Sunday, April 14, 2013

झुमरीतिलैयाः एक शहर, हजार फसाने



इतनी बातें एक साथ बतायी जाने लगती हैं कि हम तय नहीं कर पाते कि आखिर इस छोटे से कस्बे की जो देश-दुनिया भर में ख्याति है, उससे जुड़े किस किस्से को ज्यादा तवज्जो दें, किस छोर को पकड़कर बात की शुरुआत करें. कोई कहता है- अजी झुमरीतिलैया आयी हैं तो इसकी तो बस एक ही बड़ी पहचान है- रेडियो की फरमाइशी गीतांे के दिवानों का शहर. उन्हीं के बदौलत तो इस कस्बे को पहचान मिली. कुछ बताते हैं, रेडियो की फरमाइसी गीतों के कद्रदानों का शहर तो है ही यह, लेकिन यहां का कलाकंद भी जरूर चखिएगा. उसका इतिहास भी जानिएगा. यहां से हर रोज कलाकंद देश के कोने-कोने में जाता है और दुनिया के उन मुल्कों में भी, जहां इस इलाके के लोग रहते हैं. इन बातों के बीच ही सडक किनारे दिवारों से झांकते पोस्टर भी अपनी ओर आकर्षित कर दूसरी कहानी भी बता रहे होते हैं. एक नयी पहचान की बानगी के साथ. कुछ युवाओं द्वारा जिद-जुनून से एक्शन, थ्रिलर और रोमांच से भरपूर झुमरीतिलैयानाम से बनी हालिया फिल्म ने शहर को नयी पहचान देने की कोशिश की है. और इन सबके बीच तिलैया डैम के पास ब्रजकिशोर बाबू भी मिलते हैं, जो कहते हैं कि देखिए, यह सब पहचान बाद की है, इसकी असली पहचान तो अबरख को लेकर ही रही है. 1890 के आसपास जब रेल लाइन बिछाने का काम शुरू हुआ तो पता चला कि यहां तो अबरख की भरमार है. फिर क्या था, यहां के अबरख पर अंग्रेजों की नजर पड़ी, वे खुदाई करने में लग गये. बाद में छोटुराम भदानी और होरिलराम भदानी आये, उन्होंने मिलकर सीएच कंपनी प्राइवेट लिमिटेड बनायी और माइका किंग नाम से मशहूर हो गये. ब्रजकिशोर बाबू बताते हैं, आज नहीं जी, 1960 में ही इस शहर में मर्सिडीज और पोर्सके कार देख सकती थीं.
किस्से दर किस्से, कहानियां दर कहानियां. रामप्रसाद मिलते हैं, वे हसीना मान जाएगीफिल्म का गीत ही गाकर सुना देते हैं- मैं झुमरी तिलैया जाउंगी, नत्थु तेरे कारण, मैं जोगन बन जाउंगी, नत्थु तेरे कारण... रामप्रसाद बाबू का गीत मन मोहता है लेकिन बाकि दूसरे पहचान को लेकर बेतरतीब आग्रहों में हम नहीं उलझते. सीधे गंगा प्रसाद मगधिया के घर ही पहुंचते हैं. मगधिया अपने जमाने में रेडियो पर फरमाइशी सुनने के चर्चित रसिया रहे थे. रेडियो सिलोन से लेकर विविध भारती तक में चर्चित नाम. शहर के बीचो-बीच अवस्थित दुकान के पीछे अवस्थित मकान में उनकी पत्नी मालती देवी मिलती हैं, भाई किशोर मगधिया मिलते हैं, बेटा अंजनी मगधिया मिलते हैं. धर के अंदर दाखिल होते ही लगता है कि किसी ऐसे संगीत रसिया के घर में हैं, जहां कभी सिर्फ और सिर्फ गीत-संगीत और रेडियो की खुमारी रही होगी. कुछ पुराने रेडियो छज्जे पर रखे रहते हैं, कपड़े के गट्ठर में कुछ पुराने कागजों के बंडल पड़े होते हैं. अंजनी मगधिया उन बंडलों को खोलकर सामने रखते हुए कहते हैं, इसे ही देख लीजिए, कुछ नहीं बताना पड़ेगा हमलोगों को. हमारे पिताजी के मन में रेडियो फरमाइश, गीत-संगीत की दिवानगी की कहानी इसी बंडल में है. बंडल खुलता है, सबसे पहले एक पैड नजर आता है- बारूद रेडियो श्रोता संघ, झुमरीतिलैया. फिर कई तरह के पोस्टकार्ड, जो बजाप्ता प्रिंट कराये हुए होते हैं. कोई गंगा प्रसाद मगधिया के नाम से, किसी में गंगा प्रसाद मगधिया और उनकी पत्नी मालती देवी, दोनों के नाम और कुछ पोस्टकार्ड ऐसे, जो बारूद रेडियो श्रोता संघ के. रंग-बिरंगे छपाई वाले होते हैं. एक ओर प्रेषक, फरमाइशकर्ता का नाम पता प्रिंट होता है और दूसरी ओर फरमाइशी गीत, फिल्म का नाम, गीतकार आदि. सिर्फ दो चार शब्द कलम से लिखे जाते थे और फटाफट भेज दिये जाते थे. स्व. गंगा प्रसाद मगधिया की पत्नी मालती देवी कहती हैं, ‘‘ मुझे तो इतना गुस्सा आता था उन पर कह नही ंसकती, दिन भर बैठकर यही करते रहते थे. कहने पर कहते थे-सुनना तुम्हारा भी नाम आएगा. मैं झल्लाकर कहती कि रेडियो से नाम आने पर क्या होगा तो वे कहते- माना की फरमाइश बचपना बर्बाद करती है, ये क्या कम है कि दुनिया याद करती है... मालती देवी कहती हैं, हंसते हुए यही कहकर फिर कॉपी में गीतों को लिखने लगते थे. मगधिया की वह कॉपी हमें भी दिखायी जाती है. मोटी-मोटी चार-पांच कॉपियां, जिसमें गीतों के बोल, फिल्म का नाम, गीतकार, गायक आदि लिखा हुआ मिलता है. एक पत्रिका दीपक भी, जो रेडियो श्रोता संघ की ओर से ही प्रकाशित होती थी. उन कॉपियों के और उस पत्रिका के पन्ने अब फटकर चिथड़े-चिथड़े हो रहे हैं.
गंगा प्रसाद मगधिया के घर में रेडियो की फरमाइश से जुड़े एक से एक किस्से सुनने को मिलते हैं. उनके भाई किशोर कुमार मगधिया कहते हैं कि उस जमाने में विदेश में एक बार फरमाइश भेजने में 14 रुपये तक का खर्च आता था लेकिन यह रोजाना होता था. उस जमाने में यानि 60 से 80 के दशक के बीच इतना खर्च कर रेडियो पर फरमाइशी गीत सुनने का यह जुनून क्यों और इसके लिए हर रोज एक साधारण परिवार का सदस्य 14 रुपये तक खर्च क्यों करता था. यही सवाल लेकर हम मगधिया के घर से विदा होते हैं. शहर की गलियों मंे घूमते हुए, कई लोगों से मिलने पर इसका जवाब मिलता है. बताया जाता है कि कई वजहें थीं. एक तो इस छोटे से कस्बेनुमा शहर को ख्याति दिलाने की होड़, दूसरा इस छोटे से शहर के लोगों का नाम रेडियो सिलोन, रेडियो इंडोनेशिया, रेडियो अफगानिस्तान, विविध भारती वगैरह में रोजना सुनायी पड़ता था. एक तो इसे लेकर उत्साह और रोमांच रहता था और दूसरा अधिक से अधिक बार नाम प्रसारित करवाने की एक होड़ भी थी, जिसमें कई गुट एक दूसरे से मुकाबला करने में लगे रहते थे. हम मगधिया के अलावा रेडियो और फरमाइशी गीतों के दूसरे दिवानो के बारे में जानना चाहते हैं. बताया जाता है कि मगधिया के किस्से तो हैं हीं, रामेश्वर वर्णवाल भी फरमाईशी गीतों के बेमिसाल श्रोता और फरमाइश भेजनेवालों के बेताज बादशाह थे. कभी कवि और फिल्म समीक्षक विष्णु खरे ने लिखा था कि अमीन सयानी को मशहूर कराने में झुमरीतिलैया वाले रामेश्वर वर्णवाल का बड़ा योगदार रहा है. मगधिया और वर्णवाल के अलावा झमुरीतिलैया से फरमाइश करनेवालों में कुलदीप सिंह आकाश, राजेंद्र प्रसाद, जगन्नाथ साहू, धर्मेंद्र कुमार जैन, लखन साहू, हरेकृष्ण सिंह, राजेश सिंह, अर्जुन सिंह के नाम भी बताये जाते हैं. मजेदार यह कि इनमें से कई टेलीग्राम भेजकर भी गीतों की फरमाइश करते थे और कई ऐसे भी थे डाकखाने से सेटिंग कर एक-दूसरे की फरमाइशी चिट्ठियों को गायब भी करवा देते थे ताकि दूसरे का नाम कम आये. फिल्मी गीतों के दिवानों में नंदलाल सिन्हा का किस्सा सुनाया जाता है, जिन्होंने तो बाद में गीतों की दुनिया में डूबे रहने के लिए कैसेट की दुकान ही खोल ली. यह भी पता चलता है कि हरेकृष्ण सिंह प्रेमी जैसे श्रोता भी थे, जो अपने नाम के साथ अपनी प्रेमिका प्रिया जैन का नाम भी लिखकर भेजा करते थे लेकिन फरमाइशी गीतों में लगातार फरमाइश करते रहने के बावजूद वे प्रेम में कामयाब नहीं हो सके थे, प्रेमी की शादी प्रिया से नहीं हो सकी थी. अतीत के कई-कई किस्सों के साथ वर्तमान को जानने की कोशिश करते हैं. फरमाइशपसंदों के इस शहर में कितने फरमाइशी गुरू बचे हैं अब? गंगा प्रसाद मगधिया के भाई किशोर मगधिया कहते हैं- हम जिंदा रखना चाहते हैं इसे लेकिन परंपरा की तरह, हमारे अंद रवह जुनून नहीं आ सकता, क्योंकि रोजी-रोटी सबकी चिंता है. और फिर अब तो टीवी युग है, कौन सुनता है रेडियो, फिर भी सप्ताह में दस रुपये तो इस पर अब भी खर्च कर ही देते हैं.
रेडियो, फरमाइशी गीतों का इतिहास और गीतों के दिवानों के किस्से सुनने के बाद हमं अतीत से निकलकर झुमरीतिलैया की नयी फिल्मी पहचान से रू-ब-रू होने जाते हैं. यह एकदम हालिया पहचान की कोशिश है, कुछ मायनों में एकदम नायाब भी. शहर में जगह-जगह झुमरीतिलैयाफिल्म के पोस्टर नजर आते हैं तो हम उसके कलाकारों से मिलने उनके घर पहुंचते हैं. एक कमरे में सारे कलाकार जुटते हैं. निर्देशक, अभिनेता, अभिपेक द्विवेदी, उनके भाई राहुल, उनके पिता उदय द्विवेदी, मां कांती द्विवेदी,विवेक राणा, उनके मामा गौरव राणा, अभिनेत्री नेहा, नेहा के पापा आदि. इन सबने मिलकर ही एक फिल्म प्रोडक्शन कंपनी बनायी एफ एंड बी यानि फंेड्स एंड ब्रदर्स प्रोडक्शन और हालिया दिनों में एक फिल्म रिलीज कर दी- झमुरीतिलैया. एक्शन थ्रिलर ओर रोमांच से भरपूर. कुल खर्च 13 लाख लेकिन लागत साढ़े पांच लाख. फिल्म झुमरीतिलैया के सिनेमाहॉल में दस दिनों तक चली, रांची में एक सप्ताह तक, बुंडू में छह दिनों तक. अब होली के बाद दूसरे शहरों में फिर से रिलीज करने की तैयारी है. फिल्म में एक्शन की भरमार है. ताईक्वांडो, कराटे, कूंगफू के भरपूर सीन. अभिषेक कहते हैं, हम बचपन से ही मार्शल आर्ट के दिवाने रहे हैं. बहुत दिनों से फिल्म बनाने को सोचते थे. पहले घर में ही सिचुएशन वन, सिचुएशन टू, द एग्जिट गेट जैसी फिल्में बनाये थे, जिसमें पापा आदि को रोल में रखे थे लेकिन एक फीचर फिल्म बनाने की योजना हमारी थी. तो हमलोगों ने तय किया खुद ही पैसा जुटायेंगे और खुद ही अभिनेता-अभिनेत्री बनेंगे. सोनी एफएक्स कैमरे का जुगाड़ हुआ. ग्यारहवीं में पढ़नेवाली नेहा हिरोइन के तौर पर मिल गयी, हीरो के लिए विवेक, राहुल आदि हो गये. पापा की भूमिका के लिए निर्देशक अभिषेक के पापा मिल गये और मां के लिए खुद की मां भी. सबका नाम भी ओरिजिनल ही रहा. किसी को फिल्म का अनुभव पहले से नहीं था, सो बार बार ब्रुस ली की फिल्म इंटर द ड्रैगन’, ‘ टॉम युम वुमआदि फिल्में दिखायी गयी ताकि एक्शन का रियाज हो और फिर घर में और आसपास के लोकेशन में झुमरीतिलैयाकी शूटिंग भी शुरू हो गयी. फिल्म बनाने के दौरान लगा कि एक गाना तो होना ही चाहिए. अब गायक कहां से आये तो अभिषेक ने अपने चाचा को कहा, जो मुकेश के गाने ही गाते हैं तो एक सीन ऐसा क्रियेट किया गया, जिसमें मुकेश के गाने गाये जा सके. ऐसे ही जुगाड़ तकनीक से झमुरीतिलैयाबनकर तैयार हुई और रिलीज हुई तो एक बार फिर गीत-संगीत के शहर का फिल्मी सफर शुरू हुआ. नेहा कहती हैं, मैं तो पहले सोचती थी कि अभिनय कैसे करूंगी लेकिन बाद में दोस्तों के साथ काम करना था सो पता ही नहीं चला. अभिषेक धीरे से कहते हैं, छापिएगा नहीं लेकिन यह ऐसी अभिनेत्री है कि पहली बार अपनी ही फिल्म को देखने हॉल में गयी. गीतों के शहर में फिल्मों के जरिये सफर का यह नया अनुभव सुनना दिलचस्प लगता है. फिल्म में मां बनी निर्देशक अभिषेक की मां कांती द्विवेदी कहती हैं, बेटों ने मुझसे भी अभिनय करा लिया, अब तो सड़क पर जाती हूं तो कई बार बच्चे कहते हुए मिले- देखो-देखो, झुमरीतिलैया की मां जा रही है. एक्शन फिल्मों का नाम झुमरीतिलैया क्यों, झमुरीतिलैया का तो कुछ खास है नहीं इसमें? निर्देशक अभिषेक कहते हैं, इससे ज्यादा पॉपुलर नाम झारखं डमें कोई है क्या और फिर अपना शहर है झमुरीतिलैया, इसके नाम पर तो इतना भरोसा है कि यह कुछ भी चल जाएगा.
युवा फिल्मी लोगों से मिलकर झमुरीतिलैया की नयी यादों के साथ विदा होने को होते हैं कि वहां भी फिर वही बात दुहराई जाती है कि एक बार यहां के कलाकदं को तो जाकर चख ही लीजिए, देख ही लीजिए. हम आनंद विहार मिष्ठान भंडार पहुंचते हैं. अमित खेतान मिलते हैं. कहते हैं कि मिठाई की दुनिया में कलाकदं झुमरीतिलैया की ही खास देन है, यह तो दावे के साथ नहीं कह सकता लेकिन यहां के कलाकंद की तरह कहीं और का स्वाद नहीं होता, क्योंकि यहां की आबोहवा कलाकंद का साथ देती है. पहले एक भाटिया मिष्ठान भंडार हुआ करता था, वहीं पर कलाकंद बनना शुरू हुआ, फिर वह बंद हो गया तो हमारे यहां से लोग रोज पैक कराकर देश के कोने-कोने में अपने रिश्तेदारों के यहां भेजते हैं और कई बार विदेश भी. पिछले चार दशक से कलाकंद बनाने में ही लगे कारिगर सुखती पात्रो कहते हैं- मैंने बहुत जगह देखा है, कलाकंद आज भले सभी जगह हो लेकिन यह देन तो इसी झुमरीतिलैया की है. पता नहीं कलाकंद कहां की देन है लेकिन वाकई झमुरीतिलैया के कलाकंद का स्वाद शायद ही कहीं और मिले. विदा होते समय बताया जाता है कि यह इलाका तो अब पावर हब बनने जा रहा है. कोई कहता है कि यह भी जानिए कि रांची पटना मार्ग पर अवस्थित यह शहर रांची और पटना से समान दूरी पर स्थित है. कोई कहता है, पहले यह अबरख के लिए जाना जाता था लेकिन अब तो बेशकीमती पत्थरो ंका खान मिला है यहां. सब नयी-नयी पहचान बताते हैं लेकिन हमारे हाथों मंे मगधिया के पोस्टकार्डों का बंडल होता है- फरमाईशकर्ता गंगा प्रसाद मगधिया, बारूद रेडियो क्लब, झुमरीतिलैया, गीत- दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गया रे, फिल्म गंगा-जमुना....!
  

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