
रांची में कुल 1391 सरकारी प्राथमिक विद्यालय हैं. गली-मुहल्लों में खुले हुये निजी प्राईमरी स्कूलों की संख्या निकाली जाये तो यह आंकड़ा दुगुने के आसपास पहुंचता है. लेकिन शहर के डोमटोली इलाके में चलने वाला एक स्कूल इन सबों से अलग है. इसे न तो सरकार चलाती है और ना ही शिक्षा को उद्योग मानने वाले धनपति. कोई ट्रस्ट और एनजीओ भी नहीं.
टीवी मिस्त्री मो. एजाज कहते हैं- “इसे रोज मज़दूरी करने वाले हमारे जैसे लोग चलाते हैं. ”
करबला चौक के पास डोमटोली में रोज लगने वाला यह स्कूल दिहाड़ी मजदूरी करने वाले अभिभावकों के बच्चों के लिए आशा की किरण है. डोमटोली स्कूल के नाम से पुकारा जाने वाला प्रेरणा सामाजिक विद्यालय कहने को तो स्कूल ही है लेकिन है दूसरे सभी स्कूलों से अलग.
अब स्कूल की हालत को ही लें. भीषण गर्मी में स्कूल की खुली छत पर धूप का एक बड़ा हिस्सा रोके नहीं रूक रहा है. हालांकि इसे रोकने के लिए टाट-टप्पर के साथ ही स्कूल की टूटी-फूटी छत पर किसी ने अपने घर की चादर लाकर भी टांग दी है. बच्चे और उन्हें पढ़ाने वाली शिक्षिकायें पसीने से तरबतर हैं लेकिन कतारबद्ध बद्ध अलग-अलग कक्षाओं में बैठे बच्चे मौसम की मार को जैसे मात दे रहे हों.
ऐसे रखी नींव
तीन साल पहले इस स्कूल की नींव ऐसे लोगों ने रखी, जिनका शिक्षा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था. रोज-रोज कमाने-खाने वालों के लिये यह दुखद था कि उनके बच्चे आवारा घूमते रहें या बेटियां घरों में चुल्हा-बरतन करती रहें. मजदूरों के बच्चे पढ़-लिख कर क्या करेंगे, जैसे ताने तो थे ही.
इलाके के मजदूरों ने बैठक की और फिर शुरु हुआ तिहाड़ी मजदूरों के सपनों का स्कूल. पहले आपस में ही चंदा किया गया और बच्चों की पढ़ाई का सिलसिला शुरु हुआ. स्कूल खुला टीवी मिस्त्री मोहम्मद एजाज की छत पर, जहां शुरुवात में 10 बच्चे पढ़ने के लिये आये.
एजाज मुस्कराते हुए बताते हैं- “ आज इस स्कूल में 160 बच्चे हैं. इनमें से अधिकांशत: दाई, रिक्शाचालक, मिस्त्री या ऐसे ही छोटे काम करनेवाले लोगों के बच्चे हैं. स्कूल में नर्सरी, केजी, कक्षा एक व दो तक की पढ़ाई सीबीएस ई पैटर्न में होती है.”
शुरुवात में स्कूल चलाने के लिये 10-10 रुपये का चंदा इकट्ठा किया गया था लेकिन बाद में स्कूल के बाहर ही एक दानपेटी लगा दी गई, जिसमें लोग स्वेच्छा से पैसे डालने लगे. हालांकि स्कूल चलाने के लिये पैसों की तंगी हमेशा बनी रहती है लेकिन इलाके के लोग आश्वस्त हैं कि यह तंगी धीरे-धीरे जरुर दूर हो जाएगी.
बुलंद हौसले
स्कूल की शुरुवात करने वाले टीवी मिस्त्री मो. एजाज, बक्सा मिस्त्री मो. इकबाल, बिजली मिस्त्री मो. इरफान, सरस्वती चौरिया, बीएसएनल में कैजुअल बेसिस पर कार्यरत मो. जावेद, राजमिस्त्री शाहिद आलम जैसे लोगों से आप बात करें तो लगता है कि उन्होंने स्कूल चलाने को एक चुनौती की तरह लिया है. जाहिर है, स्कूल चलाने वालों के हौसले अभिभावकों को भी प्रेरित करते ही हैं.
अपने बच्चे को स्कूल छोड़ने आये मो. आलम कहते हैं- “हमारे बच्चे भी पैसेवालों के बच्चों की तरह कुछ बड़ा काम करें. हालांकि स्कूल के पास फंड की कमी है पर हम आधे पेट खाकर भी इसे बंद नहीं होने देंगे.”
यहां पढऩे के लिए आने वाले बच्चों का उत्साह भी देखते ही बनता है. वे जानते है कि चार पंक्तियों में चार कक्षाएं लगती हैं. ऐसे में वे खुद ही इतने अनुशासित हो गये हैं कि पहली पंक्ति वाले बच्चे दूसरी पंक्ति वाले बच्चे की ओर पीठ करके बैठते है ताकि आवाज ज्यादा न गूंजे और कोई परेशानी न हो.
सबसे अलग
अपनी ही कक्षा के दूसरे साथियों को ब्लैकबोर्ड पर पहाड़े और गिनती का सबक याद कराकर आया एक बच्चा कहता है- “ सरकारी स्कूल से तो यह अच्छा है. कम से कम होमवर्क तो मिलता है. रोज स्कूल न आने पर टीचर की डांट का डर भी रहता है.”
वैसे यह डर स्वाभाविक भी है क्योंकि स्कूल के बाद कभी-कभार स्कूल के टीचर या संचालक बच्चों के घर तक पहुंच जाते हैं. यह देखने कि उनके इस अनोखे स्कूल का विद्यार्थी आखिर कर क्या रहा है !यहां पढ़ने वाले बच्चे सुविधाओं से कहीं अधिक अनुशासनात्मक और गुणात्मक शिक्षा को महत्व देते हैं. ऐसे में इनके सपनों को पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता.
12 वर्षीय शगुफ्ता परवीन कक्षा दो में पढ़ती हैं. शगुफ्ता बताती हैं –“ पहले सरकारी स्कूल में मैं पांचवीं की छात्रा थी, पर मैं न एक पंक्ति पढ़ पाती थी न लिख पाती थी. सरकारी स्कूल में जाकर बस बोर्ड से देखकर नकल उतारती थी. पर यहां के बच्चों को अंग्रेजी बोलते देखकर मैंने अपना नामांकन यहां करा लिया और आज मैं भी अंग्रजी में कुछ-कुछ बोल पाती हूं.”
15 वर्षीय कक्षा दो की छात्रा हिना शरमाते हुये बताती हैं- “ मेरे घरवालों ने तो अब तक मेरी शादी कर दी होती, यदि दो साल पहले एजाज सर मेरे घरवालों को समझाकर यहां पढ़ाई के लिये प्रेरित नहीं करते.”
अभिभावक भी मानते हैं कि इस स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे दूसरों से अलग हैं. शगुफ्ता के तीन बच्चे सरकारी स्कूल में और तीन इस स्कूल में पढ़ते हैं. वे बताती हैं कि सरकारी स्कूल में हर दिन बच्चों को खाना मिलता है और महीने के सौ रुपये भी लेकिन वे चाहती हैं कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले उनके बच्चे भी यहीं पढ़ें. वे कहती हैं- “यहां पढ़नेवाले मेरे बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि और प्रेम है. वे मन लगा कर पढ़ते हैं.”
अभिभावकों की खुशी के दूसरे कारण भी हैं. साजिया और मुन्नी के पिता शराब में डूबे रहते थे, पर स्कूल में शराब से होनेवाले नुकसान के बारे में जानकर बच्चों ने अपने अब्बू से पूछा कि अब्बा अगर आप मर गये तो हम कहां जायेंगे. आप शराब मत पीया कीजिए. और यकीन मानिए कि यह बात उन्हें इस कदर छू गयी कि अब वे उसे हाथ तक नहीं लगाते.
स्कूल की शिक्षिका बेनाडेल्ट मिंज कहती है कि इन बच्चों की आंखों में भी डॉक्टर, इंजीनियर और शिक्षक बनने के सपने तैर रहे हैं. वे दृढ़ता के साथ कहती हैं- “यहां पढ़ने वाले बच्चे सुविधाओं से कहीं अधिक अनुशासनात्मक और गुणात्मक शिक्षा को महत्व देते हैं. ऐसे में इनके सपनों को पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता.”
एक औऱ शिक्षिका अंबरी भी मानती हैं कि इस स्कूल के बच्चे बहुत गंभीरता से पढ़ाई कर रहे हैं और उन्हें इस बात का अहसास है कि उन्हें मां-बाप के सपनों को पूरा करना है. ज़ाहिर है, इस बस्ती की प्रार्थनाओं में यह दुआ भी शामिल रहती है कि उपरवाला इस स्कूल को और बुलंदी दे.