Saturday, January 14, 2012

सपनों को सच करने में एक सवाल नजरिये का भी है !

♦ अनुपमा

पिछले साल की बात है। 28 दिवंबर की। उस रोज कितनी खुश थी जॉनी उरांव। खुशी का कारण भी कोई छोटा नहीं था। रांची से सटे बेड़ो के एक किसान परिवार की 18 वर्षीया बिटिया जॉनी ने रांची वीमेंस कॉलेज में स्नातक पार्ट वन की छात्रा रहते हुए देश में रिकार्ड कायम किया। अपने कॉलेज में टॉपर वगैरह बनकर नहीं, बल्कि मुखिया के रूप में चुने जाने के कारण। जॉनी देश में सबसे कम उम्र की मुखिया बनीं। वह खुश थी और उसका खुश होना और हम जैसों को हैरत में पड़ना स्वाभाविक ही था। जॉनी से उस रोज जो बातचीत हुई थी, वह अब भी डायरी के पन्ने में मौजूद है।

उसने झारखंड के कई नेताओं से ज्यादा स्पष्ट उच्चारण के साथ अपनी उम्र से बहुत आगे की गंभीरता दिखाते हुए कहा था, ‘कुछ साथियों ने सलाह दी थी कि जब राजनीति में ही रुचि है, तो चुनाव क्यों नहीं लड़ जाती! मैं साथियों की सलाह से चुनाव लड़ गयी। सिर्फ ट्रायल मारने या शौक पूरा करने के लिए नहीं बल्कि गंभीरता के साथ। चुनाव चल रहा था, तो मैं चुनाव प्रचार से लौटने के बाद रोज ही पंचायत के अधिकार, मुखिया के अधिकार और जिम्मेवारियों का अध्ययन भी करती थी ताकि अगर जीत जाऊं, तो क्या-क्या करूंगी, कैसे-कैसे करूंगी।’

सच में जिस आत्मवशि्वास से 18 साल की जॉनी उरांव अपनी बातों को बता रही थी, वैसा आत्मवशि्वास 20-30 साल से राजनीति-राजनीति का खेल खेलने वाले झारखंड के कई नेताओं में भी देखने को नहीं मिलता। जॉनी की तरह ही जमशेदपुर में एमबीए की एक छात्रा सविता टुडू भी आत्मवशि्वास से लबरेज दिखी थीं। घसियाडीह की रहनेवाली सविता भी मुखिया चुनी गयी थी। सविता ने कहा था कि अब मुझे पंचायत प्रबंधन में ही अपनी सारी ऊर्जा को लगाना है, नौकरी के प्रबंधन के बारे में सोचूंगी भी नहीं। जमशेदपुर के पास से ही एक सबर महिला भी चुनी गयी थी। उसका नाम है ममता सबर। ऐसे कई नाम हैं।

झारखंड में पंचायत चुनाव सपना था। वह पिछले साल हकीकत में बदला। गांव-गांव में सरकार बनी। रांची में बैठनेवाली राज्य की सरकारें साल-दर-साल निराशा के गहरे गर्त में समानेवाला माहौल बनाती रहीं तो उम्मीद की किरणें इस गंवई सरकार पर ही टिकी। जॉनी, ममता और सविता जैसों पर ज्यादा। आधी आबादी की इतनी जोरदार दस्तक पहली बार सुनाई पड़ी थी। 50 प्रतशित का आरक्षण था, लगभग 58 प्रतशित पर जीत हासिल की महिलाओं ने। संख्या के हिसाब से करीब 29 हजार के आसपास महिलाएं। 32 साल बाद और राज्य बनने के बाद पहली बार तमाम पेंच को पार करते हुए पंचायत चुनाव के आये नतीजे ने राज्य के अलग-अलग हिस्से में जॉनी, सविता, ममता की तरह भारी संख्या में आत्मवशि्वासी युवा वर्ग को लोकतंत्र की असली राजनीति में उभरने का मौका दिया। अधिकतर वैसे, जो ठेठ ग्रामीण परिवेश से हैं, कई ऐसे भी जो कैरियर के तमाम मोह को छोड़ बदलाव की छटपटाहट लिये चुनावी मैदान में उतरे थे। इन सबके बीच अब तक मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स के लिए उपेक्षित समुदाय से भी नेताओं का उदय हुआ। एक नजरिये से देखें, तो यह झारखंड बनने के बाद की सबसे बड़ी सामाजिक-राजनीतिक क्रांति हुई।

अब पंचायत चुनाव के एक बरस गुजर गये हैं। झारखंड की राजनीति का मर्सिया गान करनेवाले एक समूह द्वारा पंचायत चुनाव से निकले प्रतिनिधियों की राजनीति का मर्सिया गान भी किया जाने लगा है। पॉपुलर तरीके से लेकिन घटिया अंदाज में। निराशावादी रवैये के साथ। कई ऐसे साथी मिलते हैं, जो कहते हैं कि कहां हुआ कुछ बदलाव! वे बातें ऐसे करते हैं, जैसे बदलाव कोई जादुई छड़ी से निकलनेवाला चमत्कार हो। उन्हें कौन बताये कि 100 सालों के बिहार में जब सब कुछ पटरी पर नहीं आ सका है, तीन-तीन बार पंचायती चुनाव होने के बाद बिहार में जब पंचायती राज व्यवस्था नहीं सुधर सकी है, तो झारखंड से चमत्कार की उम्मीद एक ही बार में क्यों की जा रही है। फिर उसे एक राग की तरह गाये जाने की इतनी अकुलाहट क्यों है?

एक बड़ा सवाल यह भी कि क्या जिस तरह बिहार में महिला प्रतिनिधियों को आइकॉन की तरह बनाकर पेश किया, बिहार की तर्ज पर ही चुनावी राजनीति ने उसे अपनी एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर ब्रांडिंग की! वैसा झारखंड में हुआ या होता दिख रहा है? क्या सरकार, शासन व समाज की ओर से जॉनी, सविता टुडू को उम्मीदों की नायिका बनाने की कोशिश हुई? समाज ने क्या कभी नेताओं-अधिकारियों या मंत्रियों की तरह ही इन नये नेताओं को मान दिया? हौसलाअफजाई की?

राज्य में 4423 पंचायतों में कुल 32,260 गांव आते हैं। इनमें से कई गांव ऐसे हैं, जो आज भी विकास क्या, बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते हुए गांव हैं। कई इलाके ऐसे हैं, जो पिछड़ेपन के मामले में देश भर में चुनिंदा इलाकों में से हैं। सुदूर इलाके में कई ऐसे आदिवासी समुदाय वाले पंचायत हैं, जो हाशिये पर रहे हैं। जहां से उस समुदाय के बड़े नेता के अब तक राजनीति में नहीं होने की वजह से कोई अधिकारी, मंत्री, जनप्रतिनिधि वगैरह उन तक पहुंचना भी मुनासिब नहीं समझते थे। अब पंचायत चुनाव के बाद मजबूरी में ही सही, उन इलाकों को भी थोड़ी राहत तो मिल ही रही है। जाहिर सी बात है कि आज अगर पंचायत चुनाव के बाद उन बाशिंदों को छोटी सरकार का सपना साकारा होता दिखा है, तो कल वे बड़ी सरकार में भी अपनी आकांक्षाओं को साकार होता देखना चाहेंगे। पंचायत चुनाव के जरिये नेताओं ने कम से कम उन्हें हाशिये से हस्तक्षेप करने की ताकत दी है। वह कई रूपों में इसका असर आनेवाले कल में दिखेगा। और फिर यह कम है क्या कि झारखंड को पंचायत चुनाव नहीं होने की वजह से हर साल जो लगभग 500 करोड़ रुपये की केंद्रीय राशि का नुकसान सहना पड़ रहा था, अब वह नहीं होगा।

सवाल नजरिये का है…!

(झारखंड सरकार के मीडिया फेलोशिप के तहत लिखा गया लेख

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