएगा – अपने मकसद के साथ मिलूंगी – मास्टरनी रेशमा…