Tuesday, December 18, 2012

जा रही हो, चली जाओगी, थोड़ी देर और बैठो ना...!

अनुपमा कल, जब से यह सूचना मिली है कि शिवकुमार ओझा नहीं रहे, तब से मन बेचैन, परेशान तो है ही, एक अपराध बोध से ग्रस्त भी. वे करीब 98 साल की उम्र में गुजरे. अपनी जिंदगी पूरी जी ली उन्होने. इस उम्र में किसी भी दिन दुनिया को अलविदा कह सकते थे, यह लगभग तय-सा था, लेकिन उनके जाने के बाद लग रहा है कि वे थोड़ी जल्दी चले गये, काश! कुछ दिन और रूक जाते. करीब डेढ़ माह पहले उनका सुबह-सुबह फोन आया था. जानता हूं बेटा की मीडिया में काम करती हो इसलिए समयाभाव रहता होगा, तभी तो मिलने नहीं आ रही हो. लेकिन मुझे लगता है कि मीडियावाले अधिकांश बार काम के बोझ का बहाना बनाकर भी मिलने-जुलने के दायित्वों से छुट्टी पा लेना चाहते हैं. यह कहने के बाद उनका वही पुराना एक संक्षिप्त वाक्य- आओगी नहीं, आओ ना...! पूर्वनिर्धारित कार्य होने के कारण थोड़ी जल्दबाज़ी थी लेकिन फिर भी आनन-फानन में उनके पास पहुंच ही गयी. नहा-धोकर बारामदे में कुर्सी-टेबल पर बैठ कर धूप में नाश्ता कर रहे थे. एक रोटी लेकर नाश्ते में बैठे थे. मुझे जल्दी मची थी, मैं चाहती थी कि वे जल्दी से जल्दी रोटी खत्म कर दें तो मैं भी यहां से निकल जाउं. मैं निकल जाने की हड़बड़ी में थी पर शिष्टाचार वश छोड़ कर नहीं जा प रही थी. और वे रोटी छोड़ बातों में रमते जा रहे थे. दवाइयां दिखाते हुए कह रहे थे कि अब लगता है कि बुढ़ापा आ गया, खाने से ज्यादा दवाइयां दे रहे हैं मुझे घरवाले. उनका शरीर सूजा हुआ था, अच्छे से बोल नहीं पा रहे थे लेकिन बिंदास बने रहने की जिद थी कि वे अपनी बीमारियों से, उम्र से भी लड़कर रोटी खाते-खाते ठहाके लगाने की कोशिश कर रहे थे. उनका नाश्ता खत्म हुआ, निकलने लगी तो उन्होंने वही पुराना वाक्य दुहराया, जिसे सुनने के बाद कितनी भी हड़बड़ी में निकलने को नहीं सोच पाती थी. उन्होंने कहा- जाओगी, चली ही जाओगी, जा ही रही हो, थोड़ी देर और रूको ना, सिर्फ थोड़ी देर और...! उस दिन पहली दफा मैं उनके थोड़ी देर और रूकने के आग्रह को नहीं मान सकी और यह वादा कर विदा हो चली कि कल पक्का आउंगी तो ढेर सारी बातें करूंगी आपके साथ. चलते-चलते पास बुलाकर उन्होंने वही आशीर्वाद दुहराया- स्वस्थ रहो, सुखी रहो, संपन्न रहो...! लेकिन वह कल नहीं आया, मालूम हुआ कि वे इंतजार करते रहे आने का... मन अपराध बोध से भरा हुआ है कि जब मैं नहीं जा सकती थी कि क्यों कह दी थी कि कल आउंगी तो ढेर सारी बातें करूंगी. जब कह ही दी थी तो डेढ़ माह में दो घंटे क्यों नहीं निकाल कर जा पायी उनके पास! ओझाजी के बारे में करीब चार साल पहले जानी थी. वर्तमान में तहलका में सहयोगी निरालाजी तब प्रभात खबर के साथ ही थे. उन्होंने प्रभात खबर में एक पूरे पन्ने में उनके बारे में, उनके साक्षात्कार और जीवन के पन्नों और उनके काम आदि को प्रकाशित कर उनसे रू-ब-रू करवाया था. निरालाजी से ही उनका फोन नंबर प्राप्त कर उनसे मिलने गयी थी. यही सोचकर कि मैं भी लिखूंगी इनके व्यक्तित्व, कृतित्व पर. उनका जीवन प्रभावित करनेवाला था. आजादी की लड़ाई में स्कूली जीवन में ही उनका जेल जाना, फिर बाद में भी जेल जीवन गुजारना, जेल से निकलने के बाद गांधीजी के रहते ही उन पर द कूली बैरिस्टर, देवदर्शन आदि किताबें लिखना प्रेरित किया था. राइडिंग द स्टोर्म भी उनकी चर्चित कृति थी. जब बहार आयी, मैं अकेली, प्रीत की रीत निराली, प्यासा पंछी, मधु के छींटे आदि शीर्षक से करीब आठ उपन्यासों के भी रचनाकार थे वे. उनसे पहली बार मिलने गयी तो यही सोचकर गयी कि एक इंटरव्यू करूंगी, एक प्रोफाइल स्टोरी उनपर करना चाहती थी. इस उम्र में भी कैसे वे इतने सक्रिय रहते हैं, लिखना-पढ़ना जारी रख हुए हैं लेकिन उनसे पहली ही बार हुई मुलाकात में उन पर अपनी पत्रकारिता विधा दिखाने की तैयारी बस धरी कि धरी ही रह गयी और न तो कभी उनका इंटरव्यू जैसा कुछ की और न उन पर कुछ और ही लिख सकी. पहली ही मुलाकात के बाद चलते हुए उन्होंने कह दिया था- तुम्हें अनुपमा नहीं कहूंगा, बड़ा नाम है यह, सिर्फ अनु कहूंगा. साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि तुम इसे जबर्दस्ती ही मानो लेकिन आज से तुम मेरी बेटी हुई. तुम्हें कोई जरूरत तो किसी और को नहीं कहना, मुझे इशारा भर करना, मैं सक्षम हूं अपनी बेटी की जरूरतों को पूरा करने में. उसके बाद कई बार सोची लेकिन हर बार उन्होंने कहा कि अच्छा अगली बार आना तो तुम पत्रकार बनकर आना तब मैं तुम्हें बताउंगा लेकिन वह अगली बार कभी नहीं आया. जाते ही मैं उनकी बेटी होती थी और वे एक ऐसे अनुभवी और खुले दिमाग वाले अभिभावक जो अपने बच्चे को अपनी जिंदगी की हर पहेली को बता देना चाहते थे. हर बात पर कहते, कभी जिंदगी को शर्तों पर नहीं जीना, अपनी पसंद से जिंदगी जीना...! उनकी बातें ही खत्म नहीं होती थीं तो मैं उनका इंटरव्यू कब करती! देश-दुनिया-समाज-राजनीति-फिल्म-प्यार सब पर वे घंटों बातें करते और उसमें खुद को रखकर उसका आकलन करते. बहुत ही निरपेक्ष भाव से. आत्ममुग्धता का शिकार होते हुए उन्हे कभी नहीं देखी, ना ही उनकी कभी चाहत रही कि उनके बारे में अधिक से अधिक लोगों को बताया जाए कि वे भी आजादी के एक सिपाही थे. जिन्होंने स्वतंत्रता सेनानी पेंशन आदि लेना कभी पसंद नहीं किया और एक महत्वपूर्ण लेखक हैं, जिन्होंने कई किताबें लिखी. वे गांधीजी के साथ गुजारे हुए अपने समय को हमेशा बताते थे. किस्से के अंदाज में बताते कि कैसे वह दिल्ली में हर दिन गांधी जी की प्रार्थना में शामिल होने के लिए साइकिल से जाते थे और एक बार तो ऐसा हुआ कि घनघोर बारिश में सिर्फ गांधीजी, उनके दो सहयोगियों के अलावा सिर्फ वही अकेले बाहरी प्रार्थना सभा में पहुंचे. गांधीजी ने तब चंदा मांगा, इन्होंने एक अन्नी दी और गांधी जी का हाथ ज़ोर से दबाया. गांधीजी ने कहा कि जो है वही दो, लेकिन देशसेवा में अपना योगदान जरूर दो.... हर बात-मुलाकात में ऐसे ही कई किस्से सुनाते थे. अपने प्रेम के किस्से भी सुनाया करते थे. भोजपुरी में कहावतों का जुबानी संग्रह था उनके पास, हर बात में उसका इस्तेमाल करते. हर सुबह दस बजे तक नहा-धोकर एक दम से ऑफिसियल ड्रेस यानि चमकदार सफ़ेद शर्ट पहनकर अपने स्टडी रूम में बैठते और चार घंटे तक कुछ न कुछ लिखते-पढ़ते थे. यह उनका रोज का रूटीन था और फिर शाम को पहले माले से नीचे उतरकर घंटों टहलते. उम्र के 98वें साल में भी. हर रविवार की दोपहर को उनका एक घंटे का समय एक खास प्रायोजन के लिए भी तय था, जिसमें वे किसी किस्म की बाधा पसंद नहीं करते थे और न ही वह कभी उसे मिस करते थे. हर रविवार को दोपहर एक बजे से दो बजे तक वे अपनी बहन से फोन पर बात करते थे. इस उम्र में भाई-बहन को बात करते हुए देखना और फिर दुख-सुख से ज्यादा ठहाका लगाकर हंसने की प्रक्रिया दुर्लभतम थी? ऐसी ही कई दुर्लभ आदतें थीं उनकी. डेढ़ माह पहले जब वादा करके आयी थी कि आपसे अगली बार मिलने आउंगी तो बहुत देर बैठूंगी. गयी तो नहीं मिलने लेकिन सोची थी कि इस बार उनका एक इंटरव्यू कर ही लूंगी और फिर और भी कुछ जानकर उनके बारे में कुछ लिखूंगी. वह इंटरव्यू तो नहीं कर सकी, उनके पास पत्रकार रूप में एक बार भी नहीं जा सकी लेकिन उनसे टुकड़े-टुकड़े में हुई बातों का इतना संग्रह है कि एक मोटी किताब बन जाये लेकिन लिख नहीं पाउंगी. क्योंकि अभी इतना ही लिख रही हूं तो बार-बार लग रहा है कि वे कंप्यूटर स्क्रीन से झांकते और हंसते हुए कह रहे हैं कि अभी नहीं जाना, कुछ देर रूकना, एक गाना भी सुनाउंगा और कुछ खिलाना भी बाकी है तुम्हें...!

No comments:

Post a Comment

Note: Only a member of this blog may post a comment.