हजारीबाग शहर से बाहर निकलकर कुछ किलोमीटर
की दूरी तय करने के बाद हम रोला पहुंचते हैं. न गांव, न
शहर बल्कि कस्बे
जैसा है रोला. वहां चारो ओर से बन रहे या बन चुके कुछ मकानों के बीच एक खेत में
बिखरे पड़े आड़े-तीरछे कुछ पत्थरों को
दिखाते हुए शुभाशीष
दास बार-बार कहते हैं- देखिए आदि विज्ञान और इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय चारो
ओर से कैद होता जा रहा है, ऐसे ही यह एक दिन
मिट जाएगा, मिट्टी में मिल जाएगा. शुभाशीष इधर-उधर
बिखरे गड़े हुए पत्थरों को जब बार-बार आदि जमाने के वैज्ञानिक चेतना का एक
महत्वपूर्ण साक्ष्य बताते हैं तो बातें
कुछ साफ समझ में नहीं आती. हम उनसे पूछते हैं कि यह तो
पत्थरगड़ी केंद्र है, जहां आदिवासी समाज किसी की मृत्यु के बाद
उसकी स्मृति में पत्थरों
को गाड़ा करते हैं,
आप जब इसे विज्ञान का अहम केंद्र बता रहे हैं तो जरा समझाइये. शुभाशीष हंसते हुए
कहते हैं- आप खुद सोचिए कि अगर यह सिर्फ मृत आत्मा की याद में गाड़े हुए पत्थर भर
होते और किसी तरह एक परंपरा के निर्वहन की प्रक्रिया भर होती तो फिर सभी पत्थर अमूमन एक
तरीके के होने चाहिए थे. सबको या तो गाड़ा जाना चाहिए था, या
रखा होना
चाहिए था. यह बताते हुए वह तुरंत अपने बैग से कंपास और इंच-टेप निकालते
हैं. एक पत्थर पर कंपास को रखते हुए कहते हैं कि देखिए यह पूरी तरह से उत्तर-दक्षिण की दिशा में
रखा हुआ है या नहीं? कंपास सभी पत्थरों का रखा होना उत्तर-दक्षिण दिशा ही बताता है. फिर वे दो पत्थरों के बीच की दूरी टेप से
नापते हुए कहते हैं कि देखिए यह दो पत्थर जितनी दूरी पर हैं, अगला पत्थर ठीक उससे दो गुनी दूरी पर होगा और उससे अगला चार गुणा दूरी
पर. परिणाम वैसा ही दिखता है. शुभाशीष कहते हैं सब विज्ञान पर आधारित है, विज्ञान
के औजार हैं और वह भी तब के जब खगोल विज्ञान का यह आधुनिक ज्ञान विकसित नहीं हुआ था.
आर्यभट्ट, ब्रह्मभट्ट से बहुत पहले आदिवासियों द्वारा स्थापित
विज्ञान के केंद्र हैं, जिनकी अवधि करीब चार हजार साल पहले की
बतायी जाती है. परंपरा निर्वहन के साथ विज्ञान के विकसित करने की एक अद्भुत कला और
तकनीक के साक्ष्य को हम रोला में देख रहे थे. शुभाशीष कहते हैं कि यह तो कुछ नहीं
हजारीबाग के ही बड़कागांव के पंकरी बरवाडीह में चलकर देखिए, वह
तो कई मायनों में एस्ट्रोनोमिकल साइंस का दुनिया का एक अहम केंद्र है, जहां दो पत्थरों के बीच से उगते सूर्य को देखने के लिए पर्यटकों के साथ अब दूसरे मुल्क के विज्ञानी भी
पहुंचने लगे हैं. पंकरी बरवाडीह में हम उस साइट को देखते हैं. शुभाशीष फिर कहते हैं,
आप रांची से जमशेदपुर जाने के रास्ते में अति नक्सल प्रभावित बुंडू के चोकाहातू में भी कभी
जाकर देखिए, वहां तो ऐसे पत्थरों का समंदर ही दिखेगा.
वहां साढ़े आठ एकड़ जमीन में करीब आठ हजार ऐसे पत्थर दिखेंगे. शुभाशीष कहते हैं, यहां-वहां,
कहां-कहां बतायें, पूरे झारखंड में,
झारखंड ही नहीं कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरे भारत में ऐसे साइट मिलेंगे
और दुनिया में मनुष्य द्वारा निर्मित इससे प्राचीन लेकिन जीवंत आराधना के केंद्र
कहीं नहीं मिलेंगे और न ही विज्ञान के केंद्र.

परंपरागत पत्थरों में रहस्यमयी विज्ञान
शुभाशीष
जितनी बातें बताते जाते हैं, हम उन पत्थरों के
रहस्य, उनमें छुपे विज्ञान और उस परंपरा के महत्व को
समझने की कोशिश करते हैं. हैरत भी होती है कि इतिहास कितनी चीजों को निगल लेता है.
खगोल विज्ञान के इस अद्भुत ज्ञान को इतिहास ने क्यों निगल लिया था. यह सवाल हमारे
मन में चल रहे होते हैं, दूसरी ओर सामने
बैठे शुभाशीष
डूबकर अपनी बात कह रहे होते हैं. वैसे, वे पिछले दो दशक से
इन्हीं पत्थरों की दुनिया में डूबे हुए भी हैं. पहले एक प्राइवेट फर्म में
मार्केटिंग का काम करते थे, फिर डीएवी स्कूल के
प्रिंसिपल बने और दो दशक पहले इन पत्थरों की दुनिया को समझने का जुनून ऐसा सवार
हुआ कि सब छोड़ इसी में लग गये. नतीजा यह कि पिछले दो दशक में वे ऐसी 40 जगहों की खोज कर चुके हैं और उनकी दो महत्वपूर्ण किताबें ‘ इन सर्च ऑफ मेगालिथ’ और ‘ सेक्रेड स्टोन इन इंडियन सिविलाइजेशन’ इस
विषय पर आ चुकी है, तीसरी आनेवाली है, जिसे
वे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के टेरेंस
मेडेन के साथ मिलकर लिख रहे हैं. वह बताते हैं, झारखंड में आम बोलचाल की भाषा में इसे पथलगड़ी केंद्र कहते हैं. उरांव,
हो, मुंडा और असुर आदिवासियों में पथरगड़ी की
परंपरा पीढ़ियों से रही है. किसी की मृत्यु के बाद उसकी याद में पत्थर गाड़ने का
रिवाज रहा है, जो अब भी एक अहम परंपरा है. इसे मेगालिथ
भी कहते हैं जिसका शब्दानुवाद तो बड़ा पत्थर होता है लेकिन इसका एक आशय आदिवासियों
का कब्र भी होता है और ऑस्ट्रिक स्पीच में इस प्रक्रिया को ससंदरी, हड़गड़ी, हड़सड़ी भी कहते हैं. यह परंपरा कब
शुरू हुई, यह तो इतिहास के पन्ने नहीं बताते लेकिन यह माना
जाता है कि नवपाषाण काल एवं
ताम्र युग के समय से ही यह परंपरा चलन में रही है. साथ ही यह भी पता चलता है कि आदिवासियों ने मृतात्मा की याद में
जब इस परंपरा की शुरुआत की तो उसमें कई जगहों पर खगोलीय विज्ञान व ज्योतिष ज्ञान
के तत्वों को भी समायोजित किया. इन पत्थरों के जरिये ही वे काल, समय, मौसम आदि की भी गणना और अनुमान लगाते थे.
बरवाडीह पंकरी में जो मेगालिथ साइट है, वहां दो पत्थरों के
बीच उगता सूर्य
उसी दिन दिखायी
पड़ता है, जब वह पूरी तरह से पूरब दिशा से निकलता है. जिस
दिन सूर्य पूरब दिशा से निकलता, उस दिन खुशी का
पर्व और नये साल मनाने की एक संस्कृति भी
कभी हुआ करती थी. यह दिन अब इक्विनॉक्स डे के रूप में जाना
जाता है और साल में यह मौका दो बार आता है, जो
पहली बार करीब 20 मार्च को आता है और दूसरी बार 22-23 सितंबर को. शुभाशीष
बताते हैं, बात सिर्फ काल-मौसम गणना-आकलन की नहीं है,
आप इन्हें गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि सभी पत्थरों का मिलान बायें कोण
से (यानि लेफ्ट अलाइंड) किया गया है. ऐसा संभवतः इसलिए कि आदिवासी समाज हमेशा से वामा यानि
स्त्री को अधिक महत्व देते रहा है और जब अपने जमाने के बौद्धिक आदिवासियों ने भी
इस अनगढ़ विज्ञानशाला को स्थापित करना शुरू किया तो उसमें बायें पक्ष को ही सबसे
ज्यादा महत्व दिया.
दुनिया जानती है और मानती भी है लेकिन...
आदिम जमाने में विकसित हुए खगोल विज्ञान
के इस अद्भुत ज्ञान परंपरा को भारत में वह महत्व क्यों नहीं मिला, यह सवाल हमारे मन में घुमड़ रहे होते हैं. हम यह सवाल रांची विश्ववविद्यालय के इतिहास के पूर्व विभागाध्यक्ष
डॉ एचएस पांडेय, झारखंड के कला-संस्कृति विभाग के पूर्व
सहायक निदेशक रहे हरेंद्र सिन्हा, रांची बोकारो के
रास्ते में पड़नेवाले चितरपुर में रहकर इन मेगालिथ पत्थरों के साथ ही पुरातत्व के
दूसरे आयामों पर पिछले कई सालों से काम करने में मगन फैयाज आदि से भी करते हैं. डॉ
एचएस पांडेय कहते हैं, यथार्थ के कई रहस्य दबे हुए हैं, देर से ही सही, लेकिन
यदि रहस्य का उदघाटन हो जाए तो बहुत कुछ पता
चलेगा. शुभाशीष
कहते हैं, यह ज्ञान-विज्ञान अगर आदिवासियों की बजाय दूसरे
समुदाय का होता तो वर्षों से इस कदर उपेक्षित न रहा होता. हरेंद्र सिन्हा कहते हैं
कि कोशिश जारी है कि मिट्टी में मिलता जा रहा एक महत्वपूर्ण अध्याय सामने आये. इसके लिए वर्षों से प्रयास जारी है और कोशिश कर के
हमने नष्ट होते एक-दो साइट की खुदाई करवाने की पुरातत्व विभाग से अनुमति भी ले ली
है. उनकी बातों को विस्तार देते हुए फैयाज कहते हैं,
ज्ञान-विज्ञान से चमत्कृत करनेवाली इस दुनिया को बहुत दिनों तक नहीं
दबाये रखा जा सकता, सामने आ रहा है, दुनिया
जब इसे जानती-मानती है तो भला भारत में कब तक इसे दबाकर रखा जा सकता है. उक्त सभी
लोग अपने-अपने तरीके से सही बात कहते हैं और आज के संदर्भ में ही अगर देखें तो
मेगालिथ के कई ऐसे साइट हैं, जो दुनिया भर में
मशहूर हैं और उन पर तेजी से काम भी चल रहा है. सबसे पहला नाम तो स्टोनहेंज का ही
लिया जा सकता है, जिसे दुनिया के आश्चर्यों में शामिल करने
के साथ ही वर्ल्ड हेरिटेज घोषित किया जा चुका है. इंगलैंड में न्यूगै्रंज, कैलानिश, मिस्र में नबटा, मलेशिया
में बातू रिटोंग आदि ऐसे मेगालिथ साइट हैं, जिन्हें
दुनिया भर में ख्यातिप्राप्त है और पत्थरों में समाये आदिम जमाने के ज्ञान-विज्ञान
के इन स्थलों को देखने दुनिया भर के लोग पहुंचते हैं. भारत में भी झारखंड के अलावा
कश्मीर में बुर्जहोम, गुफकराल, राजस्थान
में देवसा, मेघालय में शिलॉंग, कर्नाटक
में विभूतिहाली आदि महत्वपूर्ण मेगालिथ साइट हैं. झारखंड में तो खैर इसकी भरमार ही
है. पंकड़ी बरवाडीह, रोला, रांची,
चोकाहातू, रामगढ़, नापो,
बीरबीर आदि स्थलों पर ऐसे साइट खोजे जा चुके हैं. और स्थलों की खोज तेजी
से जारी भी है. बरवाडीह जैसे मेगालिथ साइट पर सूर्योदय देखने के लिए साल में दो बार सैलानियों की भीड़ बढ़ने लगी है. दुनिया के विज्ञानी इसे
समझने के लिए आने लगे हैं और राज्य की सरकार भी आखिर में इन्हें थोड़ा महत्व देने को तैयार होते हुए
दिखने लगी है. इसका एक प्रमाण यह है कि कई मेगालिथ स्थलों पर अब सरकार की ओर से
बड़े बड़े बोर्ड लगाकर लोगों को उस स्थल की महत्ता के बारे में सूचित किया गया है.
पिछले साल राज्य सरकार ने इन मेगालिथ साइटों के संरक्षण व विकास के लिए 2.75
करोड़ रुपये जारी भी किये हैं. विशेषज्ञ
कहते हैं, इन साइटों का अगर
पॉपुलर तरीके से विकास हुआ तो इनके विनाश का ही रास्ता खुलेगा. बस, ये जहां बिखरे हैं, बिखरे रहने दिया जाए, कोई जमीन पर कब्जा न करे आसपास खुली
जगह रहे, सरकार इतना ही
सुनिश्चित करे तो कई महत्वपूर्ण अध्याय इन बिखरे पत्थरों से खुलेंगे. एच एस पांडे कहते हैं कि सरकार
पहले तो यही कोशिश करे कि रांची-जमशेदपुर मार्ग में जो चोकाहातू मेगालिथ साइट है,
उसे भारत के महत्वपूर्ण स्थलों में शामिल करवाने की कोशिश करे, क्योंकि वैसा और उतना बड़ा मेगालिथ साइट दुनिया में शायद ही कहीं होगा.
वैसे मेगालिथ स्थलों को यह हक भी बनता है.
इस श्रेणी में हिंदुओं के कई स्थल पहले से शामिल
है हीं, बौद्ध धर्म के भी महाबोधि मंदिर जैसे स्थल उस श्रेणी में शामिल हैं,
ईसाई धर्म के कई चर्च और ताजमहल के अलावा मुसलमानों के भी कई स्थल इसमें
शामिल हैं तो आदिवासियों का भी एक महत्वपूर्ण स्थल शामिल हो, यह हक तो भारत के आदिम निवासियों का बनता ही है. और इस श्रेणी में
मेगालिथ उनकी सबसे प्राचीन जीवंत परंपराओं में से एक है, जिसमें
धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक
परंपरा के साथ ज्ञान-विज्ञान की विशाल दुनिया भी समायी हुई है. जो पुरातत्व के
जरिये नये सिरे से इतिहास की व्याख्या करने की क्षमता भी रखता है. मेगालिथ स्थलों
को घूमते हुए ये बातें
सच भी लगती हैं.