
निरुपमा पाठक का ख़त, मां सुधा पाठक के नाम…
पत्र शैली में निरुपमा हत्याकांड से जुड़े पहलुओं को समझने की कोशिश
मेरी प्यारी मां,
तुझे बहुत-बहुत-बहुत सारा प्यार!
मां, परसों मदर्स डे था न। मुझे यहां स्वर्गलोक में जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था मां। सोचा क्यों न पापा की चिट्ठी का जवाब लिखूं, जो दुनिया से विदा होने के पहले उन्होंने मुझे लिखी थी। लेकिन तू तो जानती है न मां कि मैं पापा से ज्यादा बातें नहीं कह पाती। जो कहना होता है, तुमसे ही कहती हूं। तो मदर्स डे के दिन अपने अजन्मे बच्चे के साथ दिन भर यूं ही तुझे याद करती रही और कुछ-कुछ लिखने की कोशिश करती रही।
मां, मुझे अच्छा नहीं लग रहा कि तू मेरे कारण परेशान है और फजीहत झेल रही है लेकिन मैं अब कुछ कर भी तो नहीं सकती न! बहुत दूर हूं मां। अगर करने की स्थिति में होती, तो तुम्हें कष्ट न होने देती। ऐसे भी तुझे पता है न कि मैं अपनी मां पर जान छिड़कती हूं, उसे कितना प्यार करती हूं, यह शब्दों में बयां नहीं कर सकती। तू ही बता न कि अगर मैं मां-पापा से प्यार न करती और भरोसे का कत्ल करना चाहती तो क्यों सिर्फ यह पूछने के लिए दिल्ली से कोडरमा जाती कि क्या मैं प्रिभयांशु से शादी करूं। मां उसके साथ पति-पत्नी के रिश्ते के बीच जितने भी तरह के भाव होते हैं, उन सभी भावों से तो गुजर ही चुकी थी न, सिर्फ एक सामाजिक मान्यता मिलनी बाकी थी।
मां, प्रिभयांशु के साथ मैं एक दोस्त या प्रेमिका की तरह नहीं बल्िक हमसफर की तरह ही रह रही थी। और फिर मुझे आपलोगों के भरोसे का कत्ल करना होता तो मैं अपनी अन्य सहेलियों की तरह कोर्ट में शादी करने के बाद बताती कि मैंने शादी कर ली। तब आपलोगों की मजबूरी होती मां कि अपनी सहमति की मुहर लगाएं। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैं दो वर्षों के प्यार पर जीवन देने वाली मां और पालन करने वाले पिता के प्यार को हल्का नहीं करना चाहती थी। उसका मान कम नहीं करना चाहती थी।
यह भरोसा था मुझे मां कि जब आपलोगों ने झुमरीतिलैया से मुझे पढ़ाई करने के लिए दिल्ली भेजा है, अखबारी दुनिया में नौकरी करने की छूट दी है तो फिर अपने तरीके से, अपनी पसंद के लड़के के साथ जिंदगी भी गुजारने देंगे। मैं कानूनन सब करने में सक्षम थी मां, लेकिन मैं कानून से ज्यादा आपलोगों की कद्र करती थी। आपलोगों पर भरोसा करती थी। इसलिए सहमति की मुहर लगाने कोडरमा पहुंची थी। और सुनो न मां, अब तो दो-दो जिंदगियां बरबाद हो ही चुकी हैं। मैं और मेरी संतान ने दुनिया से अलग कर लिया है खुद को। अब प्रियभांशु को भी बरबाद करने के लिए दांव-पेंच क्यों चले जा रहे हैं मां।
मां, क्या मैं बेवकूफ थी, जो मुझे पता नहीं चल सका था कि मेरे गर्भ में उसका बच्चा पल रहा है? मैं अबॉर्शन करा सकती थी न, लेकिन मैंने नहीं करवाया। मैं और कई उपाय भी अपना सकती थी लेकिन नहीं अपनाये। इसलिए कि मैं प्रिभयांशु को मन से चाहती थी, तो तन देने में भी नहीं हिचकी। मां उसने कोई बलात्कार नहीं किया और न ही संबंध बनाने के बाद मुझे बंधक बनाकर रखा कि नहीं तुझे बच्चे को जन्म देना ही होगा। यह सब मेरी सहमति से ही हुआ होगा न मां, तो उसे क्यों फंसाने पर आमादा है पुलिस। जरा इस बात पर भी सोचना तुम।
हां मां, अब यहां स्वर्गलोक में आ चुकी हूं तो यहां कोई भागदौड़ नहीं। फुर्सत ही फुर्सत है। ऐसी फुर्सत कि वक्त काटे नहीं कट रहा। धरती की तरह जीवन की बहुरंगी झलक नहीं है यहां, जीवन एकाकी और एकरस है। लिखने की आदत भी पड़ गयी है, तो सोच रही हूं कि आज पापा के उस आखिरी खत का जवाब भी दे दूं। पापा से कहना वो मेरे जवाब को मेरी हिमाकत न समझें बल्िक एक विनम्र निवेदन समझेंगे।
उन्होंने अपने पत्र में सनातन धर्म का हवाला दिया है। अब यहां स्वर्गलोक में जब फुर्सत है तो सनातन धर्म के गूढ़ रहस्यों से भी परिचित हो रही हूं। सनातन धर्म के बारे में पापा शायद ज्यादा जानते होंगे मां लेकिन मैं अब सोच रही हूं कि मैंने भी तो उसी धर्म के अनुरूप ही काम किया न। मां, सनातन धर्म ने तो प्रेम पर कभी पाबंदी नहीं लगायी और न ही जातीय बंधन इसमें कभी हावी रहा। देखो ना मां, कृष्ण की ही बात कर करो। जगतपालक विष्णु के अवतार कृष्ण। प्रेम की ऐसी प्रतिमूर्ति बने कि रुक्िमणी को भूल लोग उन्हें राधा के संग ही पूजने लगे। घर-घर में तो पूजते हैं लोग राधा-कृष्ण को। फिर राधा-कृष्ण की तरह रहने की छूट क्यों नहीं देते अपनी बेटियों को? क्या राधा-कृष्ण सिर्फ पूजे जाने के लिए हैं? जीवन में उतारे जाने के लिए नहीं? और यदि जीवन में जो चीजें नहीं उतारी जा सकतीं, उसे वर्जना के दायरे में रखा जाना चाहिए न मां। मां अपने कोडरमा वाले घर में भी राधा-कृष्ण की तस्वीर है, हटा देना उसे सदा-सदा के लिए।
हां मां, पापा से कहना कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की तस्वीर भी फेंक दें, वह भी सनातन धर्म की कसौटी पर पूजे जाने लायक नहीं हैं। याद हैं मां, बचपन से एक भजन मैं सुना करती थी – बाग में जो गयी थी जनक नंदिनी, चारों अंखियां लड़ी की लड़ी रह गयीं। राम देखे सिया और सिया राम को। चारों अंखियां लड़ी की लड़ी रह गयीं… फिर भाव समझाते थे प्रवचनी बाबा कि शिवधनुष तोड़ने से पहले का नजारा है यह। सीता जी फूल तोड़ने बाग में गयी थीं, राम से नैन लड़े तो दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गये। जानती हो मां, इस भजन को याद आने के बाद मैं यह सोच रही हूं कि राम ने भी तो अपने पिता की मर्जी से सीता से शादी की नहीं थी। वह तो गये थे अपने गुरू के साथ ताड़का से रक्षा के लिए लेकिन जब नजरें सीता से मिलीं तो चले गये शिवधनुष तोड़ने। क्या राम को यह नहीं पता था कि धनुष तोड़ने का मतलब होगा शादी कर लेना। फिर क्यों नहीं एक बार उन्होंने अपने पिता दशरथ से यह अनुमति ली। दशरथ को तो बाद में पता चला न मां कि जनक की बेटी से उनका बेटा शादी करने जा रहा है। तो मां, क्या गुरु के जानने से काम चल जाता है। मेरे भी गुरू तो जानते ही थे न। दिल्ली में रहनेवाले सभी गुरु और मित्र इस बात के जानते थे कि मैं प्रिभयांशु से शादी करने जा रही हूं। फिर भी मैंने गुरु के बजाय आपलोगों की सहमति लेना जरूरी समझा। राम की तस्वीर हटा देना मां उन्होंने भी अपने पिता से पूछे बिना अपना ब्याह तय कर लिया था।
मां, पिताजी को माता कुंती की भी याद दिलाना न। सनातनी कुंती की। उन्हें तो कोई कभी कुल्टा नहीं कहता। उन्हें आदर्श क्यों माना जाता है जबकि उन्होंने छह पुत्रों का जन्म पांच अलग-अलग पुरुषों से संबंध बनाकर दिया। और मां कर्ण वह तो विवाह से पहले ही उनके गर्भ से आये थे न। यह तो सनातनी पौराणिक इतिहास ही कहता है न मां। फिर कुंती को कुल्टा क्यों नहीं कहते पापा। पापा की कसौटी पर तो तो वह चरित्रहीन ही कही जानी चाहिए।
और द्रौपदी, मां। कोई द्रौपदी को दोष क्यों नहीं देता। अच्छा जरा ये बताओ तो मां कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, कोई एक स्त्री पांच-पांच पुरुषों के साथ कैसे रह सकती है। लेकिन वो रहती थी और उसे कोई दोष नहीं देता। पापा को कहना कि वह द्रौपदी को भी अच्छी औरतों की श्रेणी में न रखा करें। एक बात कहूं मां, पापा ने शुरुआती दिनों में ही एक गलती कर दी थी। मुझे धर्म प्रवचन की बातें बताकर। उन्होंने ही एक बार बताया था कि इस जगत में ब्रह्मा की पूजा क्यों नहीं होती क्योंकि ब्रह्मा ने अपनी ही मानस पुत्री से शादी कर ली थी। छि: कितने गंदे थे न ब्रह्मा।
और मां, रामचंद्र के वंशजों में तो किसी की तस्वीर घर में नहीं रखना, क्योंकि तुम्हें भी तो पापा ने बताया ही होगा कि धर्म अध्यात्म और सनातनी इतिहास के क्रम में भागीरथी कैसे दुनिया में आये थे। दो महिलाओं के आपसी संबंध से उत्पन्न हुए थे न मां वो। यानी लेस्बियनिज्म की देन थे। बताओ तो सही, भला नैतिक रूप से कहां आये थे वो? मैं भी गंदी थी मां। अनैतिक। इन लोगों की तरह ही अनैतिक। मैं कुतर्क नहीं कर रही और न ही अपने पक्ष में कोई दलील ही दे रही हूं मां। यह सब मन में बातें आयीं तो सोचा तुमसे कह दूं। खैर, एक बात कहूं मां, मुझसे तू चाहे जिंदगी भर नफरत करना, घृणा करना, लेकिन अब छोड़ दो न प्रिभयांशु को। उसने कुछ नहीं किया जबरदस्ती मेरे साथ। मैं बच्ची नहीं थी मां और न ही अनपढ़-गंवार थी। सब मेरी रजामंदी से ही हुआ होगा न मां।
और हां मां, मुझे फिर से धरती पर भेजने की तैयारी चल रही है। मेरे बच्चे को भी फिर से दुनिया में भेजा जाएगा। मैंने तो सोच लिया है कि इस बार अपने नाम के आगे पीछे कोई टाइटल नहीं लगाऊंगी। सीधे-सीधे नाम लिखूंगी। कोई पाठक, तिवारी, यादव, सिंह नहीं। सीधे-सीधे सिर्फ नाम। जैसे कि दशरथ, राम, कृष्ण… इन सबकी तरह। इनके नामों के साथ कहां लिखा हुआ मिलता है कि दशरथ सिंह, राम सिंह, कृष्ण यादव। मां मैं फिर आ रही हूं। इस बार फिर प्यार करुंगी। अपने तरीके से जीने की कोशिश करुंगी। फिर मारी जाऊंगी तो भी परवाह नहीं। पर एक ख्वाहिश है मां, ईश्वर से मेरे लिए दुआ मांगना कि इस बार किसी अनपढ़ के यहां जन्म लूं… जो ज्यादा ज्ञान रखता हो। जो सनातनी हो लेकिन व्यावहारिक सनातनी, सैद्धांतिक नहीं। जो कम से कम अपने संतान को अपने तरीके से जीने की आजादी दे।
बस मां! अभी इतना ही । शेष फिर कभी। तुम अपना ख्याल रखना मां और पापा का भी। भाई-मामा को प्रणाम कहना। जल्दी ही मिलती हूं मां। नाम बदला हो सकता है लेकिन तू गौर करती रहना… तुम मुझे पहचान ही लोगी।
तुम्हारी बेटी
निरुपमा