Saturday, April 20, 2013

बाट जोहता कला का ठाट



वह बेहद थकाऊ यात्रा थी. उबाऊ भी. झारखंड के सीमावर्ती जिला पांकुड़ से हम सुबह-सुबह ही निकले थे. रास्ते का सन्नाटा भी उब पैदा कर रहा था और काठीकुंड जैसे इलाके से गुजरते हुए किराये पर ली हुई बोलेरो चला रहा ड्राइवर भी उस इलाके में माओवादियों के राज-पाट चलने के किस्से सुनाकर पुराने और पारंपरिक राग को दुहराये जा रहा था. लेकिन संथाल परगना के दुरूह इलाके से गुजरते हुए हमें झारखंड की आखिरी सीमा तक पहुंचने की बेताबी भी उतनी ही थी. अंदर से एक रोमांच और उत्साह भी हिलोरें मार रहा था. यह उत्साह- उमंग मलूटी गांव में जल्द से जल्द पहुंचने को लेकर था. हम वहां पहुंचकर देश के अनोखे और संभवतः टेरकोटा कला के इकलौते मंदिरों के गांव को देखना चाहते थे. एक छोटे से गांव में 72 अनोखेअद्भुत और बेजोड़ कलाकृतियों वाले मंदिरों को करीब से देखने की जिज्ञासा रोमांचित किये हुए थी. उन मंदिरों के अवशेषों में बची संभावनाओं को जानने की इच्छा ही उत्साह का संचार कर रही थी.
गांव में पहुंचने के पहले ही गेटछोटे-छोटे माइलस्टोन बताने लगते हैं कि हम मंदिरों के गांव में पहुंच रहे हैं.  गांव में प्रवेश पर भी कहीं मंदिर दिखते नहीं. हम भी मंदिरों की तलाश करने की बजाय गोपालदास मुखर्जी का पता पूछते हैं. उनके बारे में कई लोगों ने सलाह दी थी कि जैसे मलूटी गांव खासियतों से भरा हुआ हैवैसे ही उन मंदिरों को बचाने की जिद्द और अभियान में पिछले चार दशक से भी अधिक समय से लगे गोपाल दा भी खासियतों से भरे हुए हैं. लेकिन जैसे मलूटी अनामी-गुमनामी में रहते हुए उपेक्षित रहावैसे ही गोपाल दा भी. गोपाल दा से उनके घर में मुलाकात होती है. उम्र के 83वें साल में प्रवेश कर चुके गोपाल दास मुखर्जी मलूटी की चर्चा करते ही पहले निराशा के गहरे गर्त में समा जाते हैं. फिर तुरंत किसी नौजवान की तरह ऊर्जा से लैश हो जाते हैं. बच्चे की तरह बार-बार अपने कमरे में जाते हैंफाइलों का ढेर उठाकर लाते हैं. एक-एक कर दिखाते हुए इतिहास-भूगोल से लेकर वर्तमान-अतीत तक के बारे में बताते है. कहते हैं- आप जिस गांव में हैवह मंदिरों का गांव है. मंदिरों का शहर तो मदुरैकाशी है लेकिन मंदिरों का गांव कहने पर हिंदुस्तान में यही एक अकेला गांव हैजिसे देश और राज्य में भले न जाना जाये लेकिन दुनिया भर में जरूर जाना जाता है. अतीत यह है कि विष्णुपुर के मल्ल राजाओं के युग में यह गांव महुलटी नामक छोटा-सा गांव हुआ करता था.17वीं सदी के अंत में इस गांव में आकर ननकर राज्य के राजाओं ने अपनी राजधानी बनायी. ननकर का मतलब करमुक्त राज्य से होता है. राजधानी बनने के 100 साल बाद तक उस वंश के राजाओं ने इस गांव में लगातार मंदिर बनवाये और यह संख्या 108 हो गयी. अधिकांश मंदिर शिव के थेकुछ दूसरे-देवी देवताओं के भी लेकिन राजवंश का सूर्य अस्त हुआ तो  मंदिरों की भी दुर्दशा शुरू हो गई. लेकिन 300 घरों की इस बस्ती में अब भी 72 मंदिर मौजूद हैंजो जर्जर होने के बावजूद जीवंतता से अपने अतीत की कहानी को बयां करते हैं.
गोपाल दा से और भी ढेरों बातें होती हैं. वे पेशे से मास्टर रहे हैं. मास्टरी के दौरान ही होम्योपैथी डॉक्टरी भी सीख लिया थाजिसका इस्तेमाल अब वे गांव-इलाके के लोगों के मुफ्त इलाज में करते हैं. मास्टर-डॉक्टर बनने के पहले वे फौजी थे. फौज से अपने गांव लौटने के बाद उन्होंने दो चीजें एक साथ शुरू की. एक मास्टरी और उसके साथ ही अपने गांव की विरासत को बचाने की जंग. वर्षों की जंग का परिणाम यह भले न रहा हो कि सरकारें मलूटी जैसे दुर्लभ प्राचीन व पुरास्थल को बचाने के लिए बेचैन हो गयी हों लेकिन एक बड़ा असर यह जरूर हुआ कि मलूटी दुनिया भर में ख्यात हो गया।  झारखंड और बंगाल के ठीक बोर्डर एरिया पर बसे इसे छोटे से गांव में तमाम दुस्सवारियों के बावजूद देश-दुनिया के लोग यहां पहुंचने लगे. इस विडंबना के साथ ही सेव हेरिटेज एंड इनवायरमेंट जैसी प्रतिष्ठित संस्था ने इसे दुनिया के 12 मोस्ट इंडेंजर्ड कल्चरल हेरिटेज की साइट में भी डाल दिया है. इस सूची में यह भारत की इकलौती विरासत है. मुखर्जी कहते हैं- दुर्भाग्य है इस स्थान का कि यह बिहार-झारखंड के हिस्से में है. मुखर्जी यह बात कते हैं तो महज स्वयं बंगाली होने की वजह से नहीं. वे चंद कदमों की दूरी पर बसे बंगाल के वीरभूम में इसके न जाने की कसक को भी बयां नहीं करते. यह कसक इस वजह से कि 80 के दशक से आग्रह और अनुनय के बावजूद सरकारी तंत्रों से लड़ते-लड़ते निराश भी हो चुके हैं।
मुखर्जी दा से बात करने के बाद हम गाव की गलियों मे मंदिरों को देखने निकलते हैं। एक-एक कर मंदिर सामने आते जाते हैं, कलाकृतियों की शैली मन मोहते जाती है और उपेक्षा का दंश झेलते मंदिर खुद सच बयान करते जाते हैं। सी गांव में एक मौलीक्षा मां का मंदिर भी हैजहां इलाके के लोगों की भीड़ जुटती हैसाल में दो-तीन बार बड़े आयोजन भी होते हैं. स मंदिर के पास ही राज्य सरकार के पयर्टन विभाग ने एक गेस्ट हाउस भी बनाया हैजो बनने के बावजूद संचालक के अभाव में लंबे समय तक बंद पड़ा रहाअब जाकर किसी तरह वहां सेवा शुरू की जा रही है. लेकिन जो भी सुविधा है, जो भी चहल- पहल है वह मौलीक्षा मंदिर के पास ही दिखती है। उसको छोड़ दूसरे मंदिर गांव की गलियों के दायरे में आते हैं। उनकी स्थिति दिन-ब-दिन बद से बदतर होती जा रही है. हम सभी मंदिरों का चक्कर लगाते हैं. इनमें 58 मंदिर तो शिव के ही हैंजिनमें से कुछ टेराकोटा अलंकृत तो कुछ सामान्य हैं। कालीविष्णु तथा मौलीक्षा मंदिरों की संख्या 14 है. रख-रखाव व संरक्षण के अभाव में भले ही ये मंदिर जर्जर और ध्वस्त होने की राह पर हैं लेकिन इनके निर्माण की शैली इतनी अद्भुत है कि अब भी इनमें एक खास किस्म का आकर्षण हैएक खास किस्म की जीवंतता भी. इन सभी मंदिरों का निर्माण करीब 100 वर्षों में हुआ हैइसलिए शैलियों में एका देखने को नहीं मिलेगीमंदिरों की बनावट के अनुसार 58 मंदिर शिखर मंदिर हैंएक रासमंचएक बांग्ला और शेष 12 समतल छत वाले. पूरी तरह टेराकोटा कला से बने अब भी सात मंदिर शेष हैं. मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गयी कलाकृतियां इतनी आकर्षक हैं कि मंदिरों के धंस जानेध्वस्त होने की राह पर पहुंचने के बावजूद उनमे जीवंतता बची हुई है। महाभारत और रामायण की कथाएँ दीवारों की कलाकृतियों मे दिखती है। शौर्य-पराक्रम की कहानी भी। संगीत और लोकजीवन का पक्ष भी मंदिरों की दीवारों पर बनायों गईं कलाकृतियों मे हैं। 
झारखंड के दुमका जिले के शिकारीपाड़ा प्रखंड में अवस्थित इस मंदिर गांव की गलियों में घूमते हुए कई नये अनुभवों से हम गुजरते हैं. मन में सवाल आते हैं कि क्या इसकी स्थिति ऐसी ही होती यदि ऐसी ही कोई विरासत दक्षिण के किसी राज्य में होती! यह भी सवाल कौंधता है कि ब हर साल इस गांव को देखने फ्रांसइंगलैंडअमेरिका आदि देशों से शोधार्थी और पर्यटक पहुंचते हैं, कोलकाता के शांतिनिकेतन से हर साल यहां काफी संख्या में लोग आते हैंफिर झारखंड या इसके पहले बिहार की सरकार ने आध्यात्मिक,धार्मिक, पुरातात्विक व ऐतिहासिक पर्यटन की तमाम संभावनाओं से भरे इस स्थल को लेकर वह उत्साह या गंभीरता क्यूँ नहीं दिखाईं? अगर सोचा गया होता तो यह गांव अब तक देश का खास टूरिस्ट विलेज तो बन ही गया होता.
जवाब मिलता है, सीमावर्ती दूरस्थ क्षेत्र में बसे होने की कीमत भी चुका रहा है। अगर यह किसी शहरी क्षेत्र में होता तो सरकारें जरूर सक्रिय हुई होतीं. तब शायद वे भी इसको अपना ही मानते और इस पर गर्व करते, जो मंदिर को देश की सांस्कृतिक पहचान बताते नहीं अघाते और मंदिर-मंदिर खेलने की कला मे पारंगत भी हैं। इसकी उपेक्षा का आलम यह रहा कि 1980 तक तो मंदिरों के इस गांव पर सरकारों का कोई खास ध्यान ही नहीं गयाजबकि पास में बंगाल में अवस्थित तारापीठ नामक मंदिर तेजी से देश भर में ख्याति प्राप्त करता रहा. 1981 में गोपाल दास मुखर्जी ने केंद्र से इन मंदिरों को बचाने और विकसित करने के लिए संवाद स्थापित करना शुरू किया. केंद्र ने रुचि भी दिखायी लेकिन वर्ष 1983  में बिहार सरकार ने भी गजट पास कर दिया और यह राज्य की धरोहर बन गयीतब संरक्षण की दिशा में थोड़ा काम शुरू हुआ. 1996 तक छिटपुट चलता रहा लेकिन उसके बाद बंद हो गया. फिर वर्ष 2000 में राज्य का बंटवारा हुआ और मलूटी झारखंड के हिस्से में आ गया. आरंभ के कुछ सालों तक झारखंड सरकार का तो इस ओर ध्यान ही नहीं गया लेकिन कोर्ट के एक आदेश के बाद राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को इसके संरक्षण का काम सौंपा. तीन साल तक काम भी चलाकरीब 12 मंदिरों को जैसे-तैसे संरक्षित करने की खानापूर्ति भी हुई, फिर बंद. इस संदर्भ में जब राज्य सरकार के कला-संस्कृति विभाग में पुरातत्व के उपनिदेश डॉ अमिताभ से बात होती है तो वे कहते हैं कि राज्य सरकार ने 2004-05 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को 40 लाख रुपये इसके संरक्षण के लिए दिये थे. संरक्षण का काम कितना बढ़ा है यह उसी विभाग के अधिकारी बतायेंगे. डॉ अमिताभ यह भी बताते हैं कि हमलोगों को पता है कि यह राज्य में इकलौता जीवंत (लीविंग) पुरातात्विक साइट हैजहां आज भी लोग देखने जाते हैंपूजा-पाठ भी करते हैं इसलिए हमलोग इसके लिए तेजी से कोशिश कर रहे हैं. चार महीने पहले कोलकाता में हुई बैठक में यह तय हुआ और इसे विश्व धरोहरों की श्रेणी में शामिल करवाने का आवेदन भी किया गया है. संरक्षण का काम न होने बीच में छोड़ दिये जाने की बात जानने के लिए हम भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के पुरातात्विक अधीक्षक एन जी निकोसे से बात करते हैं. बकौल निकोसे, ‘‘ राज्य सरकार से हमें 30 लाख रुपये दिये गये थे. हमने 20 लाख का काम कर दिया है. एक से लेकर 15 नंबर तक के मंदिर के संरक्षण का काम हुआ हैशेष दस लाख रुपये का काम भी मार्च के बाद होगा. चूंकि हमारे पास स्टाफ एक ही हैएक ही इंजीनियर है और यह सिविल डीपॉजिट वर्क हैइसलिए थोड़ा विलंब हुआ है.
निकोसे पुरातत्वविद हैं. वे मंदिरों को संख्या के अनुसार बताते हैं कि कितने का काम हो गया हैकितने का बाकी है. वे पैसों की भाषा में भी समझाते हैं कि इतने का काम हुआ हैइतने का बाकी है. वे सिविल डीपॉजिट जैसे शब्दावलियों के जरिये भी समझाते हैं. वे अपने अनुसार सही ही समझाते हैं लेकिन सदियों पूर्व बने मलूटी के मंदिरों को शायद ही यह भाषाएं समझ में आये. वे मंदिर इतने वर्षों तक भी बिना किसी संरक्षण-संवर्धन के टिके हुए हैं तो यह उनकी अपनी मजबूती है. धंसते, गिरते हुए भी वे अपने अस्तित्व के साथ खड़े हैं और फिर खड़े होने की संभावनाओं को बचाये हुए हैं तो यह उनके निर्माण की ही खासियत है. लेकिन विरासत को बचाने की तकनीक ने साथ नहीं दिया तो मंदिर ज्यादा दिनों तक तकनीकि शब्दावलियों को सुनकर आश्वासन पर शायद टिक न पाएंकुल 108 मंदिरों में से अब केवल 72 ही बचे हैं.
वैसे वहां से लौटते हुए कुछ लोगों से फोन पर बात होती है तो मंदिरों के इस गांव को लेकर उम्मीद की लौ भी जगती है. मलुटी मंदिरों का गहराई से अध्ययन कर चुके प्रो सुरेंद्र झा कहते हैं, ‘‘ एशिया में ऐसी जगह कहीं नहीं हैमंदिरों का कोई ऐसा गांव नहीं हैना टेरकोटा कला से निर्मित ऐसे मंदिर इसलिए देर-सबेर ही सहीअब इस पर ध्यान जाने लगा है तो कल को इसके दिन भी बहुरेंगे.’’ झारखंड राज्य पर्यटन विकास निगम के प्रबंध निदेशक सुनील कुमार से बात होती है तो वे कहते हैं कि हम उस गांव को लेकर गंभीर हैं. गेस्ट हाउस बनावकर जिला प्रशासन को सौंप चुके हैं. जिला प्रशासन और भी जिन संसाधनों के विकास का खाका बनाकर सौंपेगाहम उसे करेंगे.’’


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